हाल ही में पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के मद्देनजर, देश के कई हिस्सों में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए हैं, जिनमें कुछ प्रमुख शिक्षण संस्थानों की भागीदारी भी शामिल है। हिंसक विरोध जहाँ स्वत: निंदनीय है, वर्तमान मामले में अधिनियम की प्रकृति और मौजूदा परिस्थितियों का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण एक शांतिपूर्ण आंदोलन के भी प्रतिकूल होगा। मौजूदा विरोध स्पष्ट रूप से निराधार आशंकाओं का परिणाम है जिसे राष्ट्रीय हित के विरुद्ध कार्य कर रहे कुछ निहित स्वार्थी तत्व भड़का रहे हैं। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण ममता बनर्जी द्वारा सीएए पर संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह का आह्वान है!!! तथ्य यह है कि छात्रों का विरोध प्रदर्शन में शामिल होना उच्च शिक्षा के हमारे केंद्रों पर बहुत भरोसा नहीं जगाता। इन छात्रों से कोई कम से कम इतनी अपेक्षा तो करेगा कि सड़कों पर उतरने और बर्बरता करने से पहले वे सीएए की वास्तविकताओं के बारे में बेहतर ढंग से समझेंगे।
दुर्भाग्य से, इन आशंकाओं के निवारण के लिए सरकार द्वारा दिया गया वक्तव्य सफल नहीं हुआ। आंतरिक और विदेश नीति से संबंधित मुद्दों पर धारणा प्रबंधन को संभालने के लिए बहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
संक्षेप में, सीएए पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के तीन इस्लामी देशों से 31 दिसंबर 2014 तक भारत आये अल्पसंख्यक समुदायों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने की संभावना पर विचार करता है। इन अल्पसंख्यकों में हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और इसाई शामिल हैं जो गैर-मुस्लिम होने के कारण इन देशों में उत्पीड़न के निरंतर खतरे के चलते 1947 के बड़े पैमाने पर प्रवासन के बाद भी, वर्षों से थोड़ी-थोड़ी संख्या में भारत आते रहे हैं।
सीएए, जहाँ तक इसके पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों पर लागू होने की बात है, 1947 में कांग्रेस सरकार द्वारा 1947 में यह मानते हुए कि पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश), दोनों में अल्पसंख्यक सुरक्षित रहेंगे, पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों का समय पर प्रवासन सहज बनाने की बजाय उनसे पाकिस्तान में ही रहने का आग्रह करने की गलती को सुधारने के लिए देर से किये गये प्रयास से अधिक नहीं है। कांग्रेस सरकार ने यह आग्रह जून 1947 की शुरुआत में राहत आयुक्त श्री सी.एन. चंद्रा आईसीएस, जो बाद में राहत और पुनर्वास मंत्रालय के सचिव बने, की इस चेतावनी के बावजूद किया कि अगर 15 अगस्त 1947 से पहले पाकिस्तान से अल्पसंख्यकों को बाहर नहीं निकाला गया, तो हम इतिहास में एक अभूतपूर्व त्रासदी के गवाह बनेंगे। यह त्रासदी 1947 में अनुमानित रूप से दस लाख लोगों की मृत्यु और 75 लाख हिंदू एवं सिखों के प्रवासन के रूप में हुई। इन 75 लाख प्रवासन करने वालों में लगभग 50 लाख पश्चिम पाकिस्तान से और शेष तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से थे। जहाँ पश्चिमी पाकिस्तान से हिंदुओं और सिखों का बड़ा हिस्सा 1951 तक बाहर निकाल दिया गया था, वहीं पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से बहुत लंबे समय तक लोग भारत में आते रहे।
प्रारंभ में इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि सीएए को अप्रत्याशित कार्रवाई के रूप अचानक देश पर लागू नहीं किया गया है। नागरिक संशोधन विधेयक, जिस पर सीएए आधारित है, 2016 से सार्वजनिक विचार-क्षेत्र में है और इसे 30 सदस्यीय संसदीय प्रवर समिति द्वारा विधिवत मंजूरी दी गयी थी। बहुत चर्चा, विश्लेषण और उपयुक्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बाद ही इसे 12 दिसंबर 2019 को एक कानून के रूप में लागू किया गया।
सीएए एक सीमित सुसंगत कानून है, जो ऊपर उल्लिखित हमारे तीन इस्लामी पड़ोसियों के उन अल्पसंख्यकों द्वारा भारतीय नागरिकता प्राप्त करने की सुविधा के लिए किया गया है, जिन्होंने 2014 के अंत से पहले भारत में प्रवेश किया था। यह न तो मुसलमानों सहित भारत के नागरिकों को प्रभावित करता है, और न ही यह हमारे तीन इस्लामी पड़ोसियों सहित किसी भी देश के प्रवासियों के भारतीय नागरिक के रूप में पंजीकरण या प्राकृतिककरण के मौजूदा चैनलों को किसी भी तरह से बंद करता है। वास्तव में, पिछले छह वर्षों में 2830 पाकिस्तानी, 912 अफगानी और 172 बांग्लादेशी, जिनमें से कई मुस्लिम थे, को भारतीय नागरिकता दी गयी है। इसके अलावा, 2014 में 14864 बांग्लादेशियों को दोनों देशों के बीच विदेशी अंत:क्षेत्र (एन्क्लेव) के आदान-प्रदान के परिणामस्वरूप भारतीय नागरिकता प्रदान की गयी थी। इसलिए, अधिनियम को कल्पना की किसी सीमा तक से भी मुस्लिम विरोधी नहीं माना जा सकता, जैसा कि इसका विरोध करने वालों जमकर प्रचारित कर रहे हैं।
विपक्ष इसके आगे तर्क देता है कि अधिनियम इस आधार पर असंवैधानिक है कि यह कानून के तहत समानता का प्रवाधना करने वाले अनुच्छेद 14 का, धर्म के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करने वाले अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करता है, और यह देश को अन्य बातों के अलावा धर्मनिरपेक्ष चरित्र प्रदान करने वाली संविधान की मूल संरचना के विरुद्ध है। हमारे अग्रणी कानूनी दिमागों में से एक और भारत के पूर्व महाधिवक्ता श्री हरीश साल्वे ने कई भारतीय टीवी चैनलों को दिये गये साक्षात्कारों की श्रृंखला में इन सभी तर्कों का प्रभावी ढंग से उत्तर दिया है।
उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 14 के संबंध में, न्यायालयों ने स्पष्ट रूप से भेदभावयुक्त प्रावधानों वाले उन कानूनों को अनुमति दी है, जहाँ भेदभाव का एक उचित आधार है। “उचित” से अभिप्राय यह है कि वर्गीकरण तर्कसंगत होना चाहिए न कि मनमाना। इसके न्यायिक निरूपण परीक्षण के लिए निम्न दो शर्तों को पूरा करने की आवश्यकता है : -
श्री साल्वे का तर्क है कि अधिनियम इस परीक्षण को पूरा करता है क्योंकि यह एक समझदार भिन्नता के आधार पर एक उचित वर्गीकरण बनाता है जिसमें इसके उद्देश्यों के साथ एक संबंध है। इसी तरह, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने 21 दिसंबर 2019 को द हिंदू में “नागरिकता अधिनियम की अपरिपक्व समाप्ति” नामक एक लेख में कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने “कानून के समक्ष समानता केवल उनके लिए है जो समान स्तर पर हैं” और “धार्मिक उत्पीड़न के मुद्दे पर, पाकिस्तान के मुसलमान आदि उन देशों में अल्पसंख्यकों के समान स्तर पर नहीं है” के मुद्दे पर बार-बार स्पष्ट किया है।
अनुच्छेद 15 पर श्री साल्वे बताते हैं कि यह भारत के केवल उन नागरिकों के लिए लागू है, जो यहाँ के निवासियों से अलग हैं। अंतत:, अधिनियम के संविधान की मूल संरचना और विशेष रूप से धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ होने पर वे तर्क देते हैं कि ये अवधारणाएँ अस्पष्ट हैं और संविधान में इसके लिए कोई सटीक सूत्र नहीं हैं। इस प्रकार, प्रथम दृष्टया, सीएए के असंवैधानिक होने का दावा किया जाना बुरी नीयत को दर्शाता है।
हालाँकि, अगर कोई मानता है कि सीएए के असंवैधानिक होने के विपक्ष के दावों में कुछ योग्यता है, तो भी इसके खिलाफ हिंसक आंदोलन पूरी तरह से अनावश्यक हैं क्योंकि आने वाले दिनों में न्यायालयों में इसका परीक्षण किया जाना है। इस परिप्रेक्ष्य में, विधेयक के खिलाफ सड़कों पर उतरना अवांछित है और यह केवल राजनीतिक बढ़त पाने का एक प्रयास है। यह आशा की जानी चाहिए कि सरकार आंदोलन को उकसाने वालों के साथ ही साथ सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठायेगी। वास्तव में, उनके लिए राज्य को नुकसान की भरपाई करना आवश्यक होना चाहिए। हालांकि, छात्रों सहित सभी को शांतिपूर्ण विरोध का समान रूप से अधिकार है, लेकिन जब इस तरह के विरोध प्रदर्शन हिंसक होकर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाते हैं और पुलिस पर हमले करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से उन्हें सख्ती से रोका जाना चाहिए। विशेष रूप से, जैसा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने आंदोलनकारी छात्रों के संबंध में टिप्पणी की कि, उनके छात्र होने का “यह मतलब नहीं है कि वे कानून और व्यवस्था को अपने हाथों में ले सकते हैं।“ वास्तव में, जैसा कि 22 दिसंबर 2019 के संडे गार्जियन के एक लेख में श्री विवेक गुमास्ते ने कहा था, “सड़कों के किनारे उपद्रव का तमाशा करने की बजाय, अध्ययन केंद्रों के रूप में, विश्वविद्यालयों में सीएए पर विद्वतापूर्ण बहस आयोजित करना बेहतर होगा।“
सीएए की संवैधानिकता के बारे में आपत्तियों के अलावा, विपक्ष ने यह तर्क भी दिया है कि इसके परिणामस्वरूप भारत में रहने वालों, जो प्रस्तावित देशव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) में पंजीकृत नहीं होते, के साथ भिन्न रूप से बर्ताव किया जायेगा। जबकि बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों, जो 2014 के अंत से पहले भारत में प्रवेश कर चुके हैं, को आसानी से भारतीय नागरिकता मिल जायेगी और इस तरह उन्हें एनआरसी में शामिल किये जाने की संभावना है, इन देशों से आये मुसलमान इस संभावना से वंचित होंगे और उन्हें एनआरसी में जगह नहीं मिलेगी। हाल ही में असम में की गयी अत्यधिक त्रुटिपूर्ण नागरिकता पंजीकरण कवायद के अनुभव को सामने रखते हुए विपक्ष ने आगे तर्क दिया है कि एनआरसी में शामिल होना चाहने वाले लोगों के लिए दुष्कर आवश्यकताओं का पूरा बोझ भारत में मुस्लिम समुदाय पर पड़ेगा और इस तरह सीएए नागरिकता के लिए एक धार्मिक परीक्षण को प्रारंभ करता है।
इस तथ्य से कोई इनकार नहीं है कि सीएए के परिणामस्वरूप, 2014 के अंत से पहले भारत में प्रवेश करने वाले हमारे तीन इस्लामिक पड़ोसियों के अल्पसंख्यकों को इन देशों से आये मुसलमानों की तुलना में देशव्यापी एनआरसी में शामिल होने के लिए अधिमान्य व्यवहार प्राप्त होगा। हालाँकि, चूंकि ये मुसलमान भारतीय नागरिक नहीं हैं और भारत में महज अवैध प्रवासी हैं, इसलिए इसका किसी भी भारतीय, मुस्लिम या अन्य से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। यह चिंता कि, भारत के वास्तविक मुस्लिम नागरिकों को देशव्यापी एनआरसी में प्रवेश के लिए दुष्कर आवश्यकताओं का पूरा भार झेलना होगा, अधिक न्यायसंगत है, लेकिन केवल तभी जब रजिस्टर को संकलित करने की प्रक्रिया असम में उपयोग की गयी अत्यधिक त्रुटिपूर्ण तरीके से हो। इस संदर्भ में, यह गौर किया जा सकता है कि देशव्यापी एनआरसी को शुरू करने की कवायद अभी बाकी है और इसके लिए अपेक्षित नियम और कानून बनाये जाने अभी बाकी हैं। इसके अलावा, यह मानना अनुचित नहीं होगा कि अधिकारियों ने असम में हुई गलतियों से सीखा होगा और प्रस्तावित एनआरसी को विकसित करने के लिए वे बहुत सरल, व्यावहारिक और अधिक प्रभावी प्रक्रिया के साथ आयेंगे जो न केवल वस्तुतः त्रुटिमुक्त होगा बल्कि जो देश के वास्तविक नागरिक हैं, उन्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। जहाँ सरकार को, अपनी ओर से, इस प्रक्रिया को विपक्ष सहित विभिन्न हितधारकों के परामर्श से, पारदर्शिता के साथ विकसित करने की आवश्यकता है और विपक्ष को, अपनी ओर से, प्रस्तावित कवायद पर कीचड़ उछालने की बजाय ठोस और रचनात्मक सुझावों के साथ आना चाहिए ताकि प्रस्तावित एनआरसी का निर्माण प्रभावी और पीड़ारहित तरीके से किया जा सके। यह राष्ट्रीय हित का मुद्दा है और इसे सफल बनाने के लिए सभी हितधारकों का एकजुट होना आवश्यक है।
यह ध्यान देने की जरूरत है कि भारत को अवैध प्रवासन पर अंकुश लगाने के साधन के रूप में एनआरसी की सख्त जरूरत है और समय-समय पर इसे बनाये जाने का सुझाव दिया गया है। उदाहरण के लिए, कारगिल संघर्ष के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा को इसकी संपूर्णता में देखने के लिए गठित मंत्रियों के समूह (जीओएम) ने भारत में रहने वाले सभी नागरिकों अनिवार्य रूप से बहुउद्देशीय राष्ट्रीय पहचान पत्र और और गैर-नागरिकों को अलग रंग और डिजाइन वाले कार्ड दिये जाने की सिफारिश की थी। इसके अलावा विदेशियों के लिए वर्क परमिट शुरू करने की सिफारिश की गयी थी। सरकार ने इन सिफारिशों को 2001 में स्वीकार किया था और इसके बाद 2004 में धारा 14 ए को सम्मिलित करके नागरिकता अधिनियम 1955 को संशोधित किया गया था, जिससे केंद्र सरकार को भारत के प्रत्येक नागरिक को अनिवार्य रूप से पंजीकृत करने और उन्हें एक राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने की अनुमति मिली थी। दुर्भाग्य से, विदेशियों को वर्क परमिट जारी करने की जीओएम सिफारिश को लागू नहीं किया गया। यह उम्मीद है कि इस सिफारिश पर पुनर्विचार किया गया है क्योंकि अवैध प्रवासी, जिनमें मुख्य रूप से बांग्लादेशी है, घोषित किये जाने की संभावना वाले लाखों लोगों को निर्वासित करना असंभव है। इन सबसे बढ़कर यह कि, यह न केवल एनआरसी में सम्मिलित न हो पाने वाले लोगों में प्रत्यर्पण या शिविरों में रखे जाने की आशंकाओं को दूर करेगा, बल्कि बांग्लादेश के इस डर को भी दूर करेगा कि हम उसे वहाँ से पलायन कर यहाँ आये लोगों को वापस लेने का दबाव बनायेंगे।
जहाँ सीएए के खिलाफ देश में अधिकांश आंदोलन इसकी संवैधानिकता और धार्मिक कारक के मुद्दों से प्रेरित रही है, वहीं पूर्वोत्तर में इस आशंका से प्रेरित है कि यह इस क्षेत्र में अवैध प्रवासियों के एक बड़े हिस्से को भारतीय नागरिकता प्राप्त करने की अनुमति देगा। उदाहरण के लिए, अनौपचारिक अनुमानों के अनुसार, असम एनआरसी प्रक्रिया के दौरान पाये गये 19 लाख अवैध प्रवासियों में से लगभग 11 लाख हिंदू ऐसे हैं जो सीएए के अनुसार भारतीय नागरिकता के हकदार होंगे। पूर्वोत्तर के कई लोग इस बात से नाखुश हैं कि उन्हें लगता है कि ये अवैध हिंदू प्रवासी भारतीय नागरिक बन सकते हैं, जिससे वे प्रत्यर्पित किये जाने की बजाय, असम में बने रहेंगे। उन्हें यह भी डर है कि सीएए क्षेत्र में प्रवास को और प्रोत्साहित करेगा। हालांकि, कुछ लोगों को इनमें से कुछ भावनाओं के साथ सहानुभूति हो सकती है, लेकिन तथ्य यह है कि असम एनआरसी खारिज कर दिया गया है और केवल देशव्यापी एनआरसी ही निर्धारित करेगा कि कौन भारत का नागरिक है और कौन अवैध प्रवासी है। संविधान की छठी अनुसूची और इनर लाइन परमिट सिस्टम में सम्मिलित किये गये पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में रहने वाले प्रवासी भारतीय नागरिकता के पात्र नहीं होंगे। यह कहना कि सीएए हिंदी प्रवासियों को और प्रोत्साहन देता है, गलत है क्योंकि यह केवल उन लोगों पर लागू होता है जो 2014 के अंत तक भारत आये थे। इस प्रकार पूर्वोत्तर में विरोध वास्तव में न्यायसंगत नहीं हैं और भावना से अधिक प्रेरित है। इसके अलावा, अवैध प्रवासियों का प्रत्यर्पण व्यावहारिक प्रस्ताव नहीं है। एकमात्र व्यवहार्य विकल्प नागरिकों और अवैध प्रवासियों की प्रभावी पहचान करने के साथ अवैध प्रवासियों को पाँच साल की सीमित अवधि के लिए वर्क परमिट के आधार पर देश में रहने की अनुमति दिया जाना है।
सीएए और एनआरसी के फायदों को टिकाऊ बनाने के लिए भारत को एक शरणार्थी नीति विकसित करने की सलाह दी गयी होगी। यह 2014 के बाद की अवधि में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से अल्पसंख्यकों के प्रवास के लिए हमारे दरवाजे खुले रखने के साधन के रूप में अधिक आवश्यक है। वास्तव में, कोई यह तर्क दे सकता है कि सीएए और प्रस्तावित देशव्यापी एनआरसी के परिणामस्वरूप, विदेश और घरेलू, दोनों मोर्चों पर भारत ने जितनी आलोचना झेली है, उनसे बचा जा सकता था यदि हमारे पास एक अच्छी तरह से तैयार की गयी शरणार्थी नीति होती। हम निश्चित रूप से बांग्लादेश और अफगानिस्तान को नाराज़ करने से बचेंगे जिन पर हमने बार-बार अल्पसंख्यकों को उत्पीड़ित करने का आरोप लगाया है। हालांकि हमने स्पष्ट किया है कि इस तरह के उत्पीड़न पिछले शासन द्वारा किये गये थे, कोई भी देश स्वयं को दमनकारी के रूप में लेबल किया जाना पसंद नहीं करता है।
हमारी नैतिकता, परंपराओं और प्रथाओं को देखते हुए यह आश्चर्यजनक है कि हमने अभी तक एक शरणार्थी नीति विकसित नहीं की है। यह सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत दुर्बल लोकतंत्रों से घिरा हुआ है जहाँ से उत्पीड़न के कारण लोगों के झुंड के हमेशा पहुँचने की संभावना है।
राष्ट्रीय शरणार्थी कानून विकसित करने के लिए मजबूत आधार है क्योंकि इसकी अनुपस्थिति में प्रत्येक शरणार्थी से अलग बर्ताव होता है और तदर्थ तरीके से निर्धारित किया जाता है। वास्तव में, भारत को शरणार्थियों की स्थिति पर यूएन कन्वेंशन, 1951 और इसके संबंधित 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षरकर्ता बनना चाहिए, जिस पर 140 से अधिक देशों ने हस्ताक्षर किये हैं, क्योंकि यह एक बहुत बड़ी प्रवासी आबादी का मेजबान है और गैर-शोधन सिद्धांत समेत शरणार्थियों के साथ बर्ताव में उच्चतम मानकों का पालन करता है। संयोगवश, भारत 90 के दशक के मध्य से शरणार्थी उच्चायोग की कार्यकारी समिति का सदस्य रहा है।
राष्ट्रीय शरणार्थी नीति से मिलने वाले कुछ फायदे निम्नानुसार सूचीबद्ध किये जा सकते हैं :
समझा जाता है कि 2010 में मसौदा शरणार्थी कानून पर विचार किया गया था, लेकिन इसे बांग्लादेश से आर्थिक प्रवासियों की नये प्रवाह को प्रोत्साहन मिलने, राष्ट्रीय पहचान दस्तावेजों के न होने, अपर्याप्त सीमा नियंत्रण आदि जैसे सारहीन विचारों के कारण ठुकरा दिया गया था। बांग्लादेश से नये आर्थिक प्रवासियों की संभावना नहीं है क्योंकि वहाँ आर्थिक स्थितियाँ अब बहुत बेहतर हैं, भारतीय पहचान दस्तावेज की स्थिति में भी सुधार हुआ है और सीमा नियंत्रण, जो अभी वैसी नहीं है, जैसी होनी चाहिए भी नहीं, को बांग्लादेश के साथ हमारी सीमा का निर्धारण करके तेजी से अनुकूलित किया जा सकता है।
इन परिस्थितियों में, एक व्यापक शरणार्थी कानून विकसित करने की आवश्यकता है, जो उत्पीड़ित लोगों के भारत में नियंत्रित प्रवास को सक्षम करके राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में नहीं पड़ने देगा और प्रवासियों को घर लौटने तक सुरक्षा और सम्मान के साथ भारत में रहने में सक्षम बनायेगा।
Post new comment