एशियाई भूराजनीति में चीन का प्रभावः भारत के लिए निहितार्थ
Arvind Gupta, Director, VIF

शी चिनफिंग के शब्दों में चीन ‘बंधुत्व, परस्पर विश्वास एवं समावेशन’ के आधार पर प्रमुख देखों के साथ संबंधों का एक ‘नया मॉडल’ यानी नवीन प्रतिरूप बना रहा है जिसमें पड़ोसी देशों के साथ संबंध बनाने की एक नीति भी तैयारी की जा रही है।

भूराजनीतिक रूप से कहें तो चीन एशिया प्रशांत क्षेत्र में स्थित एक देश है। उसके 22 पड़ोसी देश हैं। अपनी बहुआयामी विदेश एवं सामरिक नीति के आधार पर व्यापक अर्थों में उसे एशिया में एक बड़ी ताकत के रूप में देखा जाता है। चीन एशिया और एशिया प्रशांत के सभी क्षेत्रों में अपने संबंधों का विस्तार कर रहा है। इन क्षेत्रों में दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और यूरेशिया प्रमुख हैं। सामुद्रिक मोर्चे पर चीन एशिया-प्रशांत के परे भी अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। इस प्रकार चीन की नीति भूमंडलीय एवं सामुद्रिक दोनों मोर्चों को एक साथ साधने की है। वास्तव में वे एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) शी चिनफिंग की ऐसी ही एक महत्वाकांक्षी योजना है जिसका मकसद एशिया और उससे परे क्षेत्रों में भी चीन के प्रभाव में विस्तार करना है।

भारत भी एशिया का एक बड़ा देश है जिसकी चीन के साथ 4,000 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है और उसका भी अभी तक सीमांकन नहीं हुआ है। यह भारत-चीन संबंधों की राह में और बड़ा अवरोध खड़ा करता है। जम्मू-कश्मीर के भारतीय क्षेत्र से गुजरने वाले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के भारत के लिए गहरे राजनीतिक एवं सामरिक निहितार्थ हैं। बीआरआई के माध्यम से चीन को भारत के एकदम पड़ोस में भी अपने पैर पसारने का अवसर मिल जाएगा। चीन बीआरआई को ‘सबकी भलाई वाला’ बताता है, लेकिन वास्तविकता इसके एकदम उलट है जहां अधिक से अधिक देश स्वयं को उसके कर्ज के जाल में फंसा हुआ पा रहे हैं। बीआरआई ने चीन को एआईआईबी और सिल्क रोड फंड जैसे नए संस्थान बनाने की ओर उन्मुख किया ताकि चीन के पड़ोसी एवं अन्य देशों के साथ जुड़ाव के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध करा सके। बीआरआई परियोजना सफल होती है या नहीं, लेकिन भारत इससे अवश्य प्रभावित होगा। इससे भारत के पड़ोसी देश चीन पर असहज करने वाली निर्भरता के मकड़जाल में फंस सकते हैं।

बीआरआई के सुरक्षा निहितार्थ बहुत अधिक हैं। जहां तक सीपीईसी की बात है तो उसने चीन की मौजूदगी को भारत को बहुत करीब तक ला दिया है। फिर चाहे इसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) हो या फिर सर क्रीक का इलाका। बीआरआई से जुड़ी परिसंपत्तियों की सुरक्षा के लिए पाकिस्तान में एक नए सुरक्षा बल का गठन भी हुआ है। इससे सीमा प्रबंधन और मुश्किल हो जाएगा। ग्वादर में चीनी नौसैनिक अड्डे के निहितार्थ एकदम स्पष्ट हैं। कुछ ही वर्षों के भीरत चीनी पनडुब्बियां बंगाल की खाड़ी और श्रीलंका में नजर आने लगी हैं। हिंद महासागर के जिबूती में स्थित चीनी नौसैनिक अड्डा भी भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर चिंता का विषय है। ओमान के दुकुम में भी चीन अपनी पैठ बढ़ाने में जुटा है।

चीन ने दक्षिण चीन सागर के विवादित द्वीपों पर कब्जा किया हुआ है और वहां अपने सैन्य अड्डे स्थापित कर रहा है। इस मामले में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में अपने खिलाफ आए फैसले की उसने अवहेलना ही की है। उसका यह रवैया उसके अड़ियल रुख को ही दर्शाता है। चीन और आसियान देशों के बीच जारी आचार संहिता वार्ता में भी एकतरफा परिणाम आने की ही अधिक संभावना हैं, क्योंकि दक्षिण चीन सागर में यथास्थिति चीन के पक्ष में झुकी हुई है। आसियान में चीन की गहरी पैठ आसियान देशों के साथ भारत के संबंधों और भारतीय आर्थिक हितों को बुरी तरह प्रभावित करेगी।

भारतीय उद्यमों में प्रतिस्पर्धा की कमी को देखते हुए आरसीईपी से भारत के अलग रहने का निर्णय न्यायसंगत लगता है। फिर भी भारत की एक्ट ईस्ट नीति पर इसका दीर्घावधिक प्रभाव हो सकता है। इससे आसियान में चीन को अपने पंख पसारने का और अधिक अवसर मिल जाएगा। भारत ने आरसीईपी से खुद को दूर रखने का जो निर्णय किया है उससे भारत की पूर्वी एशियाई क्षेत्र में संतुलन प्रदान करने की संभावनाओं को झटका लगेगा।

चीन की अनिच्छा और हिचक के बावजूद भारत शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) में शामिल हुआ। एससीओ में चीन का भारी प्रभुत्व है। भारत एवं मध्य एशिया के बीच संपर्क की कड़ी का अभाव भी एससीओ में भारतीय संभावनाओं को सीमित करता है। इस प्रकार एससीओ में भारत की सक्रियता आतंकवाद विरोधी मुद्दों से जुड़े सहयोग पर ही केंद्रित रहने का अनुमान है। वहीं चीन के समर्थन से इसमें पाकिस्तान का जुड़ाव और उसकी मौजूदगी से भी यह सुनिश्चित होगा कि पाकिस्तान पर जिस किस्म के दबाव की आवश्यकता होगी, वह संभव नहीं हो सकेगा।
यूरेशियाई एकीकरण के लिए रूस अपना एजेंडा आगे बढ़ा रहा है। मगर वह चीन के साथ आर्थिक जुड़ाव किए बिना आगे नहीं बढ़ सकता। हालांकि यूरेशिया में चीन के बढ़ते प्रभुत्व और रूस-चीन साझेदारी में रूस के कनिष्ठ दर्जे को लेकर रूस में चिंताएं जताई जा रही हैं, लेकिन रूस के पास चीन के लिए ऊर्जा एवं अन्य प्राथमिक संसाधनों की आपूर्ति के अलावा और कोई विकल्प नहीं। इसके लिए साइबेरिया में पाइपलाइन का उद्घघाटन हुआ जो अगले तीस वर्षों के दौरान चीन को एक ट्रिलियन क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस आपूर्ति करेगी। रूस विभिन्न स्तरों पर भी चीन के साथ अपना सुरक्षा सहयोग बढ़ा रहा है। पश्चिमी देशों द्वारा किनारे किया जा रहा रूस चीन के चंगुल में फंसता जा रहा है। खुद रूस के लिए इसके बड़े दीर्घावधिक दुष्प्रभाव होंगे। रूस-भारत-चीन त्रिपक्षीय समीकरणों में जो दो दशकों से चले आ रहे हैं, उसमें रूस-चीन का पक्ष ही मजबूत है। यहां तक कि ब्रिक्स जैसे मंच पर रूस और चीन का ही दबदबा है।

अपनी तेल आपूर्ति की जरूरतों के लिहाज से पश्चिम एशिया भारत और चीन दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। निवेश, व्यापार और कूटनीति के माध्यम से चीन मध्य पूर्व में अपने लिए जगह बनाने में सफल रहा है। अरब देश उसकी बीआरआई परियोजना का पूर्ण समर्थन कर रहे हैं। चीन इस क्षेत्र में भरोसेमंद साथी माना जा रहा है। इसके उलट यहां अमेरिकी विश्वसनीयता को लेकर बहुत संदेह किए जा रहे हैं।

बहरहाल भारत ने भी इस क्षेत्र के प्रमुख देशों के साथ अपने संबंधों में भारी सुधार किया है, लेकिन चीन के निवेश एवं व्यापारिक संबंध गहरे हैं। चीन ईरान में भी विशेषकर चाबहार में अपने लिए राह बना रहा है। ईरान में रेलवे से जुड़ा बुनियादी ढांचा विकसित करने में वह भारत से आगे है। भारत अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण व्यापार गलियारे (आईएनसीटीसी), चाबहार बंदरगाह की पूरी संभावनाएं भुनाने में नाकाम रहा है और चाबहार को जाहेदान से जोड़ने में रेलव लाइन के विकास में भी उसने कुछ ही कदम उठाए हैं। ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते भारत को ईरान से तेल की खरीद भी घटानी पड़ी है। भारत के लिए एक ओर ईरान और दूसरी ओर सऊदी अरब के साथ संतुलन साधने में लगातार मुश्किलें बढ़ेंगी। चीन इस मामले में ज्यादा सफल रहा तो मुख्य रूप से अपनी उसी क्षमता के कारण कि वह अमेरिका का सामना करने की स्थिति में है।

चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध भारत के लए फायदेमंद साबित हो सकता है। तमाम अमेरिकी और अन्य देशों की कंपनियां निवेश के लिए वैकल्पिक बाजारों एवं ठिकानों की तलाश कर रही हैं। इसका लाभ उठाने के लिए भारत को त्वरित कदम उठाते हुए स्वयं को एक आकर्षक केंद्र के रूप में प्रस्तुत करना होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती इस दिशा में एक झटका है।
कुल मिलाकर चीन के उदय को देखते हुए भारत के समक्ष बढ़ती चुनौतियों का सार इन बिंदुओं से समझा जा सकता है।

  • भारत और चीन के बीच बढ़ता असंतुलन सीमाओं के मसले पर भारत के पक्ष को कमजोर करेगा।
  • भारत की कीमत पर चीन दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है।
  • सीपीईसी, ग्वादर और जिबूती आदि में चीनी नौसैनिक अड्डों से भारत के लिए सुरक्षा खतरे।
  • हिंद महासागर के विभिन्न देशों में बंदरगाह बनाने और उनके नियंत्रण को लेकर चीन की बढ़ती गतिविधियां।
  • हिंद महासागर में चीन की बढ़ती सैन्य मौजूदगी।
  • तकनीकी मोर्चे पर चीन की बढ़त विशेषकर संचार (5जी) के क्षेत्र में हुआवे जैसी कंपनी से वह क्षेत्र के उन देशों में भी पैठ बनाने में सक्षम है जहां भारत के भी व्यापक हित जुड़े हुए हैं।
  • भारत के पड़ोसियों को अपने पाले में खींचने के लिए चीन ने अपनी अंतरिक्ष क्षमताओं का भी उपयोग किया है।
  • भारत के पड़ोसी चीन एवं भारत के बीच प्रतिद्वंद्विता एवं प्रतिस्पर्धा के चलते अधिकतम लाभ उठाने की नीति अपनाए हुए हैं।
  • शिक्षा के क्षेत्र में चीन की बढ़ती क्षमताएं भारी तादाद में भारतीय एवं दक्षिण एशियाई छात्रों को आकर्षित कर रही हैं।
  • दक्षिण पूर्व एशिया में चीन का प्रभुत्व भारत की एक्ट ईस्ट नीति पर प्रभाव डालेगा।

ऐसी स्थिति में भारत को क्या करना चाहिए?

भारत कई कदम उठा सकता है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैः

  1. चीन के साथ बिना किसी टकराव के कामकाजी संबध बहाल रखे जाएं। साथ ही साथ वह बीआरआई और सीमा (डोकलाम जैसे मामले) के मसले पर सख्त रुख अपनाए रहे। यह नीति कायम रहनी चाहिए। चीन को भारत का रुख स्पष्ट होना चाहिए।
  2. भारत ने क्वाड को बढ़ावा दिया है। यह सहयोग जारी रहना चाहिए।
  3. भारत को अपनी एक्ट ईस्ट नीति को और धार देनी चाहिए। साथ ही आरसीईपी में शामिल होने का विकल्प भी खुला रखना चाहिए।
  4. भारत को रूस के साथ भी अपने संबंध और सुदृढ़ करने चाहिए। यूरेशिया परियोजना में उसका साझेदार बनना चाहिए। भारत की एक्ट फार ईस्ट नीति अविलंब अमल में लाई जानी चाहिए।
  5. भारत के पास अपार सॉफ्ट पावर है जो कई तरीके से चीन के प्रभाव की काट बन सकती है। सभ्यता, संस्कृति और धर्म जैसी कड़ियों को जोड़ने से भारत को इस मोर्चे पर बढ़त हासिल है।
  6. भारत शिक्षा, स्वास्थ्य एवं पर्यटन जैसे क्षेत्रों में एशिया का गढ़ बन सकता है। इन क्षेत्रों को विकसित किया जाना चाहिए।
  7. भारत को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, शोध एवं विकास के अलावा नवचार के क्षेत्र पर आवश्यक रूप से ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इन क्षेत्रों में निवेश भारत की क्षमताएं बढ़ाकर उसे चीन का मुकाबला करने में सक्षम बनाएगा।

Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: http://cdn.ipsnews.net/Library/2018/02/china2.jpg

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