कश्मीरी आतंकियों की नई नस्ल
Bashir Assad

कश्मीर में आतंकवाद के मौजूदा दौर के पीछे विचारधारा की मजबूत बुनियाद है। यह 1990 के दशक की विचारधारा से एकदम अलग है। आतंकवाद के इस दौर को जरूरत वैचारिक खुराक वहाबी और मौदूदी पंथों से निकलने वाले इस्लामी धर्मज्ञान से मिलती है। उस लिहाज से यह दुनिया भर में फैले जिहादी आंदोलनों से अलग नहीं है। वैचारिक नतीजे भी उसी तरह के हैं।

कश्मीर का आतंकवाद वैश्विक जिहादी आंदोलन से अलग इसलिए है क्योंकि वहां के आंतकवादी संगठन या व्यवस्था के लिहाज से इस्लामी वैश्विक जिहादियों से जुड़े नहीं हैं। इनकी डोर अब भी पाकिस्तान में सरकार पर नियंत्रण करने वाले तत्वों के हाथ ही है। अंसार गज़वत-उल हिंद नाम का छोटा सा गुट अल कायदा से जुड़ा है, लेकिन उसके अलावा कश्मीर के सभी आतंकी गुट सीधे पाकिस्तानी आकाओं के काबू में ही हैं। मगर उनकी वैचारिक बुनियाद भी दूसरे वैश्विक जिहादी संगठनों की ही तरह घातक है। कश्मीरी आतंकियों को फिदायीन (आत्मघाती) हमलों का वैसा ही प्रशिक्षण दिया जाता है, जैसा दूसरी विदेशी इस्लामी जिहादियों को मिलता है।

14 फरवरी का पुलवामा हमला और 24 मार्च का असफल बनिहाल हमला कश्मीरी आतंकियों की ही करतूत थी। खुफिया सूचनाओं से पता चलता है कि कश्मीर में ऐसे कई आतंकी हैं, जिन्हें फिदायीन हमलों का प्रशिक्षण मिला है। इसलिए कश्मीर में आतंकवाद का यह दौर पिछले दौर के मुकाबले अधिक घातक है।

कश्मीर के आतंकी किसी भी गुट से जुड़े हों, वे संख्या बल का खेल खेल रहे हैं। 2010 से ही देखा गया है कि कश्मीर में काम कर रहे आतंकी संगठन हर समय 200 से 250 सक्रिय आंतकियों को वहां रखते ही हैं। खुफिया अधिकारियों के मुताबिक यह आंतकी संगठनों की सोची-समझी चाल है। पिछले कुछ साल में भारत ने नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर निगरानी बढ़ा दी है, जिससे घुसपैठ करना मुश्किल हो गया है। इस समय अंतरराष्ट्रीय सीमा पर दूसरी ओर से अपराधियों की घुसपैठ कम हो रही है और घाटी में हथियार ज्यादा भेजे जा रहे हैं।
कश्मीर में आतंकवादियों की मौजूदा नस्ल को सीमा पार से प्रेरणा हासिल करने की जरूरत नहीं होती। चरमपंथी और जानलेवा इस्लामी विचारधारा ने उन्हें हिंसा के मामले में कट्टर बना दिया है। इस नस्ल को बने रहने के लिए केवल विशेषज्ञता और हथियारों की जरूरत है। सीमा पार से हथियारों की तस्करी उनके लिए बड़ी चुनौती है। इसीलिए कश्मीर में सक्रिय आतंकी गुट जानबूझकर आतंकियों की संख्या 200 से 250 के बीच ही रखते हैं। 2017 में करीब 200 आतंकी सुरक्षा बलों के हाथ मारे गए थे। साल के आखिर में कश्मीर में सक्रिय आतंकियों की संख्या एक बार फिर 250 के करीब हो गई। इसी तरह 2018 में करीब 260 आतंकी मारे गए। 2018 के अंत में सक्रिय आतंकी फिर 250 के करीब हो गए। करीब एक दशक से यही देखा जा रहा है। 2010 में सुरक्षा बलों के विभिन्न अभियानों में करीब 270 आतंकी मारे गए। उस साल के अंत में सक्रिय आतंकियों की संख्या करीब 230 थी।

धन का मामला भी है। हवाला के रास्ते कमोबेश बंद कर दिए गए हैं और रकम की आवक कम हो गई है। 2017 में इंडिया टुडे के एक स्टिंग ऑपरेशन में वरिष्ठ अलगाववादी नेता नईम खान ने कबूल किया था कि 2016 का आंदोलन चलाने में करीब 450 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। अनुमान है कि उससे पहले पाकिस्तान और अरब देशों से हवाला के जरिये कश्मीर में हर साल 300 करोड़ रुपये भेजे जाते थे। यह रकम अलगाववादी नेताओं, कुछ ट्रस्ट और गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के पास पहुंचती थी। राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी की हालिया कार्रवाई के बाद कश्मीर में आने वाली हवाला की रकम रोकने में बड़ी कामयाबी मिली है। अलगाववादियों और इस काम में जुटे अन्य लोगों पर सख्ती के बाद हवाला लेनदेन एकदम कम हो गया।

लेकिन दो रास्ते अब भी बने हुए हैं। इनमें से एक कश्मीर में वहाबी ढांचा तैयार करने के लिए सऊदी अरब अरब से आने वाली रकम है। पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक सऊदी से रकम बेरोकटोक कश्मीर में आ रही है। दूसरा रास्ता पाकिस्तान में सरकार पर काबू करने वाले तत्वों द्वारा कश्मीर पर किया जाने वाला सालाना खर्च है। खुफिया सूत्रों के अनुसार यह रकम 150 से 200 करोड़ रुपये के बीच रहती है। इसमें से लगभग 50 करोड़ रुपये पाकिस्तान से हथियारों की तस्करी और आतंकियों की घुसपैठ में मदद के बदले जैश-ए-मुहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा को दिए जाते हैं। 100 से 150 करोड़ रुपये कश्मीर में काम कर रहे आतंकियों के लिए तमाम तरह के बंदोबस्त में खर्च किए जाते हैं। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं कि भारतीय खुफिया एजेंसियों ने सीमा पार से विश्वसनीय जानकारी हासिल करने के बाद ये आंकड़े मुहैया कराए हैं। इतनी बड़ी रकम देने के बाद भी यह कहा जाता है कि अब आतंकियों या अलगाववादियों के पास कश्मीर में बड़ी भीड़ जुटाने या भारी विरोध प्रदर्शन के लिए पर्याप्त रकम नहीं होती। 2014 से 2017 के बीच आतंकियों ने अपनी माली जरूरतें पूरी करने के लिए जमकर लूट और आगजनी की। उस दौरान कई बैंक डकैतियों में आतंकी करोड़ों रुपये उड़ा ले गए।

कश्मीर में आतंकवाद के इस दौर में स्थानीय कश्मीरी युवा हिज़्बुल मुजाहिदीन के बजाय जैश और लश्कर से अधिक आकर्षित है, जबकि पहले हिज़्ब को ही सबसे बड़ा देसी आतंकी संगठन माना जाता था। उग्र कश्मीरी युवाओं के नजरिये से जैश या लश्कर में शामिल होना बेहतर है। कश्मीरी युवाओं को जो वैचारिक पट्टी पढ़ाई जाती है, उससे वे खुद को पाकिस्तान से काम करने वाले और वैश्विक जिहादी जड़ों वाले जैश और लश्कर के ज्यादा करीब पाते हैं। इस समय जैश के करीब 60 आतंकी कश्मीर में काम कर रहे हैं। सितंबर, 2018 से जैश के इतने ही आतंकियों का सफाया किया जा चुका है। दिसंबर, 2018 में जैश के 13 आतंकी पाकिस्तान से घुसे। 14 फरवरी को पुलवामा हमला हुआ, जिसमें भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के 45 जवान शहीद हुए। जैश के आतंकी सबसे अधिक घुसपैठ जम्मू क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा लांघकर करते हैं।

पुलवामा हमले के बाद सुरक्षा एजेंसियों को शुरुआत में लगा कि पुलवामा जिले में काकारोरा से जैश आतंकियों ने इस हमले की योजना बनाई और इसे अंजाम दिया। काकापोरा पुलवामा जिले में ही स्थिति लेठपेारा से करीब 8 किलोमीटर दूर है। लेठपोरा में ही फिदायीन हमलावर ने विस्फोटकों से भरी कार उड़ा दी थी। लेकिन जब जांच आगे बढ़ी तो सुरक्षा एजेंसियां यह जानकर हैरत में पड़ गईं कि पुलवामा हमले की साजिश रचने और उस पर अमल करने का काम अनंतनाग जिले के मरहमा गांव में हुआ था। मरहमा अनंतनाग जिले में सबसे अधिक आबादी वाला गांव है। इसमें पांच मदरसे हैं, जो कश्मीर में मौजूदा पांच इस्लामी पंथोंः वहाबी पंथ, जमात-ए-इस्लामी, देवबंदी, बरेलवी और तबलीगी से संबंधित हैं। सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि मरहमा जैश का नया अड्डा है। पुलवामा जिले के त्राल में भी जैश की अच्छी-खासी उपस्थिति है। त्राल में काफी पहले स्थापित हुआ मदरसा-ए-नूर है, जिसे मौलवी नूर अहमद चला रहे हैं। जम्मू-कश्मीर पुलिस के मुताबिक त्राल से आतंकी गुटों में शामिल होने वाले 70 फीसदी युवा मदरसा-ए-नूर से ही निकले हैं। शोपियां जिले में इमाम साहिब, हरमैन और ज़ैनापोरा से बड़ी तादाद में युवा जैश में शामिल हुए हैं। उस इलाके में कश्मीर घाटी के सबसे बड़े देवबंदी मदरसों में से एक स्थित है। उत्तर कश्मीर में सोपोर के डांगीवाचा इलाके में स्थानीय समर्थन के बल पर जैश सक्रिय है।

सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक लश्कर के करीब 50 आतंकी कश्मीर में सक्रिय हैं। इनमें से 30 स्थानीय हैं और 20 विदेशी (ज्यादातर पाकिस्तानी) हैं। कट्टरपंथी धार्मिक समूह कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठनों को धार्मिक मत और मानव संसाधन संबंधी मदद प्रदान करते हैं। समस्या सशस्त्र आतंकियों तक सीमित नहीं है। कश्मीर में सुरक्षा एजेंसियों के लिए ज्यादा बड़ी और खतरनाक चुनौती बिना हथियार के और लड़ाई नहीं करने वाले वे युवा हैं, जो पूरी तरह कट्टर हो चुके हैं और आतंकी गुटों में शामिल होने के लिए तैयार हैं। सुरक्षा एजेंसियां और पुलिस स्वीकार करते हैं कि यदि आतंकी गुटों को अधिक बंदूकें और गोला-बारूद मिल रहे होते तो सक्रिय आतंकियों की संख्या और भी ज्यादा होती।

(बशीर अहमद जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो श्रीनगर में रहते हैं। वह लेखक और शोधकर्ता हैं तथा कश्मीर में शांति बहाली के अभियान से भी जुड़े हैं)
(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
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