दहनशील खाड़ी में संकट
Amb K P Fabian

हम खाड़ी संकट को तेज गति से बढ़ता हुआ देख रहे हैं, जिससे यहां जंग छिड़ सकती है। इसका दुष्परिणाम इस क्षेत्र एवं पूरी दुनिया के लिए अनियंत्रित और संभवत: भयावह हो सकता है। दुखद यह है कि इस संकट को टालने के लिए हमने संबद्ध पक्षों या किन्हीं अन्य पक्षों की ओर से एक भी गंभीर प्रयास होते नहीं देख रहे हैं। खाड़ी में यह ताजा संकट अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मई 2018 में ईरानी परमाणु समझौता तोड़ देने के बाद पैदा हुआ है। इस समझौते को तकनीकी भाषा में ज्वाइंट कम्प्रीहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA) कहते हैं।

उस समय वाशिंगटन में तैनात ब्रिटेन के राजदूत सर किम डारोच ने विदेश मंत्रालय को भेजे अपनी एक गोपनीय रिपोर्ट में ट्रंप के इस कदम को उनके पूर्ववर्त्ती ओबामा की विरासत को चकनाचूर करने वाले ‘राजनयिक विध्वंस’ के रूप में देखा था। डरोक का आकलन बिल्कुल सही था। साफ है कि दक्ष व्यक्तियों द्वारा नतीजों को अच्छी तरह से समझे बिना लापरवाही में किये गए इस निर्णय के दुष्परिणाम विध्वंसकारी हो सकते हैं। इसमें सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात यह है कि जब अमेरिका ऐसे ऊटपटांग निर्णय लेता है, तो वह केवल स्वयं अमेरिका या सम्बद्ध देश को ही चोटिल नहीं करता है, बल्कि व्यापक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी जख्मी करता है। जिन लोगों का यह तर्क है कि खूनी जंग नहीं हो सकती है, क्योंकि ट्रंप और ईरान के नेतृत्व ने बारहां यह दोहराया है कि वे युद्ध करना नहीं चाहते, वे मासूम बन रहे हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि अगस्त 1914 में पहला विश्व युद्ध इसलिए नहीं छिड़ गया था कि कोई पक्ष युद्ध करना चाहता था। यह बुनियादी तौर पर वियना और बर्लिन की गंभीर गलतियों की वजह से छिड़ गया था। वियना को यह नाहक ही गुमान हो गया था कि सोवियत संघ की सैन्य ताकत को उकसाये बिना ही वह सार्बिया को बेइज्जत कर सकता है और उस पर हमला कर सकता है। इसी तरह, बर्लिन का नेतृत्व कैसर मुत्तमईन था कि जर्मनी ब्रिटेन की सैन्य ताकत को बिना उकसाये बेल्जियम की तटस्थता का उल्लंघन कर सकता है और इस होकर वह फ्रांस के गिरेबां तक पहुंच सकता है। मौजूदा मामले में, अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बाल्टन और संभवत: कुछ अर्थों में, विदेश मंत्री माइक पोम्पियो का यह विश्वास है कि वे टॉमहॉक मिसाइलों के ताबड़तोड़ हमलों से ईरान में चुने गए ठिकानों को ध्वस्त कर देंगे, इससे ईरान घुटने टेक देगा, शोकाकुल तेहरान समझौते की मेज पर आएगा और अमेरिका के मनमाफिक दस्तावेज पर अपना अंगूठा लगा देगा। लेकिन जो ईरान को जानते हैं, वह अमेरिका से अलहदा राय रखते हैं।

राष्ट्रपति ट्रंप को यह मालूम है कि अगर बॉडी बैगस जब आना शुरू हो जाएगा और यदि ईरान और उसके छद्म क्षेत्रीय ताकतें क्षेत्र में कायम अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर हमले करने लगें तो खुद उनके दोबारा राष्ट्रपति के रूप में चुन कर आने की संभावनाएं खटाई में पड़ सकती हैं। फिर भी, अगर क्लासिकल डिप्लोमेसी को इस काम में शामिल नहीं किया जाता है तो जंग छिड़ने का खतरा तो है। अगर एक बार लड़ाई छिड़ गई तो उसे इस अति ज्वलनशील क्षेत्र में फैलने से कोई भी नहीं रोक सकता है। ध्यान रखना होगा कि सऊदी अरब का अधिकांश तेल पूर्वी क्षेत्र में है, जहां शियाओं का जमावड़ा है। सुन्नी राजतंत्र वाला शिया बहुल बहरीन को मार्च, 2011 में अरब वसंत के शुरू होने के दौरान तभी बचाया जा सका, जब सऊदी अरब ने वहां अपनी सेना भेजी। इसके पहले कि हम मौजूदा गतिरोध को दूर करने में राजनयिक पहलकदमी से बाज आने की सोचें, इससे जुड़े एक अथवा दो मुद्दों को यहां स्पष्ट करना जरूरी है।

जलडमरूमध्य होर्मुज की भू-राजनीति

फारस और ओमान की खाड़ी के संगम क्षेत्र होर्मुज का तेल और गैस के व्यापार में काफी महत्त्व है। सकल विश्व में उत्पादित एल.एल.जी. के 26 फीसद और तेल के 20 फीसद हिस्से की ढुलाई इसी क्षेत्र से होती है। सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात (यू.ए.ई), इराक, ईरान और कतर के निर्यात का मुख्य मार्ग होर्मुज ही है। यह जलमार्ग ईरान और ओमान को अलग करते हुए फारस की खाड़ी को ओमान की खाड़ी तथा अरब सागर से जोड़ता है। इसका सबसे तंग दायरा भी कम से कम 21 मील चौड़ा है, लेकिन दोनों दिशाओं से जहाजों की आवाजाही का रास्ता महज दो मील चौड़ा है। अनक्लोस UNCLOS (यूनाइेड नेशन कन्वेंशन ऑन लॉ ऑफ दि सी) के अंतर्गत समुद्रवर्त्ती देश 12 समुद्री मील (13.8) मील के क्षेत्रीय जल पर अपना दावा कर सकते हैं। इस परिभाषा के मुताबिक जलडमरूमध्य होर्मुज में प्रवाहित जल ईरान और ओमान के क्षेत्रीय दायरे में आता है। इस होकर अंतरराष्ट्रीय नौवहन की अनुमति है, लेकिन जल पर क्षेत्रीय देशों का अधिकार है।

ब्रिटेन और उसके समर्थक ‘अंतरराष्ट्रीय जलडमरूमध्य में नौवहन की स्वतंत्रता’ पर चर्चा करते रहे हैं। ऐसी चर्चा कानून में अनुचित है, जो इसे हल्का कर देती है। वर्तमान संदर्भ में क्षेत्रीय जल हो कर ‘इंनोसेंट पैसेज’ की बात करना अधिक मौजू होगा। ‘नौवहन की आजादी’ एक व्यापक अवधारणा है, जो हाई सी, यानी क्षेत्रीय अधिकार वाले जल से इतर खुले हिस्से, में भी लागू होती है। अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत तटवर्त्ती देशों को अपने क्षेत्रीय जल के हिस्से में जहाजों की आवाजाही सुनिश्चित करने का अधिकार है। होर्मुज के जलडमरूमध्य में या उसके आसपास के क्षेत्र में ब्रिटेन का नौसेना शक्ति का होने का दावा कमजोर पड़ता है। जब ईरान ने ब्रिटेन के झंडे वाला टैंकर स्टेना इम्प्रो, एक ब्रिटिश युद्धपोत एच.एम.एस मोन्ट्रोस को अपने पास के समुद्र में पकड़ा था, तो उसने इस मामले में सार्थक हस्तक्षेप करने में विफल रहा था। ब्रिटेन के एक कनिष्ठ मंत्री टोबिस इलिएट ने मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की; जब उन्होंने कहा,‘‘हमारी नौसेना विश्व में हमारे हितों की देखभाल करने के लिहाज से बहुत छोटी है। अगर भविष्य में ऐसा करने की हमारी महत्त्वाकांक्षा हुई तो हमारे अगले प्रधानमंत्री को इस तरफ ध्यान देने की दरकार होगी।’’ लंदन ने ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी दी। यूरोपीय यूनियन ने ईरान से टैंकर छोड़ने की अपील की, लेकिन हमें मालूम नहीं कि फ्रांस और जर्मनी ऐसे समय में ईरान पर प्रतिबंध लगाने पर राजी होंगे, जबकि JCPOA का संतुलन नाजुक बना हुआ है। ब्रिटेन के विदेश मंत्री ने राष्ट्रीय आपदा से निबटने वाली कैबिनेट कमेटी-COBRA-की आपातकालीन बैठक के बाद 22 जुलाई 2019 को हाउस ऑफ कॉमन्स (प्रतिनिधि सभा) में एक वक्तव्य दिया कि अगर ईरान ने टैंकर नहीं छोड़ा तो,‘‘ब्रिटेन खाड़ी होकर गुजरने वाले जहाजों की निगरानी के लिए यूरोपीयन नेतृत्व वाली एक नौसैनिक टुकड़ी भेजने पर विचार करेगा।’’ यह भी गौर किया जाना चाहिए कि लंदन यूरोप के साथ ऐसी साझेदारी की ‘‘मांग’’ कर रहा है, जब क्षितिज पर ब्रेक्सिट धुंधला पड़ता दिख रहा है। यह मान लिया जाए कि यूरोप ऐसा चाहता है तो भी नौसेना टुकड़ी तैनात करने के काम में काफी वक्त लग जाएगा।

यद्यपि इस मसले से जुड़ा एक अन्य बिंदु भी, जिसका पश्चिमी मीडिया ने उल्लेख नहीं किया है। वह यह कि लंदन ने अभी तक यह प्रमाण नहीं दिया है कि वह जहाज सीरिया जा रहा था। इसमें जो सबसे मुनासिब बात है, वह यह कि ईरान पर ईयू को प्रतिबंध किसी सदस्य देश को एक तीसरे देश के जहाज को, चाहे वह सीरिया के लिए माल की ढुलाई क्यों न कर रहा हो, रोकने का अधिकार नहीं देता है। ई.यू. का प्रतिबंध केवल उसके सदस्य देशों पर ही लागू होता है। ईरान ईयू के प्रतिबंधों के बावजूद सीरिया को तेल भेजता रहा है। ताजा मामलों में, लंदन ने यह जॉन बाल्टन की ‘सलाह’ पर किया। इसे भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि ब्रिटेन के झंडे वाले टैंकर को 18 जुलाई 2019 को ही कब्जे में ले लिया गया था, रियाद ने दो दिन बाद इसकी सार्वजनिक घोषणा के साथ ही जहाज को छोड़ दिये जाने का अनुरोध किया था। इसने ईरान की कार्रवाई को ‘‘पूरी तरह अस्वीकार्य’’ करार दिया और वैश्विक ताकतों से ‘‘ऐसे रवैये को रोकने के लिए कार्रवाई करने’’ का अनुरोध किया।

ब्रसेल्स में 27 जून 2019 नाटो देशों के रक्षा मंत्रियों की प्रेस कॉन्फ्रेंस में अमेरिका के कार्यवाहक रक्षामंत्री ईस्पर ने कहा कि उन्होंने अपने सहयोगी देशों से कहा है कि वे ‘‘समान विचार वाले देशों’’ के एक गठबंधन में शामिल हों, जो होर्मुज के जलडमरूमध्य होकर ‘‘व्यापक समुद्री निगरानी’’ में जहाजों की मुक्त आवाजाही का समर्थन करे। लेकिन अभी तक वाशिंगटन को वह ‘समान-विचार’ वाला देश नहीं मिला है।

एक संभावित राजनयिक समाधान

हमें ईरान-ब्रिटेन और अमेरिका-ईरान के बीच संकट में फर्क करने की जरूरत है। ब्रिटेन के अमेरिका के कहने पर ईरान के सुपर टैंकर ग्रेस-1 को रोका, जो 4 जुलाई 2019 को 2 मिलियन बैरल तेल लेकर गिब्राल्टार जा रहा था। ऐसे में यह स्पष्ट है कि ईरान ने ब्रिटेन के विरुद्ध जवाबी कार्रवाई की थी। तो दोनों ही जहाजों को छोड़ा जाना चाहिए। यह मसला ऐसा नहीं है, जिसका कूटनीतिक समाधान न हो। इसमें दिक्कत सिर्फ यह है कि अगर बोरिस जॉन्सन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री होते हैं (वह हो गए हैं) तो अपने राजकाज की शुरुआत में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को नाखुश करने वाला काम करने से बचना चाहेंगे। लेकिन शायद ट्रंप खुद ही तनाव को दूर करने वाले किसी उपाय का स्वागत करें।

अब वाशिंगटन और तेहरान के बीच बढ़ते तनाव पर विचार करें तो इसका कोई तत्कालिक राजनयिक हल नहीं है। ऐसे में तनाव को आगे बढ़ने से रोकना अहम होगा। दोनों पक्ष सार्वजनिक बयानबाजी से संयम रख सकते हैं और उन्हें ऐसा करना चाहिए। हालांकि ट्रंप के लिए ट्विट करने से अपने रोक पाना जरा मुश्किल होगा। एक बात है, अगर ट्रंप ईरान के विरुद्ध लगाये गए प्रतिबंध को निलंबित कर दें तो ईरान JCPOA पर वाशिंगटन के साथ बातचीत के लिए मेज पर बैठने को राजी हो जाएगा। अलबत्ता, ईरान अपने मिसाइल कार्यक्रम पर प्रतिबंध लगाये जाने और अपने सहयोगियों (गाजा में हमास, लेबनान में हेजबुल्लाह और इराक में शिया समूहों) की सहायता पर अमेरिका के साथ बैठने और वार्ता करने पर राजी नहीं होगा। वह सीरिया से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं होगा।

दीर्घावधि का संभावित परिदृश्य

लंदन ने सुरक्षा परिषद की दहलीज पर दस्तक दी है। अब इंतजार कीजिए और देखिये कि चीन एवं रूस का रुख कैसा रहता है। वे शायद ही ईरान के खिलाफ कार्रवाई पर राजी होंगे। ब्लूमबर्ग ने खबर दी है कि ईरान से पर्याप्त मात्रा में तेल चीन में अनुबद्ध टैंकरों में मिले हैं। इसमें जुड़ी चीनी कम्पनियों के विरुद्ध अमेरिका ने प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है। अब हमें चीनी की प्रतिक्रिया को देखने की जरूरत है।

अगर चीन एवं रूस ईरान का पक्ष लेने का रणनीतिक निर्णय करते हैं तो हम मास्को-बीजिंग-तेहरान की एक ठोस धुरी बनते देखेंगे। अगर ऐसा होता है तो यह भू-राजनीतिक परिदृश्य को एक हद तक बदल देगा, जिस पर भारत एवं बाकी विश्व को गौर करने की जरूरत होगी।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
Image Source: https://a57.foxnews.com/media2.foxnews.com/BrightCove/694940094001/2019/06/21/931/524/694940094001_6050822982001_6050822507001-vs.jpg?ve=1&tl=1

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