सब का साथ, सब का विश्वास ने क्या ‘बांटो और शासन करो’ की सियासी चालों को खत्म कर दिया है?
Lt Gen Gautam Banerjee

“चुनाव आ रहा है। विश्व शांति की घोषणा की गई है और लोमड़ियों ने मुर्गियों को दीर्घायु करने में गंभीर दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया है।’’ टीएस इलिएट

नये भारत’ में राजनीति

जन साधारण से बातचीत करने पर तो हमें समानता, समता और सामाजिक उत्थान जैसे उन उदात्त भारतीय राजनैतिक सिद्धांतों और मूल्यों की ही फिर से प्रतिष्ठा संभव नजर आती है, जिन सिद्धांतों ने हमें औपनिवेशिक शासन से मुक्त कर स्वाधीनता दिलाई थी।

परंतु इस से बिलकुल अलग है पथ-भ्रष्टता या विपथगमन की वह दिशा, जो विगत तीन दशकों से सिरे चढ़ी है और जो "गठबंधन धर्म" के आवरण में यूपीए (संप्रग)-2 की अवधि में परवान चढ़ी। इस अवधि में ये सभी उदात्त मूल्य जो जन गण को प्रिय हैं, क्षरित होते चले गए और उनकी जगह छाती गयी वह राजनीति जो राजे-महाराजे और उनके सेवक-दास जैसे रिश्तों में गूँथे कार्यकर्ताओं वाली पार्टी की राजनीति है, जिसमें अपने खास-खास लोगों के लिए जमकर दरियादिली होती है और संसाधन उन्हें उदारता से बांटे जाते हैं-निर्लज्ज भाई-भतीजावाद के साथ और जो वंशानुगत उत्तराधिकार को मानकर चलने वाली तथा वोट बैंक के तुष्टीकरण की विभाजनकारी राजनीति है।

पहली एनडीए सरकार (2014-2019) द्वारा "सबका साथ सबका विकास" की नीति को अपनाने के साथ राजनैतिक पतन या पथ-विचलन की वह राजनीतिक संस्कृति सुधरने लगी है। इसमें अवसरों और साधन-सुविधाओं को सबके साथ साझा किया जाना है-संसाधनों की उपलब्धता की मर्यादा के अंदर। जाति, वर्ग और मजहबों के आधार पर समाज को बांटने वाली राजनीति जिसका सारा ध्यान तुष्टिकरण पर रहता है और जो लुभावन लगती हुई भी अंदर से खोखली होती है और जिसमें अंतरंग मंडली ही सारा लाभ लूटती है, वह राजनीति पिट गयी है -समानता और विकास की राजनीति से ।
यह अभी देखा जाना है कि अगर यह स्वागतयोग्य सुधार राज्य और स्थानीय राजनीति को गुजरे जमाने की बात साबित करने में सक्षम है, जो अभी बनी हुई हैं, यद्यपि वे अभी तक जाति, वर्ग और धर्म की राजनीति के मोह-पाश से आबद्ध है। किंतु यह निश्चित है कि 2019 की नई सरकार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘नये भारत’ के विचार को आंशिक रूप में ही सही हासिल करने में सक्षम होगी। इस तरह भारतीय राजनीति में, सही मायने में एक सच्ची लोकतांत्रिक राजनीति के एक युग का उदय होगा।

भारत की स्वातंत्र्योत्तर चुनौतियां

आजाद भारत की पहली खेप के नेताओं का सबसे बड़ा कार्य राष्ट्र का निर्माण करना था, जिनकी सदियों के औपनिवेशिक शासन में ढांचा भर रह गया था। अत: कुछ निश्चित दूरदर्शितापूर्ण त्वरित निर्णय किये गए जिन्होंने भारत की बुनियाद रखने में मदद की, जिसमें आज हम सांस ले रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाना हमारी एक ऐसी ही अहम प्रतिबद्धता है। वास्तव में यह अपेक्षा विनाशकारी होती, अगर एक सहज रूप से भिन्न भारत में-सांस्कृतिक और सामाजिक, दोनों ही क्षेत्रों में-इसकी एकता की नई बुनियाद हमारी संवैधानिक संरचना को कानून के शासन, लोकतांत्रिक आजादी और धर्मनिरपेक्षता के बगैर रखा जाता। यह समझने के लिए किसी को भी अपना इतिहास याद करना होगा।

स्वतंत्र भारत की सरकारों को अन्य दूसरी बड़ी चुनौतियों में भी कामयाब होना था। ‘मुस्लिम आभिजात्यता और प्रभुता’ की सामंती ताकत और विशेषाधिकारों के संरक्षण की लालसा अलग मुस्लिम मातृभूमि की मांग के बाध्यकारी कारणों में से एक थी। इन वर्गो ने भांप लिया था कि लोकतांत्रिक भारत की समतावादी संभावनाओं ने उनके ऐसे विशेषाधिकारों पर गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया है। इसी भय-बोध ने आभिजात्य वर्ग के अधिकतर मुसलमानों को उनके अपने पाकिस्तान जाने का मार्ग प्रशस्त किया। इसने विभाजित भारत के मुसलमानों को संरक्षकविहिन और नेतृत्वविहिन अवस्था में छोड़ दिया। इसी बीच, मुस्लिम लीग-मोहम्मद अली जिन्ना-लियाकत अली खान-सुहरावर्दी ने यह जहरीला दुष्प्रचार शुरू कर दिया कि भारत में ‘मुसलमान विरोधी हिन्दू बहुमत’ वाली दुष्ट शासन व्यवस्था कायम होने जा रही है। उनके इस झांसे में आ कर वे मुसलमान भी जो अपनी मर्जी से या किसी मजबूरीवश, भारत में रहने के लिए तैयार हो गए थे, वे सब के सब अपने भविष्य की चिंता करते हुए डर-आशंका की हालत में देश छोड़ कर पाकिस्तान चले गए। चूंकि अपने सात में से एक नागरिक के राज्य-सत्ता से भय और अविश्वास को देखते हुए एक सम्प्रभु और एकीकृत भारत के निर्माण का स्वप्न व्यर्थ हो जाता। ऐसे में तात्कालीन नेताओं का यह कर्त्तव्य था, कि मुसलमानों में रोपी और फैलाई जा रहीं उन विषैली अवधारणाओं को तुरंत दूर किया जाए। यह करते हुए, उन नेताओं ने वही किया जो तब के संसाधन विहिन और कमजोर राष्ट्र राज्य के लिए सर्वथा समीचीन था।

मुस्लिम आशंकाओं का शमन करना

मुस्लिम समाज एक ऐसा समाज है, जो अपने सदस्यों से अपने परम पूजनीय धार्मिक व्याख्याकारों के सामाजिक-राजनीतिक हुक्मनामे का पालन करने पर जोर देता है। ऐसे में सरकार ने इन शंकालु व भ्रमित मुसलमानों के दिलो-दिमाग में आजाद भारत के प्रति बैठे खौफ को दूर करने की एक तरकीब सोची। इसके लिए सरकार ने मुस्लिम काजियों और भारत में रह गए उन थोड़े से आभिजात्य मुस्लिमों का समर्थन लेना शुरू किया। इन समर्थक लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वह आम मुसलमानों में धर्मनिरपेक्ष भारत की उदात्त विचारधारा को प्रतिबिम्बित करेंगे, इनके प्रति उन्हें आश्वस्त करते हुए उनकी शंकाओं को निर्मूल कर देंगे। इस प्रकार, संस्थाओं और धार्मिक मदरसों के प्रमुख, मुख्य काजी और दौलतमंद मुस्लिमों को मिलाकर ‘मुस्लिम नेतृत्व’ का एक सेट तैयार किया गया। इन्हें उनकी सहज संवैधानिक हकदारी के दायरे के बाहर जा कर बढ़ावा दिया गया। यह सारा कुछ आम मुसलमान के बीच उनका आश्वस्तकारी प्रभाव जमाने के लिए किया गया।

इसी तरह, मुसलमानों को उनके विश्वासों के अनुरूप निरंतर जीवन जीने देने के प्रति भरोसा दिलाने में राष्ट्र राज्य इस हद तक चला गया कि उसने भारतीय संविधान में कुछ निश्चित समतावादी प्रावधानों जैसे एकीकृत निजी कानून को भी लागू करने से अपने को रोक लिया। फिर तो राष्ट्र राज्य ने कई मुस्लिम सलाहकार और मार्गदर्शक बोर्डों व संस्थाओं के प्रमुखों, उदाहरण के लिए पर्सनल लॉ बोर्ड, मुख्य-मुख्य मस्जिदों के इमामों, देवबंदी और बरेलवी मदरसे के प्रमुख इमामों को औपचारिक या अनौपचारिक मान्यता दी। निस्संदेह, इन अभ्युत्थित नये मुस्लिम नेतृत्व ने नये भारत के हितों व सरोकारों की बढ़िया सेवा की और धीरे-धीरे उसने स्वतंत्र भारत के शासन में मुस्लिम नागरिकों के विश्वास का पुनर्निर्माण किया।

राज्य सत्ता की तरफ से किये जाने वाले इन उपायों को महज मुस्लिम-समाजों तक ही सीमित नहीं रखा गया था और यह उचित ही था। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के हितों की खातिर नव स्वतंत्र राष्ट्र राज्य ने अपनी शासन-व्यवस्था के प्रति विश्वास जमाने के ऐसे ही उपायों का विस्तार अरक्षित जातियों, जनजातियों और भाषायी या धार्मिक रूप से अन्य अल्पसंख्यकों तक कर दिया था। जैसा कि हम देख सकते हैं, यह भारत राष्ट्र को संघटित रखने में सराहनीय रूप से सफल रहा और इस प्रकार,‘अयोग्य भारतीयों’ के शासन में देश के खंड-खंड हो जाने की कुंठित साम्राज्यवादियों की भविष्यवाणी सर्वथा मिथ्या प्रमाणित हो गई।

लोकतंत्र के जोड़-तोड़ करने वाले ब्रांड का अभ्युदय

किंतु एक समतामूलक लोकतांत्रिक भारत की स्थापना के नेक इरादे आजादी की चौथाई अवधि के अंदर ही उलट-पुलट गए। इसके बाद तो लोकतांत्रिक अराजकता का देशज ब्रांड ‘चुनावी चक्र’ और ‘वोट बैंक’ की राजनीति के रूप में प्रकट होने लगा। समाज के सामान्य या साझा हितों वाले वर्गों से बने प्रतिबद्ध वोटों के एक बड़े हिस्से को हासिल करने के चुनावी फायदे ने बाद की पीढ़ी के नेताओं और उनकी राजनीतिक पार्टियों, जिनका वह प्रतिनिधित्व या नेतृत्व कर रहे थे, का ध्यान इस तरफ खींचा। इस प्रकार, जन सामान्य को संतृप्त करने के लिए राजनीतिक नेताओं के मोहक प्रस्तावों का शब्दजाल बनना शुरू हो गया, यहां तक कि उन लक्षित जनसमूहों की आकांक्षाएं भी बढ़ गईं। हालांकि, सिकुड़े संसाधन और सुविधाओं वाले एक देश में, यह इन समूहों की आकांक्षाओं को दूसरों की अपेक्षाओं की कीमत पर बढ़ाना था और इसलिए उन पर अमल कराना-करा पाना सरल नहीं था। समुदाय विशेष की सुरक्षा का सही या गलत आशंकाओं के बलबूते उनका समर्थन पा लेना आसान है पर इस तरह उन्हें प्रगति की दौड़ में कोसों पीछे छोड़ दिया जा रहा है। किसी विशेष समुदाय की अधिकांश मामूली उम्मीदों को जगा कर अपने लिए सार्वजनिक कोष और सुविधाओं का प्राथमिक टुकड़ा जमा कर लेना इन प्रलोभनों को बढ़ाने में खास योगदान दिया है। आखिरकार, विभ्रमकारी राजनीति को प्रतिबद्ध होने के लिए धन और संसाधन की आवश्यकता नहीं होती। बस यही करने की जरूरत होती है कि पसंदीदा समूहों में से कुछ चुने हुए लोगों को अनधिकृत लाभ और अवसर दे दिया जाए और शेष को आशातीत आशा में यों ही छोड़ दिया जाए। जातिवाद से ग्रस्त भारत और यहां की मुस्लिम एवं ईसाई पहचानें ऐसी राजनीतिक चालबाजियों का मोहक लक्ष्य बन जाती हैं। हालांकि इन विभाजनकारी विचार से समाज के अन्य असुरक्षित वर्ग भी बचे नहीं रह गए थे। सही मायनों में, हालांकि, इन लक्षित वर्गों को भी जुमलों और दिखावे के परे बहुत थोड़ा ही मिल पाया है। अंततोगत्वा, इन वर्गों को थोड़े से प्रतिबद्ध और लाड़ करने वाले समुदाय के विचारकों के चंगुल में फंसे रहने देना, और उनको उसी पिछड़ेपन एवं भोलेपन में जमे रहने देना, एक लाभदायक राजनीतिक मकसद में बदल गया है।

वास्तव में, राजनीतिक दलों के लिए संकीर्ण रूप से विभाजित समाज के हितों के प्रति अपने को एक निष्ठावान मददगार के रूप में दिखाना, इन वर्गों को अपने समर्थक वोट बैंक में बदलना और फिर राजनीतिक ताकत हासिल करने के अपने अवसरों को मजबूत करना एक फायदेमंद चलन हो गया। उस दौड़ में, एक व्यापक, लेकिन मौलिक रूप से समावेशी भारतीय समाज प्रतिबद्ध वोट बैंक के अधिसंख्य खंडों में खंडित हो गया था। राजनीतिक नेताओं के रूप में, बेलगाम असंवैधानिक सत्ता और अवैध सम्पति-परिसम्पत्ति पाने के लिए खुद को बेचना, व्यापक-विशाल जन साधारण को एक साझा हित वाले टुकड़ों में बांटना एक सम्मोहक अनिवार्यता में बदल देना, तक ने एक राजनीतिक कला-शिल्प का रूप ले लिया है। इस माहौल ने कानून तोड़ने वाले सरगनाओं (डॉन) को राजनीति में अपने धन और बाहुबल के निवेश की कोशिश करने, और फिर जबर्दस्ती कानून-निर्माताओं के क्लब में अपने को शामिल करने के लिए ललचाया है।

पहले बांटो और फिर राज करो

भारत को क्षेत्रीय, भाषायी, धार्मिक, जातिगत और जनजाति नागरिक खंड-समूहों में बांटने की प्रतियोगिताओं के जरिये सत्ता पा लेना पर्याप्त नहीं रह गया था। इस विभाजन को आगे और बड़े उप-विभाजनों के उप-उप-वर्गों में विभाजित किया जाना था। यह शुरू हुआ राष्ट्रीय स्तर पर-‘सम्पूर्ण से अंश तक’; जैसा कि सर्वेक्षक कहते हैं-जब उप-भाषायी, उप-जातीय, और उप-धार्मिक विच्छेदीकरण को उत्तर-भारतीय राष्ट्रीयता की नागरिकता में अंशांकित चरणों में लागू किया गया। इस चाल में समूहों को विभाजित करने पर जोर दिया गया ताकि उनके बीच विशिष्टता के मोहक विचार पैदा किये जा सकें और उन्हें उनके ‘अधिकार’ और हक की खातिर ‘मुस्तैद हो जाने’ के लिए गुमराह किया जा सके। ज्यादातर एंद्रजालिक अल्पकालिक होते हैं और आखिरकार राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से हानिकारक होते हैं। वे हाशिये पर पड़े लोगों के बीच डर के वातावरण का जादू पैदा करते हैं। इस चाल ने ज्यादा से ज्यादा लाभप्रद चुनावी उपलब्धियां दिलाई हैं और राजनीतिक सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया है। इसके साथ आने वाले तमाम तरह की सम्पदा को नये वर्ग-‘नेता वर्ग’ को और उनकी संतान जैसे आश्रितों को उपलब्ध कराया है। इस चाल से जुड़ा लाभ यह था कि गलत किये गए वादों के सुधार या उनके विमोचन की कोई आवश्यकता नहीं थी, जब तक कि लक्षित समुदाय के कुछ भीड़ उत्तेजकों को चिढ़ाने के लिए कुछ प्रलोभनों को प्रदर्शित नहीं कर दिया जाता।

पश्चात, विभंजन और लूट

अधिक समय तक मिलने वाली इस शानदार राजनीतिक सफलता ने धरातलीय सामाजिक विभंजन को उभारा है; जैसे कि दलित-महादलित, पिछड़ी जाति, अति पिछड़ी जाति, आदिवासी-मूलवासी, शिया-सुन्नी, यादव-कुर्मी, लिंगायत, मराठा... यह सूची अंतहीन है। इसने एक समाज के नागरिकों के वोट बैंक को अन्य तमाम लोगों के प्रति भेदभावों की कीमत पर बड़बोलापन और असंवैधानिक तुष्टीकरण को बढ़ावा दिया है। तुष्टीकरण का सबसे बेहतर लाभ यह था कि इसके लिए नाम मात्र के उपायों की आवश्यकता होती थी और इनके लिए राजस्व पर अधिक बोझ भी नहीं पड़ता था। किसी को अपने पसंदीदा समूहों के लिए अपवाद बनाना था, जैसे सरकारी भर्ती में जोड़-तोड़ करना, पैसा कमाने वाली जगह दिलाना, सार्वजनिक कोषों का इस्तेमाल कर अपने दलों के बैनर तले साइकिल या सिलाई मशीन जैसे उपहार देना, आरक्षणों के लिए वादे करना (इसे केवल अदालत के जरिये ही रोका जा सकता है), सड़कों और हवाईअड्डों के नाम बदलना आदि-इत्यादि। उचित परियोजना के लिए आवंटित कोषों को अपने किसी वादे की परियोजना में स्थांतरित करना। आखिरकार, तुष्टीकरण का वाक्छल राजस्व धोखाधड़ी और आपराधिक आचरणों की तरफ से नजर फेर लेने की हद तक चला गया है और अपने पसंदीदा समूह से ताल्लुक रखने वाले कानून तोड़क अपराधियों को भी संरक्षण दिया जाता रहा है। सौदेबाजी में, लाभ या अवसरों से वंचित रह गए लोग, जो अवसरों को पाना चाहते थे, वे अपने से पहले संतृप्त हुए लोगों का तिरस्कार करने लगे। जाति और धर्म के रोग, जिन्हें पवित्र राष्ट्रवाद के दौर में बहिष्कृत कर दिया गया था, वे लोकतांत्रिक भारत में पुनरुज्जीवन पा गए, अलबता धीमी गति से। एक बार फिर मासूम सी लगने वाली लोकतांत्रिक अराजकता सुचिंतित या व्यवस्थित अराजकता में बदल गई है।

मुस्लिम नागरिकों के दांव-पेंच

आलेख के ऊपरी हिस्से में विवेचित राजनीतिक अधोगति ने सबसे अधिक मुस्लिम नागरिकता को प्रभावित किया है। किंचित बहुत बड़ा और बदलाव के नजरिये से सुस्त समूह जब अपने उपदेशक के हुक्मनामे की तामिल करता है, तब वे बेहद आसानी से अखिल भारतीय वोट बैंक के सर्वाधिक एकल झुंड में तब्दील हो जाते हैं; और इस प्रकार फालतू राजनीति अहम मकसद हो जाती है, जैसे शुक्रवार की नमाज सड़क पर पढ़ना, लाउडस्पीकर लगाना, इफ्तार पार्टियों का आयोजन, मजारों की खोज करना आदि। इस तरह की सियासत ने गरीब, अशिक्षित मुस्लिमों के उत्थान, उन्हें बेहतर रोजगार पाने लायक कौशल देने, अपनी योग्यता से अहम पद पाने के लिए प्रेरणा-प्रोत्साहन जैसे संघटित प्रयासों के झंझटों से भी उन नेताओं को आजाद कर दिया, जो मुस्लिमों के हितों के फिक्रमंद होने के नकाब पहने थे।

वहीं दूसरी ओर, किसी अन्य वंचित समुदाय की तरह चाहना की स्थिति में होकर, मुसलमानों के लिए ऐसे लुभावने फरेब को तज देना अव्यावहारिक होता, चाहे वे कितने भी विभ्रमकारी क्यों न होते। वास्तव में, मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनों समुदायों के बहुत से नेताओं के लिए ऐसे फरेब उनके अपने वोट बैंक प्रभाव के विस्तार के लिए आसान सोपान मुहैया कराते हैं। काफी समय से, अनेक राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता, मुसलमानों के मन-मिजाज में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक के भय-रोपण को अपना हित-साधक मसला पाया है। मुसलमानों को अपना एक प्रतिबद्ध वोट बैंक बनाये रखते हुए, वे चाहते थे कि मुस्लिम समाज को प्राचीन धार्मिक प्रतिमान, जैसा कि पार्टी से सम्बद्ध उलेमाओं ने तय किया है, के चंगुल में पड़ा रहने दिया जाए। इसका नतीजा यह हुआ कि ऐसे समय जबकि पाकिस्तान समेत दुनिया के मुस्लिम आधुनिक युग की तरक्कियों से रू-ब-रू हैं, भारत के आम मुस्लिम, जो आबादी के लिहाज से विश्व में तीसरे स्थान पर है, लगातार यहूदी की झोंपड़पट्टी (गैटो) वाली मानसिकता में लोटे हुए हैं, वे अशिक्षित तो हैं ही और कौशल-संवर्धन से भी वंचित हैं।

इन सबका परिणाम आज यह है कि आजादी, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सात दशक बीतने और अपने तरीके से राष्ट्र-निर्माण में सहयोग देने के बावजूद, हमारा मुस्लिम समाज प्रयास के अधिकतर क्षेत्रों में पिछड़ा हुआ है। इस बीच, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की स्पष्ट चालबाजियों ने अनेक बहुसंख्यकों के मन में यह भाव भर दिया है कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। इसने मुठ्ठी भर उग्र हिन्दू राष्ट्रवादियों को मुस्लिम को दिये जा रहे प्रलोभनों के विरुद्ध आक्रामक होने के लिए उकसाया है और उनको निशाना बनाने के लिए समाज के निम्न तत्वों की हौसलाअफजाई की है। इनके खिलाफ ‘धर्मनिरपेक्षियों’ को विषवमन करने का एक बहाना मिल गया है, जबकि हिन्दुओं का प्रचंड बहुमत उनसे क्षुब्ध हो रहा है। भारतीय राष्ट्रवाद के लिए इससे घातक और कुछ नहीं हो सकता।

‘सब का साथ, सब का विकास, सब का विश्वास’सब का अभ्युत्थान)

कोई राष्ट्र-राज्य तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक कि उसकी आबादी का छठा हिस्सा शेष हिस्से से विभाजित हो और उसे गढ़ी गई आशंकाओं एवं भयावह पिछड़ेपन में जमे रहने के लिए छोड़ दिया गया हो। यह तब और बुरा हो जाता है, जब इसके चार से पांच फीसद लोग अपने अल्पसंख्यक सह-नागरिक को डर से देखते हैं। यह तब और भी अनर्थकारी हो जाता है, जब राष्ट्रीय नेतृत्व ऐसी स्थितियां उत्पन्न होने की इजाजत देता है। इन खतरों के विलयन के लिए श्री नरेन्द्र मोदी ने सही समय पर ‘सब का साथ, सब का विकास, सब का विश्वास’ का नारा दिया है।

लेकिन तब, जाति और धर्म के वोट बैंकों से फायदा उठाये नेताओं के लिए सत्ता हासिल करने, धन अर्जित करने और विश्वासघात से विस्थापन को पचा पाना आसान नहीं होता। राजनीतिक सत्ता पर एकाधिकार खो देने का उनका स्तम्भन और वोट खरीद-नीतियों का अविवेकपूर्ण और अनुत्तरदायी लाइसेंस छीन जाने का क्षोभ; शासन के मुस्लिम विरोधी, जाति-विरोधी और वर्ग-विरोधी होने के उनके पूर्वाग्रहों से प्रेरित लगातार आरोपों से जाहिर होता है। यह नागरिकों के साझा हितों-सरोकारों से जुड़े मसलों को भी मुस्लिम, जाति और वर्ग की तरफ मोड़ कर उन्हें नागरिकों के राज्य विरोधी गुस्से में बदल देता है। चिंताजनक तथ्य यह है कि उनमें से अनेक बुद्धिजीवी भी निहित स्वार्थों के चलाये जाने वाले ऐसे विषैले एजेंडे के शिकार हो जाते हैं। हालांकि हालिया हुए आम चुनाव में सभी वर्गों के नागरिकों का उन अतिरंजनाओं को सिरे से खारिज किया जाना, भारत की सरजमीनी वास्तविकताओं से एकदम अलहदा आराम-कुर्सी में धंसे इन आलोचकों का झूठी धारणाओं का दुष्प्रचार नहीं किया जाना, इस बात का संकेत है कि ये आलोचक भी अपना पाला बदलने लगे हैं। इस बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए।.

चौकन्ना रहने की चेतावनी

राजनीतिक धरातलों पर छद्म-दक्षिणपंथी तत्वों-हालांकि वे बेहद कमजोर हैं-के उद्भव के साक्ष्य हैं; यहां तक कि इनमें से कुछ राज्य के एजेंट हैं। इनके देश के अल्पसंख्यक नागरिकों के विरुद्ध पूर्वाग्रह से प्रेरित दुष्प्रचार के अपने स्वार्थ हैं। इनके मुताबिक विगत में मुस्लिमों के साथ तुष्टीकरण किया जाता रहा है, लिहाजा अब उन्हें उनकी औकात में रखा जाए। ऐसा उनका कहना है। नव फासीवाद को आकार देने वाले ये तत्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘नये भारत’ के विजन पर गंभीरतम खतरा हैं।

अगर ‘बांटो और शासन करो’ के दूसरे अध्याय को खोले जाने से बचना है तो आम चुनाव बाद इन छद्म-दक्षिणपंथियों के आह्लादित युद्ध-नृत्य को रोकना होगा। अगर श्री मोदी के भारत के भव्य दूरदर्शी स्वप्न को साकार करने के लिए विद्यमान इस अवसर को यों ही गंवा दिया गया तो यह दूसरी बड़ी ऐतिहासिक भूल होगी।

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


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