जम्मू कश्मीर के पुलवामा जिले में अवंतीपोरा के नजदीक 14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले पर घातक आतंकी हमला हुआ। उस हमले में 45 जवानों के शहीद होने की खबर मिली। संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकी संगठन घोषित किए गए जैश-ए-मोहम्मद ने उसकी जिम्मेदारी ली। जैश-ए-मोहम्मद का ठिकाना पाकिस्तान के बहावलपुर में है और माना जाता है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए इसे पाल-पोस रही है। हालांकि कहा गया कि विस्फोट विस्फोटकों से भरी उस कार के कारण हुआ, जिसे एक कश्मीरी युवक चला रहा था। लेकिन पाकिस्तान के आईएसआई के निशान वहां पूरी तरह नजर आ रहे थे। पूरे देश में इस पर आक्रोश फैल गया और देश इस घृणित हरकत का बदला लेने की बात कहने लगा।
15 मई को भारत के प्रधानमंत्री ने बेहद कठोर संदेश में कहा कि आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने वालों और उनकी मदद करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि सशस्त्र बलों को स्थिति से निपटने की खुली छूट दे दी गई है। भारत सरकार ने उसी दिन तड़के सुरक्षा पर मंत्रिमंडलीय समिति (सीएसएस) की बैठक के बाद फौरन कुछ कड़े कदम उठाने का फैसला लिया। उनमें से अहम कदम थे; पाकिस्तान को दिया गया सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र (एमएफएन) का दर्जा वापस लेना (उसके बाद भारत ने पाकिस्तान से आयात होने वाले सामान पर 200 प्रतिशत शुल्क भी लगा दिया), अलगाववादी नेताओं को दी गई सुरक्षा वापस लेना (बाद के दिनों में और व्यक्तियों को भी इसमें शामिल किया गया है), पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए कूटनीतिक प्रयास करना और पाकिस्तान को फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की काली सूची में डलवाने का प्रयास करना।
ये शुरुआती फैसले थे और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की जांच जैसे-जैसे आगे बढ़ी, पाकिस्तान की मिलीभगत सामने आती रही और पाकिस्तान को अलग-थलग करने के कई और फैसले लिए जाने लगे। साथ ही साथ जमीन पर सेना ने उन्हें पकड़ने के प्रयास तेज कर दिए, जिन्होंने फिदायीन हमले में साथ दिया था। सेना को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि 100 घंटों के भीतर ही हमले की साजिश रचने वाले और देसी बम तैयार करने में मदद करने वाले को मार दिया गया। बाद में सजा देने के लिए हवाई कार्रवाई भी की गई।
21 फरवरी, 2019 को भारत सरकार के जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनर्जीवन मंत्री श्री नितिन गडकरी ने एक के बाद एक ट्वीट कर बताया कि सरकार ने पाकिस्तान में बहकर जाने वाली पूर्वी नदियों (व्यास, सतलज और रावी) का पानी रोकने का फैसला किया है। उन्होंने यह भी कहा कि पूर्वी नदियों का रास्ता अब बदला जाएगा और उनका पानी जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब के लोगों को दिया जाएगा।
इस सिलसिले में ध्यान देने वाली बात यह है कि विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच 1980 में हुई सिंधु जल संधि के प्रावधानों के अनुसार भारत को पूर्वी नदियों का पानी केवल अपने इस्तेमाल के लिए दिया गया था। इन तीन नदियों और उनकी सहायक नदियों से से आने वाले पानी की औसत मात्रा 33 मिलियन एकड़ फुट मापी गई। पाकिस्तान को पश्चिमी नदियों (सिंधु, झेलम और चिनाब) से आने वाला पानी दिया गया, लेकिन भारत को खेती के लिए उस पानी के इस्तेमाल की इजाजत भी दी गई। इन नदियों में औसत जल की मात्रा लगभग 135 मिलियन एकड़ फुट नापी गई। भारत ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में पश्चिमी नदियों से सिंचाई के लिए नहरों की प्रणाली आदि बनाने पर आने वाले खर्च के रूप में 62,060,000 पाउंड स्टर्लिंग देने पर भी सहमति जता दी।
पूर्वी नदियों से पानी के अपने हिस्से का इस्तेमाल करने के लिए भारत ने सतलज पर भाखड़ा नांगल, व्यास पर पोंग और पंडोह तथा रावी पर थीन जैसे कई बड़े बांध बनाए। साथ ही माधोपुर में व्यास-सतलज लिंक, व्यास लिंक और इंदिरा गांधी नहर परियोजना जैसी छोटी परियोजनाएं भी बनाई गईं। इस बुनियादी ढांचे ने भारत को अपने अधिकार वाला लगभग 95 प्रतिशत पानी लाने और इस्तेमाल करने में मदद की। लेकिन बताया गया है कि रावी का लगभग 2 मिलियन एकड़ फुट पानी बिना इस्तेमाल हुए माधोपुर हेड वर्क्स से नीचे पाकिस्तान में उतर जाता है। भारत ने इस दो मिलियन एकड़ फुट पानी का इस्तेमाल करने के लिए तीन परियोजनाओं की योजना बनाई थी, लेकिन किसी कारण उन पर कोई प्रगति नहीं हुई। सितंबर, 2016 में सैन्य शिविर पर उड़ी आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते।” उस समय सरकार ने सिंधु जल आयोग की बातचीत टालने की घोषणा की। परिणामस्वरूप भारत के हिस्से के पानी का पूरा इस्तेमाल करने के लिए जरूरी काम की समीक्षा हेतु श्री नृपेंद्र मिश्र की अध्यक्षता में एक कार्यबल गठित किया गया। कार्य बल के फैसलों में पूर्वी नदियों के बिना इस्तेमाल के पानी को पाकिस्तान में बहकर जाने से रोकने के लिए उपरोक्त तीन परियोजनाओं पर तेजी से काम करने की बात शामिल थी। 2016 में घोषित इन परियोजनाओं का उद्घाटन हाल ही में किया गया। इन परियोजनाओं का विवरण इस प्रकार हैः
(क) गुरदासपुर में रावी नदी पर शाहपुर कांडी परियोजना- इस परियोजना का उद्देश्य थीन बांध के बिजली घर से आने वाले समूचे पानी का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर और पंजाब की 37,173 हेक्टेयर जमीन को सींचने तथा 206 मेगावाट बिजली बनाने के लिए करना है। अंतरराज्यीय परियोजना शाहपुर कांडी बांध को केंद्र सरकार ने फरवरी, 2008 में ‘राष्ट्रीय परियोजना’ के तौर मंजूरी दी थी। इसकी लागत 2,285.81 करोड़ रुपये तय की गई थी, जिसमें सिंचाई पर 653.97 करोड़ रुपये भी शामिल थे। परियोजना पर काम 2013 में शुरू हुआ, लेकिन जम्मू-कश्मीर सरकार की कुछ आपत्तियों के कारण 2014 में उसे रोक दिया गया। इस विलंब के कारण परियोजना की लागत बढ़कर 2,793.54 करोड़ रुपये हो गई। परियोजना से ऐसा जलाशय तैयार होगा, जो धारा में ऊपर स्थित रंजीत सागर बांध परियोजना के बिजलीघर को पीकिंग स्टेशन के तौर पर काम करने की क्षमता प्रदान करेगा। साथ ही उसके पास 206 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता होगी और पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों में 37,173 हेक्टेयर उपजाऊ क्षेत्र की सिंचाई भी होगी। दोनों राज्यों के बीच जरूरी समझौते होने के बाद पंजाब ने एक बार फिर इस पर काम शुरू कर दिया है। परियोजना पर केंद्र सरकार की नजर है। परियोजना को पूरा होने में 3 वर्ष लगेंगे।1
(ख) उझ बहूद्देश्यीय परियोजना- इससे रावी की सहायक नदी उझ का 780 घन मीटर पानी सिंचाई तथा बिजली उत्पादन के लिए इकट्ठा किया जा सकेगा। 5,850 करोड़ रुपये की लागत के साथ जुलाई, 2017 में उसे व्यवहार्यता मंजूरी दे दी गई। इसे राष्ट्रीय परियोजना घोषित किया गया है। परियोजना पूरी होने में 6 वर्ष लगेंगे।2 यह प्रतिष्ठित परियोजना है, जिससे न केवल 186 मेगावाट बिजली बनेगी बल्कि 31,380 हेक्टेयर सूखी भूमि को सींचा भी जा सकेगा। बहुत दुख की बात है कि इस महत्वाकांक्षी परियोजना को 17 वर्ष से बाधाएं और विलंब झेलना पड़ रहा था क्योंकि एक के बाद एक आने वाली राज्य सरकारों ने इस पर कोई काम नहीं किया था। शायद उन्हें अहसास ही नहीं था कि उनके राज्यों के लिए इसका कितना महत्व है और इसके शुरू होने पर अर्थव्यवस्था को कितनी ताकत मिलेगी। बताया जाता है कि प्रधानमंत्री इन राज्यों के अपने अगले दौरे में इसका शिलान्यास करेंगे।3
(ग) दूसरा रावी-व्यास लिंक- अभी तक बड़ी मात्रा में पानी पाकिस्तान में बहता जा रहा था। रावी की पांच सहायक नदियां - बसंतर, उझ, तरना, बीन और देवक - नीचे उतरकर माधोपुर में मुख्य नदी से मिलती हैं, लेकिन माधोपुर हेडवर्क्स के नीचे रावी की धारा का बिल्कुल भी पानी भारत में इस्तेमाल नहीं हो रहा था। एक सिद्धांत पत्र के आधार पर भारत सरकार ने फरवरी, 2008 में लगभग 784 करोड़ रुपये की लागत से राष्ट्रीय परियोजना के तौर पर दूसरी रावी-व्यास लिंक परियोजना की घोषणा की। अप्रैल, 2012 में इस विषय पर केंद्रीय जल आयोग की छठी बैठक में पेश रिपोर्ट के अनुसार लगभग 32 घन मीटर जल प्रति सेकंड यानी 5.8 लाख एकड़ फुट जल बहकर पाकिस्तान में जा रहा था, जिसका इस्तेमाल भारत में सिंचाई के लिए किया जा सकता है।4 यह परियोजना उझ नदी के नीचे है और इसका मकसद थीन बांध के निर्माण के बाद भी पाकिस्तान पहुंच रहे रावी नदी के अतिरिक्त जल को रोकना है, जिसके लिए रावी नदी के आर-पार बैराज बनाया जाएगा ताकि पानी को एक सुरंग के जरिये व्यास बेसिन से जोड़ा जा सके।5 लेकिन ध्यान रहे कि ये सभी परियोजनाएं निकट भविष्य में पाकिस्तान की ओर जल का बहाव रोकने में मदद नहीं कर पाएंगी। यदि सब कुछ ठीक रहा और शाहपुर कांडी परियोजना तय समय में पूरी हो गई तो तीन वर्ष के बाद पाकिस्तान जा रहे पानी में कमी आनी शुरू हो जाएगी और छह वर्ष बाद पानी पूरी तरह रोका जा सकेगा।
सिंधु जल संधि को खत्म करने की मांग एक बार फिर जोर पकड़ने लगी है। यह देखना पड़ेगा कि क्या यह संभव है या वांछनीय है या पर्यावरण की वास्तविकताओं को देखते हुए इस पर पुनर्विचार की जरूरत है। ऐसा संभव है क्योंकि साझे संसाधनों की साझेदारी वास्तव में तभी संभव होती है, जब दोनों पक्षों को इसकी जरूरत महसूस हो और इसकी व्यवस्था निष्पक्ष तथा न्यायपूर्ण हो। हालांकि यह संधि 58 वर्ष से चलती आ रही है, लेकिन पाकिस्तान और भारत दोनों को लगता है कि इसमें उनके साथ भेदभाव हो रहा है। पाकिस्तान की असली मांग विरासत के अधिकारों पर आधारित थी, जबकि उस समय भारत को लगा कि संसाधनों का बंटवारा जरूरत के आधार पर होना चाहिए। लेकिन अंत में भारत संधि की शर्तों पर राजी हो गया, हालांकि उनमें पाकिस्तान के साथ काफी दरियादिली बरती गई थी (लगभग 80 प्रतिशत पानी पाकिस्तान को दे दिया गया और केवल 20 प्रतिशत भारत के हिस्से आया। साथ ही भारत पश्चिमी नदियों पर बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए 620 लाख 60 हजार पाउंड स्टर्लिंग देने को भी राजी हो गया)।
शायद उस समय भारतीय नेतृत्व ने सोचा कि उसकी उदारता दोनों देशों के बीच रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करने में मदद करेगी। इसके उलट पाकिस्तान ने संधि को बेमन से स्वीकार किया। इस सिलसिले में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान का बयान महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, “सब कुछ हमारे खिलाफ था। समझौते की कोशिश ही इकलौता विकल्प था क्योंकि अगर हम समझौता नहीं करते तो हम सब कुछ गंवा देते। पाकिस्तान तीन पश्चिमी नदियों के पानी से ही सब्र कर रहा है, यही बात बताती है कि पश्चिमी पाकिस्तान की बढ़ती जरूरतों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने के लिए ऊपरी जल पर कब्जा करना कितना अहम है। इसलिए मेरे दिमाग में कश्मीर मसले के इकलौते समाधान की जगह यह संधि जल्द से जल्द करने की बात आ गई।”6
समय गुजरने पर संधि में कुछ खामियां देखी गई हैं। संधि में खामियों वाले कुछ पहलू और क्षेत्र इस प्रकार हैं:-
देश | क्षेत्रफल (वर्ग किमी) | कुल क्षेत्रफल का प्रतिशत |
---|---|---|
पाकिस्तान | 5,20,000 | 47 |
भारत | 4,40,000 | 39 |
चीन | 88,000 | 8 |
अफगानिस्तान | 72,000 | 6 |
कुल | 11,50,000 | 100 |
उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए संधि को भंग करना शायद सही विकल्प नहीं हो, लेकिन संधि पर पुनर्विचार करने का निश्चित तौर पर यह सटीक समय है क्योंकि सामाजिक-राजनीतिक माहौल काफी बदल गया है और पीछे मुड़कर देखने पर यह भी लगता है कि संधि कई मामलों में संतुलित नहीं थी। न तो उसमें सभी हितधारकों का ध्यान रखा गया और न ही उसमें उन सभी के साथ न्याय किया गया, जो सिंधु नदी के बेसिन में उपलब्ध पानी पर निर्भर हैं। पाकिस्तान चीन की हरकतों पर कोई सवाल नहीं उठाता है, लेकिन भारत पर सवाल खड़े करता है, जो सिंधु और सतलज के तट के बीच में पड़ता है। सिंधु के जल में अफगानिस्तान का बहुत योगदान है, लेकिन जब वह देश अपने संसाधनों का इस्तेमाल करने का फैसला करता है तो भी पाकिस्तान उसके साथ बात करने के बजाय भारत पर आरोप लगाता है।
यह तथ्य है कि पाकिस्तान के पास भंडारण की बहुत कम क्षमता (केवल 30 दिन के लिए, जबकि पूरी दुनिया में 120 दिन के लिए भंडारण का सामान्य चलन है) है।14 पाकिस्तान को हर वर्ष 180 बिलियन घन मीटर पानी मिलता है, जिसमें से केवल 75 प्रतिशत नहरों के मुहाने तक पहुंच पाता है और रिसाव तथा वाष्पीकरण के कारण केवल 30 प्रतिशत फसलों तक पहुंच पाता है।15 इसी तरह पाकिस्तान में पहुंचने वाला करीब 38 मिलियन एकड़ फुट पानी बहकर समुद्र में चला जाता है।16 इससे स्पष्ट पता चलता है कि पाकिस्तान मौजूदा संधि से मिलने वाले पानी को इस्तेमाल करने का पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहा है, जबकि संधि में उसके साथ बहुत उदारता बरती गई है। दुसरी ओर भारत ने सिंधु जल संधि के प्रावधानों का गंभीरता से पालन किया है; वास्तव में उसने उदारता दिखाते हुए वह पानी भी पाकिस्तान के साथ बांटा है, जो उसका है। मगर उदारता के बदले उसे सीमा पार आतंकवाद तथा खुली शत्रुता ही मिली है। इसीलिए संधि के मौजूदा स्वरूप पर व्यावहारिक ढंग से विचार करने का और उसका दायरा बढ़ाकर सभी हितधारकों को शामिल करने का एवं उनकी जरूरतों को सर्वसम्मति से समझने का यही सही समय है।
(आलेख में लेखक के निजी विचार हैं। लेखक प्रमाणित करता है कि लेख/पत्र की सामग्री वास्तविक, अप्रकाशित है और इसे प्रकाशन/वेब प्रकाशन के लिए कहीं नहीं दिया गया है और इसमें दिए गए तथ्यों तथा आंकड़ों के आवश्यकतानुसार संदर्भ दिए गए हैं, जो सही प्रतीत होते हैं)
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