अब जब इमरान खान ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद का दायित्व संभाल लिया है तो उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था के प्रबंधन की है। पाकिस्तान पर घरेलू और बाहरी कर्ज का बोझ बढ़ता ही जा रहा है, चीनी कर्जों के बोझ तले वह दबा जा रहा है और इन मुश्किल परिस्थितियों में राहत के लिए वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ की शरण में जाने की सोच रहा है। उसके ऋण एवं घाटे के प्रमुख आंकड़ों पर नजर डालने से आपके समक्ष पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की दयनीय दशा की स्पष्ट तस्वीर उभरेगी:
बाहरी मोर्चे पर स्थायित्व लाने के लिए स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान ने कुछ तात्कालिक कदम उठाए हैं जिनके तहत दिसंबर 2017 से अब तक पाकिस्तानी मुद्रा का 20 प्रतिशत तक अवमूल्यन किया गया है। यह कदम निर्यात को बढ़ावा देने में नाकाम रहा है और इससे सीएडी और ज्यादा बढ़ गया है। बाह्य ऋण से भी केवल विदेशी मुद्रा भंडार को तात्कालिक स्थायित्व मिला है।
पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के लिए पाकिस्तान के पूर्व वित्त मंत्री इशहाक डार की नीतियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूत करने के लिए उनकी उधार लेने की नीति ने हालात और खराब ही कर दिए। पिछले पांच वर्षों के दौरान पाकिस्तान की घरेलू उधारी जहां 7 लाख करोड़ रुपये तो विदेशी उधारी 43 अरब डॉलर रही।
पीएमएल-एन सरकार पर इस बात का भी आरोप है उसने वित्त अधिनियम, 2017 में संशोधन करके ऋण की परिभाषा को ही कमजोर कर दिया। वर्ष 2005 के राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं ऋण परिसीमन अधिनियम के तहत “कुल बकाया उधारी के योग” को ही ऋण के रूप में परिभाषित किया गया। जून 2017 के वित्त अधिनियम में इसे संशोधित करके “संचित निधि से इतर और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष” को ही ऋण माना गया और इसमें “सार्वजनिक उपक्रमों और सार्वजनिक प्रत्याभूत ऋण” को इस परिभाषा के दायरे से बाहर कर दिया गया। इस संशोधन से सरकारी ऋण के आंकड़ों में तीन लाख करोड़ रुपये की कमी आई।
बहरहाल उधारी और ऊंचा घाटा तब तक स्वीकार्य है जब तक कि उनसे उत्पादकता बढ़ने की संभावनाएं बनती दिखती हों और उनका ऐसी जगह पर निवेश किया जाए जहां से बेहतर प्रतिफल मिले। इसके उलट पाकिस्तान की अधिकांश उधारी ऋण अदायगी और गिरते विदेशी मुद्रा भंडार को संभालने में ही खर्च होती गई। इससे ढांचागत सुधारों के लिए बहुत ही कम संसाधन बचे रह गए। सीधे शब्दों कहें तो ऐसी उधारी से पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था इस संकट को टालने में ही सफल रही है।
चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के माध्यम से हो रहे निवेश से मिलने वाले प्रतिफल पर संदेह के बादल गहराने के अलावा पाकिस्तान का बेहद कमजोर कर आधार (वयस्क आबादी का महज एक प्रतिशत ही करदाता है) और खराब प्रदर्शन कर रहे सार्वजनिक उपक्रमों (जिनके कुल नुकसान का आंकड़ा लगभग एक लाख करोड़ रुपये हो गया है) ने नई सरकार के समक्ष चुनौतियां कई गुना बढ़ा दी हैं। यहां तक कि बिजली क्षेत्र भी जबरदस्त दबाव में है जो लगभग एक लाख करोड़ रुपये के चक्रीय ऋण से जूझ रहा है। सरकार पर बिजली उत्पादकों, वितरकों एवं ईंधन आपूर्तिकर्ताओं का भारी-भरकम बकाया है।
वित्त वर्ष 2018-19 के अंत तक पाकिस्तान की बाहरी मोर्चे पर वित्तीय जरूरतों के कुछ आकलन सामने आए हैं। पाकिस्तानी वित्त मंत्रालय ने इसके लिए 23 अरब डॉलर का अनुमान लगाया है, लेकिन आईएमएफ का अनुमान 27 अरब डॉलर का है। अर्थशास्त्री हफीज पाशा और फारूक सलीम ने इसके लिए 26 अरब डॉलर का अनुमान व्यक्त किया है। सलीम के अनुसार वर्ष 2022 तक यह जरूरत 45 अरब डॉलर तक पहुंच सकती है।
वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान पाकिस्तान में 2.7 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई हुआ, 2.3 अरब डॉलर सुकूक और यूरो बॉन्ड्स के जरिये आए तो उसने 6.8 अरब डॉलर की उधारी (जिनमें से 4.4 अरब डॉलर तो चीन से ही लिए ) ली जिससे यह आंकड़ा कुल 11.8 अरब डॉलर हो जाता है। उसका चालू खाते का घाटा ही 18 अरब डॉलर है तो उसे देखते हुए भी यह पूंजी प्रवाह पर्याप्त नहीं है और इसमें अभी भी 6.2 अरब डॉलर कम पड़ जाते हैं। ऐसे में यह देखना बाकी है कि पाकिस्तान चालू वित्त वर्ष में इसकी भरपाई करने के लिए क्या प्रबंध करता है। नई सरकार के लिए तात्कालिक राहत तो यही आई है कि चीन और सऊदी अरब ने विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर मदद का आश्वासन दिया है। जहां सीपीईसी के माध्यम से मिल रहे चीनी ऋण और मशीनरी आयात पेचीदा चीन-पाक आर्थिक रिश्तों की मुख्य कड़ी हैं, ऐसे में पाकिस्तान पूरी तरह चीन पर निर्भर नहीं रह सकता। वह आईएमएफ की शरण में जाने के अलावा विदेशी मुद्रा के अपने स्रोतों में भी विविधता लाने के विषय में सोचेगा।
इमरान खान भले ही अपने पुराने भाषणों में कहते आए हों कि पाकिस्तान को आईएमएफ से मदद की कोई जरूरत नहीं, इसके बावजूद समस्या की विकरालता को देखते हुए पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी (पीटीआई) आईएमएफ की शरण में जाने पर गंभीरता से विचार कर रही है। बीते तीन दशकों में पाकिस्तान आईएमएफ से 12 बार राहत पैकेज ले चुका है। आईएमएफ की एक्सटेंडेड फंड फैसिलिटी (ईएफएफ) के तहत पाकिस्तान ने पिछली बार 2016 में आईएमएफ से 6.6 अरब डॉलर का ऋण लिया था। यदि पाकिस्तान फिर आईएमएफ से संपर्क करता है तो इस तरह वह 13वें राहत पैकेज के लिए वार्ता करेगा। पाकिस्तान का विशेष आरहण अधिकार (एसडीआर) कोटा फिलहाल 20.31 करोड़ एसडीआर है। वहीं ईएफएफ के तहत आईएमएफ भुगतान संतुलन की समस्या से जूझ रहे देशों को उनके एसडीआर कोटा के 435 प्रतिशत तक का ऋण दे सकता है। इस प्रकार ईएफएफ के तहत पाकिस्तान 12.1 अरब डॉलर तक उधार ले सकता है। इससे पहले पाकिस्तान ने जो 6.6 अरब डॉलर का ऋण लिया हुआ है उसकी किस्तें उसे 2026 तक चुकानी हैं। ऐसे में ईएफएफ की सामान्य परिस्थितियों में पाकिस्तान की ऋण लेने की सीमा 6 अरब डॉलर तक सिमट गई है। वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान आईएमएफ ने लगभग 24.3 करोड़ एसडीआर (डॉलर की मौजूदा कीमत के अनुसार 33 करोड़ एसडीआर) की किस्त का अनुमान लगाया है जिसके वर्ष 2021 तक 82 करोड़ डॉलर यानी तकरीबन एक अरब डॉलर के आसपास पहुंचने का अनुमान है। वहीं एक नियम यह भी है कि आईएमएफ की देनदारी किसी एक वर्ष के भीतर समूचे विदेशी ऋण के 6 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।
आईएमएफ में अमेरिका का प्रभावशाली वर्चस्व है। अमेरिका न केवल तालिबान के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान के लचर रवैये से परेशान है, बल्कि चीनी ऋणों पर पाकिस्तान की बढ़ती निर्भरता भी अमेरिका को चिंतित कर रही है। चीनी ऋणों पर पाकिस्तान की बढ़ती निर्भरता ने अमेरिकी नीति निर्माताओं को इतना चिंतित कर दिया है कि अभी हाल में 16 सीनेटरों ने ट्रंप प्रशासन से गुहार लगाई है कि वह उन देशों को आईएमएफ की वित्तीय मदद रोकने का प्रस्ताव तैयार करे जिन्होंने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत चीन से कर्ज लिया है। चुनाव के बाद भी अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ ने पाकिस्तान को लेकर आईएमएफ की कार्रवाई को लेकर अपनी चिंता जताई कि कहीं इस राशि का इस्तेमाल वह चीनी कर्जे को उतारने या चीन की मदद में न खर्च करे।
शायद यह आर्थिक संकट का ही तकाजा था कि इमरान खान मंत्रिमंडल के लिए भले ही पीटीआई ने बाकी पत्ते बाद में खोले हों, लेकिन वित्त मंत्री के रूप में असद उमर के नाम की घोषणा करने में देरी नहीं की। इस बात को समझते हुए कि देश भारी संकट के दौर में है तो उमर ने भी इस पर त्वरित प्रतिक्रया देते हुए कहा कि आईएमएफ की मदद लेने पर सितंबर में विचार किया जाएगा। मार्च 2018 में आईएमएफ पाकिस्तान के साथ मदद के बाद उसकी निगरानी पर चर्चा कर चुका है। आईएमएफ यह व्यापक निगरानी उन्हीं बकायेदार सदस्य देशों के साथ करता है जिनकी पुनर्भुगतान अवधि खत्म हो गई हो। यह रिपोर्ट पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की संभावनाओं में तो भरोसा जताती है (जिसमें 5.8 प्रतिशत की दर से होने वाली आर्थिक वृद्धि, बिजली की बढ़ी आपूर्ति और सीपीईसी निवेश का अहम योगदान है), लेकिन बाह्य एवं वित्तीय असंतुलन पर चिंता भी व्यक्त करती है।
आईएमएफ की मदद से पाकिस्तान को केवल भुगतान संतुलन का ही समाधान नहीं, बल्कि कुछ ढांचागत सुधार भी करने होंगे। इसके लिए कई कड़े फैसले लेने होंगे। उसे सीपीईसी से जुड़ी परियोजनाओं में पारदर्शिता लानी होगी तो कर्ज के बोझ तले कराह रहे सार्वजनिक उपक्रमों (विशेषकर पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस और पाकिस्तान स्टील मिल्स) का पुनर्गठन करना होगा। ऐसे में इमरान खान को कुछ कड़े आर्थिक फैसलों के साथ अपने कार्यकाल की शुरुआत करनी होगी जिनमसें करों का दायरा बढ़ाने के साथ ही खर्चों में कटौती करनी होगी। ऐसे कदम उस आबादी के बीच शायद लोकप्रिय नहीं होंगे जो ‘नया’ पाकिस्तान बनने की बाट जोह रही है।
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