स्वामी विवेकानंद (1863-1902) ने बहुत यात्राएं की थीं। जो व्यक्ति 40 वर्ष भी जीवित नहीं रहा हो, उसके लिए भारत और दुनिया के दूसरे भागों की इतनी व्यापक यात्रा करना संयोग मात्र नहीं था। यह उस कार्य का हिस्सा था, जिसे करने के लिए उन्हें चुना गया था। दूसरी ओर वह जहां भी गए, उनका व्यक्तित्व हमारी प्राचीन भूमि के संदेश का प्रतिनिधित्व करता रहा; विदेशों में वह लोगों के सामान्य प्रवृत्तियों और स्वभाव पर तथा समाज के कामकाज के तरीकों पर पैनी नजर रखते रहे। यूरोप में 1890 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1900 के दशक के आरंभिक वर्षों में यूरोप की अपनी यात्राओं के आधार पर वह पहले ही यह भविष्यवाणी कर चुके थे कि युद्ध होने वाला है। उन्होंने जनता का प्रतिनधित्व करने वाले देश के रूप में रूस और चीन का उदय होने की भविष्यवाणी भी कर दी थी। और ये राजनीतिक अथवा भू-सामरिक अनुमान नहीं थे! इन अनुमानों का कारण यह था कि उन्हें प्रकृति के नियमों और मानव स्वभाव के नियमों की गहरी समझ थी।
यह बात शायद कम लोगों को पता है कि विवेकानंद विश्व धर्म संसद के लिए भारत से शिकागो जाते समय विवेकानंद ने एशिया के शहरों की यात्रा भी की थी। अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने चीन और जापान के समाजों पर जो टिप्पणियां कीं, वे एकदम सटीक हैं। ये अनुभव और धारणाएं उन पत्र में हैं, जो उन्होंने 10 जुलाई, 1893 को योकोहामा से मद्रास के अपने शिष्यों और मित्रों के नाम लिखा था। इस लेख में चीन और जापान के विषय में स्वामी के कुछ विचारों की चर्चा होगी।
वह 31 मई, 1893 को एस. एस. ‘पेनिन्सुलर’ पर सवार होकर बंबई से रवाना हुए (इसकी याद में गेटवे ऑफ इंडिया पर उनकी प्रतिमा लगाई गई है)। जहाज पहले कोलंबो पहुंचा, जहां स्वामी शहर देखने के लिए उतर गए। अगला पड़ाव मलय प्रायद्वीप में पेनांग था। पेनांग से सिंगापुर जाते हुए उन्होंने सुमात्रा को देखा। उसके बाद उन्होंने सिंगापुर का विस्तृत वर्णन किया।
अगला पड़ाव हॉन्गकॉन्ग था। उन्होंने कहाः “आपको लगता है कि आप चीन पहुंच गए हैं, चीन यहां इतना प्रबल है। सारे श्रमिक, सारा व्यापार उनके ही हाथ में लगता है। और हॉन्गकॉन्ग असली चीन है।”1 उसके बाद विवेकानंद ने यात्रियों को जहाज से तट तक ले जाने वाले नाविकों की जीवन शैली के बारे में बताया। “दो पतवारों वाली ये नावें विशेष प्रकार की हैं। नाविक का पूरा परिवार नाव में ही रहता है। नाविक की पत्नी लगभग हर समय पतवार थामे रहती है, एक अपने हाथों से और दूसरी पैरों से। और नब्बे प्रतिशत मौकों पर उसकी पीठ पर बच्चा बंधा रहता है, जिसके हाथ, पांव और नन्ही सी ठोड़ी ही दिख रही होती है। यह अजीब सा दृश्य है, जहां मां पूरी ताकत के साथ भारी वजन धकेलती है, फुर्ती के साथ एक नाव से दूसरी नाव पर कूदती है और छोटा सा बच्चा चुपचाप उसकी पीठ से लटका रहता है।”2 इस वर्णन से पाठकों को साफ पता चल जाएगा कि चीनी लोग कितने दृढ़ होते हैं। विवेकानंद अगली कुछ पंक्तियों में इस बात को और भी स्पष्ट करते हैं: “चीनी बच्चा दार्शनिक की तरह होता है और उस उम्र में भी चुपचाप काम पर जाता है, जिस उम्र में आपका भारतीय बच्चा घुटनों के बल भी मुश्किल से चल पाता है। वह आवश्यकता का दर्शन भी अच्छी तरह से समझ चुका है। चीनियों और भारतीयों के इस ठहरी हुई सभ्यता में रहने का एक कारण यह अत्यंत गरीबी भी है। आम हिंदू अथवा चीनी के लिए दैनिक आवश्यकताएं ही इतनी दुष्कर हैं कि वे उसे कुछ और सोचने ही नहीं देतीं।”3 निश्चित रूप से भारत और चीन ने प्राचीन काल में महान सभ्यताओं को जन्म दिया है, लेकिन जैसा कि विवेकानंद ने फौरन भांप लिया, अत्यंग निर्धनता ने सभ्यता की प्रगति को रोक दिया है क्योंकि अधिकांश जनता के लिए दो जून की रोटी कमाने की चिंता शेष सभी चिंताओं से बढ़कर थी।
उनकी चीन यात्रा की बात करें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि विवेकानंद ने 1896 में यह क्यों कहा था कि अगली “क्रांति” रूस या चीन से होगी। उन्होंने स्वीकार किया कि वह निश्चित तौर पर नहीं कह सकते कि क्रांति दोनों में से कहां से होगी। यह बात व्यापारियों के उदय (उपनिवेशवाद) की ऐतिहासिक अवधि के बाद जनता के उदय के विषय में थी। आज हमें पता है कि रूस और चीन दोनों में ही साम्यवादी शासन के अंतर्गत जनक्रांति हुईं। हम कह सकते हैं कि भारत में भी दलितों की मुखरता और आर्थिक रूप से पिछड़े विभिन्न समूहों की अधिकारों की मांग के रूप में क्रांति की अनुभूति हो रही है। विवेकानंद के अनुसार यह ऐतिहासिक आवश्यकता है, जिसके उपरांत हम एक बार फिर उच्च एवं उन्नत विषयों के बारे में सोच सकते हैं तथा सांस्कृतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं।
विवेकानंद तीन दिन तक हॉन्गकॉन्ग में ठहरे। उन्होंने इसे सुंदर शहर बताया। वे कैंटन देखने गए, जिसका उन्होंने विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने कैंटन में कई चीनी मठ भी देखे। उसके बाद वह हॉन्गकॉन्ग लौटे और जापान के लिए रवाना हो गए। वह नागासाकी में उतरे और कहाः “जापानी पृथ्वी पर सबसे साफ लोगों में से हैं। सब कुछ साफ और व्यवस्थित है। उनकी सड़कें चौड़ी, सीधी और पक्की हैं... छोटे कद के, गोरी रंगत के, अनूठी पोशाक पहले जापानियों की चाल, तौर-तरीके, भाव-भंगिमा, सब कुछ मन मोहता है। जापान मनोहारी भूमि है।”4 उसके बाद वह कोबे पहुंचे और जापान के भीतरी प्रदेश देखने के इरादे से वह वहां से भूमि के रास्ते योकोहामा गए। उन्होंने तीन बड़े शहर देखेः विनिर्माण का बड़ा ठिकाना ओसाका, पहले की राजधानी क्योटो और मौजूदा राजधानी टोक्यो। उन्होंने कहा कि जापानियों को वर्तमान समय की आवश्यकताओं का पूरा भान है और उन्होंने अपनी सेना गठित की है तथा नौसेना में वृद्धि कर रहे हैं। उन्होंने देखा कि जापानी सब कुछ अपने ही देश में बनाने के लिए कटिबद्ध हैं। संस्कृति के संबंध में स्वामी के विचार भारतीयों को आनंदित कर सकते हैं: “मैंने कई मंदिर देखे। प्रत्येक मंदिर में पुराने बंगाली अक्षरों में संस्कृत के कुछ मंत्र लिखे हैं। संस्कृत का ज्ञान बहुत कम पुजारियों को है। लेकिन यह बुद्धिमान वर्ग है... जापानियों के लिए भारत अब भी स्वप्नभूमि है, जहां सब कुछ उन्नत और अच्छा है।”5
संयोग से भारतीय सभ्यता ने जापान की वर्तमान संस्कृति से पहले की संस्कृति में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई; इतनी कि जापान व्यवस्थित तरीके से स्वयं को भारत से पहचानने लगा।” 6 और दोनों देशों के बीच बहुत कम संपर्क होने के बावजूद ऐसा है। फाबियो रैंबेली कहते हैं: “उन्नीसवीं शताब्दी तक जापानी बौद्ध ऐसी विश्व व्यवस्था की कल्पना करते थे, जिसका केंद्र भारत था, चीन परिधि पर था... कम से कम सत्रहवीं शताब्दी तक कई जापानी बुद्धिजीवी अपने देश और संस्कृति की कल्पना चीन से जोड़कर ही नहीं करते थे, बल्कि विशेष तौर पर भारत अथवा तेनजिकू (जापानियों के लिए भारत) से भी जोड़ते थे।”7
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण विवेकानंद की वह टिप्पणी है, जो उन्होंने अपने शिष्यों को इन देशों का परिचय देने के उपरांत की थीः “...मैं चाहता हूं कि हमारे ढेर सारे युवा हर वर्ष जापान और चीन की यात्रा करें।”8 क्यों? निश्चित रूप से वह ऐसे किसी भू-सामरिक लाभ की बात नहीं कर रहे थे, जो भारत को उस समय ऐसे संपर्क से प्राप्त हो सकता था। वह उस संपूर्ण एशियाईवाद के सिद्धांत का समर्थन भी नहीं कर रहे थे, जो बीसवीं सदी में विशेषकर रवींद्रनाथ ठाकुर की चीन एवं जापान यात्रा के उपरांत सामने आने वाला था। इस सिद्धांत की उत्पत्ति के लिए यह समय बहुत जल्दी का था। हमें उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में भारत की स्थिति को भी भूलना नहीं चाहिए। जातीय उत्पीड़न और अवर्णनीय गरीबी के कारण भारतीय समाज की स्थिति बहुत जर्जर थी और उसी से द्रवित होकर विवेकानंद ने शिकागो तक की यात्रा की, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने संघर्षरत जापानियों और चीनियों की सराहना की। उनके लिए चीन और जापान खत्म होते भारतीय वंश को इसका उदाहरण तो दे ही सकते थे कि एक साथ बेहतर बनने के लिए प्रयास करने से क्या हो सकता है। ये सभी एशियाई सभ्यताएं ही थीं, यूरोपीय भौतिकतावाद में धंसी नहीं थीं, आध्यात्मिक संस्कृति का सम्मान करती थीं किंतु विभाजनकारी अंधविश्वास में नहीं फंसी थीं और बेहद परिश्रमी तथा कुशल थीं, जो फौरन काम में जुट जाती थीं। इसलिए उन्होंने कहाः “आइए, इन लोगों को देखिए... आइए, मनुष्य बनिए! अपने संकीर्ण विचार छोड़िए और व्यापक दृष्टि रखिए। देखिए कि राष्ट्र कैसे आगे बढ़ते हैं! क्या आप मनुष्य से प्रेम करते हैं? क्या आप अपने देश से प्रेम करते हैं? तब आइए, हम और उन्नत एवं बेहतर वस्तुओं के लिए संघर्ष करें... भारत कम से कम एक हजार युवाओं का बलिदान चाहता है - मानव, मस्तिष्क का किंतु बर्बर लोगों का नहीं।”9
संदर्भः
1. स्वामी विवेकानंद टु अलासिंगा, बालाजी, जी.जी., बैंकिंग कॉर्पोरेशन एंड मद्रास फ्रेंड्स, 10 जुलाई, 1893: लेटर्स ऑफ स्वामी विवेकानंद, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 2013, पृष्ठ 34
2. उपरोक्त, पृष्ठ 34
3. उपरोक्त, पृष्ठ 34-35
4. उपरोक्त, पृष्ठ 36
5. उपरोक्त, पृष्ठ 36-37
6. फाबियो रैंबेली, ‘द आइडिया ऑफ इंडिया (तेनजिकू) इन प्री-मॉडर्न जापानः इश्यूज ऑफ सिग्निफिकेंस एंड रिप्रेजेंटेशन इन द बुद्धिस्ट ट्रांसलेशन ऑफ कल्चर्स’, तानसेन सेन संपादित बुद्धिज्म अक्रॉस एशियाः नेटवर्क्स ऑफ मटीरियल, इंटेलेक्चुअल एंड कल्चरल एक्सचेंज, अंक 1, आईसीज एंड मनोहर, सिंगापुर एवं नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ 261
7. उपरोक्त, पृष्ठ 259
8. लेटर्स ऑफ स्वामी विवेकानंद, पृष्ठ 37
9. उपरोक्त, पृष्ठ 37
(उपरोक्त लेख में लेखक के अपने विचार हैं और वीआईएफ का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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