प्रधानमंत्री मोदी ने विदेश नीति के क्षेत्र में हाल ही में एकदम नई सोच का प्रदर्शन किया है। इससे पता चलता है कि भविष्य में भारत के सामने आने वाली चुनौतियों से वह अच्छी तरह से वाकिफ हैं।
अप्रैल, 2018 में शी चिनफिंग के साथ ‘अनौपचारिक शिखर वार्ता’ चीन-भारत संबंधों में आ रही उस कड़वाहट को रोकने का प्रयास था, जो भारतीय सेना तथा पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के बीच 2017 में हुए डोकलाम विवाद में दिखी थी। प्रधानमंत्री मोदी ने मई में रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ सोशी में एक और ‘अनौपचारिक वार्ता’ की, जिसका उद्देश्य भारत-रूस संबंधों को सकारात्मक बनाए रखना था। रूस खास तौर पर चतुष्कोणीय समूह या ‘क्वाड’ के पुनर्जीवित होने के बाद से अमेरिका की ओर भारत के बढ़ते झुकाव को लेकर चिंतित रहा है। नेपाली प्रधानमंत्री ओली की भारत यात्रा के महीने भर के भीतर ही वह नेपाल की यात्रा पर भी गए। दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच मुलाकात का मकसद प्रधानमंत्री ओली के पिछले कार्यकाल के दौरान बिगड़ चुके भारत-नेपाल संबधों को पटरी पर लौटना था।
आगे की चुनौतियां
अमेरिकी प्रतिबंधः ये कदम स्वागतयोग्य और आवश्यक हैं, लेकिन अगले कुछ महीनों में भारत की विदेश नीति को कुछ बड़ी समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। एक चुनौती ईरान के साथ परमाणु समझौते से अमेरिका के हटने के कारण भारत पर पड़ने वाले प्रभाव से संबंधित है। अमेरिका ईरान पर और ईरान के साथ व्यापार करने वाली कंपनियों पर प्रतिबंध लगा सकता है। इसका चाबहार और ईरान में चल रही अन्य भारतीय परियोजनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है। ईरान से होते हुए अफगानिस्तान तक पहुंचने का वैकल्पिक रास्ता तैयार करने और पश्चिम एशिया एवं स्वतंत्र देशों के राष्ट्रकुल (सीआईएस) तक पहुंचने की भारत की इच्छा भी खतरे में पड़ जाएगी। हालांकि यूरोपीय संघ और ईरान परमाणु संधि के अन्य सदस्यों ने इस समझौते पर कायम रहने का निश्चय जताया है, लेकिन अमेरिकी प्रतिबंध लागू होते ही स्थिति बदल सकती है।
पश्चिमी देशों विशेषकर जापान, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और इटली आदि की कई कंपनियां ईरान में बड़ी रकम लगा रहे हैं। इससे पता चलता है कि यूरोपीय संघ अमेरिका के रास्ते पर चलने के लिए तैयार क्यों नहीं है। इससे भारतीय कंपनियों को वह मौका मिलेगा, जिसकी उन्हें जरूरत है और वे यूरोपीय बैंकों के जरिये ईरान में कारोबार भी कर सकेंगी। किंतु ईरान में कारोबार करने पर अनिश्चितता छा गई है। भारतीय कंपनियों का अमेरिका में अच्छा खासा कारोबार है, इसलिए संभवतः वे अमेरिका का गुस्सा झेलने और अमेरिकी राष्ट्रपति के आक्रोश की शिकार बनना नहीं चाहेंगी। भारतीय कंपनियों को हिम्मत दिखानी चाहिए और ईरान संधि से अमेरिका के हटने का फायदा उठाना चाहिए, उससे डरना नहीं चाहिए।
रूसः भारत को अमेरिका और रूस के बिगड़ते रिश्तों के प्रति सतर्क रहना होगा। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में रूस की भूमिका ने दोनों के बीच संदेह और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू करा दिया है। अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में भी रूस को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती बताया गया है। इस बात की संभावना है कि अमेरिका रूस पर भी प्रतिबंध लगा देगा। ऐसा हुआ तो रूस के साथ भारत के आर्थिक संबंधों पर भी असर पड़ सकता है। इसका भारत और रूस के बीच राजनीतिक संबंधों पर भी असर पड़ेगा। भारत-रूस संबंधों को अमेरिका-रूस संबंधों के नकारात्मक प्रभाव से दूर रखने के लिए भारत को कोई रास्ता तलाशना होगा। यह आसान नहीं होगा।
उत्तर कोरियाः राज्य मंत्री जनरल वी के सिंह हाल ही में उत्तर कोरिया गए थे। यात्रा बहुत पहले ही हो जानी चाहिए थी, जब 2015 में उत्तर कोरिया के विदेश मंत्री भारत की यात्रा पर आए थे। लेकिन भारत ने जोखिम लेने से परहेज किया और उत्तर कोरिया की उस पहल का वैसा ही जवाब नहीं दिया। बहरहाल स्थिति काफी बदल चुकी है। उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के नेताओं के बीच शिखर बैठक हो चुकी है और राष्ट्रपति ट्रंप तथा किम जोंग-उन के बीच जून में शिखर वार्ता प्रस्तावित है। यह तय नहीं है कि वास्तव में शिखर वार्ता होगी अथवा सफल शिखर वार्ता होगी। फिर भी पूर्वी एशिया में माहौल नाटकीय रूप से बदल चुका है। भारत को इस बात का फैसला करना पड़ेगा कि पूर्वी एशिया में आरंभ हो चुकी परमाणु निरस्त्रीकरण में वह सक्रिय भूमिका निभाएगा अथवा नहीं। यह आसान नहीं होगा क्योंकि बेहद सतर्क रहने के कारण भारत खुद को इस क्षेत्र से अलग-थलग कर चुका है और दूसरे देशों को उसकी जगह लेने का मौका मिल रहा है। लेकिन मुक्त एवं खुले हिंद-प्रशांत का विचार पैदा होने के बाद और उसमें भूमिका निभाने की भारत की मंशा के कारण स्वाभाविक ही है कि कोरियाई प्रायद्वीप में चल रही परमाणु निरस्त्रीकरण की प्रक्रिया से भारत अलग-थलग या बचा नहीं रह पाएगा। वी के सिंह की उत्तर कोरिया यात्रा संभवतः क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभाने की भारत की इच्छा का संकेत थी। किंतु उसके पास कुछ सकारात्मक विचार तथा उत्तर कोरिया के साथ गहरा संपर्क होना चाहिए। भारत को यह बूझना पड़ेगा कि चीन के रास्ते में आए बगैर बड़ी भूमिका कैसे निभाई जाए। दूसरा रास्ता यह है कि कुछ भी नहीं किया जाए और किनारे बैठकर देखा जाए।
क्वाडः ऐसा लग रहा है कि नवंबर, 2017 में फिर आरंभ की गई अमेरिका-भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया चौकड़ी यानी क्वाड के विचार को सदस्य देशों ने फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया है। क्वाड के विचार को विकसित करने का काम बहुत अधिक नहीं हुआ है। हिंद-प्रशांत के लिए फौरन महत्वपूर्ण सुरक्षा ढांचा तैयार करने की आवश्यकता है, लेकिन क्वाड के सदस्य देश अभी तक बारीकियों पर ही सहमत नहीं हो पाए हैं। पूरी दिलचस्पी के साथ क्वाड पर नजर गड़ाए बैठे क्षेत्र के अन्य देश यह मान चुके हैं कि क्वाड का विचार परवान नहीं चढ़ रहा है - कम से कम अभी तो नहीं। चीनी नेता ने क्वाड को “समुद्र के ऊपर उतराता फेन” करार दिया है, जो अंत में गायब हो जाएगा। भारत को सुनिश्चित करना होगा कि क्वाड का विचार हवा नहीं हो जाए। क्वाड के लिए एक दृष्टि और ढांचा भारत को ही तैयार करना होगा।
अफगानिस्तानः अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति बिगड़ती जा रही है, लेकिन भारत और चीन इस देश में संयुक्त परियोजना पर काम के लिए राजी हो गए हैं। सकारात्मक विचार बताकर इसकी सराहना की गई है, लेकिन भारत को सुनिश्चित करना होगा कि चीन के साथ मिलकर काम करने के फेर में अफगानिस्तान पर उसका प्रभाव हल्का न पड़ जाए। पाकिस्तान के कारण अफगानिस्तान में चीन का एजेंडा भारत के एजेंडा से अलग है। अफगानिस्तान में स्थिरता लाने के लिए चीन पाकिस्तान पर भरोसा करता है, जबकि भारत पाकिस्तान की नकारात्मक भूमिका को लेकर बहुत अधिक सशंकित रहता है।
शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ): जल्द ही पेइचिंग में एससीओ शिखर बैठक होने जा रही है। भारत को औपचारिक सदस्यता मिलने के बाद प्रधानमंत्री मोदी पहली बार शिखर बैठक में हिस्सा लेंगे। भारत को एससीओ में सकारात्मक एजेंडा पेश करना चाहिए ताकि क्षेत्र के विकास में उसकी बड़ी भूमिका सुनिश्चित हो सके। चीन भारत पर बेल्ट एवं रोड कार्यक्रम (बीआरआई) का विचार स्वीकार करने का दबाव डाल सकता है। भारत को सुनिश्चित करना होगा कि बीआरआई में उसका मुख्य रुख केवल इसीलिए कमजोर न पड़ जाए कि अब वह एससीओ का सदस्य है। इसके लिए उसे क्षेत्र के वास्ते सकारात्मक तथा वैकल्पिक एजेंडा लाना चाहिए। आतंकवाद से निपटने तथा क्षमता निर्माण के क्षेत्र में सहयोग ऐसे विचार हैं, जिन्हें भारत एससीओ शिखर बैठक में प्रस्तुत कर सकता है।
तेल मूल्यः तेल की उबलती कीमतों का मतलब है भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कठिनाइयां। भारत को नवीकरणीय और परमाणु ऊर्जा को गति देकर तेल के आयात पर अपनी निर्भरता कम करने का प्रयास करना चाहिए। नवीकरणीय ऊर्जा कार्यक्रम तो ठीक तरीके से आगे बढ़ रहा है, लेकिन परमाणु ऊर्जा पर और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही पावर ग्रिड को नुकसान पहुंचाए बगैर सौर ऊर्जा को उसके साथ जोड़ने की चुनौती अब भी खत्म नहीं हो पाई है। परमाणु ऊर्जा ग्रिड के लिए आधार ऊर्जा के तौर पर उपयोगी है।
निष्कर्ष
उपरोक्त चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को अपनी ताकत इस्तेमाल करनी होगी। उसकी ताकत अन्य देशों के साथ क्षमता निर्माण समेत व्यापक सहयोग के विचार में निहित है। भारत अपारंपरिक सुरक्षा के मसलों को भी सहयोग के क्षेत्र के रूप में पेश कर सकता है। अफगानिस्तान की तर्ज पर ही उत्तर कोरिया में भी भारत तकनीकी और क्षमता निर्माण सहयोग प्रदान कर सकता है। कूटनीतिक मोर्चे पर भारत को ईरान और रूस पर लगने वाले प्रतिबंधों से समुचित छूट हासिल करने के लिए अमेरिका से बातचीत करनी होगी ताकि क्षेत्र में भारत के हितों पर उन प्रतिबंधों का प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
(लेख में संस्था का दृष्टिकोण होना आवश्यक नहीं है। लेखक प्रमाणित करता है कि लेख/पत्र की सामग्री वास्तविक, अप्रकाशित है और इसे प्रकाशन/वेब प्रकाशन के लिए कहीं नहीं दिया गया है और इसमें दिए गए तथ्यों तथा आंकड़ों के आवश्यकतानुसार संदर्भ दिए गए हैं, जो सही प्रतीत होते हैं)
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