राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में नई रक्षा समिति का गठन
G. Mohan Kumar

रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में एक रक्षा योजना समिति (डीपीसी) का गठन किया है। इसके उद्देश्य हैं: (1) राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का निर्माण; (2) क्षमता विकास योजना का निर्माण; (3) रक्षा कूटनीति पर काम; और (4) भारत में रक्षा निर्माण में सुधार। ऊपर दिए गए हरेक विषय के लिए उप समितियां बनाई जानी हैं और समिति में वित्त तथा विदेश मंत्रालयों के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे।

हैरत की बात है कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) नाम का भरापूरा निकाय और उसका सचिवालय है, जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाने का जिम्मा सरकार आसानी से सौंप सकती है तो ऐसी समिति बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी। राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बहुत व्यापक होनी चाहिए और रक्षा रणनीति उसकी एक महत्वपूर्ण घटक होनी चाहिए। इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के सभी पहलुओं का समावेश होना चाहिए चाहे वह आंतरिक सुरक्षा हो, साइबर सुरक्षा हो, राष्ट्रीय संसाधनों की सुरक्षा हो या ऊर्जा सुरक्षा। इस प्रकार इसमें ऐसे विभिन्न क्षेत्र शामिल होने चाहिए, जिनका सुरक्षा बलों से संबंधित होना आवश्यक नहीं है। यदि रक्षा मंत्रालय ने ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ शब्द का प्रयोग राष्ट्रीय रक्षा रणनीति के लिए किया है तो यह काम रक्षा विशेषज्ञों की किसी समिति को सौंपा जा सकता था, जो हमारे मुख्य शत्रुओं के कारण हो रहे सुरक्षा संबंधी खतरों का और हिंद महासागर क्षेत्र में संभावित चुनौतियों का आकलन कर संपूर्ण रक्षा रणनीति तैयार कर देती और उसे सुरक्षा पर मंत्रिमंडलीय समिति की मंजूरी के लिए पेश कर दिया जाता। मंजूर की गई रक्षा रणनीति के आधार पर रक्षा मंत्रालय समग्र क्षमता विकास योजना भी तैयार कर सकता था।

हालांकि यह बात उचित ही है कि क्षमता योजना सुरक्षा (रक्षा) रणनीति पर आधारित हो, लेकिन ऐसा लगता है कि नई समिति के गठन का फैसला चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) अथवा परमानेंट चेयरमैन ऑफ द चीफ ऑफ द स्टाफ कमेटी (पीसीसीओएससी) की नियुक्ति को और टालने का अथवा इस विचार को ही ठंडे बस्ते में डाल देने की कोशिश है। कारगिल समीक्षा समिति और नरेश चंद्रा समिति जैसी विशेषज्ञ समितियों ने क्षमता विकास के संदर्भ में समग्र रक्षा नियोजन एवं तीनों सेनाओं के एकीकरण की आवश्यकता पर विचार किया था। इन समितियों ने सतर्कता के साथ विचार करने के बाद सीडीएस अथवा पीसीसीओसीएस की नियुक्ति की सिफारिश की थी। उनकी योजना के अनुसार सेना के तीनों अंगों की प्रतिस्पर्द्धी आवश्यकताओं के बारे में संतुलित नजरिया रखते हुए और रक्षा व्यय को अभीष्टतम बनाते हुए समग्र रक्षा योजना तैयार करने की जिम्मेदारी सीडीएस अथवा पीसीसीओएससी की होगी। इसमें सीडीएस अथवा पीसीसीओएससी की भूमिका पूरी तरह बौद्धिक होगी और परिचालन से जुड़ी नहीं होगी। वह संतुलित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति होना चाहिए, जो अपनी वरिष्ठता और अनुभव के बल पर सेना के प्रत्येक अंग की अनुचित मांगें बंद कर और दोटूक बात कहकर उनके बीच सामंजस्य सुनिश्चित करे। अगर रक्षा मंत्रालय के सामने सीडीएस अथवा पीसीसीओएससी की ऊपर बताई गई भूमिका एकदम स्पष्ट है तो यह आशंका एकदम गलत है कि इस प्रस्तावित अधिकारी के पास बहुत अधिक अधिकार होंगे।

यह सर्वविदित है कि दीर्घकालिक संघटित संदर्श योजना (एलटीआईपीपी) में 15 वर्ष के लिए क्षमता विकास योजना पहले ही बना दी गई है। किंतु एलटीआईपीपी की कमजोरी यह है कि वह क्षमताओं की महत्वाकांक्षी सूची भर है, जिसका न तो वास्तविकता से कोई नाता है और न ही जिसके लिए धन उपलब्ध है। अपने मौजूदा रूप में वह आदर्श खाका ही है, जिसके पास धन या तार्किक सेना का ढांचा नहीं है। एलटीआईपीपी से तीनों सेनाओं के लिए एकीकृत क्षमता योजना तैयार करना है तो विचारों में अधिक स्पष्टता लानी होगी और विचार एक जैसे करने होंगे। इसे सीडीएस अथवा पीसीसीएसओसी जैसा कोई व्यक्ति ही अंजाम दे सकता है, जो सेनाओं की बताई गई जरूरतों का सूक्ष्म और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण कर सकता है और सेना का अभीष्टतम ढांचा तैयार कर सकता है, जिससे उपलब्ध संसाधनों में ही लड़ाकू जवानों को अधिकतम सैन्यकर्मियों की मदद मिल सकती है।

इस काम के लिए जबरदस्त तालमेल और सेना के तीनों अंगों के बीच समग्र संवाद की आवश्यकता होगी, जिसमें मध्यस्थ का काम सीडीएस अथवा पीसीसीओएससी के कद वाला व्यक्ति ही कर सकता है। इस पर रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित ऐसी समिति विचार नहीं कर सकती, जिसके पास आवश्यक विशेषज्ञता ही नहीं हो। क्षमता विकास योजना तैयार होने के बाद रक्षा मंत्रालय एवं वित्त मंत्रालय से मिलकर बनी समिति की आवश्यकता होगी, प्रधानमंत्री कार्यालय को 15 वर्ष के लिए अधिग्रहण/बुनियादी ढांचा बजट मंजूर करना होगा, वित्त मंत्रालय को उसका ध्यान रखना होगा और 15 वर्ष की योजना के अनुसार वार्षिक बजट में धन मुहैया कराना होगा। योजना को अमल में लाने के लिए रक्षा बजट को खत्म न होने वाला (नॉन लैप्सेबल) बनाना होगा। इसमें पीएमओ को मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए सुनिश्चित करना होगा कि वित्त मंत्रालय अपने वायदों से मुकर नहीं जाए।

जहां तक रक्षा कूटनीति का प्रश्न है तो भारत के हितों के अनुरूप विशिष्ट रणनीतियां तैयार करने के लिए 2016 में एक समिति का गठन किया गया था। इस समिति की अध्यक्षता तत्कालीन उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने की थी और इसमें कई विशेषज्ञ शामिल थे। इस समिति की रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय के पास है और वह कम से कम इन सिफारिशों को तो लागू कर ही सकता है। लेकिन रक्षा कूटनीति में हमारी अपनी सीमाएं हैं - धन की कमी है और मजबूत रक्षा औद्योगिक आधार भी नहीं है, जिस कारण हम अपने मित्र पड़ोसियों की आवश्यकताओं को संतोषजन तरीके से पूरा नहीं कर सकते और इस मामले में चीन अथवा चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी वाले संसाधनों से भरपूर शत्रुओं का मुकाबला भी नहीं कर सकते। जब तक इन समस्याओं का समाधान नहीं होता, रक्षा कूटनीति अधूरे वायदों की कहानी ही बनी रहेगी।

रक्षा विनिर्माण की बात करें तो इसका कोई जादुई समाधान नहीं है और समिति का गठन तो निश्चित रूप से समाधान नहीं है। रक्षा उद्योग को नवाचार आधारित बनाने और विकास का वाहक बनाने के लिए मानसिकता में बदलाव लाना बुनियादी जरूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत का रक्षा विनिर्माण का सपना तब तक अधूरा रहेगा, जब तक निजी क्षेत्र इसमें दमखम के साथ नहीं उतरता और बड़ी परियोजनाओं में शामिल नहीं होता। मुख्य कारण यह है कि रक्षा विनिर्माण में प्रौद्योगिकी बड़ी चुनौती है। नवाचार और रिवर्स इंजीनियरिंग की अपनी प्रवृत्ति के कारण निजी क्षेत्र बेहतर तरीके से प्रौद्योगिकी से जुड़ी चुनौतियों का तोड़ निकाल लेगा और खुले बाजार से सक्षम प्रौद्योगिकी ले आएगा। इसलिए रक्षा मंत्रालय को सामरिक साझेदारी कार्यक्रम पर बेधड़क आगे बढ़ना होगा। एक इंजन वाले लड़ाकू विमान की योजना पर सर्वोच्च स्तर पर चर्चा की गई और उसके बाद इनके लिए सूचना पत्र (रिक्वेस्ट फॉर इन्फॉर्मेशन) आया। लेकिन उनका जो हश्र हुआ, वह इस बात का उदाहरण है कि अफसरशाही कैसे ढिलाई बरत सकती है और सेना आपत्तियों के बावजूद किस तरह इसमें मौन सहमति दे सकती है। दुखद सत्य यह है कि वर्तमान राजनीतिक वातावरण में कोई भी निजी क्षेत्र का समर्थन कर हमारे ‘सामाजिक’ राजनीतिक वर्ग की लानत झेलना नहीं चाहता। इस बात का डर रहता है कि इसे पूंजीपतियों के साथ दोस्ती का एक और घटिया उदाहरण करार न दे दिया जाए।

सामरिक साझेदारी को छोड़ भी दें तो रक्षा मंत्रालय के खरीद प्रकोष्ठ को पूरी तरह से नया रूप देना होगा ताकि वह मेक इन इंडिया के सपने में सार्थक योगदान कर सके। विकसित देशों के उलट हमारी रक्षा खरीद प्रणाली पूरी तरह टूटी हुई है और उद्योग अथवा उत्पाद एवं प्रौद्योगिकी विकास से उसका कोई नाता नहीं है। खरीद प्रकोष्ठ के पुनर्गठन पर विशेषज्ञों की प्रीतम सिंह समिति ने विचार किया था, लेकिन उसकी सिफारिशें इस अजीबोगरीब आधार पर लागू नहीं की गईं कि उनके लिए अधिक पद सृजित करनें होंगे। रक्षा मंत्रालय में यदि कल्पनाशीलता दिखाते हुए सैन्यकर्मियों को ही नियुक्त किया जाए तो पदों के सृजन पर कोई अतिरिक्त खर्च नहीं आता। अमेरिका जैसे देश में रक्षा खरीद को देखने के लिए 1.5 लाख से अधिक पेशेवर हैं। फ्रांस और ब्रिटेन में दस हजार से भी अधिक ऐसे पेशेवर हैं। भारत जैसे बड़े देश में कुछ सौ या कुछ हजार लोग क्या बहुत ज्यादा कहे जाएंगे?

रक्षा मंत्रालय के उत्पादन करने वाले निकायों रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों (डीपीएसयू) और आयुध निर्माणी बोर्ड (ओएफबी) को सक्षम तरीके से सबको साथ लाकर और सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों के जीवंत तंत्र को बढ़ने का मौका देकर विनिर्माण के अपने तरीके में बुनियादी बदलाव लाना होगा। ओएफबी का विभागीय ढांचा ईस्ट इंडिया कंपनी के युग की दुखद विरासत जैसा है और उसे जल्दी से जल्दी खत्म कर जोश भरे कॉर्पोरेट ढांचे में तब्दील करना होगा। सरकारी वित्तीय नियमों से उपजी विभागीय प्रक्रियाएं बेहतर उत्पादकता, सक्षमता और गुणवत्ता प्रबंधन के उपयुक्त नहीं हैं। रमन पुरी समिति की रिपोर्ट में सुधार के जिन उपायों की सिफारिश की गई थी, रक्षा निर्माण विभाग की उदासीन और अनमनी प्रतिक्रिया के कारण रुकी हुई हैं। अपने वर्तमान स्वरूप में भी ओएपफबी के पास छोटे और मझोले उद्योगों के तंत्र को प्रोत्साहित करने वाली दीर्घकालिक आपूर्तिकर्ता (वेंडर) नीति तक नहीं है। पिछले कुछ समय में ऐसे किसी भी उत्पाद का उदाहरण नहीं मिलत, जिसे ओएफबी के दीर्घकालिक सहयोग से निजी क्षेत्र ने अपने बल पर डिजाइन किया हो।

रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) पर भी यही बात लागू होती है। परमाणु ऊर्जा एवं अंतरिक्ष विभाग अपनी अनुसंधान एवं विकास संबंधी आवश्यकताएं निजी क्षेत्र से ठेके पर पूरी कराते हैं, लेकिन डीआरडीओ ने ऐसा नहीं किया और निजी क्षेत्र का पूरे मन से सहयोग नहीं किया है। डीआरडीओ अब भी निजी क्षेत्र की मदद नहीं लेता और अपनी परियोजनाओं के लिए भारी रकम लगाकर खुद ही सामग्री और पुर्जे तैयार करता है। इसी तरह नवविकसित उत्पादों को नमूने के तेज विकास के जरिये तैयार करने में गतिशीलता दिखानी चाहिए, जिसमें निजी क्षेत्र भी अहम भूमिका निभा सकता है। हिंदुस्तान एयरोनॉटिकल लिमिटेड (एचएएल) जैसे रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों के साथ भी यही बात लागू होती है, जिनके पास हमेशा ही निर्माण क्षमता की किल्लत रही है। अपने लिए विनिर्माण के साथ ही एचएएल उन्नत हल्के हेलीकॉप्टर, हल्के युद्धक विमान और हल्के युद्धक हेलीकॉप्टर जैसे उत्पादों का लाइसेंस निजी क्षेत्र को सौंप सकती है ताकि सशस्त्र बलों को अपनी वास्तविक जरूरतें पूरी करने के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़े।

संक्षेप में रक्षा मंत्रालय के पास समझदारी भरे सुझावों का पूरा भंडार है, जो कई वर्षों में इकट्ठा हुआ है। अब एक और समिति में उलझने के बजाय साहस भरे निर्णय लेने की आवश्यकता है।

(प्रस्तुत विचार लेखक के हैं और वीआईएफ का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Indian_Ministry_of_Defence-1.jpg

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