भारत इस वर्ष 43वें संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यावरण दिवस की मेजबानी कर रहा है, जो 5 जून को मनाया जाता है। इस बार इसका विषय “प्लास्टिक प्रदूषण को मात देना” है। 2015 में दुनिया भर में 32 करोड़ टन से भी अधिक प्लास्टिक कचरा तैयार हुआ था, जबकि 1950 में केवल 15 लाख टन प्लास्टिक कचरा था। इस तरह प्लास्टिक का कचरा 8 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ रहा है। दुनिया के महासागरों में पहले ही प्लास्टिक भर गया है और समुद्री जीवन नष्ट हो रहा है। जमीन पर भी मवेशी प्लास्टिक खाने के कारण मर जाते हैं।
विश्व पर्यावरण दिवस आत्मनिरीक्षण करने और विचार करने का अच्छा समय है। वर्षों से दुनिया भर में प्रयास होने के बाद भी पर्यावरण का इतना दुखद तरीके से क्षरण क्यों हो रहा है? यदि कुछ नहीं किया गया तो नष्ट होते पर्यावरण का हमारे जीवन पर क्या असर होगा?
तमाम कार्यक्रमों और योजनाओं के बावजूद पर्यावरण का क्षरण रुक नहीं पाया है। जैव-विविधता का नाश खतरनाक दर से बढ़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग का असर हमारे दैनिक जीवन में नजर आ रहा है। पर्यावरण का क्षरण रोकने और उसे बहाल करने के अंतरराष्ट्रीय समुदाय के प्रयास सफल नहीं हो रहे हैं। पृथ्वी पर जीवन को बरकरार रखने के लिए अहम सेवाएं देने वाले नाजुक पारिस्थितिक तंत्रों को अंधाधुंध तरीके से नष्ट किया जा रहा है। सत्तर के दशक से ही सतत विकास के जिस विचार पर बात की जा रही है, वह अभी तक पैठ नहीं बना पाया है। विवेकानंद इंटरनेशरल फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो प्रोफेसर सीआर बाबू के अनुसार, “पृथ्वी की सतह का 43 प्रतिशत से अधिक भाग अपनी उत्पादक क्षमता खो चुका है। विश्व का लगभग 60 प्रतिशत भूभाग खराब हो चुका है और जैव-विविधता के 25 केंद्रों का 70 प्रतिशत क्षेत्र खत्म किया जा चुका है। भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र (टीजीए) के लगभग 20 प्रतिशत भाग यानी 6.5 करोड़ हेक्टेयर को राष्ट्रीय दूरसंवेदी एजेंसी (एनआरएसए) के 1999-2000 के आंकड़ों में बंजर भूमि की श्रेणी में रखा गया है।”1
इतनी दुखद स्थिति के बाद भी पर्यावरण बचाने और पृथ्वी पर जीवन बचाने के लिए सामूहिक प्रयासों में शामिल होने के अलावा कोई चारा नहीं है। भारत में दुनिया की 15 प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन उसके पास दुनिया की केवल 2 प्रतिशत भूमि है। इसीलिए पर्यावरण में क्षरण की समस्या से वह बुरी तरह जूझ रहा है। दुख की बात है कि भारत के शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में शामिल हैं। सबसे बड़ी और पवित्र नदियों को गंदे पानी की नालियों में बदल दिया गया है और उनमें जलीय जीव ही नहीं बचे हैं। यहां की प्राचीन भूमि को कचरे का पहाड़ बना दिया गया है। उपजाऊ कृषि भूमि को जहरीले रसायनों से दूषित कर दिया गया है। उन पर उगे अन्न और सब्जियों में कीटनाशक भरे रहते हैं। अनियोजित शहरीकरण ने बुनियादी सुविधाओं से वंचित आत्मारहित शहर खड़े कर दिए हैं, जो रहने के लायक नहीं हैं। फैलते शहरों ने भारत के स्मारकों और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को लील लिया है। संक्रामक रोग और महामारी हर मौसम में मनुष्यों, पशुओं और पौधों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं।
ऐसा नहीं है कि सरकार और लोग समस्याओं से पूरी तरह अनजान हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में हमने जो सामाजिक-आर्थिक मॉडल और संस्थाएं तैयार किए हैं, वे पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं। कोई भी सरकार चाहे कितनी भी समृद्ध और संसाधनों से युक्त हो, इन भारी समस्याओं से अकेले नहीं निपट सकती। पर्यावरण को बचाने के किसी भी कार्यक्रम की सफलता के लिए पहली शर्त है सरकार और जनता के बीच साझेदारी। शीर्ष से नीचे तक के तरीके से योजना बनाने से कुछ हासिल नहीं होगा। लोगों का सहयोग उतना ही जरूरी है, जितना सरकार का लोगों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील होना।
पर्यावरण को तब तक नहीं बचाया जा सकता, जब तक हम में से हर कोई अपनी जीवनशैली में बड़े परिवर्तन करने को तैयार नहीं होता। धनी और उच्च वर्ग के लोगों के लिए यह बात विशेष तौर पर सच है। पर्यावरण हमारी जरूरतें तो पूरी कर सकता है, लेकिन हमारे लालच को पूरा नहीं कर सकता। लालच और जरूरत के बीच अंतर करना होगा। हम में से कितने लोगों के पास एक से अधिक कार हैं? हम कितने एयर कंडीशनर और हीटर इस्तेमाल करते हैं? हमारे पास कितने जोड़ी कपड़े हैं? हम कितनी प्लास्टिक का इस्तेमाल करते हैं? क्या हम घरों में कचरे को अलग-अलग करते हैं? हम कितना भोजन बरबाद करते हैं? क्या हम अपने आसपास जल का पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) करते हैं? हम पानी का पुनर्चक्रण करते भी हैं या नहीं? क्या हम वर्षाजल संचयन के प्रति गंभीर हैं? हम जो प्रदूषण करते हैं क्या हम उसकी कीमत चुकाते हैं? इन प्रश्नों पर प्रत्येक नागरिक को विचार करना चाहिए। जब तक नागरिक पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे तब तक कुछ नहीं हो सकता।
निश्चित रूप से पर्यावरण को साफ और सुरक्षित रखने की मुख्य भूमिका और जिम्मेदारी सरकारों की ही है। त्रुटिपूर्ण योजना और लालच के साथ संसाधनों के दोहन ने तबाही मचा दी है। सबसे पहले शहरों और बुनियादी ढांचे की योजना बेहतर तरीके से बनाई जाए और उसमें पर्यावरण को ध्यान में रखा जाए। प्रत्येक शहर में कुशलता भरा सार्वजनिक परिवहन पहली जरूरत है। स्मार्ट शहरों के विचार में पर्यावरण सुरक्षा तथा संरक्षण को योजना के आवश्यक अंग के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। जलमय भूमि, तालाबों, जलीय परत जैसे कई पारिस्थिति तंत्र नष्ट किए जा चुके हैं। योजना बनाने की किसी भी कवायद में इन पारिस्थिति तंत्रों को फिर बहाल करने के उपाय शामिल होने ही चाहिए। जो नया बुनियादी ढांचा बनाया जा रहा है, उसमें पर्यावरण संबंधी समुदायों के समुचित संरक्षण का ध्यान रखा जाना चाहिए।
प्रोफेसर बाबू की सलाह है कि सरकार को प्रति वर्ष कम से कम 5000 हेक्टेयर बंजर भूमि को फिर ठीक करने के लिए ‘खराब भूमि एवं बंजर भूमि के पारिस्थिति पुनर्वास के 10 वर्ष के राष्ट्रीय अभियान’ पर विचार करना चाहिए। इससे मिट्टी का कटाव रोकने और जलीय परत एवं जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने में मदद मिलेगी। वह कहती हैं कि खाली छोड़ दी गईं खानों, खनन के बाद छूटे क्षेत्रों, बेहद खराब हो चुके जलग्रहण क्षेत्रों, वाटरशेड, बंजर एवं पहाड़ी स्थानों, नदियों के बंजर तटों और रेगिस्तान बन चुकी भूमि को नापा जाना चाहिए और उन्हें पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। खराब हो चुकी भूमि को फिर बहाल करने से बहुत फायदा हो सकता है। प्रकृति से मिलने वाले पारिस्थितिक संसाधन ही बहाल नहीं होंगे बल्कि जैविक समुदायों को नया जीवन मिलने से भोजन और जल की उपलब्धता भी बढ़ेगी। ऐसा अभियान रोजगार देने में भी मदद कर सकता है।
अभी तक पर्यावरण की कीमत पर आर्थिक वृद्धि होती रही है। ऐसी वृद्धि टिकाऊ नहीं हो सकती। कोई भी योजना मानव और पर्यावरण के बीच संबंध की पूरी समझ पर आधारित होनी चाहिए। समाज विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान के हमारे पाठ्यक्रमों और पेशेवर पाठ्यक्रमों को नए सिरे से तैयार करने की आवश्यकता है ताकि मानव जाति के लिए पर्यावरण के महत्व पर जोर दिया जा सके। हम विकास के खामी भरे दृष्टिकोण के दुष्प्रभाव पहले ही देख रहे हैं। यदि आसपास का पर्यावरण सुधर जाए तो हमारी विशाल जनसंख्या की जीवन स्थिति बेहतर की जा सकती है।
भारतीयों में प्रकृति के प्रति गहरा सम्मान है। हमारे वेदों की अनेक ऋचाओं से यह बात स्पष्ट है। प्राचीन हिंदू ग्रंथों में कई श्लोक प्रकृति की सराहना एवं अर्चना करते हैं और उसकी कृपा पाने के लिए प्रार्थना करते हैं। उदाहरण के लिए ऋग्वेद वनों को नष्ट करने से रोकता है और अथर्ववेद पौधों को मानवता का रक्षक बताता है। अथर्ववेद में 63 श्लोकों का एक सूक्त है, जो कहता हैः
“हे धरती माता, जब हम औषधियां, कंद आदि निकालने अथवा बीज बोने के लिए आपको खोदें तो वे वस्तुएं तेजी से बढ़ें। हमारे इन कार्यों के क्रम में हम लोगों द्वारा आपके मर्मस्थल अथवा हृदय को हानि न पहुंचे।”
पद्म पुराण (56.40-41) में कहा गया है, “हरे-भरे वृक्ष को काटना अपराध है, जिसका दंड नर्क में मिलता है।”2 यह दुखद स्थिति है कि जिस देश में रोजाना प्रकृति की अर्चना की जाती है, वहां पर्यावरण को इतना नुकसान पहुंच रहा है।
मानव के लाभ के लिए प्रकृति का दोहन करने के दोषपूर्ण विचार ने पर्यावरण को नष्ट कर दिया है। इसका मानव पर ही घातक असर हो रहा है। प्राचीन धर्म में प्रकृति का जो सम्मान होता था, उसे पुनः जगाने की आवश्यकता है। इसे आधुनिक अंतरात्मा में समाहित करना होगा।
दिल्ली में असोला वन्यजीव अभयारण्य में 15 वर्ष पहले फिर जीवित की गई रेतीली भूमि, जिसमें बबूल के जंगल और घसियाली भूमि दिख रही है।
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