गुजरात और हिमाचल चुनाव सम्पन्न होने के बाद हार-जीत का हिसाब लगाने और आंकड़ों की कसौटी पर परिणामों को परखने की कवायदें शुरू हो गयीं. हालांकि मीडिया में हिमाचल को गुजरात की तुलना में कम तरजीह मिली. इन परिणामों का प्रथम दृष्टया मजमून यही नजर आता है कि भाजपा ने अपना गुजरात का गढ़ बचा लिया और कांग्रेस से उसका हिमाचल छीन लिया. कांग्रेस अपना एक राज्य और खो चुकी है. लेकिन विश्लेषणों के आईने से देखा जाए तो गुजरात को लेकर कुछ विश्लेषक भाजपा की साख पर सवाल खड़ा कर रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि आंकड़ों का बहुआयामी विश्लेषण होना ही चाहिए. हिमाचल और गुजरात के चुनाव परिणामों के विश्लेषण के बीच उत्तर प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल एवं तामिलनाडू में पांच विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव भी हुए, जिनपर गौर करना जरुरी है. क्रमवार तीनों चुनावों पर नजर डालने के बाद कई ऐसे तथ्य सामने आते हैं जो भाजपा के बढ़ते जनाधार और कांग्रेस के लचर संगठन एवं गिरती साख की तस्दीक करते हैं.
सबसे पहले अगर हिमाचल की बात करें तो हिमाचल प्रदेश की कुल 68 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने 44 सीटों पर जीत दर्ज की है. वहीँ कांग्रेस सिर्फ 21 सीट पर सिमट गयी है. वोट फीसद के लिहाज से अगर देखें तो हिमाचल प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस के 41.7 फीसद के मुकाबले 48.8 फीसद मतदाताओं का समर्थन हासिल करने में कामयाबी प्राप्त की है. हिमाचल के परिणामों का किसी भी दृष्टि से मूल्यांकन करें तो यहाँ कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान साफ़ तौर पर नजर आते हैं. वोट फीसद के मामले में भाजपा को 7 फीसद की बढ़त मिली और दोनों दलों के सीटों में दोगुने से ज्यादा का अंतर आया है. हालांकि यहाँ एक रोचक परिणाम यह भी आया है कि भाजपा जीत तो गयी लेकिन हिमाचल के कद्दावर नेता प्रेम कुमार धूमल अपना चुनाव नहीं जीत पाए. राजनीति में कई बार ऐसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं. प्रेम कुमार धूमल हिमाचल के कद्दावर नेता हैं और उनके हारने के बाद राजनीतिक उठापटक के कयास लगाए जा रहे थे. हालांकि ऐसा कुछ हुआ नहीं और अंतत: कई बार के विधायक रहे जयराम ठाकुर को हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में विधायक दल का नेता चुन लिया गया.
वहीँ गुजरात चुनाव संपन्न होने और परिणाम आने के बाद मीडिया के एक धड़े में ऐसी अटकले लगाईं जा रहीं थीं कि भाजपा शीर्ष नेतृत्व मुख्यमंत्री पद के लिए नए नामों पर विचार कर रहा है. लेकिन विजय रूपाणी को भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने एवं नितिन पटेल को उपमुख्यमंत्री पद के लिए बरकरार रखने की घोषणा के बाद उन अटकलों पर विराम लग गया. चुनाव के दौरान भाजपा ने विजय रूपाणी एवं नितिन पटेल का नाम मुख्यमंत्री एवं उपमुख्यमंत्री पद के लिए कई बार जाहिर किया था. लिहाजा स्पष्ट बहुमत से जीत मिलने के बाद परिवर्तन अप्रत्याशित होता. गुजरात चुनाव परिणाम में भाजपा को कुछ सीटें अपेक्षा से कम जरूर मिली लेकिन उसकी जीत को मामूली आंकना उचित नहीं होगा. परिणामों के बाद की बदली हुई स्थिति का अगर सीधा-सपाट विश्लेषण करें तो कांग्रेस ने अपना एक राज्य गंवा दिया है जबकि भाजपा ने गुजरात का गढ़ तो बचा ही लिया, साथ ही कांग्रेस के हाथ से हिमाचल की सत्ता छीन भी ली है. ऐसी स्थिति में जब एक बाईस साल से चल रही सरकार पुन: स्पष्ट बहुमत के साथ एवं 49.1 फीसद मतदाताओं के समर्थन से चुनकर आती है, तो इसे मामूली जीत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. गुजरात की तकरीबन आधे मतदाताओं के समर्थन से मिली जीत के बाद विजय रूपाणी पर भाजपा का भरोसा नहीं करने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि उनके मुख्यमंत्री रहते भाजपा ने यह चुनाव जीता है. हालांकि गुजरात के चुनाव को जिस कसौटी पर कसकर भाजपा के लिए चिंताजनक बताने की कोशिश की जा रही है, वो चिंताएं भी आंकड़ों की कसौटी बहुत खरी नहीं उतरती हैं.
गुजरात में भाजपा के लिहाज से स्वाभाविक रूप से दो मुश्किलें देखी जा रहीं थी- पहला तो बाईस वर्षों के शासन के प्रति असंतोष का डर और दूसरा डेढ़ दशक बाद नरेंद्र मोदी के बिना कोई विधानसभा चुनाव. बावजूद इसके गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को 49.1 फीसद मतों के साथ 99 सीटों पर जीत मिली है. 2012 विधानसभा चुनाव से अगर तुलना करें तो भाजपा को अधिक वोट मिलने के बावजूद 16 सीटें कम मिली हैं. लेकिन बाईस साल की सरकार चलाने के बाद अगर 49.1 फीसद वोट सरकार के पक्ष में मिले हैं तो इसे प्रो-गवर्नमेंट वोटिंग कहना गलत नहीं होगा. यह मत फीसद दिखाता है कि गुजरात की जनता ने भाजपा सरकार के पक्ष में अपना समर्थन दिखाया है. ऐसा कहा जा रहा है कि गुजरात में कांग्रेस मजबूती से लड़ती नजर आई. अगर गौर करें तो गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तब भी कांग्रेस लड़ाई में बहुत कमजोर नहीं नजर आती थी. अगर 2012 से तुलना करें तो कांग्रेस को 38 फीसद वोट मिला था, बेशक वो सीटों के मामले में वर्तमान स्थिति से 19 सीट पीछे रह गयी थी. इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 2012 की तुलना में 3 फीसद की बढ़ोतरी हासिल हुई, और वह भाजपा से लगभग 8 फीसद पीछे रह गयी है. सीटों के मामले में भी भाजपा को कांग्रेस से 22 सीटें अधिक मिली हैं. इन आंकड़ों को देखने के बाद दो बातें स्पष्ट होती हैं. पहली ये कि इस चुनाव में मतदान प्रो-गवर्नमेंट था और दूसरी बात ये कि भाजपा के खिलाफ जनता में जिस गुस्से अथवा असंतोष की बात कांग्रेस कर रही थी, वह परिणामों में नहीं दिखा. इस चुनाव के मतदान प्रतिशत पर नजर डालें तो भाजपा और कांग्रेस के इतर एक तीसरा पक्ष ‘नोटा” के रूप में भी उभर कर सामने आया है. लगभग 5 लाख 51 हजार से ज्यादा लोगों ने नोटा के विकल्प को चुना है. यह संख्या कुल मतदान का 1.8 फीसद है. एक अहम सवाल है कि आखिर नोटा का विकल्प चुनने वाले मतदाता किसके हैं ? प्रथम दृष्टया ये कांग्रेस के मतदाता नहीं नजर आते हैं. ऐसा माना जा सकता है कि ये भाजपा के मतदाता रहे हों जो इसबार भाजपा को नहीं वोट करने का मन बनकर घर से निकले हों. लेकिन भाजपा के लिए संतोष की बात ये कही जा सकती है कि असंतोष की स्थिति में भी इन मतदाताओं ने कांग्रेस के पाले में जाना मंजूर नहीं किया. ऐसे में राहुल गांधी और कांग्रेस की “मोरल विक्ट्री” की बात कहना सिवाय उदास मन को दिलासा देने के कुछ भी नहीं है.
चुनाव के दौरान मीडिया रिपोर्ट्स में अकसर यह बात सामने आती थी कि पाटीदार समाज का एक बड़ा वर्ग भाजपा से नाराज है और इसबार सबक सिखाने का मन बना रहा है. कहीं ये वही वर्ग तो नहीं है जो भाजपा से नाराज तो था, लेकिन वह सबक सिखाने के नामपर कांग्रेस के साथ भी नहीं जाना चाहता था! अगर नोटा विकल्प चुनने वालों की संख्या में इजाफा का आधार यह है तो भविष्य की दृष्टि से इसे भाजपा के लिए एक राहत की बात मानी जानी चाहिए. क्योंकि गुजरात में कांग्रेस के इस दौर में भी अगर यह वर्ग भाजपा के खिलाफ कांग्रेस को नहीं चुना तो भविष्य में वह फिर भाजपा के साथ ही नजर आएगा और भाजपा इन्हें फिर संगठन के स्तर पर लगकर घर वापस ले आएगी. यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है कि अगर नोटा विकल्प चुनने वाले मतदाता भाजपा के पक्ष में मतदान कर दिए होते तो शायद सीटों का आंकड़ा ज्यादा हो गया होता.
गुजरात चुनाव में उठे मुद्दों पर नजर डालना भी जरुरी है. कई विश्लेषक तो यह सार्वजनिक तौर पर मानने लगे थे कि इसबार जीएसटी और नोटबंदी को लेकर व्यापारी और अनामत को लेकर पाटीदार भाजपा के खिलाफ वोट कर सकते हैं. लेकिन चुनाव परिणामों में भाजपा के खिलाफ असंतोष जैसी कोई बात मुखर रूप से नहीं नजर आई है. जहाँ तक व्यापारी वर्ग के असंतोष का प्रश्न है तो सूरत जैसे व्यापारिक गतिविधियों वाले शहरी विधानसभाओं में भाजपा की जीत ने इसपर विराम लगा दिया है. वहीँ 37 में से 25 उन सीटों पर भाजपा को जीत मिली जिन्हें हार्दिक पटेल के प्रभाव वाली सीट बताया जा रहा था. अर्थात, पाटीदार मतदाताओं को केंद्र में रखकर जिस स्तर पर मीडिया में भाजपा के खिलाफ माहौल तैयार करने की कोशिश की गयी, वह ढ़ाक के तीन पात साबित हुई.
भावी राजनीति में गुजरात चुनाव के परिणामों के असर का अगर मूल्यांकन करें तो भाजपा के लिए यह चुनाव गुजरात में 2019 की दृष्टि से संतोषजनक कहा जा सकता है. 2019 में जब खुद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद का चेहरा होंगे तब भाजपा को वर्तमान में मिले 49.1 फीसद से ज्यादा वोट मिलना स्वाभाविक है. उस दौरान तक नोटा विकल्प चुनने वालों का भी भाजपा के साथ पुन: जुड़ जाने की संभावना अधिक रहेगी. लेकिन कांग्रेस के लिए आगामी स्थिति बहुत अनुकूल नहीं रहने वाली है. गुजरात में संगठन के स्तर पर पहले ही निष्क्रिय नजर आने वाली कांग्रेस के तीन बड़े नेता शक्ति सिंह गोहिल, अर्जुन मोड्वाडीया और सिद्धार्थ पटेल चुनाव हार चुके हैं. ऐसे में विधानसभा में कांग्रेस के पास मजबूत और अनुभवी नेतृत्व का संकट होना स्वाभाविक है. वहीँ पाटीदार आन्दोलन का चेहरा बने हार्दिक पटेल और कांग्रेस के टिकट से जीतकर आये अल्पेश ठाकोर के बीच के सैधांतिक टकराव का ठीकरा भी कांग्रेस के सिर ही फूटना है. चूँकि अनामत के मुद्दे पर कांग्रेस ने ऐसा निवाला उठा लिया है, जिसे वो न निगल पाएगी और न उगल पाएगी. जहाँ कांग्रेस आंतरिक विरोधाभाष में घिरेगी वहीँ भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ दुबारा जनादेश लेकर उन सवालों पर विराम लगी चुकी है, जो प्रदेश नेतृत्व को लेकर उठाये जा रहे थे.
कांग्रेस जब राहुल गांधी के भरोसे 2019 की राह देख रही है ऐसे में इन दो राज्यों के अलावा बाकी राज्यों की स्थिति पर भी नजर डालने की जरूरत है. अगर देखें तो गुजरात और हिमाचल के परिणामों के बीच चार राज्यों की पांच विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे, जिनमे भाजपा को तीन, तृणमूल कांग्रेस को एक और निर्दल उम्मीदवार को जीत मिली. इन चुनावों में कांग्रेस ने अपनी जीती हुई तीन सीटें गवाई. अरुणाचल की दो विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे. ये दोनों सीटें कांग्रेस के पास थीं. लेकिन उपचुनाव में कांग्रेस को दोनों ही सीटों पर हार का सामना करना पड़ा और भाजपा ने दोनों सीटें अपने खाते में दर्ज कर ली. वहीँ उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात स्थित सिकन्दरा विधानसभा सीट पर हुए चुनाव में भाजपा ने समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के प्रत्याशी को हराया, जहाँ कांग्रेस बहुत पीछे रह गयी. वहीँ पश्चिम बंगाल की एक सीट पर हुए चुनाव, जो कांग्रेस के पास थी, में तृणमूल ने माकपा प्रत्याशी को भारी मतों से हराकर सीट जीत ली. लेकिन भाजपा और कांग्रेस के लिहाज से यहाँ रोचक यह रहा कि पिछले चुनाव में इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा था और भाजपा को पांच हजार से भी कम वोट मिले थे. इस उपचुनाव में भाजपा को पश्चिम बंगाल की इस सीट पर 37 हजार से ज्यादा वोट मिले और कांग्रेस 18 हजार वोट के साथ चौथे पायदान पर फिसल गयी. तामिलनाडू की आरके नगर सीट जहाँ से जयललिता चुनाव लड़ती थीं, वह सीट एआईडीएमके नहीं बचा पाई और उसे निर्दल प्रत्याशी से हार का सामना करना पड़ा. भाजपा का इस क्षेत्र में कोई उत्साहजनक आधार नहीं रहा है, लिहाजा भाजपा से अपेक्षा करना व्यवहारिक नहीं प्रतीत होता. यहाँ भाजपा को कुछ मिला नहीं तो भाजपा ने कुछ खोया भी नहीं है.
इन उपचुनावों के मायने भी 2019 की दृष्टि से भी काफी अहम हैं. कांग्रेस अपना जनाधार बचा पाने में अभी भी व्यापक रूप से कामयाब नहीं हो रही जबकि भाजपा का विस्तार में उन स्थानों पर भी हो रहा, जहाँ वो नहीं थी.
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)
(प्रस्तुत लेख में लेखक के निजी विचार हैं और वीआईएफ का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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