संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष का महत्वपूर्ण कार्य मौजूदा सरकार की आलोचना करना होता है. मगर ये आलोचना सरकार की सफलताओं पर नही विफलताओं पर केन्द्रित होनी चाहिए. अगर प्रथम दृष्टया पर सरकार के बेहतर कार्यों कि विपक्ष केवल आलोचना करने के लिए आलोचना करता है तो ये विपक्ष को और कमजोर बनाते हुए उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है.
हालाँकि खेद इस बात का है कि सरकार के सर्जिकल स्ट्राइक, डोक्लाम-विवाद का निपटारा, वन रैंक वन पेंशन की स्वीकृति, बेहद सक्रीय विदेश नीति, भारतीय प्रवासियों तक पहुँच, इवांका ट्रम्प की भारत यात्रा के दौरान उनका अभिनन्दन, आर्थिक पहलूओं पर मूडी एवं वर्ल्ड बैंक की व्यापार-सुविधाजनक देशों की रेटिंग में बढ़त जैसे बेहतर प्रयासों के बाद भी विपक्ष ने सरकार की आलोचना करते हुए ठीक ऐसा ही किया है. इसी बीच हाल ही में विपक्ष ने भाजपा सरकार द्वारा भारतीय वायुसेना की लड़ाकू विमानों की जरूरतों को तत्कालीन रूप से पूरा करने के लिए की गयी राफेल डील की भी आलोचना की है, जिसकी पूर्व सरकार ने अनदेखी की थी.
इस आलोचना की वैधता अथवा अवैधता समझने के लिए हमें इस डील की पृष्ठभूमि को समझना होगा. इस सन्दर्भ में पहली बात ये है कि दस साल तक सत्ता में रहने के बावजूद यूपीए सरकार आधुनिक विमानों के आगमन वाले इस सौदे को अंतिम रूप नही दे सकी, जबकि वायुसेना पुराने विमानों के ख़राब हो जाने के कारण पहले ही विमानों की कमी से जूझ रही थी. जाहिर तौर पर यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक अहम मुद्दा था जिसे पिछली सरकार द्वारा अनदेखा किया गया.
सत्ता में आने के तीन साल बाद यूपीए सरकार को इसका ध्यान इतनी देर से आया आया और उसके भी काफी समय बाद सरकार ने 126 मीडियम रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) प्राप्त करने के लिए एक प्रस्ताव पत्र (रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल आरएफ़पी) तैयार किया. इस प्रस्ताव पत्र में हिंदुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड (एच.ए.एल) द्वारा 108 विमानों के निर्माण की परिकल्पना की गयी थी और सीधे उडान के लिए तैयार 18 विमानों के पूर्ण निर्यात की बात प्रस्तावित की गयी थी. इस पत्र में काफी कमियाँ थी, क्यूँकी इसमें रडार, शस्त्रीकरण जैसे अहम कारकों की परिकल्पना में वायुसेना की जरूरतों का एवं उसकी गुणवत्ता सम्बंधित की कोई जानकारी उल्लेखित नही थी.
इसके बाद भी यूपीए सरकार को पाँच साल केवल न्यूनतम बोली लगाने वाले कंपनी और राफेल की निर्माता ‘दस्सौल्ट एविएशन’ का नाम उजागर करने में लग गये. हालाँकि दस्सौल्ट एविएशन के साथ इस सौदे को दो वर्षों के बाद भी निष्कर्ष पर नही पहुँचाया जा सका. इसका प्रमुख कारण प्रस्ताव पत्र में उल्लेखित दस्सौल्ट एविएशन द्वारा हिन्दुतान एरोनाटिक्स लिमिटेड के 108 विमानों की जिम्मेदारी न लेना था. इसके साथ ही इन दोनों कंपनियों द्वारा विमानों के घरेलू उत्पादन में आवश्यक कार्य-समय की आपसी दरों में एक बड़ा फासला था जिसका सीधा प्रभाव इन विमानों की कीमत पर पड़ता.
2014 के बाद सत्ता में आने के पश्चात भाजपा सरकार ने दस्सौल्ट के साथ इस सौदे को पक्का करने के कई प्रयास किये. बेहद अहम सुझावों पर सहमती न बन पाने के कारण, यूपीए सरकार द्वारा निश्चित मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट का प्रस्तावित सौदा अंतिम रूप नही ले सका. ऐसे समय में नई सरकार के पास केवल दो विकल्प थे. पहला- नई शुरुआत की जाये और दूसरा- पहले से चुने गये राफेल विमानों की खरीद के लिए नई व्यवस्था की जाए. यदि पहला विकल्प चुना जाता तो सरकार को भारतीय वायुसेना के लिए उपयुक्त नवीनीकरण करने में काफी लम्बा समय लग जाता जिससे सुरक्षा पर नकारात्मक असर पड़ सकता था. इस वजह से सरकार को वायुसेना की आवश्यकताओं को जल्द-से-जल्द पूरा करने हेतु दूसरा विकल्प चुनना पड़ा जिसमें कि सरकार ने 36 राफेल विमानों का पूर्ण निर्यात करना सुनिश्चित किया.
भाजपा सरकार द्वारा सुनिश्चित की गयी इस डील को कांग्रेस ने काफी बुरा बताया है. यूपीए सरकार की प्रस्तावित कीमतों से अधिक कीमत पर इस डील को सुनिश्चित करना, तकनीक का हस्तातंरण न होना, इसमें एचएलए की अनुभागिता न होना, इस डील को कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्यूरिटी द्वारा अनुमोदित न किया जाना और इस डील से एक निजी-क्षेत्र की कंपनी को फायदा पहुंचना ही कांग्रेस के लिए इसकी आलोचना की बड़ी वजह रहा है. इस लेख में हम आगे इन कारणों पर विस्तृत चर्चा करेंगे.
जैसा कि पहले बताया गया था, यूपीए सरकार कभी इस सौदे को अंतिम पड़ाव तक नही पहुँचा सकी थी. असल बात यह है की तत्कालीन रक्षा मंत्री अंटोनी के कार्यकाल में यह सौदा बेहद नाजुक और धीमी गति से किया जा रहा था जिससे यह कभी पूरा न हो सका.
दोनों सौदे में कीमत का भारी अंतर इसलिए है क्यूंकि जहाँ यूपीए ने दस्सौल्ट एवं एचएलए के साथ सम्मिलित 126 घरेलु विमानों के उत्पादन एवं 18 पूर्ण निर्यात विमानों का सौदा तय किया था, वहाँ भाजपा सरकार ने 36 उडान भरने के लिए तैयार, विमानों का सौदा तय किया है, जिनमें तकनीक व् अन्य क्षमताएं पूर्व में निर्यात किये जाने वाले विमानों से काफी बेहतर और आधुनिक है. इन विमानों मे पहले मंगवाए जाने वाले विमानों की तरह न केवल एयर-टू-एयर, एयर-टू-ग्राउंड विजुअल रेंज मिसाइलों को पनाह देने वाला शास्त्र-गृह है बल्कि बेहद ऊंचाई वाले हवाई क्षेत्रों के लिए आधुनिक रडार क्षमताएं, और तेरह भारत-विशेष वृद्धि क्षमताएं भी है जो केवल भारत के लिए पास होंगी, अन्य देशों के पास नही. इसके साथ ही सभी 36 विमानों के रसद सम्बन्धी सहयोग के लिए सात वर्ष तक प्रदर्शन हेतु अनुबंध तैयार किया है. पिछले अनुबंधन में यह अवधि केवल 5 वर्ष थी वह भी केवल 18 विमानों के लिए. भाजपा द्वारा सम्पन्न इस सौदे में द्स्सौल्ट ने न्यूनतम 75 प्रतिशत फ्लीट ओपेराब्लिटी की गारंटी मुहैय्या करवाई है.
हालाँकि यूपीए सरकार द्वारा प्रस्तावित एमएमआरसीए सौदा जिसे भाजपा ने 36 राफेल विमानों की खरीद करते हुए अपने मुकाम पर पहुँचाया, के बीच सूक्ष्म स्तर पर तुलना करना संभव नही है. इसका कारण इन दोनों सौदे की प्रकृति, प्रदेय एवं सेवाएं है. पर जैसा कि पहले कहा गया इसकी मोटे तौर पर तुलना की जा सकती है. प्रख्यात रक्षा विश्लेषक नितिन गोखले ने अपनी किताब,’सेक्युरिंग इंडिया द मोदी वे’ में एक प्रयास किया है. किताब में यह उल्लेखित है कि 2011 में रक्षा मंत्रालय ने सतही तौर पर 126 राफेल विमानों की कीमत 163,403 करोड़ रूपए लगाई थी. इस आंकड़े के बहिर्वेशन से प्रत्येक विमान की कीमत लगभग 1280 करोड़ रूपए है. किताब के अनुसार इसकी तुलना में भाजपा शासनकाल में तय की गयी इस डील में प्रत्येक विमान की कीमत 688 करोड़ रूपए है. इन दोनों कीमतों में काफी बड़े अंतर को देखते हुए यह कहना उचित होगा की यूपीए शासनकाल में प्रस्तावित विमानों की कीमतों में घरेलु उत्पादक, पैमाने की अर्थव्यवस्थाएं आदि के चलते भाजपा सरकार के समय पर तय विमानों के सौदे में प्रत्येक विमान की कीमत कम होनी चाहिए जबकि यह साफ़ है कि ऐसा नही था.
जहाँ तक कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्यूरिटी से इसे अनुमोदित करवाने की बात है, तो यह डील कमिटी द्वारा पहले ही अनुमोदित की जा चुकी थी. इस बात को न केवल नितिन गोखले की किताब में बल्कि पूर्व एयर चीफ राहा के एक साक्षात्कार में (13 दिसम्बर 2017 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया नामक अख़बार में प्रकाशित) भी सत्यापित किया जा चुका है.
अब अंत में तकनीक के हस्तान्तरण में कमी व् एचएलए के बजाये निजी-क्षेत्र की एक कंपनी के फायदे की बात को लेकर चिंतित होना फिजूल है. ऑफ़सेट्स के माध्यम से थोडा बहुत तकनीक का आदान-प्रदान निश्चित है. ज़ाहिर है यूपीए द्वारा प्रस्तावित एमएमआरसीए के सौदे में तकनीक हस्तान्तरण की मात्रा अधिक थी जिसका अहम कारण इस सौदे का व्यापक होना भी था. कांग्रेस की आलोचना में आधार बने अंतिम तर्क के अंत के लिए यह जानना जरूरी है भारत की रक्षा-खरीद नीति के अनुसार दस्सौल्ट किसी भी सहकारी अथवा निजी भारतीय कंपनी को अपने सहभागी के तौर पर चुन सकती है. इससे पहले यूपीए सरकार में एचएलए के साथ इसकी सहभागिता तय हुई थी. पर इन दोनों के बीच पहले की तकरार से यह संभव है की वह अपने लिए कोई अन्य सहभागी चुने. अब वह किसे चुनती है यह हमारी पड़ताल का विषय नही है.
अतः जो कार्य यूपीए ने दस वर्ष तक शासन में रहते हुए भी पूरा नही कर पाया था उस राफेल डील को ढाई वर्ष से भी कम अवधी में निष्कर्ष पर लाने के लिए भाजपा सरकार वाकई में निंदा की नही बल्कि प्रशंसा की पात्र है. साथ ही भाजपा ने यूपीए की तुलना में इस डील को न केवल कीमत व् तकनीक के बल पर बल्कि पूर्व की तुलना में कम समय में 18 के बजाये 36 उड़ने को तैयार विमानों की उपलब्धता, फ्लीट प्रबंधन हेतु औद्योगिक सहयोग की प्रस्तावित अवधी में इज़ाफा, वायु एवं थल कर्मचारियों को विशेष प्रशिक्षण समेत अन्य कारकों के चलते भी एक फायदेमंद सौदे का रूप दिया है जिसका जिक्र एयर मार्शल राहा ने अपने साक्षात्कार में भी किया था.
(लेखक पूर्व- उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार है. ये उनके निजी विचार है)
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