गिलगित-बाल्टिस्तान काउंसिल, इस्लामाबाद द्वारा आयकर (अनुकूलन) कानून, 2012 के तहत प्रत्यक्ष कर लागू करने का ऐलान होने के बाद हाल में समूचे गिलगित-बाल्टिस्तान में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। विरोध की अगुआई अंजुमन-ए-ताजिरान (जिसका मोटा अर्थ व्यापारियों की समिति है क्योंकि ताजिर का अर्थ व्यापारी होता है) और अवामी एक्शन कमेटी (एएसी) ने मिलकर किया था। कुछ दिन पहले प्रदर्शनकारियों ने कर के प्रति अपना विरोध जताने के लिए कराकरोम क्षेत्र की हाड़ कंपाने वाली ठंड में भी स्कार्डू से गिलगित शहर तक (करीब 150 किलोमीटर दूरी) “लंबा जुलूस” निकालने की घोषणा कर डाली थी।
भारतीय मीडिया ने इन घटनाओं पर झटपट प्रतिक्रिया दे डाली और समाचार चैनलों ने इस क्षेत्र के विवादित दर्जे का हवाला देते हुए इन्हें स्वतंत्रता पाने के लिए सत्ता के खिलाफ आंदोलन बता डाला। हालांकि पाकिस्तान सरकार ने दबाव में आकर अधिसूचना वापस ले ली, लेकिन जो हालात बने, उन्हें देखकर गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके के माहौल पर चर्चा करने के लिए बहुत कुछ है। इसीलिए यदि गिलगित-बाल्टिस्तान के माहौल और पाकिस्तान सरकार तथा उसकी संस्थाओं के साथ उसके रिश्ते को समझना है तो वहां चल रहे खेल को, विशेषकर अगुआई कर रही अवामी एक्शन कमेटी के खेल को और उसके प्रमुख कारणों को समझना जरूरी है।
20-22 धार्मिक और राष्ट्रवादी दलों के समूह अवामी एक्शन कमेटी की स्थापना करीब चार वर्ष पहले हुई थी और 2014 में गेहूं की सब्सिडी खत्म करने के पाकिस्तान सरकार के फैसले का विरोध करने पर वह बहुत लोकप्रिय हो गई। करिश्माई वकील और तत्कालीन संयोजक अहसान अली के नेतृत्व में अवामी एक्शन कमेटी के आम लोगों से जुड़ाव और सबको जुटाने की उसकी रणनीतियों ने उसे जनता में बहुत लोकप्रिय बना दिया। पहले किए गए विरोध में अवामी एक्शन कमेटी ने कारगिलवासियों को मिलने वाली सब्सिडी का हवाला देते हुए कारगिल चलो का नारा दिया। यह बड़ा मुद्दा है क्योंकि पड़ोसी लद्दाख को गिलगित-बाल्टिस्तान के मुकाबले अधिक फायदे और राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलता है।
दुर्भाग्य से 2014 में ही अहसान अली को संयोजक के पद से इस्तीफा देना पड़ा, जिसके बाद उन्होंने एक्शन तहरीक की बुनियाद डाली, जिसने अवामी एक्शन कमेटी को समर्थन दे दिया। दूसरी ओर अवामी एक्शन कमेटी को नए अध्यक्ष मौलाना सुल्तान रईस मिल गए, जो सुन्नी मौलवी हैं और जिनके कुख्यात संगठन सिपह-ए-सहाबा से निकले देवबंदी संगठन अहले सुन्नत वल जमात (एएसडब्ल्यूजे) से करीबी रिश्ते हैं। एएसडब्ल्यूजे की गिलगित-बाल्टिस्तान शाखा के मुखिया काजी नसीर अहमद से मौलाना की नजदीकियों से कोई अनजान नहीं है फिर भी उनकी वाक्पटुता और लोगों को कायल करने की क्षमता ने लोगों को उनका मुरीद बना दिया है।
रईस जैसे पाकिस्तान समर्थक नेताओं के जरिये गिलगित-बाल्टिस्तान जनांदोलनों में घुसपैठ कर पाकिस्तानी सरकार ने लोगों को पाकिस्तान के साथ रहने के पक्ष में कर लिया है। इन विरोध प्रदर्शनों की गहरी पड़ताल करने से यह समझने में मदद मिलेगी कि रईस की अगुआई में अवामी एक्शन कमेटी कैसे लोगों के मन पर काबू करने में तो कामयाब हुई ही है, सत्ता की मनचाही राह पर लोगों को चलाने में भी उसे सफलता किस तरह मिली है।
अवामी एक्शन कमेटी गिलगित-बाल्टिस्तान में विवाद की बात को मानती है और गाहे-बगाहे ऐसे मुद्दे उठाती भी रही है, जो लोगों को सीधे प्रभावित करते हैं। मौलाना रईस ने अपने एक बयान में कहा था, “गिलगित-बाल्टिस्तान विवादित इलाका है और इसके नागरिकों पर कर लादना गैर-कानूनी तथा असंवैधानिक है। जब सरकार गिलगित-बाल्टिस्तान की जनता से कर वसूलना चाहती है तो उन्हें देश का नागरिक करार दे दिया जाता है और जब वे समान अधिकार मांगते हैं तो कहा जाता है कि यह विवादित क्षेत्र है।” फिर भी यह संगठन मानता है कि गिलगित-बाल्टिस्तान की समस्याओं का एक ही हल है - पाकिस्तान में विलय।
हालिया प्रदर्शनों की प्रकृतिः “टैक्स दो हुकूक लो” का मतलब
आदेश सार्वजनिक होने के फौरन बाद जब विरोध प्रदर्शनों में अलग-अलग गुटों के लोगों ने अपने मतभेद भुलाकर समान उद्देश्य के लिए जबरदस्त एकता दिखाई तो अवामी एक्शन लीग ने (अंजुमन-ए-ताजिरान के साथ मिलकर) पूरे गिलगित-बाल्टिस्तान में बंद का ऐलान कर दिया।
“टैक्स दो हुकूक लो” और “नो टैक्सेशन विदआउट रिप्रेजेंटेशन” जैसे नारे प्रदर्शनकारियों को जुटाने का जरिया बन गए। ‘हुकूक’ शब्द के यहां दो व्यापक अर्थ हैं। पहला अर्थ बहुमत के इस नजरिये से जुड़ा है कि गिलगित-बाल्टिस्तान को पांचवें प्रांत के तौर पर प्रतिनिधित्व (संसद में सीटें और आम चुनावों में मतदान का अधिकार) और संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिए। दूसरा राष्ट्रवादियों (जिनकी संख्या बहुत कम है) का नजरिया है, जो ऊपर बताए गए अधिकारों की ही मांग करता है। राष्ट्रवादी आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र द्वारा अधिकृत जनमत संग्रह के जरिये पाकिस्तान से आजादी चाहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि निष्पक्ष जनमत संग्रह होने पर गिलगित-बाल्टिस्तान की जनता पाकिस्तान से आजादी का रास्ता ही चुनेगी। राष्ट्रवादियों के अनुसार गिलगित-बाल्टिस्तान का पाकिस्तान समर्थक रुख आतंकवाद विरोधी अधिनियम, 1997 की धारा 4 जैसे कठोर कदमों का नतीजा है।
भारत का पहलू
भारतीय मीडिया द्वारा की गई व्यापक कवरेज को देखते हुए और प्रदर्शन विवादित क्षेत्र में होने के कारण भारत का पहलू भी विरोध गहराने के साथ गहराता गया। किंतु विरोधाभास भी उभरने लगे।
प्हले तो भारतीय मीडिया के कारण ही पाकिस्तानी मीडिया भी हरकत में आया क्योंकि भारत की ओर से खबरें आने से पहले दो दिन तक तो वह विरोध की अनदेखी ही करता रहा। फिर भी भारतीय मीडिया की भूमिका के कारण ही पाकिस्तान सरकार की नजरों में आने वाली अवामी एक्शन कमेटी ने गिलगित शहर में भारत-विरोधी जुलूस निकाला क्योंकि उसके मुताबिक भारत मुद्दे पर बेजा ध्यान दे रहा था।
एक ओर गिलगित-बाल्टिस्तान के मुख्यमंत्री ने विरोध करने वालों को भारतीय एजेंट करार दिया, लेकिन दूसरी ओर सत्ता समर्थक मौलवी की अगुआई वाली अवामी एक्शन कमेटी ने उन्हीं प्रदर्शनकारियों को इकट्ठा किया। इसकी व्याख्या इस वैकल्पिक सिद्धांत से हो सकती है कि विरोध प्रदर्शन संभवतः एजेंसियों के इशारे पर यह जांचने के लिए किए गए हों कि पांचवें प्रांत के मकसद के लिए गिलगित-बाल्टिस्तान के लोगों में कितनी एकता है।
पाकिस्तान सरकार संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव से वाकिफ है, जिसमें पाकिस्तान से कहा गया है कि कश्मीर विवाद के समाधान की दिशा में पहला कदम उठाते हुए वह अपने कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) से सेना हटाए। लेकिन वह गिलगित-बाल्टिस्तान के निवासियों को यह जताने की कोशिश कर रहा है कि प्रांत का दर्जा हासिल करने और पूर्ण अधिकार प्राप्त करने की उनकी आकांक्षा को भारत पूरा नहीं होने दे रहा है।
अगला विश्वसनीय कदम, जिस पर पाकिस्तान सरकार अभी विचार कर रही है, ऐसी संवैधानिक व्यवस्था से जुड़ा है, जिसमें गिलगित-बाल्टिस्तान को शक्ति हस्तांतरण एवं राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व से संबंधित 2009 के संवैधानिक आदेश से कुछ बेहतर हासिल हो सके। इस संभावना पर पिछले हफ्ते पाकिस्तानी संसद में चर्चा की गई थी, लेकिन अधिक प्रगति नहीं हो सकी। दूसरी ओर भारत सरकार पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के मामले में अपने रुख पर अड़ी हुई है और (चीन का पाकिस्तान आर्थिक गलियारा गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर निकाले जाने के विरोध में) चीन के बेल्ट एंड रोड कार्यक्रम का बहिष्कार तक कर चुकी है। लेकिन गिलगित-बाल्टिस्तान मसले पर वह अभी तक कोई सुसंगत नीति तैयार नहीं कर पाई है।
(लेखक विवेकानंद रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में रिसर्च एसोसिएट हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं और वीआईएफ का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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