पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के शेखपुरा में इक्कावाली गांव की रहने वाली आसिया नौरीन या आसिया बीबी के ईशनिंदा मामले से जुड़े विवाद ने पाकिस्तान में चरमपंथ की संस्कृति की ओर ध्यान खींचा है और सरकार तथा सेना की बहुत खराब छवि पेश की है। सर्वोच्च न्यायालय ने ही इस मामले में अपनी गरिमा बरकरार रखी है।
आसिया बीबी पर आरोप था कि 14 जून, 2009 को जब वह शेखपुरा में तीन मुस्लिम महिलाओं के साथ एक खेत से फल तोड़ रही थीं तब उन महिलाओं के साथ बहस में उन्होंने पैगंबर के बारे में तीन “अपमानजनक तथा व्यंग्यात्मक” बयान दिए। जब उन्होंने पानी के डिब्बे छुए तो मुस्लिम महिलाओं ने यह कहते हुए आपत्ति जताई कि गैर-मुस्लिम होने के कारण वह ऐसा नहीं कर सकती। आसिया बीबी की बाद में उन्हीं के घर पर पिटाई की गई और उन पर आरोप लगाने वालों ने कहा कि उन्होंने ईशनिंदा की बात स्वीकार की है। महिलाएं बाद में स्थानीय मौलवी के पास गईं और आसिया पर पैगंबर के खिलाफ ईशनिंदा का आरोप लगाया। पुलिस द्वारा जांच के बाद आसिया को गिरफ्तार कर लिया गया।
निचली अदालत ने नवंबर, 2010 में आसिया बीबी को पाकिस्तान दंड संहिता (पीपीसी) की धारा 295-सी के तहत ईशनिंदा का दोषी करार दिया और अनिवार्य मृत्युदंड सुनाया। लाहौर उच्च न्यायालय ने अक्टूबर, 2014 में उन्हें दोषी करार देने का फैसला उनकी मौत की सजा बरकरार रखी। उन्होंने लाहौर उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने उनकी मौत की सजा पर जुलाई, 2015 में रोक लगा दी और उनकी अपील को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया। सुनवाई अक्टूबर, 2016 के लिए मुकर्रर की गई, लेकिन उसमें देर हो गई क्योंकि एक न्यायाधीश जस्टिस हमीद-उर-रहमान ने खुद को पीठ से अलग कर लिया। मुख्य न्यायाधीश मियां साकिब निसार की अध्यक्षता में जस्टिस आसिफ सईद खोसा और जस्टिस मजहर आलम खां मियांखेल के तीन सदस्यीय पीठ ने दोषी करार दिए जाने के आठ साल बाद अक्टूबर, 2018 में मौत की सजा के खिलाफ आसिया की आखिरी अपील पर सुनवाई की। सर्वोच्च न्यायालय ने 8 अक्टूबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने आसिया बीबी की 2015 की अपील स्वीकार कर और उच्च न्यायालय तथा निचली अदालत के फैसले पलटते हुए 31 अक्टूबर, 2018 को आसिया बीबी को बरी कर दिया।
2011 में जब पंजाब के तत्कालीन गवर्नर तासीर ने जेल में आसिया बीबी से मुलाकात की और उनके मामले की दोबारा सुनवाई का समर्थन किया तो उनका मामला सुर्खियों में आ गया। बाद में 4 जनवरी, 2011 को तासीर के अपने सुरक्षा गार्ड मुमताज कादरी ने ही इस्लमाबाद में सरेआम गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। तासीर की हत्या के दो महीने बाद इस्लामाबाद में 2 मार्च, 2011 को पाकिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यक मंत्री शाहबाज भट्टी की भी हत्या कर दी गई। भट्टी ईसाई थे और उन्होंने ईशनिंदा कानून का विरोध किया था। कादरी को अदालत ने हत्या का दोषी पाया और 2016 में उसे मृत्युदंड दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपना फैसला सुरक्षित रखे जाने के पांच दिन बाद खादिम हुसैन रिजवी की अध्यक्षता वाले बरेलवी तहरीक-ए-लब्बाइक पाकिस्तान (टीएलपी) ने धमकी दी कि अगर सर्वोच्च न्यायालय ने आसिया बीबी को आजाद कर दिया तो कुछ ही घंटों में पूरे देश को ठप कर दिया जाएगा। टीएलपी के मूल संगठन तहरीक-ए-लब्बाइक या रसूल अल्लाह (टीएलवाईआर) का गठन 2016 में मुमताज कादरी की फांसी के बाद की गई थी। टीएलपी का पंजीकरण राजनीतिक दल के रूप में किया गया और 2017 में लाहौर उप चुनाव में शानदार प्रदर्शन के बाद यह चर्चा में आ गया। बाद में नवंबर, 2017 में उसने सांसदों की शपथ में संभावित बदलावों के विरोध में राष्ट्रीय राजधानी को ठप कर दिया। हालांकि जुलाई, 2018 के आम चुनावों में टीएलपी को राष्ट्रीय संसद में एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन उसने 22 लाख से अधिक वोट बटोरे और पाकिस्तान में पांचवां सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन गया।
आसिया बीबी को बरी करने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए टीएलपी ने 31 अक्टूबर को लाहौर में विरोध आरंभ कर दिया और मुख्य सड़कें बंद कर यातायात ठप कर दिया। जल्द ही विरोध इस्लामाबाद, रावलपिंडी, गुजरात, गुजरांवाला, लाहौर, कसूर, ओकरा, फैसलाबाद, मुल्तान, हैदराबाद, कराची, पेशावर जैसे अन्य महत्वपूर्ण शहरों में भी फैल गया। जमायत-उल उलेमा इस्लाम-फजल (जेयूआई-एफ), जमात-ए इस्लामी (जेआई), हाफिज सईद के जमात-उद दावा (जेयूडी), जमात-उलेमा पाकिस्तान (जेयूपी) और मरकजी जमीअत अहले हदीथ (एमजेएएच) जैसे दूसरे धार्मिक दलों ने भी तीन न्यायाधीशों के आदेश को नकार दिया तथा 2 नवंबर, शुक्रवार से विरोध प्रदर्शन में शामिल होने का फैसला किया।
31 अक्टूबर को राष्ट्रव्यापी संबोधन में इमरान खान ने चेतावनी दी कि सरकार इस आदेश का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करेगी। उन्होंने फैसले पर प्रतिक्रिया देते समय “छोटे से वर्ग” द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा की आलोचना की और कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, सेना प्रमुख तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के खिलाफ इस्तेमाल की गई भाषा असहनीय है। ऐसा ही साहस सूचना मंत्री ने भी दिखाया और विरोध करने वालों को चेतावनी दी कि सरकार को कमजोर नहीं समझें।
लेकिन यह साहस 24 घंटे भी नहीं टिका। इमरान खान पहले से तय तारीख से एक दिन पहले ही देश छोड़ गए। बाद में भड़के हिंसक विरोध-प्रदर्शनों ने सरकार को प्रदर्शनकारियों के साथ समझौते के लिए मजबूर कर दिया। सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध दायर पुनर्विचार याचिका का विरोध नहीं करने, गिरफ्तार प्रदर्शनकारियों को रिहा करने और आसिया बीबी को देश छोड़ने से रोकने के लिए उनका नाम देश की एक्जिट कंट्रोल लिस्ट (ईसीएल) में शामिल करने की कानूनी प्रक्रिया शुरू करने पर तैयार हो गई। बदले में टीएलपी प्रदर्शन खत्म करने के लिए और ‘यदि किसी की भावना अकारण आहत हुई हों या किसी को असुविधा हुई हो’ तो उससे हास्यास्पद माफी मांगने के लिए तैयार हो गई।1
न्यायाधीशों की हत्या का आह्वान करने अथवा सेना से सेना प्रमुख के खिलाफ बगावत करने के लिए कहने पर उसने किसी तरह का खेद प्रकट नहीं किया।
कुल मिलाकर कानून लागू करने के बजाय न केवल झुक गई बल्कि उसने भविष्य के लिए एक और खतरनाक उदाहरण भी पेश कर दिया। सरकार के इस दावे को मानने वाले भी कम ही थे कि समझौते से शांति बहाल हो गई और उन्हें यह तुष्टीकरण नजर आ रहा था, जिसने सरकार की शक्ति को खासी ठेस पहुंचाई है। कट्टरपंथियों की ताकत तथा हिम्मत और भी बढ़ गई है। उन्हें यही संदेश मिला कि वे लगातार जहर उगल सकते हैं और हिंसा जारी रख सकते हैं क्योंकि सरकार उनके आगे झुक जाएगी।
सत्तारूढ़ पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) अपने ही अतीत के कारण धार्मिक विरोध प्रदर्शन से मजबूती से नहीं निपट पाती है। पीटीआई उन दलों में शामिल है, जिन्होंने 2017 में टीएलपी द्वारा इस्लामाबाद की घेराबंदी को सही ठहराया था और कानून मंत्री से इस्तीफा मांगने की उसकी मांग का समर्थन किया था। पंजाब के सूचना मंत्री जैसे मंत्री तो मुमताज कादरी की कब्र पर भी गए और मौत की सजा पाने वाले हत्यारे के लिए फातिहा पढ़ा। कई नेताओं ने चरमपंथी सांप्रदायिक गुटों की सभाओं में शिरकत की है और चुनावों में धर्म का इस्तेमाल करने से पीछे नहीं रहे हैं।
सेना भी उस समय कमजोर नजर आई, जब टीएलपी उसके खिलाफ जहर उगल रहा था। जब बगावत के लिए खुलेआम भड़काया जा रहा था, उस समय बड़बोले प्रवक्ता केवल यही कह पाए कि सेना बीच में नहीं पड़ेगी।
पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून 1860 का है, जब धार्मिक सभा में विघ्न डालना, कब्रिस्तान में अतिक्रमण करना, धार्मिक मान्यताओं का अपमान करना अथवा आराधना स्थल अथवा वस्तु को जानबूझकर नष्ट अथवा अपवित्र करना अपराध करार दिया गया था और इसके लिए 10 वर्ष तक की कैद रखी गई थी। 1980 के दशक में जिया-उल हक ने पीपीसी में धारा 295-बी अरौर 295-सी जोड़ दीं, जिनके अनुसार कुरान को ‘जानबूझकर’ अपवित्र करने पर उम्रकैद तथा पैगंबर की निंदा करने पर ‘मौत अथवा उम्रकैद’ की सजा तय की गई। इससे धार्मिक कट्टरपंथियों को धर्म के नाम पर घृणा फैलाने, हिंसा भड़काने और उकसाने तथा लोगों को मारने तक का मौका मिल गया।
लाहौर के सेंटर ऑफ सोशल जस्टिस द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़े बताते हैं कि अल्पसंख्यकों को उनकी आबादी की तुलना में अधिक बड़ी संख्या में ईशनिंदा का अभियुक्त बनाया गया है। 1987 से 2016 के बीच ईशनिंदा का आरोप झेलने वाले 1,472 लोगों में से 730 मुसलमान थे, 501 अहमदी थे, 205 ईसाई तथा 26 हिंदू थे। अभी तक किसी को भी ईशनिंदा के आरोप में मौत की सजा नहीं दी गई है। ज्यादातर की सजा का फैसला या तो पलट दिया गया या अपील करने पर उनकी सजा माफ कर दी गई। अधिकतर मामलों में उच्च न्यायालयों ने कहा है कि शिकायत, जांच और सबूत मनगढ़ंत थे और निजी या राजनीतिक दुश्मनी के कारण शिकायत की गई थी। एमनेस्टी इंटरनेशनल के हालिया अध्ययनों के मुताबिक ‘धर्म के आधार पर घृणाजनित अपराध करने, निजी दुश्मनी निकालने तथा आर्थिक अन्याय करने के लिए ईशनिंदा कानून का जमकर दुरुपयोग होता है।’2
यातना अभी खत्म नहीं हुई है। जब यह लेख लिखा जा रहा था तो मामले में शिकायत करने वाले कारी मुहम्मद सलाम ने आसिया बीबी को बरी किए जाने के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी थी। उसने आसिया का नाम इक्जिट कंट्रोल लिस्ट में शामिल किए जाने की मांग भी की थी। हालांकि आसिया को जेल से रिहा कर दिया गया है, लेकिन इस बारे में विरोधाभासी खबरें आ रही हैं कि वह अब भी देश में हैं या विदेश जा चुकी हैं। गार्डियन लिखता है कि बरी होने के बाद भी “वह आजाद हो गई होंगी, लेकिन शायद वह कभी आजादी से नहीं जी पाएं... अपने बाकी दिन वह अंतरराष्ट्रीय हत्यारे के डर के साये में गुजारेंगी।”3
पुनर्विचार याचिका के नतीजे का आसिया बीबी के भविष्य पर ही असर नहीं पड़ेगा बल्कि यह न्यायपालिका तथा सरकार का भी इम्तिहान होगा। अपने फैसले का असर देख चुके न्यायाधीशों पर पुनर्विचार याचिका का निपटारा करते समय बहुत दबाव होगा। तीन न्यायाधीशों और विशेष तौर पर अतीत में ईशनिंदा से जुड़े मामलों की सुनवाई कर चुके तथा मुमताज कादरी की सजा-ए-मौत पर मोहर लगा चुके जस्टिस खोसा को चरमपंथियों से खतरा होगा, जो बदला लेने की फिराक में हैं। फैसले के बाद टीएलपी के एक नेता अफजल कादरी ने न्यायाधीशों को ‘वजाबुल कत्ल’ (मारे जाने के लायक) घोषित कर दिया था और अपने चेलों से उन्हें मारने के लिए कहा था।
सवाल यह है कि एक बार घुटने टेक चुकी और अपनी बात से पलटने के लिए मशहूर सरकार कानून का शासन बरकरार रखने में सक्षम है और उसकी इच्छुक है या नहीं? और क्या पाकिस्तान में बड़ा दबदबा रखने वाली सेना अपने प्रमुख के अपमान और बगावत की अपीलों को नजरअंदाज करना जारी रखेगी?
पाकिस्तान में इस मामले की गूंज लंबे अरसे तक रहेगी। फैसला और उसके प्रभाव ईशनिंदा के मामलों तथा चरमपंथी धार्मिक समूहों पर भविष्य की चर्चा तय करने में अहम भूमिका निभाएंगे। वास्तव में यह मामला पहले ही पाकिस्तान में कानून और आम समाज के लिए कसौटी बन गया है। कानूनी तौर पर इससे असहज करने वाली यह बात सामने आती है कि निचली अदालतें तथा उच्च न्यायालय चरमपंथी समूहों का दबाव झेलने में नाकाम रहते हैं चाहे सबूत कितने ही खोखले, गलत और मनगढ़ंत क्यों न हों। पाकिस्तान में बढ़ते इस्लामीकरण ने ऐसी स्थिति ला दी है, जिसमें ईशनिंदा के खोखले सबूत भी उत्पात फैला सकते हैं और संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंच सकता है। सामाजिक तौर पर इससे पता चलता है कि पाकिस्तान में जड़ जमाए असहिष्णुता और कट्टरपंथ कितनी गहराई तक पहुंच चुके हैं और अल्पसंख्यकों को रोजाना कितनी असुरक्षा का सामना करना पड़ रहा है।
स्पष्ट है कि पाकिस्तान के लिए असहिष्णु देश बनने की गुंजाइश तेजी से खत्म होती जा रही है।4
(लेखक भारत सरकार के कैबिनेट सचिवालय में विशेष सचिव रह चुके हैं)
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