ईरान पर अमेरिका के तेल और बैंकिंग प्रतिबंध 4 नवंबर से प्रभावी हो गए। राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा है कि ये अमेरिका द्वारा लगाए गए अभी तक के सबसे सख्त प्रतिबंध हैं। इस तारीख का भी अपना प्रतीकात्मक महत्व है। वर्ष 1979 में इसी तारीख को तेहरान में छात्रों ने अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर लिया था।
एक छात्र मिलिशिया बासिज को संबोधित करते हुए ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामनेई ने कहा कि प्रतिबंध लगाने का अर्थ है कि इस्लामिक प्रतिष्ठान को रोकने के लिए दुश्मन के पास प्रतिबंध लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने कहा कि ‘ये आर्थिक प्रतिबंध हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की तुलना में और भी ज्यादा कमजोर हैं।’
इससे पहले वर्ष 2010 में ईरान पर प्रतिबंध लगाए गए थे। हालांकि इस दौर के प्रतिबंधों को यूरोपीय संघ (ईयू), रूस और चीन द्वारा समर्थन नहीं किया जा रहा है। और न ही उन्हें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्वीकृति मिली है। वहीं अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण (आईएईए) ने प्रमाणित किया है कि ईरान परमाणु समझौते के तहत उसके निर्देशों का अनुपालन कर रहा है। कुछ ‘प्रावधानिक कदमों’ से संबंद्ध रखने वाले अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) ने भी अमेरिकी प्रतिबंधों के खिलाफ फैसला दिया है। हालांकि इनमें से किसी से भी इन प्रतिबंधों की सख्ती कम नहीं हो जाती।
ईरान पर प्रतिबंधों को लेकर अमेरिका ने केवल आठ देशों को ही राहत देने का फैसला किया है। यह राहत भी उन देशों के लिए जिनके लिए ईरान से कच्चे तेल का आयात अहम है और उनसे भी इसमें चरणबद्ध कटौती करने के लिए कहा गया है। जिन देशों को ऐसी राहत मिली है भारत भी उनमें से एक है।
बीते एक महीने के दौरान कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का रुख देखा गया है। तेल निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) की क्रूड बास्केट कीमतों में अक्टूबर की शुरुआत में 81.49 डॉलर प्रति बैरल का जो स्तर था वह 30 अक्टूबर तक 8.6 प्रतिशत की गिरावट के साथ 75.51 डॉलर प्रति बैरल हो गया। इसके बाद वह और गिरकर 72.64 डॉलर प्रति बैरल तक चला गया। हालांकि दीर्घावधिक दृष्टिकोण से देखें तो कीमतों में इजाफा नाटकीय है। अक्टूबर 2018 में आई ओपेक की मासिक रिपोर्ट के अनुसार सितंबर में ओपेक रेफरेंस बास्केट में तकरीबन 7 प्रतिशत की तेजी दर्ज की गई या कहें कि हर महीने इसमें 4.92 डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी होती गई और यह 77.18 डॉलर प्रति बैरल के औसत मासिक स्तर तक पहुंच गया। वर्ष 2014 के बाद से यह तेजी का सबसे ऊंचा रुझान था।
ओपेक के साथ ही अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) ने बाजारों को यह कहते हुए शांत करने की कोशिश करी कि पर्याप्त मात्रा में तेल उपलब्ध है और बाजार में आपूर्ति से जुड़ी हुई कोई समस्या नहीं। मुद्दा केवल उपलब्धता का नहीं है, लेकिन कीमतों का है जिन्हें तेल खपत करने वाले देश चुका सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले महीने ओपेक महासचिव और सऊदी के तेल मंत्री का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया था कि कीमतों को कम करने के लिए उन्हें और प्रयास करने चाहिए। इस साल कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण आयात बिल में भारत पर 2,00,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ सकता है। इससे सरकार का बजट घाटा और चालू खाते का घाटा भी बुरी तरह प्रभावित हो सकता है।
कीमतों में बढ़ोतरी केवल ईरान के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ही नहीं हुई है, बल्कि ओपेक और गैर-ओपेक देशों द्वारा उत्पादन सीमित करने की नीतियों के कारण भी ऐसा हुआ है। अमेरिका में एंटी-ट्रस्ट कानून के डर के चलते ओपेक प्रत्यक्ष रूप से कीमतों पर बात नहीं करता। इसके बजाय ओपेक का बयान मांग और आपूर्ति से जुड़ा है। वास्तव में ओपेक और गैर-ओपेक तेल उत्पादकों ने नवंबर 2016 का उत्पादन स्तर बना रखा है और उत्पादन के लिए स्वीकृत स्तर में कटौती की हुई है। इसने आपूर्ति को बहुत सख्ती से नियंत्रित किया हुआ है जिससे कीमतें बढ़ती गईं। ओपेक और अन्य यानी ओपेक और रूस के नेतृत्व वाले गैर-ओपेक देशों की साठगांठ में एक अनौपचारिक सहमति है जिसे ‘सहयोग घोषणापत्र’ का नाम दिया गया है। वर्ष 2018 के अंत में इसके समाप्त होने की उम्मीद थी, लेकिन सऊदी तेल मंत्री ने हाल में कहा कि उन्होंने इस व्यवस्था को विस्तार देने पर सहमति जताई है और इसकी मदद के लिए सचिवालय की भी स्थापना की जाएगी। ऐसे में हमें लगता है कि यह सिलसिला अभी कुछ और वक्त के लिए कायम रहेगा।
अमेरिकी राहत मिलने के साथ ही यह संभव है कि अमेरिका को और कुपित किए बिना ही ईरान से और कच्चा तेल खरीदा जाए। हालांकि भुगतान अमेरिकी डॉलर में नहीं किया जाएगा। ऐसे में कोई वैकल्पिक भुगतान तंत्र विकसित करना होगा। पिछले दौर के प्रतिबंधों के दौरान ईरान से कच्चे तेल का भुगतान रुपये में करने की व्यवस्था बनाई गई थी। इसमें दोनों देशों के बीच गैर-तेल व्यापार भी शामिल हो गया। यह अभी भी हमारे लिए सर्वोत्तम विकल्प बना हुआ है।
यूरोपीय संघ यानी ईयू भी नए अमेरिकी प्रतिबंधों का समर्थन नहीं कर रहा है। उसने भी अमेरिकी प्रतिबंधों की काट निकाली है। हालांकि अभी उसकी इस कवायद की परख होना बाकी है। ईयू ने विशेष उद्देश्य ईकाई (स्पेशल पर्पज व्हीकल, एसपीवी) के गठन की घोषणा भी की है जो एक भुगतान तंत्र उपलब्ध कराएगी। इस पर छह महीने से चर्चा हो रही है और इसे अभी भी औपचारिक स्वरूप दिया जाना शेष है। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इसमें कच्चा तेल खरीद और किसी तीसरे देश से ईरान के व्यापार को भी शामिल किया जाएगा। वहीं इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत की रुपये में भुगतान करने वाली सबसे बेहतर व्यवस्था अपना प्रयोजन सिद्ध कर चुकी है।
भारत को मिली राहत केवल तेल के लिए भुगतान करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह चाबहार बंदरगाह के मामले में भी मिली है। जब रियायत का पूरा ब्योरा सामने आया तभी यह पहलू उजागर हुआ। भारतीय परियोजनाओं का दायरा नागरिक सुविधाओं से ही जुड़ा है। यह तेल निर्यात से ही नहीं जुड़ा है। यह बंदरगाह अफगानिस्तान तक पहुंच के लिए विकल्प बढ़ाएगा जिसमें उस तक पहुंचने के लिए पाकिस्तान पर निर्भरता बहुत घट जाएगी।
अंतरराष्ट्रीय नॉर्थ-साउथ ट्रांजिट कॉरिडोर (आईएनएसटीसी) ईरान से होकर गुजरता है। मध्य एशिया तक पहुंच के दृष्टिकोण से यह बेहद महत्वपूर्ण है। फिलहाल मध्य एशिया तक भारत की उचित रूप से पहुंच न होने के कारण मध्य एशिया से होने वाले वैश्विक व्यापार में भारत की बहुत मामूली सी हिस्सेदारी है।
क्या अमेरिकी प्रतिबंध कीमतों में बढ़ोतरी का कारण बनेंगे? फिलहाल ओपेक का उत्पादन अप्रत्याशित रूप से बढ़कर 33.33 मिलियन बैरल प्रतिदिन के काफी ऊंचे स्तर पर पहुंच गया है। इसके साथ ही अमेरिका के तेल उत्पादन में भी बढ़ोतरी हुई है। उत्पादन में बढ़ोतरी और साथ ही साथ कीमतों में नरमी महज कोई संयोग नहीं है। इसमें नवंबर में हुए अमेरिकी कांग्रेस के चुनावों की भी भूमिका रही। अब हमें यह देखना होगा कि क्या यह रुझान ऐसे ही बरकरार रह पाएगा।
ईरान भारत के विस्तृत पड़ोस का हिस्सा है। ऐसे दौर में जब अफ-पाक क्षेत्र में हालात खराब हो रहे हों तब भारत भू-राजनीतिक आवश्यकताओं की अनदेखी नहीं कर सकता। साथ ही अमेरिका के साथ भी भारत के बेहद महत्वपूर्ण रिश्ते हैं।
(लेखक ईरान में भारत के पूर्व राजदूत हैं और संप्रति विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में सीनियर फैलो हैं.)
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