संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त (ओएचसीएचआर) की ‘कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति’ पर आई हालिया रिपोर्ट बहुत ही निराशाजनक है। तमाम खामियों वाली यह रिपोर्ट भारत-विरोधी पूर्वाग्रह से ग्रस्त है।
रिपोर्ट के शीर्षक से ही यह संकेत मिलता है कि इसमें भारत की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का ख्याल नहीं रखा गया है, क्योंकि इसमें भारतीय राज्य जम्मू कश्मीर को तथाकथित ‘आजाद जम्मू एवं कश्मीर’ और गिलगित-बाल्टिस्तान के रूप में तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है। ‘भारतीय राज्य जम्मू एवं कश्मीर सहित पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले क्षेत्र’ इसका कहीं अधिक उपयुक्त शीर्षक होता। इस रिपोर्ट का एक और अजीबोगरीब पहलू यह भी है कि इसमें हिज्बुल मुहाहिदीन (एचएम), लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी), जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) जैसे तमाम संगठनों को आतंकी नहीं माना है जबकि अंतराराष्ट्रीय समुदाय उन्हें निःसंकोच भाव से आतंकवादी समूह मानता है। इसके बजाय उन्हें ‘आर्म्ड ग्रुप्स’ या ‘मिलटेंट्स’ यानी हथियारबंद समूह बताया है। इसके अलावा रिपोर्ट में इस तथ्य को स्वीकार करने में भी हिचक दिखाई गई है कि पाकिस्तान ही भारत में आतंक के निर्यात में लगा है जो जम्मू-कश्मीर में मौजूदा गतिरोध की जड़ है। इसके बजाय रिपोर्ट में गोलमोल भाषा में कहा गया है कि ‘विशेषज्ञों का मानना’ है कि ‘पाकिस्तानी सेना आतंकियों को उनके अभियान में मदद करती है।’
अफसोस की बात है कि यह पूर्वाग्रह और तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना भारत की स्वतंत्रता के बाद कश्मीर में बने हालात के घटनाक्रम से संबंधित ब्योरे में भी झलकता है। उदाहरण के तौर पर रिपोर्ट में उल्लेख है कि महाराजा हरि सिंह 26 अक्टूबर, 1947 तक स्वंतत्र बने रहना चाहते थे जब उन्होंने ‘पश्तून ताकतों द्वारा घुसपैठ के बाद दबाव में’ भारत के साथ विलय की संधि पर हस्ताक्षर किए। यह दो तरह से वास्तविकता के उलट है। पहला तो यही कि महाराजा स्वतंत्र ही बने नहीं रहना चाहते थे, लेकिन अपने अंतिम निर्णय को लेकर कुछ दुविधा में थे। दूसरा यही कि कश्मीर में घुसपैठ पूरी तरह पाकिस्तान की शह पर हुई थी जिसके लिए उसने नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (एनडब्लूएफपी) के पश्तून लोगों के साथ ही कुछ अन्य कर्मियों का इस्तेमाल किया जो इस मकसद में उसके काम आ सकते थे। आखिरकार जैसा कि बाद में संयुक्त राष्ट्र में भी यह सामने आया कि जम्मू एवं कश्मीर में उसकी कम से कम तीन ब्रिगेड तैनात थीं।
जहां तक पाकिस्तानी आक्रामकता से जुड़े तथ्यों को विरुपित करने की बात है तो वह एक बहुत बड़ी गलती है और पहले भी अगस्त 1948 और जनवरी 1949 में भारत पाकिस्तान प्रस्ताव के लिए बने संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसीआईपी) में भी आक्रामकता पर बात हुई थी। यह करगिल युद्ध से जुड़ी उसी रिपोर्ट की तरह था जिसके लिए भारत को भी पाकिस्तान के बराबर जिम्मेदार ठहराया गया और यह पहलू नजरअंदाज हो गया कि संघर्ष की चिंगारी तो पाकिस्तान ने भड़काई थी।
अगर उपर्युक्त यूएनसीआईपी प्रस्ताव की बात करें तो उसे भारत और पाकिस्तान दोनों ने स्वीकार किया था। ऐसे में इस रिपोर्ट में उन तथ्यों की भी व्याख्या की जानी चाहिए कि इन प्रस्तावों में तीन पहलू शामिल हैं। पहला संघर्ष विराम करना, दूसरा पाकिस्तानी आक्रामकता में कमी और तीसरा लोगों की इच्छा को वरीयता देना। चूंकि पाकिस्तान ने कभी आक्रामकता नहीं छोड़ी तो इसमें तीसरे पहलू का पूरा होना कभी संभव ही नहीं था। इस रिपोर्ट के आलोक में कुछ तथ्यों का उल्लेख करना आवश्यक होगा कि कश्मीर मामले की पृष्ठभूमि को लेकर उसने कुछ तथ्यों की सुविधानुसार अनदेखी कैसे कर दी। इस पर चर्चा के लिए उन आश्वासनों का उल्लेख जरूरी है जो यूएनसीआईपी ने भारत से किए थे। ये इस प्रकार हैं:-
रिपोर्ट में यह बात पूरी तरह अवांछित है कि भारत को ‘कश्मीर के लोगों के स्व-शासन के निर्णय का पूरा समर्थन’ करना चाहिए, क्योंकि भारत पहले ही ऐसा कर चुका है। यद्यपि भारत ने जम्मू एवं कश्मीर में जनमत संग्रह नहीं कराया है जिसके बारे में पहले भी बताया जा चुका है कि चूंकि पाकिस्तान ने अपनी आक्रामकता नहीं छोड़ी और संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव के लिए यह जरूरी था। ऐसे में यह काफी स्पष्ट था कि जम्मू एवं कश्मीर का भारत में विलय न केवल महाराजा हरि सिंह द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर के जरिये विधिसम्मत होना चाहिए, बल्कि यह जनभावना के अनुरूप भी होना चाहिए। यह जनभावना जम्मू एवं कश्मीर की जनता द्वारा चुनी गई संविधान सभा द्वारा 1954 में विलय संधि को मंजूरी के रूप में प्रदर्शित होती है जिसने तीन साल की बहस के बाद इस पर मुहर लगाई। वास्तव में संविधान सभा ने इससे आगे भी कदम बढ़ाते हुए 1956 में जम्मू एवं कश्मीर को अपना संविधान भी दिया जो राज्य को भारत के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार करता है। जम्मू एवं कश्मीर के भारत में विलय पर लोकप्रिय जनमत की मुहर लगाने वाले इन कदमों के अलावा यहां दशकों से वास्तविक एवं सार्थक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी अनवरत जारी है जिसमें लोग प्रांतीय एवं राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अपने जनप्रतिनिधि चुनते हैं।
यह बताते हुए भी रिपोर्ट भारी गलती करती है कि 2016 से 2018 के बीच जम्मू एवं कश्मीर में सबसे ज्यादा हिंसा और विरोध प्रदर्शन हुए। यह तथ्यात्मक रूप से गलत है। साउथ एशियन टेररिज्म पोर्टल के अनुसार वर्ष 2016 में 14 आम नागरिकों की जान गई जो आंकड़ा 1988 के बाद से सबसे कम है। वर्ष 2016 से 10 जून, 2018 के बीच यह आंकड़ा केवल 107 का था जबकि 1993 से 1996 से हर साल यह संख्या 1,000 से ऊपर जाती थी और 1988 से 10 जून, 2018 के बीच यह कुल संख्या 14,831 रही।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सुरक्षा बल जानबूझकर आम नागरिकों को निशाना बनाते हैं। यह पूरी तरह तथ्यों का मखौल उड़ाना है। आम नागरिकों की हत्या मुख्य रूप से आतंकियों द्वारा जानबूझकर उन्हें निशाना बनाने या फिर क्रॉसफायरिंग में या फिर उनके द्वारा सुरक्षा बलों पर हमला करने के कारण होती है। जहां तक सिविल अथॉरिटी की मदद का सवाल है तो भारतीय सेना न्यूनतम बल प्रयोग के प्रशिक्षण से प्रशिक्षित है और इस मामले में पूरी दुनिया में उसका रिकॉर्ड संभवतः सबसे बेहतर है। अधिकांश देशों और यहां तक कि हमारे एकदम पड़ोसी मुल्क में ही यह देखने में आता है कि अधिकांश सुरक्षा बल अलगाववादियों से निपटने में भारी हथियारों, टैंकों और यहां तक कि वायु सेना के उपयोग से भी नहीं हिचकते। उसकी तुलना में भारतीय सेना तो बहुत छोटे हथियारों का उपयोग करती है। हमारे सैनिकों की शहादत के ऊंचे आंकड़ों में यह बात झलकती है। वर्ष 1988 से 10 जून, 2018 के बीच जहां 23,444 आतंकी मारे गए तो 6,391 सुरक्षाकर्मी भी शहीद हुए। वहीं 2016 से 10 जून, 2018 के बीच अलगाववाद के स्तर में कमी आने से यह आंकड़ा भी घट गया। इस अवधि में 788 आतंकी मारे गए तो 205 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए।
इस बेहद दोषपूर्ण रिपोर्ट में लेखक के भारत विरोधी पूर्वाग्रह भी झलकते हैं। ‘रिमोट मॉनिटरिंग’ की उनकी पद्धति भी गलत है जिसमें अपेक्षाकृत सीमित आंकडों का भी सुविधाजनक उपयोग किया गया है। जमीनी हकीकत जानने के लिए वह किसी जगह पर भी नहीं गए। साथ ही इससे जुड़े सभी अंशभागियों के साथ भी कोई संवाद नहीं किया। इस परिदृश्य में यह रिपोर्ट न तो अपेक्षित सम्मान हासिल कर पाएगी और न ही इस पर कोई खास ध्यान देगा।
(लेखक पूर्व उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं)
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