हिन्द महासागर में चीन द्वारा समुद्री-आधारभूत संरचना से जुडी परियोजनाओं का संचालन: ऋण एवं पट्टेदारी समझौते
Dr Vijay Sakhuja

हिन्द महासागर से जुड़े समकालीन विमर्श में आर्थिक गलियारों, जुडाव और बंदरगाह परियोजनाएं और साथ ही रणनैतिक प्रवेश की व्यवस्थाओं के मुद्ददे शामिल हैं. बेल्ट और रोड परियोजना के तहत चीन के 21वीं सदी की समुद्री-रेशम मार्ग की अवधारणा इस विमर्श का सांकेतिक मूल है. इसके अलावा समुद्री रेशम मार्ग परियोजना, चीन की तकनीक एवं वित्तीय संसाधनों की विशेषज्ञता को प्रमाणित करने वाला एक अवसर भी है जिसका फायदा लेने के लिए चीन ने कई देशों के साथ ऋण(पैसा) इवं पट्टेदारी (आधारभूत संरचना)समझौते स्थापित किये है. हालाँकि चीनियों की इस रणनीति को ‘ऋणदाता साम्राज्यवाद’, ‘कर्ज में फ़साने की कूटनीति’ और ‘सुबह की चेतावनी वाला प्रदेश’ जैसे कई शीर्षक इस डर के चलते दिए गये हैं कि कहीं विकास के लिए चुने गये इन क्षेत्रों में खुद मेजबान देश ही उस इलाक़े पर अपनी संप्रभुता और नियंत्रण खो न बैठें.

देश के किसी क्षेत्र को पट्टे पर देना और समुद्री-आधारभूत संरचना का निर्माण करना, आधुनिक युग में कोई नई बात नही है. कई देशों ने अपने मित्र देशों, सहयोगियों के साथ भू-राजनीतिक, भू-आर्थिक और भू-रणनैतिक हितों को संरक्षित करने के लिए इस तरह के समझौतों को अंजाम दिया है. साथ ही, कई देशों ने सैन्य संपत्तियों को भी, मेजबान देश को अपनी साख का परिचय देने के लिए या तो उपहार स्वरुप अथवा एक निश्चित अवधि या समय-सीमा तक पट्टेदारी पर देने वाले इन ठोस क़दमों को इस समझौते में शामिल किया है. नौसेना कूटनीति का यह नया आयाम है.

अतीत की झलक

मई 15 1940 में यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रेंक्लिन डी. रूज़वेल्ट के बीच भी इसी तरह का एक समझौता हुआ था, जिसके तहत 40-50 पुराने अमेरिकी नौसेना के नाशकों के बदलें अटलांटिक समुद्र पर मौजूद अंग्रेज़ी नौसेना और हवाई अड्डों को इस डर के बीच पट्टे पर लिया था कि यदि अंग्रेज़ को मात मिलेगी तो जर्मन वहाँ आने का प्रयास करेंगे. हालाँकि अमेरिका जॉनसन एक्ट 1934 अमेरिका को किसी भी ऐसे देश को कर्ज देने पर रोक लगता है जिसने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लिए गये ऋणों को नही चुकाया, जिसमें ग्रेट ब्रिटेन भी शामिल था. मगर वाशिंगटन ने ‘अमेरिका से आवश्यक युद्ध सामग्री की ख़रीद’ के लिए तत्पर देश के लिए, न्यूट्रलिटी एक्ट 1939 का तोड़ निकाल लिया, जिसके अंतर्गत ‘एक हाथ नगद दो, एक हाथ सामान लो’ वाला जरिया अपनाया गया. इसके बाद 1892 में रक्षा सचिव के सहयोग से एक कानून बनाया गया जिसमें, ‘यदि कोई देश किसी संपत्ति का उपयोग नही कर रहा है, तो वह संपत्ति को वे अधिकतम पांच वर्षों के लिए अमेरिका को दे सकता है.’

11 मार्च 1941 को अमेरिकी कांग्रेस द्वारा, ‘अमेरिकी रक्षा को बढ़ावा देने हेतु एक्ट’ पारित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका को कई ब्रिटिश संपत्तियों (कुछ नई और कुछ कॅरीबीयन में) पर नौसेना अथवा वायुसेना अड्डे स्थापित करने का और अधिकार 99 वर्षों की किराये-रहित पट्टेदारी पर उपलब्ध कराया गया. राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने ऐलान किया कि, “ जैसे आग लगने के समय एक व्यक्ति अपने पडोसी को अपने बगीचे के पानी का पाइप इस्तेमाल करने की अनुमति देता है, पैसे की नही बल्कि इस उम्मीद के साथ की अपनी आवश्यकता के बाद वह उसे वापस कर देगा, ठीक उसी तरह अमेरिका को भी उन वस्तुओं को उधार देना चाहिए”. इससे पहले 1898 में स्पेन-अमेरिका युद्ध में, स्पेन की हार के बाद उसने क्यूबा पर अपने अधिकार की ज़िद त्याग दी थी और गुआम, पुएर्तो रिको एवं यूएस के फिलीपींस पर संप्रभुता छोड़ दी थी. क्यूबाई सरकार ने इन तीनों क्षेत्रों को अमेरिका के दायित्व में नौसैन्य अड्डा अथवा कॉलिंग स्टेशन बनाने के लिए पट्टे पर दे दिया. इसमें गुआनतानामो तट पर नौसैन्य स्टेशन भी सम्मिलित है. 1903 और 1934 में औपचारिक पट्टेदारी समझौतों के परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों में अमेरिका के पास निर्धारित समय-सीमा तक पूर्ण अधिकार-क्षेत्र रहेगा.

सोवियत/रूसी प्रवेश रणनीति

शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ ने कई देशों के साथ सैन्य सहयोग हेतु बातचीत की थी. उदाहरण के लिए, 1971 में सीरिया ने तार्ट्स बेस को रूस 74-वर्षीय पर नवीकरण (49 वर्ष पट्टेदार और 25 वर्ष स्वतः छूट) के समझौते के साथ को सौंप दिया था. इस समझौते की एक विशेषता यह थी कि इसमें यह साफ़ दर्ज था कि यह सुविधा डमस्कस के क़ानूनी अधिकार-क्षेत्र के बाहर ही प्रभावी होगी और सीरिया इसके किसी सैन्य अभियान में दखलंदाजी नही करेगा. पश्चिमी सीरिया में भी रूस ने 50 वर्ष की अवधी के लिए हवाई बेस पट्टे पर लिया है.

शीत युद्ध के दौरान वियतनाम में केम रांह तट ने सोवियत नौसेना के नौसैन्य अड्डे के रूप में काम किया था. यह पट्टेदारी 2004 में खत्म हो गयी थी. इसके बाद से ही यह चर्चा है, की मास्को, हनोई के साथ पुनः उस अड्डे को हाँसिल करने में प्रयासरत है. 1964 में सोवियत संघ ने क्यूबा में लूर्डेस लिसेनिंग पोस्ट की स्थापना की थी और रूसी मिलिट्री इंटेलिजेंस के अनुसार यह उनके ‘सबसे महत्वपूर्ण विदेशी संपत्तियों’ में से एक था और ’60-70 प्रतिशत अमेरिकी पर रूसी इलेक्ट्रॉनिक इंटेलिजेंस सूचना’ उपलब्ध करवाता था. शीत युद्ध के पश्चात् क्यूबा द्वारा वार्षिक किराये 200मिलियन अमेरिकी डॉलर पर कोई रियायत न होने के कारण रूस ने वित्तीय समस्याओं के कारण इस लूर्डेस क्षेत्र को छोड़ दिया

चीन: एक नौसिखया

चीन ने कई समझौतों के चलते, हिन्द महासागर और मेडिटरेनीयन समुद्र के कई बंदरगाहों पर पट्टेदारी अधिकार प्राप्त कर रखें हैं. इनमें से कुछ --ग्वादार बंदरगाह (पाकिस्तान) चालीस वर्ष से, पिरायूस बंदरगाह (ग्रीस) 35 वर्षों से, जिबौती बंदरगाह 10 वर्ष से, हम्बंतोता बंदरगाह (श्रीलंका) 99 वर्षों से, कंबोडिया की कुल तटीय रेखा का 20 प्रतिशत क्षेत्र 99 वर्षों से और फेयद्हू फिनोल्हू द्वीप (मालदीव्स) 50 वर्ष से आदि हैं. इसके अलावा भी क्यौक्प्यु बंदरगाह (म्यांमार) और मलाका गेटवे (मलेशिया ) पर 99 वर्षों के लिए वह अन्य परियोजनाओं की संभावना तलाश रहा हैं.

चीनी-श्रीलंका के हमबनतोता बंदरगाह के लिए किया गये 99-वर्षीय अनुबंध में 70 प्रतिशत हिस्सेदारी राज्य-स्वामित्व द्वारा संचालित चीन मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स की है. इस बंदरगाह का निर्माण चीन की 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता और तकनीकी सहयोग के साथ हुआ है जिसकी श्रीलंका में काफ़ी आलोचना की गयी. इस अनुबंध को ‘कर्ज जाल’ के रूप में संबोधित किया जा रहा है. इस तरह की बातचीत न केवल श्रीलंका में बल्कि पाकिस्तान, नेपाल और म्यांमार में भी जारी है, जिनमें से अधिकांश देशों ने मुख्य चीनी परियोजनाओं को या तो अस्थायी रूप से रोक दिया है अथवा निरस्त कर दिया है.

सैन्य-मंचों की पट्टेदारी ताकत

1941 के पट्टेदारी-लेनदारी समझौते के तहत, वाशिंगटन ने युद्ध सामग्री (वायुयान, जहाज, टैंक, छोटे हथियार, मशीन यंत्र, रोड बनाने के यंत्र और एयर स्ट्रिप्स, औद्योगिक रसायन और संचार यंत्र) न केवल ब्रिटेन को बल्कि ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चीन, फ्रांस, नेदरलैंड्, नॉर्वे, पोलैंड और सोवियत संघ समेत एनी 30 देशों को भी उपलब्ध करवाएं हैं. साथ-ही लैटिन अमेरिकी देश जैसे पैराग्वे, ब्राज़ील और पेरू को भी इससे फ़ायदा मिला है.

दक्षिण-एशिया के सन्दर्भ में, पाकिस्तान के लिए अमेरिका ही सैन्य हथियारों का सबसे बड़ा सूत्र है. 1954 में अमेरिकी-पाकिस्तानी पारस्परिक रक्षा सहयोग समझौते के फलस्वरूप पाकिस्तानी नौसेना को यूके और यूएस के नौसैन्य-यंत्र उपलब्ध करवाए गये थे जिनका भुगतान अमेरिका ने किया था. इनमें पीएनएस ग़ाज़ी, ट्रेंच-क्लास डीजल विद्धुतीय पनडुब्बी, 4 वर्ष के इए 1963 में पाकिस्तान को पट्टे पर दिया गया था जो 1971 के युद्ध ने भारतीय नौसेना ने ध्वस्त कर दिया था.

इसके बाद ही अमेरिका ने पाकिस्तान को युद्ध सामग्री देने से इंकार कर दिया. 1954 में ‘नगदी व्यवहार’ पर इस निषेध को अमेरिका ने रियायत देना मंजूर किया लेकिन पाकिस्तान उस समय वित्तीय समस्यायों से जूझ रहा था इसलिए यह पूर्ण नही हो पाया. हालाँकि 1979 में अफगानिस्तान में के सोवियत घुसपैठ के बाद अमेरिका में स्थित पाकिस्तानी राजदूत ने बातचीत करके अमेरिका को इस बात के लिए राजी किया और अमेरिका ने पाकिस्तान को गेअरिंग श्रेणी के नाशक और ब्रूक और ग्रासिया-श्रेणी के पनडुब्बी-विरोधी फ्रिगेट को ‘यूजर पे’ के आधार पर पट्टेदारी पर दिया था. शीत युद्ध के ख़त्म होते-होते और सोवियत की अफगानिस्तान से वापसी के पश्चात् पाकिस्तान ने अपनी पुराणी साख खो दी थी. अक्टूबर 1990 में अमेरिका ने पाकिस्तान को किसी भी प्रकार की आर्थिक और सैन्य मदद देने से इंकार कर दिया और उपकरण वापस अमेरिका के पास पहुँच गये.

जहाँ तक भारत की बात है, नई दिल्ली ने सोवियत संघ के साथ परमाणु प्रोपेलर पनडुब्बी का समझौता किया है. इसके अलावा एक 670 स्केट सीरीज (नाटो वर्गीकरण के अनुसार चार्ली श्रेणी की) जिसका नामकरण आईएनएस चक्रा के रूप में किया गया था, 1988 से भारतीय वायुसेना का हिस्सा है. इसने प्रशिक्षण और परमाणु पनडुब्बी की तकनीक इजात करने में एहम योगदान दिया है. समझौते की समय-सीमा के बाद इसे रूस को वापस कर दिया गया.

निष्कर्ष

लेनदार-पट्टेदारी कोई नई घटना नही हैं. राष्ट्र हित में अमेरिका और यूके ने कई बार इसको प्रयोग में लाया है और इसका उपयोग अपने सहयोगी एवं मित्रों के हितों की रक्षा करने के लिए भी किया गया है. जहाँ तक चीन की बात है, ऐसा कहना ठीक होगा की अभी वह इसमें न्य है लेकिन भविष्य में वह अछे खिलाडी के रूप में उभर सकता है. चीन अपनी आर्थिक कूटनीति का इस्तेमाल अपनी क्षेत्रीय और वैश्विक बढ़त बनाने के लिए कर रहा है और वित्तीय संसथान जैसे न्यू डेवलपमेंट बैंक और एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक को और बढ़ावा देकर ऐसा कर रहा है.

हो सकता है की पहली नज़र में यह आर्थिक लाभ के रूप में दिखाई पड़े मगर इसके रणनैतिक परिणामों में चीन की इस क्षेत्र में हुई बढ़त और क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर होते उभार और गंभीर शक्ति के रूप में उसके उत्थान का दृष्टिकोण भी इसमें समाहित है. यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी की आने वाले समय में यह संभव है की चीन अमेरिका की जगह इन लेनदार-पट्टेदार समझौते के क्षेत्र में प्राप्त करने में सफ़लता हाँसिल कर लेगा.

(डॉ. विजय साखूजा राष्ट्रीय समुद्री अधिष्ठान, नई दिल्ली के पूर्व निदेशक हैं.ये लेखक के निजी विचार हैं)

सूत्र

1. Shelly Mahajan, “Sri Lanka Leases Hambantota Port to China: Is this the Beginning of Chinese Debt Trap in South Asia?”, http://www.southasiaathudson.org/blog/2018/1/14/sri-lanka-leases-hambant... (accessed 25 March 2018).
2. “Lend-Lease and Military Aid to the Allies in the Early Years of World War II”, https://history.state.gov/milestones/1937-1945/lend-lease (accessed 26 March 2018).
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https://www.maritime-executive.com/article/russia-moves-forward-with-syr... (accessed 26 March 2018).
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8. Mohan Malik, “The China-India Nautical Games in the Indian Ocean”, https://www.macdonaldlaurier.ca/china-india-nautical-games-indian-ocean-... (accessed 25 March 2018).
9. “The Lend-Lease Program, 1941-1945”, https://fdrlibrary.org/lend-lease ((accessed 25 March 2018).

(ये लेखक के निजी विचार हैं और वीआईएफ का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)


Image Source: https://tiananmenstremendousachievements.files.wordpress.com/2017/06/growth-of-chinese-navy.png
Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

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