डोकलम पर चीन का दुष्प्रचार शोरगुल भरा ही नहीं है, झूठा भी है। वह आधिकारिक रूप से दावा कर रहा है कि उसने सड़क बनाने की अपनी योजनाओं के बारे में दो बार स्थानीय सीमा प्रबंधन प्रणालियों के जरिये हमारे पक्ष को पहले ही बता दिया था, लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला था। इससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर चीन अपनी जमीन पर सड़क बनाने से पहले हमें सूचित करना क्यों चाहेगा और ऐसा करने की बाध्यता उसे क्यों महसूस होगी। अपनी क्षेत्रीय संप्रभुता को लेकर चीन जिस तरह झगड़े पर आमादा हो जाता है, उसे देखते हुए उसके द्वारा यह स्वीकार किए जाने की कोई तुक ही नहीं दिखती कि अपनी जमीन पर वह जो कुछ करता है, उस पर नजर रखने का अधिकार भारत के पास है। इस संदर्भ में यह प्रश्न पूछना उचित रहेगा कि चीन ने सीमा के पार अपनी जमीन पर पिछले कुछ वर्षों में सड़कों जो भारी-भरकम ढांचा तैयार किया है, उसके बारे में उसने हमें पहले से बताया था या नहीं। यदि नहीं बताया था तो डोकलम पठार पर अपनी योजनाओं के बारे में बताने की उसे क्या जरूरत पड़ गई। सद्भावना के कारण ऐसा किए जाने की उसकी बात भरोसे के लायक नहीं है क्योंकि सीमा के मसले पर भारत के प्रति वर्षों से चली आ रही चीनी दुर्भावना से यह बात मेल ही नहीं खाती। शायद उन्हें यह लगता है कि अरुणाचल प्रदेश, विशेषकर तवांग पर दावा ठोकने के बाद भी हमारे खिलाफ युद्ध नहीं छेड़ना भारत के प्रति उनकी सद्भावना ही है और देपसांग तथा चुमार की घटनाएं भी सद्भावना थीं। और हां, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की सदस्यता तथा मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवादी घोषित किए जाने का विरोध करना भी उसके सद्भावना वाले कार्यों में ही शामिल हैं।
यदि चीनियों ने अपनी योजनाओं के बारे में हमें बताया भी था तो इसकी वजह यह है कि पठार के विवादित क्षेत्र होने की बात वे अच्छी तरह जानते हैं। इस कदम के पीछे उनकी मंशा कुटिलता भरी है। यदि तीसरे देश की जमीन पर टकराव से बचने के फेर में भारत ने भूटान के इलाके में अतिक्रमण की चीन की पिछली कार्रवाई पर प्रतिक्रिया नहीं की होती तो चीनी मान लेते कि कि वे भूटान से कह देंगे कि भारत को कोई आपत्ति नहीं है और पहले से ही डरे हुए तथा असहाय भूटान की ओर से प्रतिक्रिया होने की संभावना बिल्कुल ही खत्म हो जाएगी। शायद उन्होंने हमसे कहा होता कि भूटानियों को कोई आपत्ति नहीं है और इस तरह दोनों पक्षों का एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल किया होता। हकीकत यह है कि स्थानीय भारतीय सीमा बलों ने इस मामले पर चीनियों के साथ बातचीत करने से यह कहकर इनकार कर दिया कि यह एजेंडे में शामिल नहीं है और उन्हें इन योजनाओं पर भूटानियों से बात करने के लिए कह दिया। भूटान वर्षों से चीनी घुसपैठ का विरोध करता रहा है। यह जाहिर बात है कि भूटानियों ने चीनियों को डोकलम पर सड़क बनाने से रोका था, लेकिन उन्हें मना कर दिया गया और वापस लौटा दिया गया। चीन इतना अधिक झूठ बोलता है।
चीन जोरशोर से दावा कर रहा है कि डोकलम चीनी इलाके में आता है। यदि ऐसा है तो उसे समझाना पड़ेगा कि करीब तीन दशक से इस इलाके पर सीमा वार्ता क्यों हो रही है, जिसके 24 दौर हो चुके हैं। चीन और भूटान के बीच उत्तर तथा डोकलम क्षेत्र में सीमा विवाद हैं। यह सर्वविदित है कि चीन भूटान के सामने एक सौदे का प्रस्ताव रख चुका है, जिसमें वह उत्तर पर दावा छोड़ देगा और भूटान पठार उसे सौंप देगा। चीन के लिए उत्तर में विवादित क्षेत्र का भारत के लिहाज से कोई सामरिक महत्व नहीं है, जबकि डोकलम का महत्व है क्योंकि उससे चीनी सैन्य प्रतिष्ठान सिलिगुड़ी गलियारे के निकट पहुंच जाएंगे और भारत की सुरक्षा को खतरा बढ़ जाएगा। भारत और चीन के बीच 1993 से ही हो रही तमाम सीमा प्रबंधन संधियों एवं विश्वास बहाली के उपायों और विशेष प्रतिनिधि प्रणाली के कई दौरों के बावजूद चीन को इस इलाके में गंभीर तनाव उत्पन्न करने और मोटर वाहन चलाने लायक सड़क बनाने का प्रयास कर युद्ध की धमकी देने की क्या जरूरत पड़ गई, यह वाजिब प्रश्न है। चीन दिखा रहा है कि भारत ने उसकी संप्रभुता का उल्लंघन किया है, जबकि बेहद संवेदनशील और विवादित क्षेत्र में यथास्थिति को परिवर्तित करने का प्रयास करते हुए वास्तव में उल्लंघन वह कर रहा है। जब चीनी इतने वर्षों तक कार चलने लायक सड़क के बगैर ही जीते रहे तो अचानक उन्हें उसकी जरूरत क्यों पड़ गई, जबकि चुंबी घाटी में भारत का रुख पूरी तरह रक्षात्मक है और चीन की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं बन रहा है और इन क्षेत्रों में चीन की घुसपैठ हमारे खिलाफ आक्रमण की उसकी क्षमता बढ़ा देती है।
चीन की यह दलील एकदम बकवास है कि भारत उसके इलाके में घुस आया है क्योंकि इस क्षेत्र पर उसके और भूटान के बीच विवाद है। यह चीन का क्षेत्र नहीं है और उसे एकतरफा तरीके से चीन का घोषित नहीं किया जा सकता। भारत के लिए यह भूटान ऐसा क्षेत्र है, जिस पर चीन बिल्कुल उसी तरह दावा करता है, जैसे वह तिब्बत पर कब्जे के कारण भारतीय क्षेत्र पर दावा करता है। भारत के भूटान के साथ सुरक्षा संबंध हैं, जिन्हें चीनी अच्छी तरह जानते हैं। वे इतने बेवकूफ नहीं हैं कि उन्हें यह पता ही नहीं होगा कि डोकलम के बेहद संवेदनशील क्षेत्र में सैन्य ढांचे का विस्तार करने से भारत-भूटान संधि के प्रावधानों के आधार पर भारत प्रतिक्रिया जरूर करेगा क्योंकि इसमें दोनों देशों के सुरक्षा हित जुड़े हुए हैं। ऐसा लगता है चीन को भूटान के साथ सुरक्षा समझौता करने के भारत के अधिकार तक से आपत्ति है, लेकिन उस सूरत में उसे नाटो पर, एशिया और पश्चिम एशिया में सुरक्षा संधियां करने के अमेरिका के अधिकार, मध्य एशिया में सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन बनाने के रूस के अधिकार पर भी आपत्ति होनी चाहिए तथा उसे यह भी बताना चाहिए कि उसने उत्तर कोरिया के साथ संधि क्यों की है। चीन भारत-भूटान संधि को कमजोर पड़ोसी पर आधिपत्य जमाने की भारत की कार्रवाई के रूप में प्रचारित करने का प्रयास कर रहा है ताकि अधिक “संप्रभु” भूटान की इच्छा रखने वाली लोगों के बीच भारत के प्रति द्वेष भड़काया जा सके; और वह हमारे पड़ोसियों के साथ ऐसा कर चुका है, उन देशों में हमारी स्थिति कमजोर की है और हमें अपने संबंधों में द्विपक्षीय दिक्कतों से निपटने में फंसा दिया है ताकि वे हमारे लिए ताकत का स्रोत नहीं बन सकें। उसके इस स्पष्ट बयान कि 16 जून से पहले की यथास्थिति बरकरार रखी जानी चाहिए और चीन ने “सीमा के प्रश्न पर अंतिम समझौते तक अपने सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति बरकरार रखने के लिए एवं सीमा पर मार्च, 1959 से पहले की यथास्थिति बनाए रखने के लिए” ही 1988 तथा 1998 के समझौतों का उल्लंघन किया था, के बाद से विवाद पर भूटान की चुप्पी का फायदा उठाकर चीन ने भारत के प्रति भूटान के समर्थन पर शंकाएं खड़ी करने का प्रयास किया है। भारत ने भी भूटान पर इस मामले में अधिक मुखर होने का दबाव नहीं डालकर और चीन के जाल में नहीं फंसकर समझदारी ही दिखाई क्योंकि ऐसा करने पर कमजोरी और विश्वास कम होने के संकेत जाते। भारत भूटान के साथ तालमेल बिठाकर काम कर रहा है और चूंकि वह अकेले ही चीन को शह और मात देने में सक्षम है, इसलिए वह दोनों देशों की ओर से जिम्मेदारी उठा रहा है। बदले में निस्संदेह चीन द्वारा एक बेहद छोटे और सबसे शांतिपूर्ण देश को सताए जाने की हरकतों से अंतरराष्ट्रीय ध्यान निश्चित रूप से हट गया है और यह दुखद है।
डोकलम मामले को उलझाने की कोशिश में चीन को अचानक औपनिवेशिक काल की असमानता भरी वे संधियां बहुत कारगर लगने लगीं, जिनकी वह हमेशा निंदा करता आया है और जिसके आधार पर पर ही उसने पूर्व में मैकमोहन रेखा तथा पश्चिम में अलग-अलग समय पर खींची गई ब्रिटिशकालीन रेखाओं को खारिज किया है।
तमाम झूठी दलीलों के बीच उसकी दलील यह भी है कि उसने 1914 की शिमला संधि की शुरुआत जरूर की थी, लेकिन उसने उस पर हस्ताक्षर नहीं किए और इसी कारण वह मैकमोहन रेखा को मान्यता नहीं देता। लेकिन यह दलील उसके हालिया रुख के एकदम विपरीत है, जिसमें वह तिब्बत-सिक्किम सीमा के बारे में 1890 की ब्रिटिश भारत-चीन संधि को भूटान पर भी लागू कर रहा है, जब न तो सिक्किम और न ही भूटान उसमें पक्ष थे। चीन 1959 में चोउ एन लाई को लिखे गए नेहरू के पत्र को भी तोड़-मरोड़कर पेश कर रहा है, जिसमें यह तो स्वीकार किया गया था कि सिक्किम और तिब्बत के बीच सीमा निश्चित कर दी गई है, लेकिन तीनों के मिलने के विवादित क्षेत्र का स्पष्ट जिक्र करते हुए कहा गया था कि यह सिक्किम और भूटान के बीच की सीमा का मामला नहीं है। चीन भी अपने फायदे के लिए 2006 में विशेष प्रतिनिधियों के बीच हुई बातचीत का जिक्र तो करता है, लेकिन 2012 मंे उनके बीच हुए उस समझौते की बात नहीं करता, जिसमें कहा गया था कि तीनों के मिलन बिंदु का मामला तीसरे देश (भूटान) के साथ मिलकर बातचीत के जरिये सुलझाया जाएगा और तब तक यथास्थिति जारी रहेगी।
चीन की आक्रामक हरकत अभी तक अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय नहीं बन पाई है। संभवतः उसकी आर्थिक एवं वित्तीय ताकत कई लोगों को लुभा रही होगी, जो उसके साथ व्यापार और निवेश के मौकों का लाभ उठाना चाहते होंगे, लेकिन उसकी आधिपत्यवादी महत्वाकांक्षाओं को अनदेखा करना भूल होगी, जो दो दशक से भी कम समय में आर्थिक और सैन्य रूप से ताकतवर बनने वाले देश को आगे ले जा रही हैं। कुछ विवेकशील विश्लेषकों के अनुसार चीन 1930 के दशक के जर्मनी और जापान जैसा लग रहा है, जो अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए खतरे की आशंका है। कुछ को लगता है कि शी चिनफिंग से हौसला पाकर देश में बढ़ रहे राष्ट्रवादी उभार के दम पर चल रही चीनी सेना बहुत जोखिम उठाने की आदी हो गई है और वह बिना विचारे कदम उठा सकती है। हमें अपनी सीमा पर इसके खिलाफ चौकन्ना रहना पड़ेगा, जिसके लिए हम जरूरी उपाय कर ही रहे हैं। भारत किसी भी कीमत पर चीनियों को झंपारी पहाड़ियों तक नहीं पहुंचने देगा, जिसका मतलब है कि उसके जवानों को तोरसा नाला पार करने नहीं दिया जाएगा, जहां विवाद अब भी जारी है।
चीन दूसरे देशों को विवाद के बारे में बताने और भारत पर चीनी क्षेत्र की संप्रभुता का उल्लंघन करने का आरोप लगाने में बहुत सक्रिय रहा है। लेकिन मनमाफिक प्रतिक्रिया नहीं मिलने के कारण उसे झुझलाहट हुई है, जिससे पता लगता है कि अपनी नरम मंशाओं के बारे में वह अपने ही दुष्प्रचार में फंस गया है और यह समझने की ताकत ही खो बैठा है कि उसके विस्तारवाद और आक्रामकता ने शांति से विकास कर रही ताकत की उसकी झूठी छवि को कितना नुकसान पहुंचाया है। चीन आसियान के देशों पर दबाव डाल रहा है कि वे डोकलम पर उसकी कार्रवाई की आलोचना नहीं करें। भारत ने इस मोड़ पर अपने रुख के बारे में सार्वजनिक समर्थन मांगे बगैर ही अन्य देशों को चुपचाप समझा दिया है ताकि मामला और जटिल नहीं हो जाए। इसके अलावा वाद-विवाद से बचने का फैसला चीन को हटने का मौका प्रदान करने के लिए था। भारत देपसांग और चुमार के मामलों में इस्तेमाल किए हुए तरीके अपनाकर इस विवाद को पिछले विवादों की ही तरह द्विपक्षीय तरीके से सुलझाना चाहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उचित स्तर पर सुलझाना चाहता है, लेकिन नेतृत्व के स्तर पर नहीं, जिसके पीछे उसकी मंशा सितंबर में चीन में होने वाले ब्रिक्स शिखर बैठक में कोई व्यवधान नहीं डालने की है।
भारत में अपने आर्थिक हितों को तगड़ी चोट का जोखिम मोल ले रहा है चीन
भारत के प्रति अपने एकदम अस्वीकार्य कृत्यों के कारण चीन हमारे साथ अपने संबंधों को स्थायी क्षति पहुंचा चुका है। उसने इतना घिनौना चेहरा दिखाया है कि भविष्य में उसकी मंशा के बारे में हम बहुत अधिक सतर्क रहेंगे। यह हकीकत है कि 1 अरब से भी अधिक भारतीय चीन से विमुख हो रहे हैं। डोकलम विवाद का नतीजा जो भी हो, चीन के सामने 1 अरब से अधिक भारतीयों के सदा के लिए विमुख होने तथा भारत में अपने आर्थिक हितों को बहुत अधिक नुकसान पहुंचने का खतरा मौजूद है। यदि चीन ने चेतावनी और धमकियों की अपनी कूटनीति जारी रखी तो चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन जोर पकड़ सकता है। सरकार बेशक इसे बढ़ावा नहीं देना चाहेगी, लेकिन जनता की मनोदशा पर उसे उचित प्रतिक्रिया देनी ही होगी।
संक्षेप में, इस समय स्थिति अस्थिरता भरी है और मामला बढ़ सकता है, लेकिन हमने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है और सभी परिस्थितियों के लिए हम तैयार हैं। यह बात अलग है कि अभी तक हम बराबर की शर्तों पर वार्ता के जरिये मामला सुलझाना ही बेहतर समझते हैं।
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