पाकिस्तान में केवल भोले-भाले आम आदमी ही नहीं बल्कि तथाकथित ‘बुद्धिजीवियों’ (ज्यादातर पाकिस्तानी शिक्षाविदों, विश्लेषकों और पत्रकारों के लिए झूठा नाम) के भी विचारों पर ‘डीप स्टेट’ का इतना अधिक नियंत्रण है कि उनमें से अधिकतर को पता ही नहीं है कि अपने लेखों, अखबारों, टेलिविजन शो और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों एवं वैश्विक मंचों पर वे जो बातें रटते रहते हैं, वे कितनी बकवास हैं। लेकिन उससे भी ज्यादा खराब बात यह है कि उनके झूठे और मतलबी तर्कों पर कभी कोई सवाल भी खड़े नहीं करता। पाकिस्तानी तो ‘डीप स्टेट‘ के झूठा प्रचार करने वाले तंत्र से मिली आधी-अधूरी सचाई और सफेद झूठ को बिना सवाल किए सच मान लेते हैं, लेकिन गैर-पाकिस्तानी आखिर क्यों पाकिस्तानियों द्वारा की जा रही बकवास की पड़ताल नहीं करते?
उदाहरण के लिए उस बहुप्रचारित आंकड़े को ही ले लीजिए, जिसके मुताबिक आतंकवाद के खिलाफ जंग में पाकिस्तान 70,000 जानें गंवा चुका है। पाकिस्तानी इस घृणास्पद आंकड़े को हरेक मंच पर दोहराते हैं ताकि सुनने वालों को यकीन हो जाए कि आतंक के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान गंभीर है। दलील दी जाती है कि जिस देश ने इतनी भारी कीमत चुकाई है, वह जिहादी आतंकी गुटों के प्रति इतना लापरवाह कैसे हो सकता है। जवाब में आई इस दलील को अनसुना कर दिया जाता है कि आतंक के खिलाफ जंग में पाकिस्तानियों की जानें जाना उसकी अपनी आतंकवादियों के अनुकूल नीतियों का ही नतीजा है। साथ ही इस दलील को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है कि पाकिस्तान सरकार के रणनीतिक गुणाभाग में 70,000 जानें जाना मामूली नुकसान भर है; सरकार के लिए यह निम्न स्तर की बलि सरीखी बात है, जिनकी मौत का इस्तेमाल उन पश्चिमी देशों की कृपा हासिल करने के लिए होता है, जहां बुद्धिहीन उदारवादी पाकिस्तान के बेशर्मी भरे दोगले व्यवहार को समझ नहीं पाते और फंस जाते हैं।
लेकिन 70,000 मौतों के आंकड़े में असली दिक्कत यह है कि इसे पाकिस्तानियों ने “खलनायक नहीं बल्कि पीड़ित होने” की अपनी मनगढ़ंत कहानी को सही ठहराने के लिए गढ़ा है। असल में यह आंकड़ा बहुत बढ़ाचढ़ाकर बताया गया है और लगातार बढ़ाया जा रहा है ताकि पाकिस्तान द्वारा किए गए ‘बलिदानों’ के एवज में धन और सहानुभूति मिल सके तथा उन्हें मान्यता भी मिले। इसके पीछे असली उद्देश्य पाकिस्तान की आलोचना करने वालों को निरुत्तर करना और पाकिस्तान को आतंकी गुटों से संबंध खत्म करने के मजबूर करने वाला दबाव खत्म करना है। अजीब बात यह है कि कभी किसी ने पाकिस्तान में आतंकवाद के कारण हुए हताहतों की सही संख्या पता लगाने की जहमत ही नहीं उठाई। इससे भी अजीब यह बात है कि पाकिस्तान में आंतरिक मंत्रालय ने अगस्त, 2013 में ऐलान किया था कि 2002 से 2013 के बीच आतंकवाद में मरने वाले पाकिस्तानियों की सही संख्या केवल 12,795 है, फिर भी पाकिस्तानी मीडिया (जिसकी वजह समझ आती है) और अंतरराष्ट्रीय मीडिया (जिसकी वजह समझ नहीं आती) 70,000 के मरने का झूठा आंकड़ा बताता फिर रहा है।
हैरत की बात है कि 2013 - जिस वर्ष पाकिस्तानी मीडिया मरने वालों का आंकड़ा 40,000 बता रहा था - के बाद से हर वर्ष इस आंकड़े में करीब 10,000 का इजाफा हो जाता है। 2017 में आंकड़ा 70,000 के पार चला गया। किंतु पूर्व आंतरिक मंत्री के मुताबिक 2017 तक केवल 26,000 मौतें हुई थीं। लेकिन दलील के मुताबिक अगर 2013 में 40,000 का आंकड़ा सही मान लें तो भी पिछले चार साल में आतंकवाद से जुड़ी घटनाओं में 30,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पहले 12 वर्षों में 40,000 की जान गईं और पिछले चार वर्षों में भी करीब उतनी ही जान जा चुकी हैं। इसी तरह यदि 2013 में 12,000 के आंकड़े को अधिक सटीक माना जाए, जो पिछले चार वर्ष में दोगुना हो चुका है तो भी ये सवाल तो खड़े होंगे ही कि ‘दुनिया का सबसे सफल आतंकवाद निरोधक अभियान’ कितना प्रभावी रहा है। और सवाल खड़े क्यों न हों, जब 2014 के बाद से पाकिस्तानी कहते रहे हैं कि उन्होंने आतंकवाद की रीढ़ तोड़ दी है, है न? ‘ऑपरेशन जर्ब-ए-अज्ब’ और सभी बहुप्रचारित ‘खुफिया जानकारी आधारित अभियान’ तथा हाल ही में आरंभ हुआ ‘ऑपरेशन रद्द-उल-फसाद’ याद हैं न? तो पिछले चार वर्ष से हर महीने 700 से अधिक लोग कैसे मारे जा रहे हैं; या हम कम वाले आंकड़े को ही सही मानें तो आंतकवादियों के खिलाफ ‘बेहद कामयाब’ अभियानों के दौरान चार वर्ष में हताहतों की संख्या दोगुनी कैसे हो गई?
इसका अर्थ है कि या तो पाकिस्तानी नकली जंग लड़ रहे हैं या उनके आंकड़े पूरी तरह फर्जी हैं। सच असल में यह है कि न केवल आंकड़े बकवास हैं बल्कि आतंक के खिलाफ जंग में मिली सफलताओं के ज्यादातर दावे भी फर्जी हैं। जहां तक आंकड़ों की बात है तो मनमाने ढंग से एकदम अविश्वसनीय आंकड़े गढ़ लेना पाकिस्तानियों की जानी-मानी फितरत है। पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों ही नहीं बल्कि आतंकवाद से हुए वित्तीय नुकसान के मामले में भी ऐसा ही है। पाकिस्तानियों के अनुसार आतंक के खिलाफ जंग में उन्हें 123 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष और परोक्ष नुकसान हो चुका है। लेकिन यह साफ तौर पर बकवास आंकड़ा है, जो किसी तथ्य पर नहीं बल्कि अटकलों और अनुमानों पर आधारित है। हकीकत यह है कि 11 सितंबर की पूर्वसंध्या पर पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था कमोबेश दिवालिया हो चुकी थी और 11 सितंबर के बाद अगर उसे अरबों डॉलर नहीं मिले होते तो उसकी अर्थव्यवस्था ढह चुकी होती। इसीलिए पाकिस्तान के ये दावे कि उन्हें जो मिला, उसके दोगुने का नुकसान उन्हें हो चुका है, न सुधरने वाले अहसानफरामोश शख्स के शिकवे से ज्यादा कुछ नहीं है। पाकिस्तानी इतने दुस्साहसी हैं कि गठबंधन समर्थन कोष (सीएसएफ) के रूप में अमेरिकियों से अरबों डॉलर पाने के बाद भी वे इसे उपकार मानने से इनकार करते हैं और दावा करते हैं कि यह उनकी सेवाओं के एवज में मिली रकम (वे तब तक खर्च के आंकड़े खूब बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे, जब तक कि अमेरिकियों को उनकी वित्तीय धांधलियों का पता नहीं चल गया) भर है। स्पष्ट है कि यदि पाकिस्तान किराये का टट्टू नहीं होता (जो वह है) तो वह अपने दावे के मुताबिक दुनिया के लिए लड़ने के एवज में रकम क्यों मांगता? और यदि वाकई में उन्हें उनकी सेवाओं के बदले रकम मिल रही है तो दुनिया को बचाने के लिए लड़ने के दावे धरे रह जाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तानी कश्मीर पर भी मूर्खतापूर्ण आंकड़े गढ़ते रहते हैं, केवल भारतीय कश्मीर में हुई मौतों की संख्या ही नहीं बढ़ाते (जो पाकिस्तानियों के ईर्ष्या भरे दिमाग के मुताबिक सुरक्षा बलों के हाथों ही मारे जाते हैं, जबकि हकीकत में बड़ी संख्या में लोग पाकिस्तानी आतंकी गुटों के हाथों मारे जाते हैं) बल्कि आतंकवाद से प्रभावित राज्य में कानून-व्यवस्था बहाल करने के लिए भारत द्वारा तैनात किए जाने वाले सुरक्षा बलों की संख्या को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं।
आंकड़ों के इस खेल में पाकिस्तानियों की भारी हेराफेरी को छोड़ दें तो आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के उसके दावे भी फर्जी हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कि पाकिस्तानियों ने ‘खराब आतंकवादियों’ के खिलाफ कुछ सैन्य अभियान चलाए हैं, लेकिन पाकिस्तानियों के ये दावे अतिशयोक्ति ही हैं कि उन्होंने ‘आतंकवाद के खिलाफ दुनिया की सबसे बड़ी जंग’ लड़ी या वे दुनिया को आतंकवाद से बचाने के लिए लड़ रहे हैं। ये दावे बेशर्मी भरे झूठ ही हैं क्योंकि हकीकत यह है कि पाकिस्तानी सेना ने केवल उन गुटों के खिलाफ लड़ाई की है, जिन्होंने पाकिस्तानी सरकार को ललकारा है, उन आतंकवादियों के खिलाफ नहीं, जो पाकिस्तानी सरकार के लिए काम करते हैं। जब सरताज अजीज जैसे शीर्ष पाकिस्तानी अधिकारी पूछते हैं कि, “पाकिस्तान उन्हें निशाना क्योकि बनाए, जो उसकी सुरक्षा के लिए खतरा नहीं हैं?” तो वास्तव में वे स्वीकार करते हैं कि वे केवल अपने दुश्मनों से लड़ते हैं, दुनिया के दुश्मनों से नहीं। तब दुनिया को ऐसे किसी कथित बलिदान की सराहना क्यों करनी चाहिए, जो पाकिस्तानी अपने ही लिए कर रहे हैं? ऐसा ही दोगलापन ‘प्रतिबंधित गुटों’ के मामले में है, जिन पर रोक लगाई ही नहीं गई है क्योंकि वे खुलेआम और आजादी के साथ काम करते हैं। पाकिस्तानी इसे यह कहकर सही ठहराते हैं कि वे उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई इसीलिए नहीं करते क्योंकि वे पाकिस्तान को नुकसान नहीं पहुंचाते। यह इस बात की मौन स्वीकारोक्ति है कि वे सभी इस्लामी आतंकी समूहों के खिलाफ बिना सोचे कार्रवाई नहीं करते। कुछ पाकिस्तानी ‘विश्लेषक’ (सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी) तो सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार भी करते हैं कि भारत के खिलाफ पलड़ा भारी रखने के लिए इन गुटों की जरूरत है।
पाकिस्तान का एक और पसंदीदा तर्क यह है कि पाकिस्तान के भीतर आतंकियों का कोई सुरक्षित ठिकाना नहीं है। यह तर्क उलटा पड़ जाता है क्योंकि ठीक इसके विपरीत प्रमाण ढेर सारे हैं: हक्कानी नेटवर्क को रकम मुहैया कराने वाला व्यक्ति इस्लामाबाद के उपनगर में मारा गया; तालिबान का मुखिया मंसूर बलूचिस्तान में मारा गया और उसका उत्तराधिकारी कचलक के उपनगर क्वेटा में चुना गया तथा तालिबान का प्रवक्ता तक कराची से ट्वीट करता पाया गया। सवाल करो तो पाकिस्तान का रटा-रटाया जवाब होता है, “हमें सबूत दीजिए, हम कार्रवाई करेंगे।” जब सबूत दिए जाते हैं तो आतंकवादियों को चुपचाप हटा दिया जाता है। कुछ मौकों पर पाकिस्तानी कहते हैं कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं। जब दबाव बढ़ता है तो झांसा देने के लिए कोई कार्रवाई कर दी जाती है। कभी कोई आतंकवादी गिरफ्तार कर लिया जाता है और मुकदमा भी चला दिया जाता है। लेकिन फिर? अदालत उस शख्स को रिहा कर देती है। उसके बाद पाकिस्तानी अनुरोध करने लगते हैं कि पाकिस्तान में कानून की चलती है और सरकार के हाथ अदालत ने बांध दिए हैं। लेकिन जब खराब आतंकवादियों की बात आती है तो पलक झपकाए बगैर ही निर्धारित कार्यवाही को छोड़कर तुरंत सजा-ए-मौत दे दी जाती है।
पाकिस्तान का एक रोना यह भी है कि ‘मुजाहिदीन’ को अमेरिकियों ने खड़ा किया है - यह ऐसा आधा सच है, जिसे पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भी अनजाने में स्वीकार कर गई थीं, जबकि अफगानिस्तान में सोवियत और अमेरिकी हस्तक्षेप से भी करीब एक दशक पहले से पाकिस्तान अफगान जिहादियों से सांठगांठ कर रहा था - और जब सोवियत संघ को अफगानिस्तान से बाहर निकालने का अमेरिका का मकसद पूरा हो गया तो मुजाहिदीनों को बेलगाम छोड़ दिया गया और खमियाजा पाकिस्तान को भुगतना पड़ा। लेकिन पाकिस्तानियों ने क्षेत्र से अमेरिकियों के जाने के बाद इस्लामी आतंकवादियों को विदेश नीति के अंग के रूप में खुशी-खुशी इस्तेमाल करने की अपनी भूमिका पूरी तरह छिपा ली है। पाकिस्तानियों ने जिहादियों का इस्तेमाल अफगानिस्तान पर अपना दबदबा बढ़ाने के लिए ही नहीं किया बल्कि उन आतंकियों और अफगानिस्तान में मौजूद आतंकी प्रशिक्षण ढांचे का इस्तेमाल कश्मीरी आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने में भी किया गया। वास्तव में पाकिस्तानी इस जिहादी खेल पर इतने मोहित हो गए कि उन्होंने दुनिया भर में अपने पांव पसारने के लिए उनका इस्तेमाल किया - जिहादियों ने सोमालिया से लेकर सूडान तक, केन्या से लेकर कुआलालंपुर तक, बोस्निया से लेकर बाली तक इन जिहादियों ने आतंक मचाया और उनके सभी तार आखिरकार पाकिस्तान से जुड़े मिले। जिहादियों में से कोई भी बड़ा नाम हो - ओसामा बिन लादेन, अबू मसाब अल जरकावी, बाली में विस्फोट करने वाला, लंदन में ट्यूब में विस्फोट करने वाला; आप किसी का भी नाम लीजिए और उसका रिश्ता पाकिस्तान से जुड़ा मिलेगा। लेकिन उसकी घिनौनी भूमिका को हमेशा छिपाया जाता है।
पाकिस्तान द्वारा फैलाए गए झूठ की फेहरिस्त कभी खत्म नहीं होती और पाखंड रचने, धोखा देने तथा दोगली बातें करने की उसकी क्षमता का कोई मुकाबला ही नहीं। लेकिन वे बच इसलिए जाते हैं क्योंकि कोई भी उनकी कही बातों की तह तक नहीं जाता।
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