इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसे “नए भारत” के निर्माण का आह्वान किया, जो जातिवाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद तथा भ्रष्टाचार से मुक्त हो और उनके खिलाफ एकजुट हो। कुछ दिन पहले भारत छोड़ो आंदोलन के 75 वर्ष पूरे होने पर आहूत संसद के विशेष सत्र में भी प्रधानमंत्री ने ऐसा ही आह्वान किया था और कहा था कि उन्हें 2022 (जब आजादी के 75 वर्ष पूरे होंगे) तक नया भारत सामने आने की उम्मीद है। उन्होंने 1942 के “नारे करेंगे या मरेंगे” की तर्ज पर “करेंगे और करके रहेंगे” का नारा दिया।
नए भारत का नारा मोदी सरकार के तीन वर्ष से कुछ अधिक के कार्यकाल में दिए गए अन्य नारों से अलग है क्योंकि यह किसी एक क्षेत्र के बारे में नहीं है बल्कि प्रत्येक भारतीय की चेतना को को राष्ट्रीय परिदृश्य में वास्तविक एवं ठोस परिवर्तन लाने के उत्साह से भरने का प्रयास है। पहले के नारे कार्यक्रमों पर केंद्रित थे, जैसे स्वच्छता और सफाई (सार्वजनिक स्थलों, गांवों, स्कूलों आदि में शौचालयों का निर्माण आदि) के उद्देश्य वाला स्वच्छ भारत अभियान; युवाओं को (रोजगार तथा स्व-रोजगार के लिहाज से) सशक्त बनाने के लिए कौशल प्रदान करने हेतु स्किल इंडिया; मेक इन इंडिया ने रोजगार सृजन के इरादे से विदेशी कंपनियों को स्वयं अथवा भारतीय साझेदारों के साथ मिलकर संयंत्र लगाने के लिए बुलाया; स्टार्टअप इंडिया ने उभरते हुए उद्यमियों के लिए पर्यावरण के अनुकूल वातावरण तैयार करने का प्रयास किया; और प्रधानमंत्री मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी) योजना ने सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों - एमएसएमई - को आसान ऋण दिए।
अपने व्यापक अर्थ के कारण नए भारत की गलत व्याख्या कर इसे खाली नारा माना जा सकता है, जिसकी न तो कोई दिशा है और न ही कोई उद्देश्य। वास्तव में इसमें कुछ भी अस्पष्ट नहीं है। उसके बजाय इस शब्द में वह हरेक आकांक्षा समाई हुई है, जो प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली सरकार के मन में देश के करोड़ों लोगों के लिए आ रही है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अपील नीतियों और कार्यक्रमों से भी इतर है - क्योंकि जिस नए भारत का विचार प्रधानमंत्री के मन में है, वह ऐसा राष्ट्र भी होगा, जिसमें भ्रष्टाचार को प्रशासन ही नहीं बल्कि समाज भी सहन न करे; जिसमें आतंकवादियों द्वारा देश के भीतर तथा सीमा के पार से फैलाए जा रहे और तथाकथित उदारवादियों के विकृत तर्कों द्वारा उचित ठहराए जा रहे आतंकवाद को बिल्कुल भी सहन नहीं किया जाए; और सांप्रदायिकता एवं जातिवाद की बुराई को नहीं सहा जाए। प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को कम से कम चुनाव की दृष्टि से जाति की बाधाओं को तोड़ने में सफलता हासिल करनी पड़ेगी, जैसा हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजों में दिखा है। और तुष्टिकरण के बगैर दृढ़ता के साथ सभी के पास पहुंचने एवं समानता के अपने संकल्प के कारण भारतीय जनता पार्टी तथा उसके नेताओं ने परोक्ष रूप से ही सही देश के मुख्य बहुसंख्यक समुदाय के भीतर यह भावना मजबूत की है कि हमारी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां उसके सदस्यों को हलके में नहीं ले सकतीं और वे किसी के भी वोट बैंक नहीं हैं। बिल्कुल नहीं।
विरोधियों की इस आलोचना कि नए भारत का नारा प्रधानमंत्री का एक और ‘जुमला’ है, के बावजूद वस्तुस्थिति यह है कि हितैषी समूहों समेत सरकार और समाज दोनों के विभिन्न वर्गों ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपनी-अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में काम करना आरंभ कर दिया है। इस तर्क में कुछ दम है कि कई समस्याओं का कारण वित्तीय सशक्तिकरण की कमी है और जनता को इस मामले में सशक्त बनाने वाला वातावरण तैयार करना ही विश्वसनीय समाधान है। मोटे तौर पर इसका अर्थ यह है कि केंद्र तथा राज्य सरकारें ऐसी स्थितियां तैयार करने का प्रयास करें, जिनसे कारोबारी सुगमता बेहतर हो जाए और नीतियों एवं नियमों के क्रियान्वयन में पारदर्शिता बढ़ जाए। इसके अतिरिक्त इन प्रयासों को चुनिंदा वर्गों की हितपूर्ति के लिए नहीं बल्कि सामान्य हितधारकों की ओर केंद्रित होना चाहिए, चाहे वे कारेाबारी समुदाय के प्रत्यक्ष लाभार्थी हों या रोजगार की तलाश करने वाले हों या परोक्ष तरीकों से सहायता पाने वाले अन्य लोग हों।
ऐसा ही एक प्रयास पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की नई दिल्ली शाखा ने हाल ही में किया। उसने 16 सितंबर को मुख्य सचिवों का सम्मेलन आयोजित किया और विषय था ‘2022 तक नए भारत का निर्माण - राज्यों की भूमिका’। कार्यक्रम में विभिन्न राज्यों के वरिष्ठ अफसरशाहों ने हिस्सा लिया, जिनमें उत्तर प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव भी शामिल थे। इसमें उद्योग के नेता तथा प्रतिनिधि भी थे, जिन्होंने विभिन्न विशेष सत्रों में अफसरशाहों से संवाद किया। सम्मेलन को प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह एवं नीति आयोग के मुख्य कार्य अधिकारी अमिताभ कांत ने संबोधित किया। जितेंद्र सिंह ने दोटूक लहजे में कहा कि प्रशासन, जिसमें मंत्री एवं अफसरशाह शामिल हैं, को बदलना होगा और लोगों की आकांक्षाएं पूरी करनी होंगी। उन्होंने कहा कि जो सरकार ऐसे परिवर्तन करने में नाकाम रहती है अथवा इनसे इनकार कर देती है, उसे दूसरी सरकार के लिए जगह खाली को करने के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि जनता के वास्तविक कष्टों को प्रभावी रूप से दूर करना नए भारत का मूलभूत अंग होना चाहिए। जो आलोचक कहते हैं कि मोदी सराकर के आने के बाद से सरकारी दफ्तरों में आने वाली शिकायतों की संख्या बढ़ गई है, उन पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि लोग शिकायत तभी करते हैं, जब उन्हें सकारात्मक जवाब मिलने का भरोसा होता है; वे इस सरकार पर इतना भरोसा करते हैं कि अधिक जोर के साथ शिकायत करते हैं। उनका सीधा संदेश था कि “सुधर जाएं या चले जाएं।”
उत्साह की बात यह थी कि सम्मेलन में प्रत्येक वक्ता और प्रतिभागी ने इस जोर पकड़ते विचार के साथ सहमति जताई कि देश भर में सरकारों और समाजों को प्रधानमंत्री का नए भारत का सपना पूरा करने की दिशा में काम करना चाहिए तथा आगे का रास्ता सहकारी एवं प्रतिस्पर्द्धात्मक संघवाद के जरिये राज्यों की अधिक प्रतिभागिता से निकलेगा। पूर्वोत्तर के घटनाक्रम पर जोर दिया जाना चर्चा की एक विशेषता रही। अरुणाचल प्रदेश की मुख्य सचिव शकुंतला गामलिन और असम में वाणिज्य एवं उद्योग विभाग संभालने वाले एक वरिष्ठ अफसरशाह ने कहा कि पूर्वोत्तर राज्य आसियान (दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संघ) का दरवाजा हैं, जो ऐसा शानदार बाजार बनाते हैं, जिसका अधिक व्यापक भारत-आसियान व्यापार के जरिये दोहन होना चाहिए।
गंभीर एवं सीधी बात करने वाले अफसरशाह की अपनी छवि के ही अनुरूप अमिताभ कांत ने स्पष्ट बातें कीं और संकेत दिया कि काम नहीं करने की अब कोई गुंजाइश नहीं है। इसमें प्रधानमंत्री के नए भारत के निर्माण को पीएचडी चैंबर के शीर्ष अधिकारियों - अध्यक्ष गोपाल जीवराजका, महासचिव सौरभ सान्याल, उपाध्यक्ष राजीव तलवार एवं अन्य समेत - के समर्थन को जोड़ लें तो स्पष्ट हो जाता है कि दूसरों की तरह पीएचडी चैंबर इस विचार से पूरी तरह सहमत है और इसे अमली जामा पहनाने की दिशा में काम कर रहा है। अग्रणी शोध एजेंसी केपीएमजी द्वारा इस अवसर के लिए तैयार की गई पुस्तिका में 2022 तक नया भारत तैयार करने के लिए किए जा रहे कामों पर रोशनी डाली गई। इसमें कारोबारी सुगमता, औद्योगिक विकास, शिक्षा एवं कौशल विकास, रोजगार सृजन एवं स्मार्ट सिटी परियोजनाओं की गति तेज करने जैसे विभिन्न विषयों की बात की गई। रिपोर्ट में अब तक किए गए कामों तथा भावी चुनौतियों का मूल्यांकन भी किया गया।
फिर भी तमाम सदिच्छाओं एवं घोषित संकल्प के बाद भी यह काम आसान नहीं होगा। युगों पुरानी मानसिकता बदलावों को असानी से स्वीकार नहीं करते हैं। नया भारत तब बनेगा, जब नया विचार जड़ें जमाएगा और सभी दिशाओं - सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक - में शाखाएं फैलेंगी। समग्र परिवर्तन लाने के लिए पांच वर्ष का समय बहुत कम लगता है, लेकिन कम से कम कुछ वर्गों में ठोस परिवर्तन तो जरूर मिल/दिख सकते हैं। हमें याद रखना होगा कि नए भारत का कोई और विकल्प है ही नहीं।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टीकाकारण एवं सार्वजनिक मामलों के विश्लेषक हैं)
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