खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक श्री दिनेश्वर शर्मा को सरकार ने कश्मीर के लोगों की “जायज इच्छाओं” को समझने के लिए वहां के समाज के विभिन्न वर्गों से बातचीत हेतु अपना विशेष प्रतिनिधि चुना है, जो सकारात्मक एवं साहसिक कदम है। कश्मीर में बातचीत के लिए कई बार कहा गया है, लेकिन अधिकतर विश्लेषकों का यही अनुमान था कि सरकार का कठोर रुख जारी रहेगा। फिर भी सरकार ने सभी को भौंचक्का कर दिया है और लगाम अपने हाथ में ले ली है। विशेष प्रतिनिधि की नियुक्ति प्रधानमंत्री के समर्थन के साथ हुई है।
यह सही समय पर उठाया गया कदम है क्योंकि पिछले कुछ महीनों में सरकार कानून-व्यवस्था की स्थिति को काबू में ले आई है। प्रधानमंत्री ने कश्मीर पर समझौतावादी रुख अपनाते हुए लाल किले से कहा, “... न गोली से न गाली से...।” गृह मंत्री ने कश्मीर के कई दौरे किए हैं। कश्मीर में कुछ स्थिरता लौटी है। सरकार इसी पल का इंतजार कर रही थी। आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाइयां कर सरकार ने यह संकेत दे दिया कि अराजकता तथा आतंकवाद से कड़ाई के साथ निपटा जाएगा। सरकार का कदम यह भी दिखाता है कि वह कश्मीर में बहुमुखी रणनीति अपनाने के लिए तैयार है। आतंकवाद के साथ निपटने के कठोर रुख के साथ राजनीतिक प्रयास भी किए जा रहे हैं। इस कदम की हितधारकों ने सराहना ही की है, लेकिन यह कहकर आलोचना भी की गई है कि आईबी के पूर्व निदेशक के बजाय किसी ‘राजनीतिक’ हस्ती को वार्ताकार होना चाहिए था। लेकिन नए विशेष प्रतिनिधि का रिकॉर्ड एकदम बेदाग रहा है और इस बात को सभी लोग मानते हैं। इसके अलावा गैर राजनीतिक व्यक्ति होने के कारण उनका दृष्टिकोण अधिक निष्पक्ष है।
विचार करने का महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि प्रक्रिया आगे कैसे बढ़ेगी। यह तो समय ही बताएगा। अतीत में ऐसे कई कदम उठाए गए हैं, जो सफल नहीं रहे हैं। जम्मू-कश्मीर राज्य को पिछले साल भर में बहुत अशांति का सामना करना पड़ा है। इसलिए ऊंची अपेक्षाएं होना भी स्वाभाविक है और शंकाएं भी। हुर्रियत विशेष प्रतिनिधि के साथ वार्ता को खारिज करती दिख रही है, लेकिन अभी यह देखना होगा कि जब वह अपना काम शुरू करते हैं तो हालात कैसे बनेंगे। इस कदम की सफलता में मीडिया को भी भूमिका निभानी होगी। अतिवाद से बचना चाहिए और कोई भी कृत्रिम समयसीमा नहीं थोपी जानी चाहिए। प्रक्रिया को अपनी गति से चलने देना चाहिए। उम्मीद ही कर सकते हैं कि राजनीतिक दल इस कदम पर प्रतिक्रिया देते समय संकीर्ण पक्षपाती स्वार्थ के बजाय राष्ट्र हित को सबसे ऊपर रखेंगे। अपेक्षाएं कम होती हैं तथा यथार्थवादी बन जाती हैं तो और भी बेहतर होगा।
पिछले कदम सफल नहीं हुए। क्यों? मुद्दे पेचीदा थे और 70 वर्षों का इतिहास भी था, जिसके दौरान सभी पक्षों से कई गलतियां हुई थीं। आतंकवाद तथा उग्रवाद को बाहर से मिलने वाली सहायता ने भी समस्या को बहुत जटिल बना दिया है। चाहे जो हो, विशेष प्रतिनिधि की सोच खुली हुई होनी चाहिए। उन्हें सभी पक्षों को बगैर किसी पूर्वग्रह के सुनना चाहिए। चूंकि अब सरकार ने प्रतिनिधि नियुक्त करने का निर्णय कर लिया है, इसीलिए प्रतिनिधि को समूचे राजनीतिक वर्ग तथा समाज के सभी वर्गों से चर्चा के लिए तैयार रहना चाहिए।
लेकिन एक बात ध्यान रखनी होगी। बातचीत और हिंसा साथ-साथ नहीं चल सकते। बातचीत का मतलब हिंसा की छूट नहीं हो सकती। इसी प्रकार सुरक्षा बल भी पाकिस्तान प्रायोजित घुसपैठियों तथा तंजीमों के खिलाफ लापरवाही नहीं बरत सकते। जो भी हिंसा भड़काते हैं, उनसे कानून के मुताबिक निपटा जाना चाहिए। साथ ही पिछले अनुभवों से सबक भी सीखने चाहिए। पिछली घटनाओं का समुचित मूल्यांकन होना चाहिए और उन्हें ध्यान में रखना चाहिए। द हिंदू को दिए गए साक्षात्कार (31 अक्टूबर, 2017 को) में श्री दिनेश्वर शर्मा ने कहा कि सरकार का जोर कश्मीर में “स्थायी शांति” लाने पर है। उन्होंने कहा, “स्थायी समाधान तथा शांति वार्ता से ही संभव हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने उन्हें अपनी मर्जी से “किसी से भी बात करने की आजादी” दी है। जम्मू और लद्दाख की जनता को भी बातचीत में शामिल किया जाएगा। किंतु आखिरी निर्णय सरकार ही लेगी।
यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि विभिन्न पक्ष कौन से मसले उठाएंगे। उनमें से कुछ हैं: अनुच्छेद 370, स्वायत्तता, स्वशासन, पेलेट गन, सामाजिक-आर्थिक विकास, पाकिस्तान की भूमिका, आतंकवाद, कश्मीरी पंडित, युवाओं की आकांक्षाएं आदि। कुछ सवाल राजनीतिक मिजाज के हैं और दूसरे सामाजिक-आर्थिक विकास, सांस्कृतिक मिजाज के बारे में हैं। क्षेत्रीय असमानताओं - जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, पुंछ आदि की इच्छाओं की बात उठाई जाएगी। कुछ वर्ग केवल अपनी बात रखने के लिए या चर्चा में आने के लिए विशेष प्रतिनिधि का बहिष्कार भी कर सकते हैं। विशेष प्रतिनिधि को इन सबके लिए तैयार रहना चाहिए। विभिन्न पक्षों के एजेंडा भी अलग-अलग होंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। कभी-कभी ये एजेंडा समझौते के लायक ही नहीं होते। किंतु सरकार को सतर्क रहना पड़ेगा। चरमपंथी तत्वों, जिहादियों और अलगाववादियों का एजेंडा सफल नहीं होने देना चाहिए। इस कदम को भारत के टुकड़े होने का रास्ता नहीं बनने दिया जा सकता।
जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि के प्रयासों का साथ दिए जानो की जरूरत है, लेकिन आगे का रास्ता आसान नहीं होगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं और आवश्यक नहीं कि वीआईएफ के भी ऐसे ही विचार हों)
Image Source: http://www.newindianexpress.com/topic/Dineshwar_Sharma
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