पिछले 70 वर्ष से पाकिस्तान भारत से सीधे या दूसरों को शह देकर छद्म युद्ध करता आ रहा है। सीधे युद्ध के मामले में हमारी प्रतिक्रिया को सभी ने पेशेवर तथा प्रभावी माना है। कश्मीर में छद्म युद्ध के मामले में हमारे रुख को आम तौर पर रक्षात्मक, प्रतिक्रियावादी और संकोची बताया जाता है। इस धारणा के कई कारण हैं, लेकिन हाल के वर्षों में विश्लेषक कहते आए हैं कि अनिश्चित नीतियों वाले हमारे शत्रु की परमाणु क्षमताएं हमारी ऐसी प्रतिक्रिया के पीछे महत्वपूर्ण कारण हैं।
एक दशक से भी अधिक समय से परमाणु खतरा हमारे सामरिक समुदाय को डराता रहा है। किंतु हाल ही में उड़ी हमले के बाद हुए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से यह स्पष्ट हो गया है कि जिस ‘परमाणु क्षमता’ के नाम पर पाकिस्तान अकड़ता था, वह उसका दांव था क्योंकि हमारी रणनीतिक अवचेतना एक तरह की निष्क्रियता और गलत अनुमानों की शिकार रही। शायद यह धारणा शुरू से ही गलत थी कि छोटे स्तर या स्थानीय स्तर पर त्वरित कार्रवाई के प्रत्युत्तर में दूसरी ओर से परमाणु हमला हो जाएगा।
हालांकि इस मामले में सर्जिकल स्ट्राइक के बावजूद सीमा पार से गोलीबारी लगातार जारी रही है। इसके अलावा कश्मीर में पत्थरबाजी, भीड़ द्वारा विरोध, स्कूलों को जलाए जाने जैसे नए और बरबादी भरे तरीके इस्तेमाल हो रहे हैं। इस तरह पाकिस्तानी सत्ता की ओर से आतंकवादी गतिविधियों के समर्थन के साथ कश्मीर में छद्म युद्ध जारी है। इसलिए प्रश्न यह उठता है कि ऐसे विरोधी के लिए हमारा क्या उत्तर सही होगा, जो गैर जिम्मेदार है, धार्मिक कट्टरपंथ पर चलता है और सेना की तरह आक्रामक मानसिकता वाला है। हालांकि इस रवैये के लिए हमारी निष्क्रियता और रक्षात्मक रुख भी कुछ हद तक जिम्मेदार है।
इस लेख में यह सुझाव दिया गया है कि अब भारत को पाकिस्तान के साथ अपनी युद्ध नीति में परिवर्तन करना चाहिए। लेखक में सुझाई गई नई युद्ध नीति में “मिश्रित युद्ध” की बात है। यूक्रेन में रूसी कार्रवाई के सिलसिले में ‘मिश्रित युद्ध’ शब्द का बहुत उपयोग हुआ है। हालांकि सामरिक जगत में यह शब्दावली नई है, लेकिन अपनी विशेषताओं तथा काम करने के तरीके के लिहाज से मिश्रित या हाइब्रिड युद्ध का विचार मानव जाति में आरंभ से ही रहा है। अभी तक हाइब्रिड युद्ध का सिद्धांत तैयार करने में अधिक संस्थागत प्रयास नहीं किए गए हैं। इसलिए विस्तार में गए बगैर एक बुनियादी सैद्धांतिक ढांचे पर विचार किया जा सकता है।
क्या है हाइब्रिड युद्ध?
सैन्य सिद्धांतकार हैम्स चौथी पीढ़ी के युद्ध की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि “इस चौथी पीढ़ी के युद्ध में छापामार युद्ध, उग्रवाद, जनसंघर्ष तथा लंबे युद्ध के विचार युद्ध के ऐसे तरीके की व्याख्या करते हैं, जहां पारंपरिक सैन्य बढ़त को युद्ध के अपारंपरिक तरीकों से खत्म कर दिया जाता है और ऐसी विचार प्रक्रिया इसमें जोड़ दी जाती है, जिससे वांछित सैन्य तथा राजनीतिक व्यवस्था स्थापित होती है। चौथी पीढ़ी के युद्ध में भाग लेने वाले अपारंपरिक तरीकों के साथ सैन्य प्रभाव वाले अभियानों तथा रणनीतिक संवाद का प्रयोग करते हैं, जिससे संघर्ष लंबा खिंच जाता है और पारंपरिक बल का राजनीतिक एवं सैन्य समर्थन आधार खत्म हो जाता है।”
हाइब्रिड युद्ध 2007 की अमेरिकी मरीन रणनीति में एक सैन्य शब्द के तौर पर उभरा, जिसने विकेंद्रीकृत योजना एवं क्रियान्वयन के जरिये सरल एवं परिष्कृत तकनीकों का प्रयोग कर नियमित एवं अनियमित खतरों को मिलाने की बात की थी।1 फ्रैंक हॉफमैन ने इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए इसमें दो नए घटक जोड़े और हाइब्रिड युद्ध को आतंकवाद तथा आपराधिक व्यवहार के साथ पारंपरिक एवं अपारंपरिक बलों का तालमेल भरा संगम माना।2 यह संगम वांछित उद्देश्य के प्रति ऐसे राजनीतिक संवाद के साथ काम करता है, जो संवाद बल के सभी घटकों को एक साथ और अनुकूल तरीके से एक बनाता है। इसके साथ ही उन्होंने बताया कि इस प्रकार के युद्ध को नीतिगत, अभियानगत अथवा रणनीतिक स्तरों पर सरकारी अथवा गैर सरकारी कारक अमली जामा पहना सकते हैं।3
“हाइब्रिड वॉरफेयर” शीर्षक वाली पुस्तक (मेजर टिमोथी मैकुलो, मेजर रिचर्ड जॉनसनः जॉइंट स्पेशल ऑपरेशंस यूनिवर्सिटी रिपोर्ट) में हाइब्रिड युद्ध को पारंपरिक एवं अपारंपरिक, सैन्य एवं असैन्य साधनों का मिश्रण बताया गया है, जिसमें आपराधिक, आतंकवादी एवं अन्य अशांतिकारी गतिविधियां भी शामिल हैं। हाइब्रिड खतरा सांगठनिक प्रकृति का होता है ओर आम तौर पर किसी विशेष संदर्भ में विशुद्ध पारंपरिक शत्रु पर असमान लाभ प्राप्त करने का प्रयास करता है। पुस्तक में हाइब्रिड युद्ध एवं हाइब्रिड संगठनों से होने वाले खतरों की विस्तार से पड़ताल की गई है और कहा गया है कि हाइब्रिड युद्ध पर स्थानीय सामाजिक, राजनीतिक तथा जातीय संदर्भों का गहरा असर होता है। इसमें हाइब्रिड युद्ध के सात पारिभाषिक सिद्धांतों का वर्णन भी किया गया है, जिनमें रक्षात्मक प्रवृत्ति का होना, विचारधारा से प्रेरित होना, आक्रामक बौद्धिक मुद्रा होना आदि शामिल हैं।
पुस्तक में आगे कहा गया है, “यह लाभ विशुद्ध सैन्य बल के क्षेत्र में ही नहीं दिखता है बल्कि यह अधिक सर्वांगीण होता है और राष्ट्रीय शक्ति के सभी घटकों में दिखता है, जिनमें कूटनीतिक, सूचनागत, सैन्य, आर्थिक, वित्तीय, खुफिया, विधि प्रवर्तन तथा कानूनी घटक शामिल हैं। इस लाभ के कारण जो प्रभाव उत्पन्न होता है, वह युद्धक्षेत्र के नियमों को बदल देता है, जिससे गति, गहराई तथा तीव्रता के मामले में पारंपरिक युद्ध के नियम हाइब्रिड युद्ध के नियमों में परिवर्तित हो जाते हैं। परिणामस्वरूप अपेक्षाकृत कमजोर सैन्य शक्ति वाला विरोधी ताकतवर पक्ष के सामने अनंत काल तक खड़ा रह सकता है और ऐसा प्रभाव पैदा करता रहता है, जो अधिक पारंपरिक शत्रु उसी स्थिति में पैदा नहीं कर सकता।”
कार्नेगी की सुरक्षा संबंधी टिप्पणी “रशिया एंड सिक्योरिटी ऑफ यूरोप” में यूजीन रमर ने हाइब्रिड युद्ध को परिभाषित करते हुए कहा है कि “रूस हाइब्रिड युद्ध के साधनों के रूप में अथवा सभी उपलब्ध साधनों के माध्यम से राजनीतिक जारी रखने के लिए परमाणु क्षमता के होहल्ले से लेकर छोटे, कमजोर पड़ोसियों को सूचना युद्ध, साइबर अभियानों, तबाह करने की धमकी से डरा रहा है; रिश्वत और अन्य राजनीतिक एवं आर्थिक हथियारों का प्रयोग कर रहा है।” हाल के दिनों की बात करें तो रूस ने यूक्रेन और क्रीमिया में जो तरीके अपनाए, उनसे सबक सीखा जा सकता है। रूस समर्थक समूहों (यूक्रेन में ‘लिटिल ग्रीन मेन’ के नाम से मशहूर) को बरबादी के लिए उकसाने के अलावा रूस ने बाद में हाइब्रिड युद्ध कौशल में कई नए तत्व जोड़ लिए, जैसे सूचना अभियान, साइबर युद्ध, सामाजिक एवं राजनीतिक अशांति, वित्तीय अस्थिरता, धुर दक्षिण और धुर वाम राजनीतिक गुटों के साथ हेरफेर करना, भू-राजनीतिक उद्देश्य प्राप्त करने के लिए ऊर्जा की राजनीति का प्रयोग करना तथा युवाओं के मध्य दुष्प्रचार करना।
हाइब्रिड तरीकों में हाल के इन बदलावों को देखते हुए इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज के अलेक्जेंडर निकोल्स कहते हैं कि हाइब्रिड तरीके राष्ट्र की बुनियादों पर हावी होना चाहते हैं, इसलिए यह आवश्यक है कि सभी राष्ट्र अपनी बुनियादों पर नजर डालें और उन समस्याओं तथा दरारों से निपटने की कोशिश करें, जिनका फायदा विरोधी उठा सकते हैं। अंत में ये विशेष अथवा हाइब्रिड युद्ध भयंकर, आक्रामक तथा वैचारिक हैं। इस तरह के युद्ध लड़ने के लिए वाकई में शत्रु से घृणा करनी पड़ती है और युद्ध की योजना के प्रति कटिबद्ध होना पड़ता है।
भारतीय परिदृश्य
अभी तक शासन कला के रूप में नियमित युद्ध के साथ जिन अपारंपरिक युद्ध साधनों को अपनाया गया, उनमें अनियमित सशस्त्र समूहों की मदद से तबाही फैलाना, धोखा देना तथा साजिश रचना आदि शामिल हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास में मगध के राजा अजातशत्रु के मंत्री वस्सकार द्वारा कबीलों के प्रमुखों के मध्य फूट डाले जाने से वज्जी गणराज्य का नाश हो गया। इसी प्रकार यूनानियों से युद्ध में कौटिल्य ने मिथ्या सूचना फैलाने के तरीकों का जमकर प्रयोग किया।
लेकिन स्थिति बहुत बदल गई है और पिछले कुछ वर्षों में मामला बहुत जटिल हो गया है। वर्तमान संदर्भ में पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ बेहद परिष्कृत छद्म युद्ध छेड़ने के मामले में निर्विवाद रूप से प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है। वर्तमान घटनाक्रम अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद 1989 में शुरू मानी जा सकती है; हालांकि उसी दशक के पहले के हिस्से में पाकिस्तान द्वारा भड़काए गए सिख आतंकवाद के दौर पर अलग अध्याय लिखा जा सकता है। 1989 के उपरांत पाकिस्तान को यह स्पष्ट नहीं था कि अमेरिका भविष्य में उसकी सहायता करेगा अथवा नहीं क्योंकि उसे डर था कि सोवियत सेनाओं के हटने के बाद संभवतः उसे पाकिस्तान की आवश्यकता उस भूमिका में नहीं होगी, जो पाकिस्तान ने अफगान जिहाद में निभाई थी। इसीलिए उसने अपना तरीका बदल दिया और जिहादी गुटों के जरिये कश्मीर में छद्म युद्ध को प्रायोजित करने लगा। उसके बाद से ये छद्म युद्ध लगातार हमारी सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, नीति एवं समाज में बरबादी फैलाने में जुटे हैं। उनका नया जिहाद कश्मीर तक सीमित नहीं रहा बल्कि सुविचारित रणनीति के तहत यह धीरे-धीरे भीतर तक पहुंचता गया। और समय के साथ उसने अधिक परिष्कृत रूप धर लिया, जिसमें भारत को परेशान करते रहने के लिए आतंकी हमलों, अन्य आतंकी गुटों को वित्तीय सहायता देने, सामाजिक तथा राजनीतिक उपद्रव भड़काने और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में जुटे गैर सरकारी संगठनों को वित्तीय मदद देने जैसे कई अन्य अस्थिर करने वाले तरीके आजमाए गए।
पाकिस्तान ने अब भी यह जारी रखा है। उसने हमारे दिमाग में परमाणु हमले का डर पैदा कर दिया है और 17 वर्ष से उसी डर का फायदा उठा रहा है। यही कारण है कि कारगिल, आईसी-814 अपहरण, संसद हमले, जयपुर विस्फोट, अजमेर विस्फोट, मुंबई में 26 नवंबर से पाकिस्तान आसानी से बरी हो जाता है। वास्तव में यह जाल कितना सफलतापूर्वक बिछाया गया है, यह बात इसी से साबित हो जाती है कि संसदहमले के जवाब में भारत ने कई महीनों तक सीमा पर सेना की सबसे भारी तैनाती करने में अपने संसाधन खर्च किए। लेकिन हम यह नहीं समझ पाए कि परमाणु धमकी खोखली है ओर यह हमारे दिमाग में डर बिठाने के लिए ही है। यदि सिद्धांतों और आंकड़ों के साथ तरीके से अनुसंधान किया जाए तो पाकिस्तान की संभावित प्रतिक्रिया का सही विश्लेषण हो सकता है और उसमें पता चलेगा कि जब तक भारत और पाकिस्तान के बीच पारंपरिक युद्ध नहीं होता तब तक परमाणु हमला हो ही नहीं सकता। विरोधी बेहद चालाकी के साथ जो मनोवैज्ञानिक खेल खेल रहा है, हम अपनी प्रतिक्रिया में कभी उसे ठीक से समझ ही नहीं सके हैं। हमने हमेशा गलत प्रश्न पूछा हैः यदि हम छद्म युद्ध का उत्तर पारंपरिक हमले अथवा सीमित अवधि की तीव्र कार्रवाई से देते हैं और बदले में पाकिस्तान परमाणु हमला करता है तो क्या होगा? उसके बाद और क्या विकल्प बचेगा, नियंत्रण रेखा पर और भी सर्जिकल स्ट्राइक तथा आतंकी शिविरों पर हवाई हमले? ये शानदार विकल्प हैं किंतु एक बिंदु के बाद उन्हें अंतिम विकल्प के तौर पर पूर्ण युद्ध से ठीक पहले अलग-अलग नहीं आजमाया जा सकता। इसके अलावा उपरोक्त विकल्पों से टकराव बढ़ने के अवसर बहुत अधिक हैं।
कैसे बने प्रभावी रणनीति?
स्वाभाविक है कि सर्वश्रेष्ठ रणनीति वह होगी जो ऐसी घटनाओं को अर्थात् परमाणु हमले में तब्दील हो सकने वाले सैन्य टकराव को रोकेगी। मॉस्को सेंटर ऑफ कार्नेगी टॉबी डाल्टन का विचार है कि पाकिस्तान की परमाणु क्षमता के कारण भारत के पास व्यावहारिक रूप से अधिक विकल्प नहीं हैं। उसके बाद वह और गहराई में उतरकर देखते हैं कि भारत पाकिस्तान को सीमा पार आतंकवाद रोकने के लिए कैसे मना सकता है। इसके जवाब में वह कहते हैं कि “आर्थिक दबदबे और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में प्रभाव के मामले में पाकिस्तान के मुकाबले बढ़त हासिल कर चुका भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए ‘अहिंसक तरीकों’ की रणनीति इस्तेमाल कर सकती है।” इस सुझाव के गुण-दोषों पर अलग से चर्चा होनी चाहिए।
इस सुझाए गए तरीके का जवाब यही है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष साधनों के जरिये अपने भारत-विरोधी अभियान में पाकिस्तान उस चरण से आगे जा चुका है, जहां ‘आर्थिक एवं अंतरराष्ट्रीय प्रभाव की ताकत’ वाली रणनीति उस पर किसी प्रकार का दबाव डाल सकती है। इसीलिए मिश्रित तरीकों का इस्तेमाल ही पाकिस्तान को सीमा पार आतंकवाद और गोलीबारी से दूर रहने के लिए ‘प्रेरित’ करने का एकमात्र प्रभावी रास्ता है। पाकिस्तान को भारत के प्रति उसका रुख बदलने के लिए प्रेरित अथवा विवश करने हेतु आवश्यक दबाव बनाने तथा बरकरार रखने के लिए भारत को भी गोपनीय तरीकों तथा छिपे हुए रास्तों की आवश्यकता है। इसीलिए भारत को अपनी युद्ध रणनीति में मिश्रित नीति को ही मुख्य तरीका बनाना और आजमाना होगा; हालांकि इसके तरीके अलग हो सकते हैं और सामने खड़े खतरों के मुताबिक ढाले जा सकते हैं। भविष्य में मिश्रित खतरे ही अपनी बहुतायत और अपने सामने आने वाले सुरक्षा संबंधी जोखिमों के अनुसार तय करेंगे कि उनके लिए किस तरह का माहौल होना चाहिए। चीन और पाकिस्तान जैसे भारत के विरोधी करीब आधी शताब्दी से हाइब्रिड तरीकों का इस्तेमाल करते आए हैं। चीनी तरीके कुछ अधिक परिष्कृत हैं और वह पूर्वोत्तर में साइबर मुखबिरी तथा विनाश पर भरोसा करता है।
पाकिस्तान की दरारें तथा हाइब्रिड युद्ध की रणनीति
पाकिस्तान धार्मिक राष्ट्रवाद की काल्पनिक अवधारणा पर कृत्रिम रूप से बनाई गई इकाई है। परिणामस्वरूप इसमें जातीय, सांस्कृतिक, भाषाई, वैचारिक तथा कबायली आधार पर कई दरारें अथवा विभेद मौजूद हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बलूचिस्तान के मामले में इन विभेदों का जिक्र किया है, जहां लश्कर-ए-झांगवी, सिपह-ए-सहाबा, तालिबान, अल कायदा जैसे सरकार विरोधी कट्टर सुन्नी धार्मिक चरमपंथी और जमात-ए-इस्लामी, आजादी के राष्ट्रवादी लड़ाकों और आईएसआईएस से जुड़े गुटों जैसे नरम एवं पाकिस्तान समर्थक इस्लामी संगठन का घालमेल है। फ्रेडरिक ग्रेरे ने अपने पत्र “बलूचिस्तान - द स्टेट वर्सस द नेशन” में उनकी आंतरिक हलचल, टकरावों तथा दरारों के बारे में विस्तार से लिखा है। पाकिस्तानी मीडिया तथा उसके सरकारी निकाय बलूचिस्तान के मामलों में भारत के कथित दखल का आरोप लगाते रहे हैं। क्या वाकई में इससे हाइब्रिड युद्ध रणनीति में शामिल होने का मौका मिल जाता है? कम से कम भारत खुफिया तथा राजनयिक स्तर पर अलग प्रकोष्ठ बना सकता है, जिसके पास इन दरारों का लाभ उठाने के लिए क्षेत्र तथा विषय की विशेषज्ञता होनी चाहिए।
इसी प्रकार की या संभवतः और भी गहरी दरारें सिंध तथा खैबर पख्तूनवाला क्षेत्र में भी मौजूद हैं। खुफिया और कूटनीतिक विशेषज्ञों को इसकी पूरी जानकारी होनी चाहिए। रणनीतिक समुदाय की बहसों में इसका विस्तार से जिक्र भी हुआ है। आंतरिक संघर्ष और विभेद इतने गंभीर हैं कि मामूली सी शह देते ही इन क्षेत्रों में स्वतः बगावत हो सकती है। भड़काने के लिए केवल साहसिक निर्णय लेने होंगे और सीमित स्तर की जमीनी कार्रवाई बिल्कुल वैसे ही करनी होगी, जैसी स्वयंभू आतंकी गुट बिना किसी डर के देश के सभी हिस्सों में प्रहार करते दिख जाते हैं।
किंतु ये बहुत अधिक जोखिम वाली रणनीतियां हैं, जिन पर भारत के दर्शन और उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को देखते हुए संभवतः सहमति नहीं बनेगी। आर्थिक, ढांचागत एवं वित्तीय क्षेत्र में आसान विकल्प उपलब्ध हो सकते हैं। मेरा अनुमान है कि पाकिस्तान को सामाजिक-आर्थिक मामले में अशक्त बना देने के मौके तलाशने का सही समय आ गया है। सबसे पहले सिंधु जल संधि दिमाग में कौंधती है, जिसका जिक्र हाल में मीडिया में भी आया है और जिस पर व्यापक चर्चा भी हुई है। विशेषज्ञ मानते हैं, और उनकी बात से असहमत होने का कोई कारण भी नहीं है, कि संधि के अंतर्गत कानूनी रूप से उपलब्ध पानी का अपना हिस्सा इस्तेमाल करने भर से पाकिस्तान के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर भारत बहुत कड़ा प्रहार कर सकता है। क्या भारत स्वयं खींची गई लक्ष्मण लांघने तथा अपनी भू-राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सिंधु जल संधि का इस्तेमाल करने को तैयार है?
कुछ और दरारें हैं, जिनका इस्तेमाल हाइब्रिड युद्ध रणनीति में किया जा सकता है। सिंध में एमक्यूएम जैसे आपराधिक और अलग-थलग पड़े राजनीतिक समूह, जिन्हें पाकिस्तान में ‘सरकार को चलाने वाले वर्ग (डीप स्टेट)’ ने पैदा किया, बढ़ावा दिया और अक्सर इस्तेमाल किया है, ऐसा मौका हो सकते हैं। भारत चुनावों जैसी राजनीतिक एवं सामाजिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने एवं भारत-समर्थक सामाजिक-राजनीतिक समूह बनाने एवं बढ़ाने की वैसी ही रणनीति अपना सकता है, जैसी रणनीति उसने कथित तौर पर हालिया अमेरिकी चुनावों में अपनाई थी!
इस बात पर भी सार्वजनिक बहस चलती आई है कि चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के अंतर्गत महत्वपूर्ण परियोजनाएं केवल द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए ही नहीं हैं बल्कि पाकिस्तान के आर्थिक अस्तित्व के लिए ये बहुत अहम हैं। परियोजना के कुछ बेहद प्रतिकूल वातावरण वाले क्षेत्रों से गुजरने के कारण उसकी रूपरेखा में क्रियान्वयन के चरण के दौरान अथवा उसके उपरांत किसी भी प्रकार का विघ्न होने के गंभीर प्रभाव हो सकते हैं। पाकिस्तान और चीन दोनों भौतिक सुरक्षा एवं संरक्षा के प्रति सतर्क एवं चिंतित हैं। सीपीईसी को नुकसान पहुंचने से पाकिस्तान की आर्थिक जीवनरेखा और बुनियादी ढांचा घुटने पर आ सकते हैं। बलूचिस्तान में राजनीतिक अशांति की उतार चढ़ाव भरी प्रकृति को देखते हुए यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि स्थानीय समूह तोड़फोड़ करने लगेंगे क्योंकि वे इस पूरी परियोजना को पंजाबी वर्चस्व वाले राजनीतिक-सैन्य कुलीन सत्ता वर्ग सत्ता द्वारा लंबे समय से किए जा रहे अपने शोषण का ही एक हिस्सा मानते हैं।
आर्थिक दबाव हाइब्रिड युद्ध रणनीति के स्वीकार्य अंग होते जा रहे हैं। रूस सरकार ने हाल ही में यूक्रेन पर ऊर्जा हमले किए थे। उसने नॉर्थ स्ट्रीम, साउथ स्ट्रीम और टर्किश स्ट्रीम जैसी कई नई परियोजनाएं आरंभ कर यूक्रेन से गुजरे बगैर ही रूसी गैस को यूरोप तक पहुंचा दिया, जिससे यूक्रेन का महत्व बहुत कम हो गया। यूक्रेन में इस समय भीषण ऊर्जा संकट है क्योंकि रूस ने ऊर्जा आपूर्ति (यूक्रेन को 65 प्रतिशत ऊर्जा आपूर्ति रूसी महासंघ से होती है) भी बहुत कम कर दी है।4
रूस के षड्यंत्र और जासूसी के तरीकों से भी सीखा जा सकता है और साइबर युद्ध के क्षेत्र में उतरा जा सकता है। भविष्य में महाशक्तियों का टकराव साइबर क्षेत्र में ही होगा। रूसी यूक्रेन का बिजली का ग्रिड जाम कर सकते थे, जिससे नाटो के सदस्य घबरा गए। भारत के पास अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, जीपीएस प्रणाली के मामले में दक्षिण एशिया में काफी उन्नत क्षमताएं हैं, जिनका प्रयोग हमारे उद्दंड विरोधी को साइबर क्षेत्र में पटखनी देने के लिए किया जा सकता है। इसके लिए उनकी आवश्य शस्त्र प्रणालियों को जाम किया जा सकता है और उनकी राष्ट्रीय परिवहन प्रणाली तथा औद्योगिक बुनियादी ढांचे को पटरी से उतारा जा सकता है।
एक और नाजुक क्षेत्र है पाकिस्तान को उसके विदेशी साझेदारों जैसे अमेरिका तथा तुर्की से मिलने वाली आपूर्तियां और हथियार। इसी तरह सऊदी प्रायोजित दोहरे इस्तेमाल वाली चैरिटी की रकम पाकिस्तान में आ रही है, जिसका इस्तेमाल चरमपंथ को बढ़ावा देने तथा आतंकी गतिविधियों के लिए वित्तीय सहायता मुहैया कराने में किया जा रहा है। भारत पाकिस्तान में आने वाली ऐसी खैरात रोकने के लिए अमेरिका में अपने मजबूत कूटनीतिक प्रभाव तथा खाड़ी देशों के साथ अपनी बढ़ती समझ का इस्तेमाल करने पर विचार कर सकता है।
कूटनीतिक क्षेत्र में हाल के वर्षों में भारत ने दूरदर्शिता भरे कदमों के कारण पड़ोसियों तथा उनसे भी आगे के देशों के साथ काफी सद्भावना अर्जित कर ली है। अब वह ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है, जहां वह आतंकवाद के प्रायोजक की पाकिस्तान की असली छवि पेश करने के लिए अपने संसाधनों का प्रयोग कर सकता है, जिस प्रयास का लक्ष्य उसे आतंकी राष्ट्र घोषित कराना होना चाहिए। सूचना के अन्य साधनों की मदद से सार्वजनिक कूटनीति तथा संपर्क की गतिविधियों के जरिये वैश्विक समुदाय को बताया जाना चाहिए कि एक ऐसा विरोधी है, जो ‘सुपारी की रकम’ के बल पर फल-फूल रहा है और अपने धार्मिक उन्माद तथा भारत एवं अन्य पड़ोसियों के प्रति घृणा के कारण मानवता को नष्ट करने का भरपूर प्रयास कर रहा है।
विशेष युद्धों में मजबूत वैचारिक आधार भी होना चाहिए। हाइब्रिड युद्ध की किसी भी रणनीति को सूचना तथा प्रचार के सघन युद्ध का सहारा मिलना चाहिए, जो सीधे पाकिस्तानी राष्ट्र की बुनियाद को चुनौती दे। युवाओं तथा नागरिक समाज (पाकिस्तान में जो भी बचा-खुचा हो) को यह समझाने से कि भारत किसका प्रतिनिधित्व करता है और पाकिस्तान किसका, वांछित भू-राजनीतिक उद्देश्य प्राप्त करने में बहुत सहायता होगी।
पाकिस्तान के छद्म युद्ध का क्या उत्तर दे भारत?
जैसा इस लेख के आरंभ में बताया गया है, पाकिस्तान के प्रत्यक्ष आक्रमण की भारत ने जो प्रतिक्रिया दी है, उसे सदैव ही पेशेवर और प्रभावी माना गया है। किंतु पहले पंजाब में और इस समय कश्मीर तथा अन्य स्थानों पर किए जा रहे परोक्ष आक्रमण अथवा छद्म युद्ध के मामले में रुख आम तौर पर रक्षात्मक, प्रतिक्रियावादी तथा अनिश्चयवादी माना जाता है। स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि भारत को दशकों से चले आ रहे पाकिस्तान प्रयोजित छद्म युद्ध से वैसे ही निपटते रहना है, जैसे वह करता आ रहा है अथवा नई रणनीति अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें पारंपरिक रुख तथा हाइब्रिड युद्ध रणनीति के तत्व शामिल हों? क्या रुख बदलने का समय आ गया है? भारत ने बहुत लंबा इंतजार कर लिया है और अब उसे अपने विकल्पों पर गंभीरता से पुनर्विचार करना होगा।
सीपीईसी के बाद चीन के लिए पाकिस्तान अपरिहार्य बन जाएगा। 50 अरब डॉलर से अधिक दांव पर लगे होने के कारण पाकिस्तान की सुरक्षा तथा उसके परमाणु अस्त्र चीन के लिए मजबूरी हो जाएंगे। इसके अलावा चीन के भू-राजनीतिक खेल में रूसियों, मध्य एशियाई देशों तथा ईरान के शामिल होने से समूचा क्षेत्र ताकत की राजनीति, व्यापार एवं आर्थिक कूटनीति का केंद्र तथा जासूसी गतिविधियों का अड्डा बन सकता है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के साथ पारंपरिक युद्ध लगभग असंभव है क्योंकि विश्व शक्तियां किसी भी तरह के परमाणु युद्ध को भड़कने से रोक लेंगी।
इस लेख में इस विचार की और इस पर हो रही विभिन्न बहसों की विस्तार से चर्चा की गई है। किंतु जहां तक “हाइब्रिड युद्ध” का विचार समझने की बात है, भ्रम की स्थिति बरकरार है। इस लेख में प्रस्तुत विश्लेषण के आलोक में पारंपरिक, उप-पारंपरिक युद्ध, साइबर चतुराई, सूचना युद्ध, आतंकवाद तथा आपराधिक संगठनों को प्रश्रय आदि की लचीली अदलाबदली तथा संयोजन को हाइब्रिड युद्ध कहा जा सकता है। सटीक परिभाषा नहीं होने के कारण इसके प्रयोग को आवश्यकता तथा परिस्थिति के अनुसार ढाला जाता है।
ऐसी किसी भी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए भारत को प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था, वित्त, संस्कृति, कला एवं राजनीति जैसे विविध क्षेत्रों से निपुण तथा विशेषज्ञ व्यक्तियों के साथ आक्रामक खुफिया रवैया अपनाना होगा। याद रखना चाहिए कि हाइब्रिड युद्ध केवल सेना से नहीं होता। सेना इसका केवल एक अंग है, लेकिन यह सेना से बहुत आगे तक जाता है। हाइब्रिड युद्ध में जासूसी का मजबूत तत्व है, जिसका मजबूत नेटवर्क विभिन्न क्षेत्रों में तैयार करना पड़ता है। भारत को अपनी खुफिया प्रणाली, नीति एवं दर्शन को दुरुस्त करना होगा। इसलिए भारत को अपने तरकश में “हाइब्रिड युद्ध” की नई युद्ध नीति रखने के लिए खुफिया मामलों में पूरी क्रांति लानी होगी। इसके अलावा राष्ट्रीय शक्ति के सभी तत्वों जैसे बौद्धिक, आर्थिक, खुफिया, साइबर क्षमताओं, वैज्ञानिक, कारोबारी, व्यापार एवं कूटनीतिक तत्वों को शामिल कर सुरक्षा का नया ढांचा बनाने की जरूरत है, जिसके जरिये हाइब्रिड युद्ध किया जाएगा।
अंत में इस बात का उल्लेख भी करना होगा कि भारत ऐसे तरीकों का उपयोग इसीलिए नहीं करेगा क्योंकि पारंपरिक क्षमताओं में वह दुश्मन से कम है बल्कि वह पाकिसतन के बेतुके, भटके हुए और उद्दंड स्वभाव के कारण ऐसा करेगा। दूसरी बात यह है कि हाइब्रिड वार के पीछे आर्थिक कारण भी है। भारी पैमाने पर पारंपरिक युद्ध करने, सीमा पर लगातार गोलीबारी करने और बार-बार सर्जिकल स्ट्राइक करने के मुकाबले हाइब्रिड युद्ध की आर्थिक एवं राजनीतिक लागत कम होती है और प्रभाव बहुत अधिक होता है। अंत में हाइब्रिड युद्ध के पीछे नीतिगत तर्क भी होगा क्योंकि इससे परमाणु युद्ध टल जाएगा, सीमा पर तनाव घट जाएगा और नागरिकों तथा सैनिकों को क्षति भी कम होगी।
लेख के पिछले हिस्से में देखा गया है कि हाइब्रिड युद्ध की रणनीति में दमन, अनियमित युद्ध, उग्रवाद, आतंकवाद, आपराधिक गतिविधियों, आर्थिक अस्थिरीकरण, साइबर युद्ध, सामाजिक एवं राजनीतिक अशांति तथा धुर दक्षिण एवं धुर वाम राजनीतिक पक्षों के साथ हेरफेर जैसी गतिविधियों का मिश्रण किया जाता है। भारत को पहले इसके लिए नीति तैयार करनी होगी, उसके बाद राष्ट्रीय शक्ति के सभी तत्वों का इस्तेमाल करते हुए बड़ी रणनीति बनानी होगी। अभियान विशेष के अनुसार कौशल संबंधी एवं परिचालन संबंधी ब्योेरा तैयार किया जा सकता है।
भारत के पास मौजूद संभावित विकल्पों का विस्तृत विश्लेषण इस लेख में नहीं हो सकता। किंतु यह ध्यान रखना चाहिए कि हाइब्रिड नीतियों में लागत बच जाती है। सीपीईसी के बाद पाकिस्तानी प्रतिष्ठान अपनी पारंपरिक रक्षा प्रणाली के प्रति कम चिंतित होंगे क्योंकि भारत के साथ पारंपरिक युद्ध की संभावना नहीं के बराबर है और विश्व शक्तियां सीपीईसी से जुड़ी हुई हैं। ऐसी स्थिति में भारत में अपने जिहादी ढांचे को मजबूत करने के लिए उसके पास ढेर सारे संसाधन, ऊर्जा और समय बच सकते हैं। यदि पाकिस्तानी भारत में छद्म युद्ध और जिहाद को वित्तीय सहायता मुहैया कराता रहता है तो भारत की संभावित प्रतिक्रिया (हमारी अभी तक की रणनीति के अनुसार) या तो पारंपरिक युद्ध होगी अथवा “सर्जिकल स्ट्राइक” जैसी छोटी और त्वरित कार्रवाई होगी। किंतु ऊपर बताई गई कार्रवाई से हम खतरनाक रास्ते पर बढ़ रहे हैं क्योंकि किसी भी तरह का सैन्य टकराव अचानक या जानबूझकर परमाणु युद्ध में बदल सकता है। अब चूंकि पाकिस्तान ने अपने फील्ड कमांडरों को अपने परमाणु अस्त्र देने का फैसला कर लिया है तो इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकार से इतर रहकर काम करने वाले निचले स्तर के फील्ड कमांडरों के साथ मिलकर भारत के खिलाफ परमाणु अस्त्र का प्रयोग कर लेंग। वरिष्ठ अधिकारियों की जानकारी के बगैर भी ऐसा हो सकता है। यदि ऐसा होता है तो भारत के पास अपनी परमाणु नीति के अनुसार जवाब में परमाणु अस्त्र का प्रयोग करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।
विचार यही है कि जासूसों के बीच मायावी खेल चलता रहे ताकि प्रत्यक्ष सैन्य टकराव का अवसर नहीं आए और जरूरी दबाव पड़ सके। हमारी दार्शनिक परंपरा में “स्याद्वाद” का सिद्धांत है, जो कहता है कि “जो ‘यथार्थ’ है वह ‘यथार्थ नहीं’ है।” हमारी हाइब्रिड नीतियों को संपूर्ण अस्पष्टता, भ्रम एवं जटिलता के साथ स्यादवाद का आदर्श होना चाहिए अर्थात् “युद्ध होना होगा और नहीं भी होगा।”
हाइब्रिड तरीकों की व्यावहारिकता की बात करें तो मैं कहना चाहूंगा कि यह बिल्कुल नई रणनीति नहीं है। यह ऐसा क्षेत्र है, जिसे खुफिया एवं सुरक्षा पेशेवर दशकों से अच्छी तरह से जानते हैं। ऐसे तरीके अनंत काल से ही शासन कला के आवश्यक अंग रहे हैं। उस क्षेत्र में भारत के पास अनुभव चाहे न हो, क्षमताएं हैं। हमें अपने प्रयासों को सघन करना होगा; केंद्रित, व्यवस्थित एवं सुपरिभाषित बनाना होगा। पाकिस्तान को कश्मीर तथा भारत के अन्य भागों में ऐसी क्षमताएं तैयार करनी पड़ी थीं, लेकिन पाकिस्तान में ऐसी दरारें या दोषयुक्त नाजुक क्षेत्र तैयार करने की कोई जरूरत नहीं है; जो दरारें विभाजन के समय से पाकिस्तान में थीं, वे सेना के कई साल के पक्षपाती एवं तानाशाही शासन के कारण मजबूत हो गई हैं और बिगड़ भी गई हैं। ऐसी दरारों को पहचानने तथा अपने भू-राजनीतिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने की आवश्यकता है।
उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि भारत को अपने रुख में तब्दीली करनी होगी। जिस विरोधी के लिए नैतिकता और मूल्यों का कोई मतलब नहीं है, उसे जवाब देने में अभी तक यह हद से अधिक नैतिकतावादी रहा है। इसके अलावा भू-राजनीति में नियमों और मूल्यों के बजाय आर्थिक तर्क एवं यथार्थ का भान होने से हमारे उद्देश्य की बेहतर पूर्ति होगी। अंत में अनुसंधान, विश्लेषण, सार्वजनिक स्रोतों से खुफिया जानकारी एवं अन्य रास्ते तैयार करने, गुप्त अभियान चलाने तथा विभिन्न स्तरों एवं विभिन्न मार्गों से होने वाले प्रयासों के बीच तालमेल बिठाने के लिए अपनी खुफिया क्षमताओं का विकास करना होगा ताकि हमें अपने उद्देश्य की प्राप्ति हो सके।
संदर्भ
(1) हेडक्वार्टर्स, डिपार्टमेंट ऑफ द नेवी, अ कोऑपरेटिव स्ट्रैटेजी फॉर ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी सीपावर (वाशिंगटन, डीसीः डिपार्टमेंट ऑफ द नेवी, 2007)
(2) हॉफमैन, 2007, 301
(3) उपरोक्त, 301
(4) स्लोबोदियन, नतालिया, “एनर्जी इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ रशिया”, स्ट्रैटफॉर
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