ईरान में हाल ही में संपन्न हुए 12वें राष्ट्रपति ईरानी व्यवस्था के स्थायित्व पर मुहर लगाते हैं। चुनावों में 73 प्रतिशत से भी अधिक मतदान हुआ। कुल 4 करोड़ मत पड़े, जिनमें रूहानी ने 57 प्रतिशत या 2,35,49,616 मत हासिल कर जीत दर्ज की। उन्होंने 2013 में हुए पिछले चुनावों की तुलना में बड़े अंतर से जीत दर्ज की। उस बार उन्हें 50.7 प्रतिशत मत ही हासिल हुए थे। मतदान में राष्ट्रपति रूहानी को देश में आर्थिक उदारीकरण की और विदेश में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ संपर्क की अपनी नीति जारी रखने के लिए जनमत प्राप्त हो गया है। इससे परमाणु समझौता या ‘बरजाम’ भी सही साबित हो गया है।
चुनाव ‘रूढ़िवादियों’ और ‘सुधारवादियों’ के बीच लड़ा गया था। ‘रूढ़िवादियों’ को दकियानूसी या पारंपरिक दृष्टिकोण का समर्थक माना जाता है। ‘सुधारवादी’ सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर अधिक नया दृष्टिकोण अपनाए जाने की हिमायत करते हैं। रूढ़िवादियों का प्रतिनिधित्व न्यायपालिका के पूर्व सदस्य हुजतेस्सलाम इब्राहीम रईसी कर रहे थे, जो देश में दो सबसे प्रभावशाली धार्मिक संगठनों में से एक इमाम रजा फाउंडेशन के प्रमुख भी हैं। रूढ़िवादी समूह के दो और उम्मीदवार तेहरान के मेयर मोहम्मद बगर गालिबाफ और पूर्व संस्कृति एवं इस्लामी निर्देश मंत्री मुस्तफा मीरसलेम भी थे। सुधारवादी गुट का प्रतिनिधित्व वर्तमान राष्ट्रपति रूहानी कर रहे थे। इस गुट के दो अन्य उम्मीदवार थे - पूर्व प्रथम उपराष्ट्रपति जहांगीरी और पूर्व शारीरिक शिक्षा मंत्री मुस्तफा हाशिमी तबा।
चुनावों से पहले राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच टेलिविजन पर तीन बहसें हुई थीं। बहस का विषय था विदेश नीति और सामाजिक-आर्थिक मुद्दे तथा आगे की राह। ‘रूढ़िवादी’ गुट ने रूहानी प्रशासन पर यह कहते हुए हमला बोला कि वह 4 प्रतिशत कुलीन जनता का पक्ष लेता है। उसने अधिक नौकरियों का और सब्सिडी में इजाफे का वायदा किया। ‘सुधारवादी’ गुट ने सरकार के प्रदर्शन को प्रचारित करने पर जोर दिया, जिसमें प्रतिबंध खत्म कराया जाना और कच्चे तेल का निर्यात बढ़ाना शामिल था। दिलचस्प है कि चुनाव से ठीक पहले ‘रूढ़िवादियों’ ने भी परमाणु क्लब के साथ परमाणु समझौते का समर्थन कर दिया, हालांकि उसने समझौते में पर्याप्त लाभ हासिल नहीं कर पाने के लिए रूहानी सरकार की आलोचना भी की।
आरंभ में छह उम्मीदवारों के मैदान में होने का उद्देश्य मत बांटना लग रहा था और इसी कारण रूहानी को मतदान के दूसरे चरण तक जाना पड़ा। दूसरे चरण में आम तौर पर रूढ़िवादी गुट का पलड़ा भारी रहता है और ग्रामीण क्षेत्र में अधिक मतदान होता है। राष्ट्रपति उम्मीदवारों की अंतिम बहस के बाद तेहरान के मेयर गालिबाफ ने इब्राहीम रईसी के समर्थन में अपना नाम वापस ले लिया। इसके बाद प्रथम उप राष्ट्रपति जहांगीरी ने रूहानी के पक्ष में नाम वापस ले लिया। नाम वापस होने का मतलब यह था कि मुकाबला कड़ा हो रहा है। अंत में रूहानी ने रईसी से बहुत अधिक मत प्राप्त कर चुनाव जीत लिया। जो मत पड़े, उनमें से रईसी को 1,54,49,786 अथवा 38.75 प्रतिशत मत हासिल हुए, जबकि रूहानी को 2,35,49,616 अथवा 57 प्रतिशत मत मिले।
राष्ट्रपति रूहानी का प्रदर्शन और भी सराहनीय रहा क्योंकि चुनाव अयातुल्ला रफसंजानी की मृत्यु के बाद हुए थे। 2013 के राष्ट्रपति चुनावों में रूहानी की जीत सुनिश्चित करने में दो पूर्व राष्ट्रपतियों रफसंजानी और खतामी के समर्थन का बड़ा हाथ था। इस बार उन्होंने दिवंगत रफसंजानी के समर्थन के बगैर अधिक अंतर से जीत दर्ज की। उन्हें सत्ता-विरोधी भावना से भी जूझना पड़ा। प्रमुख आध्यात्मिक केंद्र कौम के उलेमा ने इब्राहीम रईसी का समर्थन कर दिया था। स्वयं रईसी को एक अन्य प्रमुख आध्यात्मिक केंद्र तथा सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खमैनी से संबंधित इमाम रजा फाउंडेशन का प्रमुख नियुक्त किया गया था। वरिष्ठ उलेमा के अलावा रईसी को इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स कोर (आईआरजीसी) और आईआरजीसी के साथ मिलकर काम कर रहे अधिक सदस्यों वाले गुट बासिज का समर्थन भी हासिल था। इस तरह रूहानी का सामना मजबूत प्रतिद्वंद्वी से था।
राष्ट्रपति रूहानी ने 2013 में उस समय अहमदीनेजाद से सत्ता हासिल की थी, जब ईरान गंभीर आर्थिक स्थिति से गुजर रहा था। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि नकारात्मक थी। प्रतिबंधों के कारण ईरान का कच्चे तेल का निर्यात आधा होकर लगभग 10 लाख बैरल प्रतिदिन रह गया था। इस कटौती की आंशिक भरपाई तेल की ऊंची कीमतों से हो रही थी क्योंकि उस समय दाम लगभग 110 डॉलर प्रति बैरल थे। 2014 के मध्य के बाद तेल मूल्य में कमी ने यह राहत भी छीन ली। मूल्यों में कमी की रफ्तार नवंबर, 2014 में बढ़ गई और फरवरी, 2015 तक तेल के दाम 27 डॉलर प्रति बैरल के साथ एकदम नीचे पहुंच गए। राष्ट्रपति रूहानी के नेतृत्व में ईरान की जीडीपी वृद्धि वापस सकारात्मक हो गई। 5 प्रतिशत से अधिक वृद्धि के साथ ईरान क्षेत्र में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है। तेल का निर्यात वापस 22 लाख बैरल प्रतिदिन तक पहुंच गया है। परमाणु समझौते के तहत प्रतिबंध हटने से मदद मिली है। लेकिन ऊंची विकास दर सराहनीय उपलब्धि है क्योंकि तेल की कीमतें 2014 से पहले के स्तर की तुलना में आधी ही रह गई हैं। 2013 में जब रूहानी ने सत्ता संभाली थी तब मुद्रास्फीति की दर 35-40 प्रतिशत थी, जो अब गिरकर 14 प्रतिशत रह गई है। बेरोजगारी अधिक बनी हुई है और राष्ट्रपति चुनावों में यह भी मुद्दा था।
वृहद् आर्थिक आंकड़ों में सुधार ऐसे ही नहीं हुआ। रूहानी प्रशासन को सब्सिडी खत्म करनी पड़ी। यह हिम्मत भरा फैसला था। तेल सब्सिडी धीरे-धीरे खत्म कर दी गईं। व्यक्तिगत सब्सिडी भी घटकर 45,000 तोमन या लगभग 15 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रतिमाह रह गई। ईरानी सरकार ने लाभ लक्षित समूह तक ही सीमित कर बरबादी कम करने का प्रयास किया है। चुनावों में यह भी मुद्दा बन गया। अर्थव्यवस्था में आईआरजीसी के नियंत्रण वाली कंपनियों की भूमिका सीमित करने के प्रयास सबसे ज्यादा विवादास्पद रहे हैं। जैसा कि राष्ट्रपति रूहानी ने अपने चुनावी भाषणों में कहा, निजी क्षेत्र को समान अवसर प्रदान करने के लिए यह जरूरी था। यह काम जारी रहना होगा।
प्रतिबंध हटाने से अपेक्षित लाभ नहीं मिले क्योंकि बैंकों में समस्याएं जारी रहीं। प्रमुख अंतरराष्ट्रीय बैंक अब भी सतर्कता बरत रहे हैं और अमेरिका के रुख पर नजर रख रहे हैं। चुनाव अभियान में बड़ी-बड़ी बातें करने के बाद भी ट्रंप प्रशासन परमाणु शक्ति संपन्न देशों के समूह के साथ ईरान के परमाणु समझौते के अनुसार अमेरिकी वायदे पूरे करता आया है। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के फौरन बाद ईरान के मिसाइल परीक्षणों को देखकर अमेरिका ने मिसाइल के प्रसार में जुटी ईरानी और चीनी कंपनियों पर प्रतिबंध लगा दिए। लेकिन इसका असर द्वितीयक या परमाणु से संबंधित अमेरिकी प्रतिबंधों का कोई असर नहीं पड़ा। ये प्रतिबंध संयुक्त समग्र कार्य योजना के अंतर्गत हटा लिए गए हैं। चुनावों की पूर्व संध्या पर अमेरिका ने राष्ट्रीय रक्षा अधिकार अधिनियम, 2012 के अंतर्गत आवश्यक छूट भी दे दी, हालांकि उसने ईरान की नीतियों की विभिन्न एजेंसियों द्वारा समीक्षा जारी रखने की घोषणा भी की।
यूरोप की कंपनियां प्रतिबंध हटने के बाद जल्दी से ईरानी बाजार में लौट आईं। ईरान के राष्ट्रपति चुनाव के बाद यह सिलसिला तेज हो जाएगा। रूहानी को फिर चुने जाने और अमेरिका से छूट मिलने से कारोबारी माहौल में अधिक स्थिरता आ गई। एयरबस ने नागरिक विमानों की आपूर्ति के लिए 20 अरब डॉलर का करार किया है। इनमें से तीन विमान पहले ही आ चुके हैं। हाल ही में यूरोप के ही एटीआर विमानों की आपूर्ति भी हासिल की है। मर्सिडीज, वॉल्वो और प्यूजो ईरान के बाजार में वाहन बेच ही नहीं रही हैं बल्कि उन्होंने ईरान में कारखाने भी लगा लिए हैं। यूरोपीय संघ की कंपनियों के अलावा अमेरिका ने भी ईरान में 20 अरब डॉलर से अधिक के सौदे किए हैं।
भारत भी ईरान के साथ बड़ी परियोजनाएं जैसे चाबहार बंदरगाह और अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण पारगमन गलियारे (आईएनएसटीसी) की बातचीत कर रहा है। बंदरगाह की परियोजना में कुछ औपचारिकताएं पूरी होनी हैं, जिसके बाद भारत वायदे के मुताबिक 15 करोड़ डॉलर का कर्ज दे देगा। हाल ही में एक्जिम बैंक का एक प्रतिनिधिमंडल ईरानी अधिकारियों से चर्चा के लिए तेहरान गया था। बंदरगाह परियोजना के साथ चाबहार मुक्त व्यापार क्षेत्र में निवेश भी करना होगा और चाबहार-जाहेदान रेलवे मार्ग का विकास करना होगा। मुक्त व्यापार क्षेत्र के विकास से बंदरगाह पर आवाजाही आरंभ होगी। रेल मार्ग से अफगानिस्तान तथा स्वतंत्र राष्ट्रकुल देशों के बीच संपर्क बढ़ेगा। भारत समुद्र तट से दूर के गैस ब्लॉक फरजाद बी के विकास के लिए उस समय बड़ा निवेश करने को तैयार है, जिस समय अधिकतर अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियां तेल एवं गैस की कीमतें कम होने के कारण पूंजीगत व्यय कम कर रही हैं। भारत ईरान के कच्चे तेल के सबसे बड़े खरीदारों में शुमार है। तेल उत्खनन क्षेत्र में भारत की उपस्थिति से ईरान को बड़ा ग्राहक प्राप्त हो जाएगा। भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था ओर ईरान के अतिरिक्त हाइड्रोकार्बन संसाधनों के बीच स्वाभाविक मेल है। अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण पारगमन गलियारा सहयोग का एक अन्य संभावनाशील क्षेत्र है। इससे भारतीय निर्यात को मध्य एशिया तथा रूस के बाजारों में प्रवेश मिल जाएगा। 2014 में परीक्षण किया गया था। उसके बाद वाणिज्य मंत्रालय का एक प्रतिनिधिमंडल ईरान तथा तुर्कमेनिस्तान की सीमा पर स्थित इंच बारुन गया था। हाल ही में भारत ने टीआईआर संधि पर हस्ताक्षर किए हैं, जिससे भारतीय माल को सीमा पार पहुंचाने में मदद मिलेगी।
द्विपक्षीय बैंकिंग व्यवस्था को मजबूत करने की आवश्यकता है। परमाणु संबंधी प्रतिबंध समाप्त होने के बावजूद बैंकिंग की परेशानी बरकरार हैं। जब प्रतिबंध चरम पर थे तब दोनों देशों ने रुपये में भुगतान की व्यवस्था आरंभ कर तेल एवं गैर-तेल व्यापार जारी रखा था। प्रतिबंध समाप्त होने के बाद बैंकिंग के संतोषजनक समाधान हासिल करना अपेक्षाकृत आसान होना चाहिए। 2016 में प्रधानमंत्री मोदी की ऐतिहासिक ईरान यात्रा ने द्विपक्षीय संबंधों को राजनीतिक बल दिया। किंतु समय से क्रियान्वयन की आवश्यकता है। आईएनएसटीसी और चाबहार बंदरगाह का विकास चीन के ओबीओआर कार्यक्रम का भारतीय जवाब हो सकता है।
Image Source: http://www.sbs.com.au
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