शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) में 2005 से ही पर्यवेक्षक की भूमिका निभा रहे भारत को जून में आयोजित अस्ताना शिखर सम्मेलन के दौरान आखिरकार इस बहुपक्षीय समूह में जगह मिल ही गई। भारत ने एससीओ में शामिल होने के बाद सामने आने वाले अवसरों और चुनौतियों पर पूरी समझदारी के साथ विचार करने के बाद 2014 में पूर्ण सदस्यता का अनुरोध किया था। अंत में यह निर्णय लिया गया कि भारत के हितों की पूर्ति इस समूह में शामिल होने पर बेहतर तरीके से हो सकती है, इससे बाहर रहने पर नहीं।
कुछ रिपोर्ट ये संकेत दे रही थीं कि भारत की सदस्यता पर मंजूरी की मुहर लगाने के बदले में चीन भी दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (दक्षेस) का पूर्ण सदस्य बनना चाहता था। बताया जाता है कि भारतीय वार्ताकारों ने यह प्रस्ताव कठोरता के साथ ठुकरा दिया। यह स्पष्ट है कि यदि चीन को दक्षेस का पूर्ण सदस्य बनने दिया जाता तो वह पूरी कार्यवाही अपने हाथ में ले लेता और भारत के महत्व और भूमिका में बहुत कमी आ गई होती।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में एससीओ विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले अपने सदस्यों के बीच सहयोग बढ़ाने वाला बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठन बनकर उभरा है। भारत और पाकिस्तान दोनों को सदस्यता मिलने के बाद एससीओ का रुतबा और भी बढ़ गया है क्योंकि समूह अब दुनिया की लगभग आधी आबादी का और विश्व के 23 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का प्रतिनिधित्व करता है। मध्य एशियाई गणराज्यों (तुर्कमेनिस्तान को छोड़कर) के अलावा यह एशिया की तीन प्रमुख शक्तियों - रूस, चीन और भारत को साझे मंच पर लाया है।
भारत के रूस और चीन के साथ कुछ अन्य बहुपक्षीय समझौते भी हैं, जैसे रूस-भारत-चीन (रिक) मंच, ब्राजील-रूस-भारत-चीन-दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) और जी-20। एससीओ रूस, चीन, भारत और अन्य सदस्यों को पारस्परिक चिंताओं एवं हितों पर चर्चा करने तथा सहयोगपूर्ण कदम आगे बढ़ाने के लिए समाधान तलाशने का एक और मंच प्रदान करेगा। कम से कम भारत को तो यह आशा भी है कि सितंबर, 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच अच्छा तालमेल दिखने के बाद भारत और चीन के बीच अच्छे संबंधों की जो संभावना बनी थी और आतंकवाद पर अलग-अलग रवैये होने के कारण एवं परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश पर मतभेद होने के कारण जो संभावना पिछले वर्ष धूमिल हो गई थी, उसमें नई जान पड़ सकती है। दूसरी ओर मध्य एशियाई गणतंत्रों तथा अन्य पक्षों इस बात से संकोच करते रहे हैं कि दोनों नए सदस्य अपने पुराने विवाद तथा शत्रु भाव को एससीओ तक भी ले आएंगे। किंतु कुछ को यह भी लीगता है कि एससीओ की सदस्यता मिलने से दोनों कुछ शांत हो जाएंगे।
इसके अलावा इस बात की भी संभावना है कि रूस और चीन जैसी प्रमुख शक्तियां भी भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने को उद्यत हो सकती हैं। किंतु भारत ऐसे कदम का स्वागत नहीं करेगा क्योंकि इस मसले पर सरकार की नीति यही रही है कि भारत-पाकिस्तान समस्याओं को द्विपक्षीय तरीके से अर्थात् तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के बगैर सुलझाया जाए। पाकिस्तान द्विपक्षीय मसलों को प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से आगे लाने की अधिक कोशिश करेगा। पाकिस्तान की इस आदत को दूसरे सदस्यों द्वारा हतोत्साहित किए जाने की जरूरत है और एससीओ का अधिकार पत्र भी द्विपक्षीय समस्याओं को बहुपक्षीय मंच पर लाने की इजाजत नहीं देता।
एससीओ के तहत शीर्ष नेतृत्व और मंत्रियों की बैठकों से पता चलता है कि प्रधानमंत्री और राष्ट्राध्यक्ष से लेकर स्वास्थ्य मंत्रियों, विदेश मंत्रियों और गृह मंत्रियों तक की मुलाकातों के कारण भारत और पाकिस्तान के वरिष्ठ अधिकारियों को साल में कम से कम एक बार बात करने का मौका जरूर मिलेगा। इससे दोनों देशों को बात करने का एक और मंच मिलेगा। एससीओ के दौरान जुलाई, 2015 में भारत और पाकिस्तान द्वारा जारी किया गया उफा संयुक्त बयान सकारात्मक घटना थी। किंतु यह भी कहा जा सकता है कि पाकिस्तान द्विपक्षीय मसलों को यहां भी वैसे ही उठाएगा, जैसे अन्य बहुपक्षीय मंचों पर उठाता रहा है। दूसरी ओर अस्ताना शिखर सम्मेलन के दौरान इस बार दोनों पक्षों यानी भारत और पाकिस्तान की ओर से मुलाकात का कोई अनुरोध नहीं आया (जबकि उफा सम्मेलन में दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात हुई थी), जिसे दोनों देशों के बीच सर्द रिश्तों की बानगी माना जा सकता है। दिलचस्प है कि सम्मेलन के दौरान राष्ट्रपति और शी चिनफिंग और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की भी औपचारिक बैठक नहीं हुई। हालांकि शी और शरीफ तथा मोदी और शरीफ की कुछ अनौपचारिक मुलाकातें हुईं और उन्होंने एक दूसरे का अभिवादन भी किया।
किंतु भारत और चीन के संबंधों में हाल में आई खटास को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी की द्विपक्षीय बैठक को सफल कहा जा सकता है। दोनों पक्षों ने स्वीकारा कि मतभेद विवाद में नहीं बदलने चाहिए और यदि उन पर ठीक से काम किया जाए तो वे अवसरों में भी बदल सकते हैं। दोनों नेताओं ने आर्थिक सहयोग, व्यापार, निवेश तथा संपर्क के मुद्दों, औद्योगिक पार्कों की स्थापना, रेलवे में सहयोग पर भी चर्चा की। सुरक्षा तथा रक्षा पर भी बातचीत हुई, जिसमें आतंकवाद-रोधी सहयोग, सुरक्षा सहयोग एवं रक्षा आदान-प्रदान भी शामिल थे। एशियाई बुनियादी ढांचा निवेश बैंक और बीसीआईएम गलियारे पर भी चर्चा हुई। इस तरह भारत चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का विरोध बेशक करता है, वह संपर्क के सिद्धांत का विरोधी नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा कि दोनों पक्षों को ‘एक दूसरे के प्रमुख हितों का सम्मान’ करना चाहिए, जो चीन की प्रमुख परियोजना सीपीईसी को पाकिस्तान के कब्जे वाले भारतीय क्षेत्रों से गुजारे जाने पर भारत की आपत्ति का संकेत था। इस तरह एससीओ भारत और चीन के लिए ऐसा एक और मंच बन जाएगा, जहां वे निवेश और संपर्क से लेकर संयुक्त आतंकवाद-रोधी अभियानों जैसे व्यापक विषयों पर बहुपक्षीय और द्विपक्षीय बातचीत कर सकते हैं।
जहां तक मध्य एशियाई राष्ट्रों के साथ संबंधों का प्रश्न है तो भारत बेशक संबंध प्रगाढ़ करने के लिए उन्हें विस्तृत पड़ोस का हिस्सा और सामरिक एवं आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मानता है, लेकिन अभी तक इस संभावनाक का दोहन नहीं किया गया है। ये देश भी भारत को क्षेत्र में चल रहे शक्ति संघर्ष में हितकारी संतुलन-साधक मानते हैं। इसके अतिरिक्त भारत का मध्य एशिया पर पहले ही अच्छा खासा आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव है। एससीओ अर्थव्यवस्था, व्यापार, संपर्क एवं आतंकवाद-रोधी सहयोग जैसे उन मुद्दों को विस्तार देने का अच्छा मंच मुहैया कराएगा, जो इस क्षेत्र में भारत की नीति के प्रमुख उद्देश्य हैं। यह तरीका मध्य एशियाई देशों की विविध दिशाओं वाली नीतियों के अनुरूप भी है। जलविद्युत और ऊर्जा निर्यात के मार्ग बढ़ाने की मध्य एशिया की इच्छा आयात के रास्ते बढ़ाने के भारत के प्रयास से मेल खा सकती है। भारत महंगी पाइपलाइनों के जरिये कच्चे माल को क्षेत्र से बाहर भेजने के बजाय उत्पादन करने वाले संयंत्रों की स्थापना में निवेश करने का इच्छुक रहा है। एससीओ की सदस्यता इस क्षेत्र के गैस एवं तेल क्षेत्रों तक और अधिक पहुंच मुहैया करा सकती है।
भारत मध्य एशियाई देशों के साथ अपना संपर्क बढ़ाने का उत्सुक रहा है; जून, 2012 में आरंभ हुई ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया’ नीति के लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए वह ईरान और एससीओ सदस्यों का सहयोग मांगता रहा है। भारत के पास अब इस नीति के उद्देश्य पूरा करने का बेहतर मौका हो सकता है। मध्य एशियाई देशों के साथ संपर्क बेहतर करना भारत सरकार का पसंदीदा उद्देश्य रहा है। भारत, रूस और ईरान अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) के संस्थापक सदस्य भी हैं। इस गलियारे पर कुछ समय से काम चल रहा है और यह गलियारा भारत को ईरान से होते हुए मध्य एशिया से तथा उसके आगे रूस और यूरोप से जोड़ेगा। इसके अलावा भारत अशगाबात समझौते में शामिल होने की तैयारी भी कर रहा है, जिसे भारत सरकार ने पिछले साल मंजूरी दे दी थी। यह समझौता मध्य एशिया तथा पश्चिम एशिया में कजाकस्तान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ईरान के रास्ते फारस की खाड़ी और ओमान तक पहुंचने का रास्ता मुहैया कराता है। इससे मध्य एशिया तथा यूरेशिया में भारत का व्यापार सुगम होगा और यह आईएनएसटीसी पर आधारित रहेगा। रूस के सदस्य और ईरान के पर्यवेक्षक होने के कारण इस बात की संभावना है कि चीन और अन्य एससीओ सदस्यों से संपर्क परियोजनाओं एवं आईएनएसटीसी के विकास में सहयोग मिल सकता है।
पश्चिम एशिया और अफगानिस्तान में मौजूदा स्थिति के कारण आतंकवाद निरोध के क्षेत्र में भी सदस्यों के बीच सहयोग की अहमियत बहुत बढ़ गई है। पिछले कुछ महीनों में अफगानिस्तान, विशेषकर उत्तरी अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति कमजोर पड़ी है। इसके अलावा काबुल और अफगानिसतान के अन्य क्षेत्रों में तालिबान के हमलों की संख्या बढ़ी है। माना जा रहा है कि एससीओ देश इस महत्वपूर्ण देश में नीतियों को अधिक स्पष्टता और तालमेल प्रदान करेंगी क्योंकि क्षेत्रीय सुरक्षा पर इसके बहुत प्रभाव हैं। दूसरी ओर अफगानिस्तान में शांति एवं समाधान पर रूस, चीन और पाकिस्तान के रुख कुछ अलग हैं। तीनों तालिबान को राजनीतिक ताकत मानते हैं और उनके साथ सत्ता की साझेदारी के हिमायती हैं, लेकिन भारत और (वर्तमान अफगानिस्तान सरकार) उन्हें चरमपंथी मानती है, जो आईएसआईएस से भिन्न नहीं हैं। 1996 से 2001 तक सत्ता में रहते हुए तालिबान ने वही किया, जो आईएसआईएस पश्चिम एशिया में कर रहा है। एससीओ का मंच सदस्यों को अफगानिस्तान समेत क्षेत्रीय सुरक्षा के मसलों पर अपने रुख तय करने और उनमें तालमेल बिठाने का मौका देगा।
एससीओ के ताशकंद आधारित क्षेत्रीय आतंकवाद रोधी ढांचे (आसीटीएस) में भारत की भागीदारी से खुफिया सूचनाओं का आदान प्रदान बढ़ सकता है और आतंकवाद से लड़ने में भारत के लंबे अनुभव से अन्य देशों को भी आतंकवाद-रोधी रणनीतियां बनाने में मदद मिलेगी। एससीओ और संयुक्त राष्ट्र सचिवालयों ने भी अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ सहयोग पर ताशकंद में 2010 में एक संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे, जिसने दोनों संगठनों के बीच संवाद की नींव डाली। इस प्रकार आतंकवाद निरोध पर पारस्परिक आदान-प्रदान सभी पक्षों के लिए लाभदायक होगा।
एससीओ को यह मानकर ‘पूर्व का नाटो’ भी कहा गया है कि वह सैन्य समूह बन जाएगा। किंतु यदि एससीओ नाटो अथवा केंद्रीय सुरक्षा संधि संगठन (सीएसटीओ) की तरह सैन्य संगठन बनता है तो भारत उसका समर्थन नहीं करेगा। एससीओ नियमति रूप से संयुक्त सैन्य अभ्यास करता है किंतु उनका उद्देश्य आतंकवाद रोधी अभ्यास करना है, जिनमें पर्यवेक्षक देशों से पर्यवेक्षकों को आमंत्रित किया जाता है और सदस्यों से सेना तथा उपकरणों समेत हिस्सा लेने की अपेक्षा की जाती है। 2005 से ही शांति अभियान के झंडे तले एससीओ के संयुक्त आतंकवाद अभ्यास आयोजित किए गए हैं। ऐसा अंतिम अभ्यास “शांति अभियान-2016” किर्गिस्तान में हुआ था, जिसमें एससीओ के सदस्यों की सेनाओं ने हिस्सा लिया था। अब भारत और पाकिस्तान को भी ऐसे अभ्यासों में भागीदारी के लिए बुलाया जाएगा। भारत या पाकिस्तान में से किसी को इसमें दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि दोनों की सशस्त्र सेनाएं पहले संयुक्त राष्ट्र शांति रक्षा अभियान में हिस्सा ले चुकी हैं। इससे भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं को आपसी सहयोग का मौका मिलेगा।
कुल मिलाकर एससीओ की सदस्यता सकारात्मक घटना है और भारत सरकार को मंच पर सक्रिय रहकर इसका अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहिए। भारत को मध्य एशियाई देशों के साथ अपने आर्थिक रिश्ते भी मजबूत करने की जरूरत है क्योंकि अभी तक ये रिश्ते क्षमता से बहुत कमजोर रहे हैं। परियोजनाओं को तेजी से क्रियान्वित कर और कई मौजूदा संयुक्त परियोजनाओं में तेजी लाकर संपर्क की समस्या को भी दूर करने की जरूरत है। क्षेत्र में ऐसी संपर्क परियोजनाओं की संभावना भी तलाशी जानी चाहिए, जो एक दूसरे की पूरक हों।
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