जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने लगभग एक वर्ष पहले जब यह फैसला दिया कि राज्य को “संप्रभुता” प्राप्त है क्योंकि उसे यह दर्जा भारतीय संविधान के “अनुच्छेद 370 के अंतर्गत” दिया गया है तो पाकिस्तान के अखबार डॉन ने प्रसन्न होकर यह खबर चलाई। भारत में भी यह फैसला कश्मीर घाटी में अलगाववादियों के लिए और संभवतः मुख्यधारा के कुछ राजनेताओं के लिए भी खुशखबरी सरीखा था, जो ‘संप्रभुता’ के लिए चाशनी भरा ‘स्वायत्तता’ शब्द इस्तेमाल करने से कभी थकते नहीं। उच्च न्यायायल ये संकेत दिया कि इस प्रकार की संप्रभुता को चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 से वैधता मिली है। मात्र छह महीने पहले फारूक अब्दुल्ला और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला, जो दोनों ही राज्य के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं, के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस ने राज्य की 1953 से पूर्व वाली स्थिति बहाल करने की अपील वाला प्रस्ताव राज्य विधानसभा में रखा था। इस दर्जे के तहत राज्य पर उच्चतम न्यायालय, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक तथा चुनाव आयुक्त का कोई अधिकार नहीं रह जाता। अगर इतनी मूर्खता कम है तो 1953 से पहले की स्थिति में मुख्यमंत्री को एक बार फिर राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त करने की बात कही गई है। दूसरे शब्दों में यह संप्रभुता का ही एक रूप है।
नेशनल कॉन्फ्रेंस ने वास्तव में एक पुराना प्रस्ताव दोबारा पेश किया था, जिसे भारत सरकार 2000 में पूरी तरह “अस्वीकार्य” बताकर सिरे से खारिज कर चुकी थी क्योंकि दूसरी बातों के साथ इसमें स्वायत्तता की मांग भी की गई थी, जिसकी अनुमति भारतीय संविधान के अंतर्गत नहीं दी जा सकती थी। प्रस्ताव को फिर पेश करने के पीछे राजनीति ही थी क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस फिलहाल सत्ता से बाहर है और घाटी में कट्टरपंथियों का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है तथा राज्य में पीपुल्स डेमाक्रेटिक पार्टी तथा भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन वाली सरकार को शर्मिंदा करने की कोशिश भी कर रही है। लेकिन इसमें राजनीति से अधिक कुछ थाः यह मांग चिंतित करने वाली ऐसी मानसिकता की द्योतक है, जिसे दशकों पहले ही खत्म कर दिया जाना चाहिए था।
शुक्र है कि कश्मीर घाटी में समाज के उन वर्गों का उल्लास क्षणिक ही रहना था। पिछले शुक्रवार (16 दिसंबर, 2016) को सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय का फैसला खारिज कर दिया और उसे “पूरी तरह गलत” करार दिया। उसने कहा, “यह स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के पास संविधान के दायरे से बाहर लेशमात्र भी संप्रभुता नहीं है।” राज्य के पूर्ण एकीकरण के विरोधी संप्रभुता के इसी प्रभाव के सहारे थे। जो लोग मानते हैं कि वे “जम्मू-कश्मीर के नागरिक” हैं, भारत के नहीं, उन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने याद दिलाया कि राज्य की जनता के लिए ‘नागरिक’ शब्द का उल्लेख कहीं नहीं है। उच्चतम न्यायालय के दो सदस्यीय पीठ ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय को (और उन सभी को सुन रहे थे) सख्ती से याद दिलाया कि “जम्मू-कश्मीर के निवासी सबसे पहले भारत के नागरिक हैं।” ‘नागरिक’ के बजाय ‘निवासी’ शब्द पर ध्यान दीजिए - पहला शब्द राष्ट्र के लिए और दूसरा शब्द राज्य के लिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने अलगाववादियों और उनकी जैसी सोच वाले लोगों के दशकों पुराने एक और दावे की हवा निकाल दीः जम्मू-कश्मीर के संविधान की प्रधानता, जो उनके अनुसार उन्हें राज्य के ‘स्वायत्त’ चरित्र के हिसाब से उन्हें कुछ भी करने की इजाजत देता है। न्यायाधीशों ने कहा कि “राज्य की जनता सबसे पहले भारत के संविधान से संचालित होती है...” और राज्य का संविधान “भारतीय संविधान के बाद आता है।” जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के आदेश पर कड़ी आपत्ति जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय के पीठ ने कहा, “यह खेदजनक है कि (उच्च न्यायालय के) निर्णय के कई भाग राज्य को पूर्णतया संप्रभु शक्तियां देने की बात करते हैं। यह दोहराना आवश्यक है कि कानूनी तौर पर अयोग्य करार दिए गए वयस्कों के अलावा सभी वयस्क मतदाताओं के मत के आधार पर चुनी गई संविधान सभा द्वारा बनाए गए जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 3 स्पष्ट घोषणा करती है कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का एकीकृत अंग बना रहेगा और इस प्रावधान में संशोधन नहीं किया जा सकता।” विरोधाभास रोचक भी है और संप्रभुता के पैराकारों के लिए सबक भी है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया था कि अनुच्छेद 370 में संशोधन नहीं किया जा सकता, जो उसके हिसाब से संप्रभुता देने वाला प्रावधान है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राज्य के देश में एकीकरण के प्रावधान में संशोधन नहीं हो सकता।
यह तो निश्चित है कि राज्य के संविधान को जम्मू-कश्मीर के स्वायत्तशासी और संप्रभु दर्जे का प्रमाण बताने वाले उन प्रावधानों की बात बिल्कुल नहीं करेंगे, जिनके अंतर्गत भारत में राज्य के मिलन को अंतिम रूप दिया गया है और जो जम्मू-कश्मीर के उसी संविधान में मौजूद हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य के संबंध में व्यवस्था पर किसी के मन में संदेह नहीं छोड़ा है, जब उसने कहा कि उच्च न्यायालय ने अपनी सीमा से बाहर जाकर वह संप्रभुता देने का प्रयास किया, जो है ही नहीं।” वास्तव में राज्य के संविधान को महत्व देने के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि जम्मू-कश्मीर के संविधान का निर्माण राज्य तथा केंद्र के बीच संबंध को और भी परिभाषित करने के लिए की गई थी, लेकिन ऐसा जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हुए ही किया गया था। खतरनाक फैसले को दरकिनार करने वाले उच्चतम न्यायालय के निर्णय के साथ ही यह मामला खत्म हो जाना चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होगा क्योंकि अलगाववादी और मुख्यधारा की राजनीति के वे लोग, जिन्हें लगता है कि उनके विभाजनकारी एजेंडा की कोई सीमा ही नहीं है, इसी उम्मीद में हायतौबा करते रहेंगे कि शायद किसी दिन उनकी आस पूरी हो जाए और उन्हें जीत मिल जाए।
संयोग से जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय का फैसला गैर राजनीतिक मामले पर आया, जैसे 1973 के बहुचर्चित केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में आया था, जिसमें विवाद का कारण राज्य में सील किए गए एक धार्मिक मठ के भूमि अधिकार थे, लेकिन जिसमें भारतीय संविधान के मूलभूत ढांचागत सिद्धांत का प्रभुत्व परिभाषित कर दिया गया। 13 न्यायाधीशों के संविधान पीठ द्वारा दिया गया यह निर्णय ऐतिहासिक निर्णय बन गया, जिसमें बहुमत का यही विचार था कि संपत्ति के अधिकारों को सीमित करने संसद के अधिकार के अतिरिक्त संविधान के मूलभूत घटकों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। हालांकि फैसले (जिसमें सात न्यायाधीश पक्ष में थे और छह विपक्ष में) में स्वीकार किया गया कि संसद को संविधान के किसी भाग में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन उसने कहा कि ऐसा संशोधन “संविधान के मूलभूत रूप अथवा अनिवार्य विशेषताओं में परिवर्तन नहीं कर सकता।” यह अलग बात है कि फैसले के दो वर्ष बाद ही आपातकाल के साथ इस मूलभूत रूप को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। फिर भी वह फैसला चार दशक से भी अधिक समय तक भारतीय लोकतंत्र के काम आया है। उस निर्णय के कारण ही आज संविधान की मूलभूत संरचना के साथ खिलवाड़ करना लगभग असंभव हो गया है - और जम्मू-कश्मीर को किसी प्रकार की ‘संप्रभुता’ दिए बगैर भारतीय संघ में उसका पूर्णतया एकीकरण इसमें शामिल है।
जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय राज्य में वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण एवं पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित प्रवर्तन (सरफेसी) अधिनियम से जुड़े मामले की सुनवाई कर रहा था। अपने फैसले में उसने कहा कि राज्य विधानसभा को अपने स्थायी निवासियों (अथवा नागरिकों) के अधिकारों से संबंधित कानूनों के संदर्भ में “संप्रभु” विधायी अधिकार हैं। उच्च न्यायालय राज्य के एक कानून, संपत्ति हस्तांतरण कानून का उल्लेख कर रहा था, जिसका केंद्र के सरफेसी अधिनियम के साथ टकराव होता दिख रहा था। उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि राज्य का कानून सर्वोच्च है क्योंकि वह जम्मू-कश्मीर की ‘संप्रभु’ व्यवस्था का अंग है। मामले में पीड़ित पक्ष भारतीय स्टेट बैंक ने तब राहत पाने के लिए उच्चतम न्यायालय का रुख किया और पिछले शुक्रवार के इस आदेश से उसे राहत मिली।
भारतीय स्टेट बैंक की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 370 की बात नहीं की, जो स्वाभाविक भी था, जबकि कई लोग यह दलील देंगे कि ‘स्वायत्तता’ और ‘संप्रभुता’ से जुड़ी दिक्कतों की जड़ उसी प्रावधान में है तथा दूसरे लोग कहेंगे कि प्रावधान इसका ठीक उलटा काम करता हैः जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण में मदद करता है। न्यायालय के सामने आए मामले का उस विवादित अनुच्छेद से कुछ लेना-देना नहीं था, जिस पर राजनीति में हर कोई बहस करता रहा है। किंतु अनुच्छेद 370 विवादित ही है और शायद आज या कल उच्चतम न्यायालय इसकी वैधता अथवा जारी रहने अथवा दोनों पर कोई फैसला देगा।
वास्तव में मामला पहले ही अदालत में है। दो सदस्यीय पीठ अनुच्छेद 370 से संबंधित संविधान की अनुल्लंघनीयता अथवा अक्षुण्णता पर विचार करने को तैयार हो गया है। यह पहला मौका है, जब उच्चतम न्यायालय ने यह मसला स्वीकार किया है और सभी की नजरें फैसले पर टिकी हैं। लेकिन कानूनी प्रक्रिया अपना समय लेगी क्योंकि इसमें कई जटिलताएं होती हैं। यह सब तब शुरू हुआ, जब जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से संबंधित सरकारी कर्मचारियों की प्रोन्नति में आरक्षण को खारिज कर दिया। आरक्षण के कारण 2005 से कई कर्मचारियों को प्रोन्नति प्राप्त हो गई थी। उच्चतम न्यायालय ने पिछले वर्ष निर्णय दिया कि प्रोन्नति में आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता और उसने 2004 के जम्मू-कश्मीर आरक्षण अधिनियम की धारा 6 को “द्वेषजनक तथा असंवैधानिक” करार देते हुए रद्द कर दिया। पीड़ित कर्मचारियों ने उच्चतम न्यायालय का रुख किया, जिसने उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी।
उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 370 की अनुल्लंघनीयता की पड़ताल करने का काम अपने हाथ में इसीलिए लिया क्योंकि आरक्षण को रद्द करते हुए उच्च न्यायालय ने इसी प्रावधान पर टिप्पणी की थी। उच्च न्यायालय ने कहा था कि “अनुच्छेद 370 को ‘अस्थायी प्रावधान’ बताए जाने के बावजूद यह संविधान का स्थायी प्रावधान है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसे रद्द नहीं किया जा सकता, वापस नहीं लिया जा सकता या संशोधित भी नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुच्छेद 370 के प्रावधान 3 के अंतर्गत दी गई व्यवस्था अब नहीं है। इसके अलावा अनुच्छेद 368 (संसद की संशोधन करने की शक्ति) को इस संबंध में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुच्छेद 370 इससे नियंत्रित नहीं होता...”
यहां विवाद के दो मसले हैं। पहला यह है कि उच्च न्यायालय ने संविधान के बेहद जटिल मसले की व्याख्या करने का काम अनावश्यक रूप से अपने जिम्मे ले लिया, जिसे संसद अथवा सर्वोच्च न्यायालय अथवा दोनों की बुद्धिमत्ता पर छोड़ दिया जाना चाहिए था। दूसरा मसला यह है कि अनुच्छेद 370 की अनुल्लंघनीयता पर जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के खंडपीठ को किसी भी सूरत में फैसला नहीं करना था। इसलिए स्पष्ट है कि उच्च न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर कदम रखा था। आदेश पर रोक लगाते हुए उच्चतम न्यायालय केंद्र सरकार को कार्यवाही में एक पक्ष बनाने के लिए सहमत हो गया है। इससे अनुच्छेद 370 की अनुल्लंघनीयता पर निश्चित आदेश आने की नई संभावना उत्पन्न हो गई है।
रोचक बात है कि अनुच्छेद 370 पर प्रश्न खड़ा करने के लिए केशवानंद भारती मामले का सहारा लिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करने वालों ने कहा है कि प्रावधान “भारतीय संविधान के मूलभूत प्रारूप का अंग भी नहीं है” और इसीलिए इसे अनुच्छेद 368 के अंतर्गत प्रदत्त संशोधन के अधिकार के प्रयोग से बरी नहीं किया जा सकता।
किंतु क्या अनुच्छेद 370 को संशोधित (अथवा रद्द) किया जा सकता है? सर्वोच्च न्यायालय अब अनुल्लंघनीयता तय करेगा, लेकिन संभावनाओं को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। अनुच्छेद का प्रावधान 3 स्पष्ट रूप से कहता है कि भारत के राष्ट्रपति सार्वजनिक अधिसूचना के जरिये घोषित कर सकते हैं कि अनुच्छेद 370 रद्द हो गया है किंतु ऐसा वह जम्मू-कश्मीर की नई संविधान सभा की सिफारिश पर ही कर सकते हैं। दूसरी ओर संसद अनुच्छेद 368 के तहत प्रदत्त अधिकार का प्रयोग करते हुए इस प्रावधान में संशोधन कर सकती है। इसके लिए संविधान संशोधन करना होगा, जो राज्य सभा में सरकार के कम संख्याबल को देखते हुए शायद संभव नहीं होगा। संख्या की समस्या से निपटने के लिए संसद का संयुक्त सत्र बुलाने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि धन विधेयक की ही तरह संविधान संशोधन भी संयुक्त सत्र के जरिये नहीं किए जा सकते। यह भी स्पष्ट है कि विपक्ष सरकार को संसदीय अधिनियम के जरिये 370 में संशोधन तक नहीं करने देगा, उसे रद्द करना तो बहुत दूर की बात है।
अनुच्छेद 370 की राजनीति उसकी वैधता से कम जटिल नहीं है। मई 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके मंत्री जितेंद्र सिंह ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के जारी रखे जाने की संभावित समीक्षा का समर्थन कर खलबली मचा दी। पहले भी, वास्तव में नया कार्यभार ग्रहण करने के दिन ही सिंह ने कहा कि सरकार ने अनुच्छेद 370 पर पुनर्विचार की प्रक्रिया आरंभ कर दी है। बाद में जब मीडिया ने इस मसले पर उनके हवाले से खबरें चलाईं, जहां उन्हें इस मामले में प्रधानमंत्री मोदी का नाम लेते हुए बताया गया तो राज्य मंत्री ने सफाई दी कि उनके बयान को गलत तरीके से पेश किया गया है। किंतु वह इस बात पर कायम रहे कि अनुच्छेद 370 की समीक्षा भाजपा के घोषणापत्र और एजेंडा का हिस्सा है।
कांग्रेस पार्टी का रुख एकदम विपरीत है। उदाहरण के लिए उसके नेता मनीष तिवारी ने सिंह के बयान का जवाब देते हुए दावा किया कि इस प्रावधान को जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सहमति से ही बदला जा सकता है और ऐसी संविधान सभा का “दोबारा गठन” नहीं किया जा सकता। कांग्रेस यह भी मानती है कि भाजपा राज्य को सांप्रदायिक आधार पर बांटने का प्रयास कर (यह दिखाते हुए कि एक धार्मिक वर्ग संशोधन के पक्ष में है और दूसरा उसके विरोध में है) ‘ओछी राजनीति’ करने की कोशिश कर रही थी। किंतु कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसे दल इस बात का पक्का जवाब नहीं दे पाए हैं कि अनुच्छेद 370 ने इतने दशकों में राज्य का एकीकरण भारतीय संघ में करने में किस तरह मदद की है। कई लोग इसके विपरीत सोचते हैं। एक और मसला हैः क्या अनुच्छेद 370, जिसे स्पष्ट रूप से ‘अस्थायी’ बताया गया है, इतना पवित्र हो गया है कि इसमें कभी संशोधन किया ही नहीं जा सकता?
सत्तारूढ़ भाजपा के लिए अनुच्छेद 370 समस्या का विषय रहा है, लेकिन वह इस प्रावधान को यूं ही समाप्त नहीं कर सकती। भारतीय जन संघ (भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती पार्टी) के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर के भारत में बिना शर्त (अनुच्छेद 370 जैसी शर्त) पूर्ण एकीकरण के लिए अपनी जान दे दी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए अलग संविधान और अलग झंडे का पुरजोर विरोध किया था। और इसीलिए भाजपा राज्य की गठबंधन सरकार में उस पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की सहयोगी है, जो अनुच्छेद 370 को जारी रखे जाने की समर्थक है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी अनुच्छेद 370 को संशोधित (अथवा रद्द) करने के लक्ष्य के प्रति संकल्पबद्ध है। यह मानना भोलापन होगा कि केंद्र सरकार अभी इस मसले पर सक्रिय कदम उठाएगी। चूंकि उच्चतम न्यायालय पहले ही इस अनुच्छेद की अनुल्लंघनीयता पर सुनवाई कर रहा है, इसलिए केंद्र को कुछ और करने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा केंद्र को इस मसले पर उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपने विचार रखन के पर्याप्त अवसर मिलेंगे क्योंकि उसे भी इस मामले में पक्ष बनाया गया है। वास्तव में सभी संबंधित पक्षों को इस मामले में इंतजार करना होगा।
(लेखक द पायोनियर में ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
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