पुलिस सुधारों के लिए पुलिस की मनोवृत्ति सुधारना आवश्यक है
कर्नल शिवदान सिंह

देश में जहां कहीं भी जघन्य या गम्भीर अपराध होते हैं तो संबंधित राज्य पुलिस तथा मीडिया रटी-रटायी पुलिसबल में संख्या की कमी को मुख्य कारण बताकर पुलिसिंग में कोताही से पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं। परन्तु देखने में आया है कि देश के कुछ हिस्सों जैसे दिल्ली, मुम्बई तथा चंडीगड इत्यादि में पुलिसिंग के आदर्श मानकों से भी ज्यादा पुलिस बल के होते हुए भी देश के अपराधों के औसत से कहीं ज्यादा अपराध पाये गये हैं। निर्भया जैसे सामूहिक बलात्कार दिल्ली एवं मुम्बई में आम देखे जा सकते हैं। इन्हीं दोनों महानगरों में पार्लियामैंट तथा 26/11 मुम्बई हमला पाकिस्तान के आतंकवादियों के स्थानीय मदद से किये। देश का सबसे ज्यादा संगठित अपराध जैसे नशीली दवाइयों की तस्करी, हफ्ता वसूली, सुपारी हत्या तथा स्त्रियों के प्रति तरह तरह के अपराध मुम्बई में ही देखने में आते हैं। एक देशव्यापी सर्वेक्षण में पाया गया है कि देश के 53 बड़े महानगरों में 2015 में कुल 670000 तरह तरह के अपराध पुलिस द्वारा पंजीकृत किये गये जिनमें कुल संख्या का 25 प्रतिशत केवल देश की राजधानी दिल्ली में ही थे इसमें स्त्रियों के विरूद्ध सबसे ज्यादा अपराध भी दिल्ली में ही पाये गये।

पुलिस संख्या बल के लिए राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मानक क्रमशः राष्ट्रीय पुलिस रिसर्च संस्थान तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा तय किये गये हैं। पुलिस रिसर्च संस्थान के अनुसार देश में 558 की आबादी के लिए एक पुलिसमैन की तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार 450 के लिए एक पुलिसमैन का मानक तय किया गया है। हालांकि देश के अधिकतर राज्यों में आदर्श मानकों के अनुसार पुलिसबल उपलबध नहीं है। परन्तु दिल्ली में 253 की आबादी के लिए एक पुलिसमैन के हिसाब से पुलिस बल उपलबध है तथा इसके अलावा अपराध नियंत्रण में आधुनिक तकनीक जैसे जगह जगह कैमरे तथा अन्य उपकरण भी यहां पर देश में सबसे ज्यादा उपलबध हैं फिर भी यहां अपराध इतने ज्याद क्यों। इसका विशेषज्ञों की राय में एक ही उत्तर है कि हमारी पुलिस का सामंती रवैया तथा नैतिक मुल्यों का घोर पतन इस बढ़ते अपराध तथा इन अपराधों के कारण समाज में बिखराव के मुख्य कारण हैं। महानगरों की मलिन बस्तियों में सरेआम अवैध शराब तथा जुआघरों का संचालन क्षेत्रीय पुलिस की अधिकतर पूर्ण जानकारी तथा हफ्ता वसूली के कारण चलते हैं। अभी कुछ समय पहले दिल्ली पुलिस का एक सब इंस्पैक्टर स्वयं जुआघर तथा वेश्यावृत्ति का धंधा चला रहा था जिसकी उसके ही साथियों ने हत्या कर दी और इसी प्रकार पुलिस के काफी कर्मी इसी प्रकार के धंधों में सीधे या परोक्षरूप से लिप्त हैं। इसी प्रकार देश के ज्यादातर महानगरों जैसे मुम्बई इत्यादि का भी यही हाल है। दाऊद इब्राहिम को अपराध का बादशाह बनाने में मुम्बई पुलिस का रौब सर्वाधिक माना जा रहा है। इन हालातों से यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार संक्रामक बीमारी का इलाज करते समय चिकित्सक स्वयं भी उसी बीमारी से कभी कभी ग्रसित हो जाता है। उसी प्रकार हमारी पुलिस भी अपराध नियंत्रण करते करते स्वयं इससे ग्रसित हो गयी है। पुलिस की इस स्थिति के लिए बहुत से कारण गिनाये जाते हैं जैसे पूर्ण तथा सामंती 1861 का पुलिस एक्ट जो अंग्रेजों ने देश को गुलाम रखने के लिए लागू किया था। इसी कानून के दुरूपयोग से सत्ताधारी राजनैतिक पार्टी पुलिस को अपनी व्यक्तिगत जागीर समझकर इसका उपयोग सत्ता प्राप्ति तथा सत्ता में बने रहने के लिए करते हैं। इसके अलावा समाज में फैले भृष्टाचार एवं अन्य बुराइयों को नजदीक से देखने के कारण पुलिसकर्मियों के व्यवहार में गिरावट देखी जाती है।

समय समय पर देश की सरकारों ने पुलिस के इन हालातों को ठीक करने के लिए पुलिस सुधारों के लिए आयोग गठित किये और इनकी शुरूआत अंग्रेजों ने स्वयं 1890 में पहला आयोग गठित करके की। इसी प्रकार दूसरा आयोग 1902 में गठित हुआ। इस आयोग के चैयरमैन ए.एच.एल. फ्रेजर जो स्वयं अंग्रेज थे ने भारतीय पुलिस के बारे में बताया कि पुलिस बल कार्य क्षमता एवं दक्षता से कोसों दूर है। इसका प्रशिक्षण तथा रखरखाव त्रुटिपूर्ण है तथा इसके नियंत्रण तथा संचालन में खामियां हैं और भारत का जनमानस इसको भ्रष्ट तथा तानाशाही मानते हुए इस पर विश्वास नहीं करता। ये शब्द स्वयं एक अंग्रेज अधिकारी के थे और देश का दुर्भाग्य है कि पूरे 115 साल बीतने तथा देश के आजाद होने के बाद भी पुलिस व्यवस्था में 1902 के हालातों से भी बदतर स्थिति है। इस व्यवस्था के कारण फैले असंतोष के फलस्वरूप ही देश में तरह तरह के आतंकी समूह जैसे नक्सलपंथी तथा अन्य पैदा हुए जिन्होंने अपने आतंक से देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाकर प्रभावित जनसंख्या को पलायन के लिए मजबूर किया। जनता के धन को घोटालों के द्वारा लूटा गया और पुलिस मूकदर्शक बनने के साथ साथ कहीं कहीं पर इसमें सहयोग करती दिखी। इसके उदाहरण हैं उ0प्र0 में यादव सिंह के भृष्टाचार वाला प्रकरण। 2012 में उ0प्र0 पुलिस की सीबीआई डी ने यादव सिंह को क्लीनचिट देते हुए आरोपमुक्त कर दिया था। इसके अलावा उ0प्र0 के ग्रामीण स्वास्थ्य योजना घोटाले में उ0प्र0 पुलिस अभी तक तीन तीन वरिष्ठ चिकित्सकों जो सीएमओ पद पर थे की हत्याओं के कातिलों को नहीं पकड़ सकी, जबकि इनमें एक हत्या अति सुरक्षित लखनऊ जेल में हुई थी। इस सबसे सिद्ध होता है कि देश की पुलिस बल को जहां संख्या तथा अन्य संसाधनों की आवश्यकता है उसके साथ साथ इनकी मनोवृत्ति को अनुशासित तथा भृष्टाचार मुक्त करना अत्यंत आवश्यक है। जैसाकि अक्सर देखने में आता है गम्भीर अपराध या आतंकी हमला हो रहा था और दूसरी तरफ पुलिसकर्मी भृष्टाचार तथा वसूली में व्यस्त थे। अक्सर सुनने में आता है संकरी सड़कों पर लम्बे लम्बे जाम केवल इसलिए लगते हैं क्योंकि वहां पर पुलिस वाहनों से वसूली कर रही होती है।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने 2006 में 7 सूत्रीय पुलिस सुधार के निर्देश दिये थे जिनके अनुसार प्रत्येक राज्य में राज्य पुलिस आयोग का गठन, राज्य पुलिस प्रमुख की चयन प्रणाली, पुलिस अधिकारियों के महत्वपूर्ण पदों पर बने रहने की समय सीमा का निर्धारण, अपराध असंधान तथा कानून व्यवस्था को अलग करना, राज्य तथा जिला स्तर पर पुलिस कर्मियों के विरूद्ध शिकायतों के निपटारे के लिए पुलिस बोर्डों का गठन तथा केन्द्र सरकार के स्तर पर एक राष्ट्रीय रक्षा आयोग जो केन्द्रीय पुलिस बलों के प्रमुखों के चयन के साथ उन पर निगरानी रखे आदि निर्देश दिए हैं जिनमें दुर्भाग्य से कहीं पर भी पुलिस के प्रशिक्षण या उनके आपराधिक संक्रमण से उन्हें समय समय पर मुक्त कराने पर कोई विचार या निर्देश नहीं है। जबकि सिद्ध हो गया है कि देश का अधिकतर पुलिस बल अपनी पुलिस सेवा का निर्वहन उस भावना से नहीं कर रहा है जैसी उनसे अपेक्षा की जाती है। अब जहां देश में भृष्टाचार मिटाने के लिए नोटबंदी जैसा बड़ा कदम उठाया गया है। वहीं पर भृष्टाचार तथा अपराधों को मिटाने तथा नियंत्रण करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाली पुलिस को भी सुधारने की आवश्यकता है। यदि देश की पुलिस नहीं सुधरी तो अन्य सब प्रयास एक समय तक ही परिणाम देंगे उसके बाद भृष्टाचार एवं अपराधों की वहीं स्थिति हो जायेगी। हालांकि कानून व्यवस्था तथा पुलिस राज्यों का विषय है परन्तु फिर भी केन्द्र सरकार उच्चतम न्यायालय के निर्देशों तथा इनमें आवश्यकतानुसार पुलिस प्रशिक्षण इत्यादि को जोड़कर एक आदर्श पुलिस एक्ट माडल जारी कर सकती है और राज्य सरकारों को इसको लागू करने की सलाह दे सकती है। क्योंकि इस समय हर राज्य में पुलिस नियंत्रण के लिए अलग अलग कानून है। प्रधानमंत्री मोदी ने 30 नवम्बर 2014 को गुवाहाटी में राज्यों के पुलिस प्रमुखों के सम्मेलन में देश में स्मार्ट पुलिस स्थापना की कल्पना की थी। जो कानून को संवेदनशीलता तथा सख्ती से लागू कर सकें, आधुनिक प्रणाली से सज्जित होकर गतिशील हो, सजग तथा विश्वसनीय होने के साथ देश के प्रति उत्तरदायी भी हों उनकी इस कल्पना को वास्तविकता में बदलने के लिए देश की पुलिस प्रणाली में आमूलचूल पादरर्शी परिवर्तन करने होंगे। पुलिस के स्वरूप को भारतीय सेना की तरह अराजनैतिक बनाना होगा इसके लिए पुलिस को सत्ताधारी दलों के नियंत्रण से निकालकर सिविल सोसाइटी की निगरानी में देना होगा। इस प्रकार हम पुलिस को 1902 वाली स्थिति से बाहर निकाल सकते हैं। जिसमें फ्रेजर ने भारतीय पुलिस को नकारा, भृष्ट तथा अविश्वसनीय कहा था। अब देश में एक नई आशा जगी है और अब हमें देश की पुलिस प्रणाली को सुधारकर देश की आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करना चाहिए। अन्यथा देश के दुश्मन मुम्बई, पार्लियामैंट तथा पठानकोट जैसे हमले तथा बड़े बड़े घोटालेबाज राष्ट्र की सम्पदा को लूटलूट कर कालेधन के रूप में विदेशी बैंकों में जमा करते रहेंगे।

संदर्भ-

  1. 1902 में ए.एच.एल. फ्रेजर के द्वारा पुलिस सुधार आयोग की रिपोर्ट
  2. उच्चतम न्यायालय के पुलिस सुधार पर दिए निर्देश।
  3. 2014 में प्रधानमंत्री मोदी का पुलिस प्रमुख सम्मेलन में भाषण।

Published Date: 6th January 2017

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