भारतीय राजनीति की दुनिया जटिल है। यदि इसे सही और गलत की दृष्टि से देखा जाए तो गलतियों की गुंजाइश ही नहीं होगी बल्कि इसे समझने में बड़ी भूल होना भी तय है। जिसे हम युगों से सच समझते आ रहे हैं, जब वह भी भ्रम से परे नहीं होता तो यह मानना नासमझी ही होगी कि राजनीतिक घटनाक्रम इतने सरल हो सकते हैं। महात्मा गांधी के ‘सत्य के साथ प्रयोग’ सामाजिक-राजनीतिक-नैतिक थे। वर्तमान राजनीति अलग किस्म के सच के साथ प्रयोग कर रही है और वे इस समय की जरूरत तथा सुविधा से निकले हैं। यदि कोई नैतिकता के प्राचीर पर बैठने की मूर्खता नहीं करता है तो आज की राजनीति के पागलपन में भी एक तरीका दिखता है। जरूरत है उस क्षेत्र को पहचानने की, जहां झोल हो सकता है। इससे हमें इस देश की राजनीति की दिशा और उसके पीछे के उद्देश्य समझने में मदद मिलेगी। अदालत में व्यक्ति का गुनाह या बेगुनाही न्यायाधीशों के सामने मौजूद सबूतों के आधार पर तय की जाती है, सच या झूठ महसूस कर नहीं। इसी तरह राजनीति में राजनेता या पार्टी के फैसलों को आज या कल में होने वाले असली फायदे या नुकसान देखकर सही या गलत ठहराया जाता है।
इस दलील को पिछले हफ्ते की संभवतः सबसे विस्फोटक राजनीतिक घटना - बिहार की उठापटक - से जोड़कर देखें। इस पर आई प्रतिक्रियाएं एकदम अतिवादी रहीं, जिनमें नीतीश कुमार की जोरदार निंदा से लेकर मुख्यमंत्री की चौतरफा प्रशंसा तक सब कुछ शामिल था। नीतीश कुमार ने जब लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ अपना गठबंधन तोड़ा, भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में लौटे तो दोनों प्रकार की प्रतिक्रिया देने वालों ने पहले से तय रास्ता पकड़ा। गठबंधन टूटने का विरोध करने वालों ने नीतीश कुमार पर अवसरवादी होने, 2015 के जनमत के साथ दगा करने, ‘सांप्रदायिक शक्तियों’ का साथ देने, धर्मनिरपेक्षता से मुंह मोड़ने का आरोप लगाया है। समर्थन करने वालों ने अस्वाभाविक गठबंधन से बाहर आने, आखिर सच बोलने, भ्रष्टाचार का मुकाबला करने का साहस दिखानो, गठबंधन के बड़े सहयोगी की धमकियों के आगे घुटने नहीं टेकने के लिए उन्हें बधाई दी। पहले खेमे के लिए नीतीश के भीतर शैतान घुस गया है; दूसरे खेमे के लिए शैतान से छुटकारा पा लिया गया है। दोनों खेमे केवल अपने भीतर नैतिकता होने के दावे भी ठोक रहे हैं।
अगर आदर्शवाद पर चलकर किसी निर्विवाद नतीजे पर पहुंचा जाए तो दोनों पक्ष जीत का दावा कर लेते, लेकिन दोनों में से किसी को भी जीत नहीं मिली होती। दूसरे शब्दों में घटनाक्रमों को स्पष्ट करने के लिए ‘विचारधारा’ और ‘नैतिकता’ का प्रयोग उतना ही प्रभावी होता, जितना प्रभावी बहुमंजिला इमारत में लगी आग को बुझाने के लिए बाल्टी भर पानी होता। इन हालात को समझने के लिए हमें चाणक्य नीति का सहारा लेना पड़ेगा। गूगल पर उनका एक उद्धरण मिलता है, जो मौजूदा स्थिति में खास तौर पर प्रासंगिक है। उन्होंने कहा थाः “कोई भी काम शुरू करने से पहले खुद से तीन प्रश्न पूछिएः मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं? इसका नतीजा क्या हो सकता है? क्या मुझे कामयाबी मिलेगी?” यदि कोई दावा करता है कि चाणक्य ने ऐसा कभी नहीं कहा था तो कोई बात नहीं - ज्ञान तो ज्ञान ही होता है। इसके अलावा इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि ज्ञान की यह बात किसी भी चतुर राजनेता पर लागू होती है। और नीतीश कुमार निश्चित रूप से सबसे चतुर राजनेताओं में शामिल हैं।
उनके राजनीतिक जीवन की गहराई से पड़ताल न करें तो भी यह बात मानना गलत नहीं होगा कि पिछले तीन दशकों से लेकर आज तक अपनी राजनीतिक शख्सियत गढ़ते समय ये प्रश्न उनके दिमाग में लगातार रहे होंगे। सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों में और अस्सी के दशक में वह लालू प्रसाद के साथ पीछे चलते रहे क्योंकि लालू करिश्माई थे, जबकि वह नौसिखिये थे और मेहनत करना चाहते थे। पहले प्रश्न का उत्तर इसी से मिल जाता है। वह कद बढ़ाना चाहते थे और एक दिन लालू प्रसाद की छाया से बाहर आना चाहते थे। तीसरे प्रश्न का उत्तर नीतीश कुमार के सामने एकदम स्पष्ट था। लालू प्रसाद की खराब छवि होने के कारण नीतीश कुमार को देर-सवेर उनकी जगह मिलनी ही थी। नीतीश कुमार ने सार्वजनिक जीवन में एकदम साफ-सुथरे रहकर और स्पष्टवादी तथा परिपक्व सार्वजनिक व्यक्ति की छवि गढ़कर स्वयं को उस दिन के लिए तैयार किया। नीतीश कुमार ने शायद अपना राजनीतिक जीवन उस बारीकी से नहीं संवारा होगा, जितनी बारीकी के साथ आज पीछे मुड़कर देखने पर हम टिप्पणी कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने किसी योजना के बगैर काम तो निश्चित रूप से नहीं किया था। पहला मौका मिलते ही उन्होंने बिना किसी पछतावे के लालू प्रसाद का साथ छोड़ दिया और कुछ वरिष्ठ तथा कम वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर समता पार्टी में आ गए, जो बाद में जनता दल (यूनाइटेड) बन गई। अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध और नब्बे के दशक के अपने उस्ताद लालू प्रसाद के साथ नीतीश कुमार की ‘दगाबाजी’ को नैतिकता की कसौटी पर कसना बेकार है क्योंकि इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा। मतदाता निश्चित रूप से वैचारिक धारणाओं के मोहपाश में नहीं बंधे थे, नीतीश कुमार की दगाबाजी से नाराज भी नहीं थे और ‘पीठ में छुरा घोंपे जाने’ से लालू प्रसाद को हुई तकलीफ देखकर दुखी भी नहीं थे। नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर 15 वर्ष से भी अधिक समय तक बिहार पर शासन किया - और हर तरह से सुशासन दिया। वह कंेद्रीय मंत्री भी बने। उनके आलोचक उन पर अपनी आत्मा ‘सांप्रदायिक ताकतों’ के हाथों बेचने का आरोप लगाते रहे, लेकिन लोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी - और उसके दो कारण थे। पहला, नीतीश कुमार ने व्यक्तिगत तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं किया था, जिससे उन पर सांप्रदायिकता का दाग लगता। और दूसरा, भाजपा के साथ मिलकर उन्होंने अच्छा शासन किया।
2013 के उत्तरार्द्ध में नीतीश कुमार के लिए राजनीति में नया मोड़ आया या यह कहना ज्यादा सही होगा कि वह अतीत की ओर मुड़ गए। भाजपा ने जैसे ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना प्रत्याशी बनाया, वैसे ही नीतीश कुमार को उसके साथ वैचारिक दिक्कतें हो गईं। उन्होंने साझेदारी तोड़ दी, लालू प्रसाद की पार्टी के साथ हाथ मिला लिया और बिहार में सत्ता में बरकरार रहे। अलगाव के बाद पहले विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार ने दागी लालू प्रसाद (चारा घोटाला आदि) और उतनी ही दागदार कांग्रेस (2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल, कोयला ब्लॉक आवंटन में अनियमितताएं आदि) के साथ हाथ मिला लिया और नए महागठबंधन ने भाजपा को धूल चटाते हुए जोरदार जीत दर्ज की। उस समय कई समीक्षकों ने नीतीश कुमार के भ्रष्टाचार विरोधी रुख और उनकी अवसरवादिता आदि पर सवाल खड़े किए थे। लेकिन सफलता से बढ़कर कुछ नहीं होता - और जब लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पिटने के साल भर बाद ही चुनाव में भारी बहुमत हासिल हुआ तो इस सफलता ने बाकी सब धो दिया। उस समय भी किसी चुनावी पर्यवेक्षक ने विचारधारा या नैतिकता की बात नहीं की।
अब आज की बात करते हैं। नीतीश कुमार पर पहला आरोप यह है कि उन्होंने भाजपा नीत राजग में वापस जाकर अवसरवादिता दिखाई है। इस आरोप को साबित करना मुश्किल है। उनकी सरकार पर कोई खतरा नहीं था - अगर वह लालू प्रसाद और उनके परिजनों, जिनमें से दो कैबिनेट मंत्री थे, की संदिग्ध गतिविधियों को नजरअंदाज कर देते तो बिल्कुल नहीं था। न ही उनके मुख्यमंत्री पद को वास्तव में चुनौती मिल रही थी। इसीलिए उन्हें बस इतना करना था कि लालू प्रसाद और उनका खेमा जैसे चाहता, सब कुछ वैसे ही होने देते और अपना कार्यकाल पूरा कर लेते। यूं भी अगर नीतीश कुमार के आलोचक ‘अवसरवादिता’ की बात करने पर आमादा हैं तो राजद और कांग्रेस को भी अपना-अपना रुख साफ करना होगा। राजद आरंभ से ही जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के कांग्रेस विरोधी समाजवादी एजेंडा पर चलती रही। कांग्रेस उस जातिवादी राजनीति के विरोध का दावा करती है, जिसका प्रतिनिधित्व लालू प्रसाद करते हैं। फिर भी दोनों आज साथ-साथ हैं।
दूसरा आरोप यह है कि उन्होंने 2015 में महागठबंधन के पक्ष में आए जनादेश के साथ धोखा किया है। यह सच है कि जनादेश जदयू-राजद-कांग्रेस के शासन के लिए था, लेकिन यह विधिसम्मत शासन के लिए था, गठबंधन के एक साझेदार पर भ्रष्टाचार के आरोपों की अनदेखी करने के लिए नहीं था। लालू प्रसाद के साथ नीतीश कुमार दबा हुआ महसूस कर रहे थे, खासकर इसलिए क्योंकि राजद के मुखिया जब-तब यह कहना नहीं भूलते थे कि नीतीश कुमार आज जहां भी हैं, उनकी दरियादिली की वजह से ही हैं। वह बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ रहे थे और केंद्रीय जांच एजेंसियां लालू परिवार के खिलाफ भ्रष्टाचार के जिन आरोपों की जांच कर रही हैं, वे आरोप उनके काम आ गए। इसके अलावा जनादेश के साथ धोखे का वैचारिक प्रलाप खोखला है - नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ भी तो छोड़ा था और नए सिरे से चुनावों के बगैर ही लालू प्रसाद के साथ सत्ता में बैठे रहे थे। उस समय राजद को बिल्कुल नहीं लगा था कि नीतीश कुमार ने जदयू-भाजपा गठबंधन को मिले जनादेश के साथ ‘धोखा’ किया है।
इस घटनाक्रम से चिढ़े हुए राजद प्रमुख ‘भ्रष्टाचार’ और ‘जातिवाद’ को ‘सांप्रदायिकता’ के बरअक्स रखने की बचकानी कोशिश कर रहे हैं। लालू प्रसाद ही नहीं कांग्रेस और वाम दल भी सांप्रदायिकता को इन सबसे बड़ी बुराई मानते हैं। यहीं पर वैचारिक मूर्खता सामने आ रही है, जिसके हिसाब से जब तक आप ‘सांप्रदायिक’ तत्वों से लड़ते रहेंगे आपको भ्रष्टाचारी या जातिवादी होना भी ठीक माना जाएगा। इस प्रकार ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘सांप्रदायिकता’, ‘अवसरवादिता’, ‘भ्रष्टाचार’, ‘जातिवाद’ आदि ऐसे जुमले बनकर रह गए हैं, जिनका इस्तेमाल तमाम वर्ग अपनी सुविधा के अनुसार करते रहते हैं। इस तरह शब्दों के जाल से मुक्त होने के बाद इस बात से धुंध छंट जाती है कि नीतीश कुमार ने जो किया, वह क्यों किया और तस्वीर साफ हो जाती है। हमें यथार्थ के बारे में सोचना होगा, नैतिकता के बारे में नहीं। 15 वर्ष तक बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा की जोड़ी रही। उनमें तालमेल था, एक दूसरे के प्रति सम्मान था और भरोसे से भरी समझ थी। 2013 के उत्तरार्द्ध में जब गठबंधन टूटा तो उसके पीछे प्रशासन की समस्या नहीं थी बल्कि अचानक ‘विचारधारा’ और ‘नैतिकता’ की बातें खड़ी हो गई थीं। जाहिर है, इसे नाकाम होना ही था! यूं भी अपराधी से हाथ मिलाने में कौन सी नैतिकता थी। और जब पिछले महीने एक बार फिर भाजपा-जदयू गठबंधन हुआ तो उसमें भी नैतिकता और विचारधारा जैसा कुछ नहीं था।
मामले को दूसरे नजरिये से बेहतर समझा जा सकता है। नीतीश कुमार दूसरे तरीके से भी यही कर सकते थेः वह लालू प्रसाद के दागी बेटे तेजस्वी यादव को बर्खास्त कर सकते थे। उसके बाद राजद समर्थन वापस ले लेती; सरकार गिर जाती; और तब भाजपा समर्थन देती तािा नीतीश कुमार की सरकार को बचा लेती। मुख्यमंत्री ने वैसा नहीं किया। उसके बजाय उन्होंने खुद इस्तीफा दे दिया और स्वयं को ऐसे व्यक्ति के तौर पर पेश किया, जो सिद्धांतों के लिए कुर्सी छोड़ देता है। इस्तीफा देने और निकाले जाने में फर्क है। यह तरकीब नीतीश कुमार के काम आई और भाजपा के भी।
लेकिन राजनीतिक बिहार तक ही सीमित नहीं है और न ही राजनीतिक के इन धुंधले पक्षों की समझ केवल इस राज्य को है। इसे दूसरी जगहों पर भी आजमाया जा रहा है। इस वर्ष नवंबर में होने वाले चुनावों से पहले गुजरात में भी यही हुआ। राज्यसभा के अहम चुनावों से कुछ ही दिन पहले कांग्रेस के आधा दर्जन विधायक अचानक टूटकर भाजपा के खेमे में आ गए। डरी हुई कांग्रेस अपने बाकी विधायकों को बचाकर रखने के लिए हांककर कर्नाटक ले गई। भाजपा पर विपक्षी विधायकों को तोड़ने के लिए पैसा खिलाने का आरोप लगाया गया है। एक बार फिर नैतिकता और विचारधारा की बातें होने लगी हैं। लेकिन ये प्रश्न पूछे जाने चाहिएः कांग्रेस अपने लोगों को एकजुट क्यों नहीं रख पा रही है? क्योंकि पार्टी में राज्य नेतृत्व और आलाकमान के खिलाफ असंतोष है। इसका नैतिकता से कोई लेनादेना नहीं है बल्कि इसकी वजह सर्वोच्च स्तर पर नेतृत्व की विफलता है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल राज्यसभा में चुने जाएं या नहीं चुने जाएं, कांग्रेस के खेमे में दरार सबके सामने आ गई है। पिछले महीनों में कांग्रेस असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और गोवा में नाकाम रही है और अपनी नाकामी छिपाने के लिए उसने नैतिकता और विचारधारा का सहारा लिया। यह तरकीब भी अब कारगर नहीं रही है। नए जमाने का मतदाता ‘विचारधारा’ या ‘वाद’ के मोहपाश में नहीं है, वह नतीजे चाहता है।
मैकियावेली की अर्थपूर्ण टिप्पणी को न भूलें: “राजनीति का नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं होता।” प्रख्यात लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे की यह बात भी उतनी ही सही हैः “नैतिकता की बात करें तो मैं केवल इतना जानता हूं कि जो आपको सही लगे, वही नैतिक है और जो खराब लगे, वह अनैतिक।” राजनीति में और गठबंधन के दौर में खास तौर पर भारतीय राजनीति में नैतिकता का ढोल पीटते रहने से हमें घटनाक्रमों को बिल्कुल भी नहीं समझ पाएंगे।
(लेखक द पायनियर में ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार तथा लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
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