हालिया चुनाव – कांग्रेस को कैसे मिली पंजाब में जीत
Rajesh Singh

हाल ही में जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, उनमें से चार में सरकार बनाने में नाकाम रहने वाली कांग्रेस को खुशी मनाने का मौका केवल पंजाब में मिला। पार्टी ने राज्य में केवल विजय हासिल नहीं की बल्कि 117 सदस्यों वाले सदन में अच्छा बहुमत भी हासिल किया और चंडीगढ़ में कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। यह जीत उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में करारी हार से कांग्रेस को मिली शर्मिंदगी तो दूर नहीं कर पाई लेकिन कम से कम यह सुनिश्चित हो गया कि एक के बाद एक क्षेत्र गंवा रही कांग्रेस के हाथ में कम से कम एक महत्वपूर्ण राज्य तो आ गया। पंजाब के अलावा कांग्रेस राजनीतिक रूप से एक अन्य महत्वपूर्ण राज्य है, जहां कांग्रेस की सरकार है।

लेकिन कांग्रेस में पंजाब यह सिलसिला तोड़ने में सफल कैसे हो गई? एक महत्वपूर्ण कारण है कैप्टन अमरिंदर सिंह का नेतृत्व। राज्य में पार्टी पर उनका पूरा नियंत्रण था और प्रत्याशियों के चयन तथा प्रचार रणनीति से जुड़े बड़े निर्णय उन्होंने ही लिए। कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर की न के बराबर भूमिका थी। किशोर का उत्तर प्रदेश में पूरा वर्चस्व रहा, उन्होंने वरिष्ठ नेताओं को अनदेखा किया और हर ओर भ्रम फैला दिया। लेकिन पंजाब में उन्हें ही किनारे कर दिया गया। किशोर को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इस उम्मीद के साथ लाए थे कि किशोर बिहार का अपना जादू दोहराएंगे, जहां उन्होंने विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के महागठबंधन की जीत का ताना-बाना बुना था। कैप्टन अमरिंदर सिंह अड़ गए और किशोर को उतनी छूट नहीं दी, जितनी वह मांग रहे थे। कांग्रेस आलाकमान खामोश रही। पार्टी नेतृत्व जानता था कि उनकी बात नहीं टालना ही बेहतर है। उनके कद के किसी व्यक्ति को पार्टी खो नहीं सकती थी।

चुनाव से कुछ महीने पहले कैप्टन सिंह ने धमकी दी थी कि यदि पार्टी की राज्य इकाई उन्हें उनके तरीके से नहीं चलाने दी गई तो वह कांग्रेस छोड़ देंगे और अपनी पार्टी बना लेंगे। हाल ही में आई आत्मकथा ‘कैप्टन अमरिंद सिंहः द पीपुल्स महाराजा’ में लेखक खुशवंत सिंह (प्रख्यात टिप्पणीकार एवं लेखक खुशवंत सिंह नहीं, जिनका अब निधन हो चुका है) लिखते हैं कि 2015 के उत्तरार्द्ध में कैप्टन प्रताप सिंह बाजवा को राज्य पार्टी अध्यक्ष के पद से हटवाना और खुद उस पद पर बैठना चाहते थे। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी इसके लिए तैयार थीं, लेकिन राहुल गांधी नहीं चाहते थे। बाजवा कांग्रेस उपाध्यक्ष की पसंद थे। जब कैप्टन के सभी प्रयास विफल हो गए और बाजवा ने सार्वजनिक रूप से उनसे झगड़ना जारी रखा तो उन्होंने पार्टी से रिश्ते तोड़ लेने का निर्णय किया। तब राहुल गांधी ने उनसे मुलाकात की, जहां आत्मकथा के अनुसार कांग्रेस उपाध्यक्ष ने पूछा कि क्या कैप्टन पार्टी छोड़ने पर विचार कर रहे हैं। कैप्टन ने कहा, “जो आपने सुना है, एकदम सही है।”

उसके बाद उन्होंने बताया कि उन्हें सत्तारूढ़ शिरोमणि अकाली दल को किनारे करने की उनकी मुहिम में आगे नहीं बढ़ने दिया जा रहा है और यह भी कहा कि अकाली दल के नेता राज्य को बर्बाद कर रहे हैं। पुस्तक के अनुसार उन्होंने कहा, “अगर मैं आपके लिए कारगर नहीं हूं तो मुझे विकल्प ढूंढना पड़ेगा। मैं पंजाब में रहता हूं... और अगर आपके पास मेरे लिए कोई योजना नहीं है तो मुझे अपना रास्ता खुद तलाशना होगा।” जब राहुल गांधी ने उनसे कहा कि ऐसा फैसला केवल पार्टी के लिए बल्कि उनके लिए भी खराब होगा तो कैप्टन ने दोटूक जवाब दिया, “तो होने दीजिए।” कैप्टन अमरिंदर सिंह की ही चली; इस मुलाकात के एक महीने बाद सोनिया के हस्तक्षेप पर बाजवा ने इस्तीफा दे दिया।

संभव है कि लोकसभा चुनावों में कैप्टन सिंह ने जब अमृतसर से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अरुण जेटली को हराया तो राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस नेतृत्व को लगने लगा कि उन्होंने कैप्टन को पंजाब की राजनीति से बाहर कर दिया है। अगर ऐसा था तो वे गलत थे क्योंकि कैप्टन राज्य में डटे रहे। उनका समीकरण सोनिया गांधी के साथ तो बहुत अच्छा था, लेकिन राहुल गांधी के साथ नहीं। पुस्तक के अनुसार “अचानक उन्हें लगा कि गांधी परिवार उन्हें तवज्जो नहीं दे रहा है।” पुस्तक में 10, जनपथ पर बंद कमरे में हुई एक बैठक का जिक्र है, “जब कांग्रेस उपाध्यक्ष ने वैसा सम्मान नहीं दिया, जैसा अमरिंदर सिंह जैसे वरिष्ठ नेता को मिलना चाहिए था।” एक समय उनके समर्थकों ने भाजपा के साथ जुड़ने पर भी विचार किया, लेकिन वह प्रस्ताव परवान नहीं चढ़ पाया। तब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को टक्कर देने के लिए अपनी पार्टी बनाने का फैसला किया।

आत्मकथा तो हाल ही में आई है, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने लगभग एक वर्ष पहले ही एक टेलीविजन पत्रकार से एक साक्षात्कार में कहा था कि वह कांग्रेस छोड़ने ही वाले हैं और अपनी अलग पार्टी शुरू करने वाले हैं। उन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों तक संदेश पहुंचा दिया कि यह उनका अंतिम विधानसभा चुनाव होगा और वह पंजाब को बादल के शासन से ‘बचाना’ चाहते हैं।

अतीत में जाना यह जानने के लिए जरूरी है कि समूचा घटनाक्रम राज्य में कांग्रेस पर कैप्टन अमरिंदर सिंह के दबदबे के लिहाज से कितना महत्वपूर्ण था। उसके बाद से वह न केवल पार्टी के निर्विवाद नेता बन गए बल्कि उसके भविष्य की जिम्मेदारी भी उन्हीं के ऊपर आ गई। उसके बाद और विशेषकर चुनाव के कारण वह नाकामी का ठीकरा आलाकमान पर नहीं फोड़ सकते थे। दूसरा पहलू यह था कि सफलता का श्रेय पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को देने की बाध्यता भी उन पर नहीं थी क्योंकि सफलता भी उनकी अपनी होती। जीत के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आलाकमान को सामान्य शुभकामनाएं दीं, लेकिन सभी जानते थे कि यह औपचारिक आभार है, विशेषकर राहुल गांधी की सराहना करते समय। संभवतः बात को आगे नहीं बढ़ाने की इच्छा के कारण ही उन्होंने प्रशांत किशोर का भी आभार व्यक्त किया और उदारता दिखाते हुए दावा किया कि किशोर ने अच्छा काम किया!

कांग्रेस की जीत में अमरिंदर सिंह की तो अहम भूमिका थी ही, अकाली दल-भाजपा सरकार के विरोध सत्ता विरोधी भावना ने भी इसमें बड़ा योगदान किया। यह गठबंधन लगातार दो बार से सत्ता में था और वास्तव में लोग ऊबने लगे थे। कुछ विशेषज्ञों ने ही 2012 में गठबंधन के सत्ता में लौटने का अनुमान लगाया था और उनमें से अधिकतर को लगा था कि उस बार कांग्रेस की जीत होगी। जब सभी प्रतिकूल परिस्थितियों को धता बताते हुए अकाली दल-भाजपा ने 2012 में लगातार दूसरी बार जीत हासिल की तो वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी इसे “बेहद चकराने वाला” नतीजा ही बता पाए। गठबंधन ने 117 में से 58 सीटें जीती थीं और कांग्रेस को 46 मिली थीं। नतीजों को वरिष्ठ अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व पर मुहर माना गया, लेकिन जीत के पीछे असली ताकत उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल को माना गया। 2012 में आश्चर्यजनक जीत के कई कारण थे और विडंबना है कि उनमें से अधिकतर में कांग्रेस का योगदान थाः बागी उम्मीदवार; उम्मीदवारों का खराब चयन; समुदायों में बंटवारा (कांग्रेस ने डेरा सच्चा सौदा का समर्थन पाने पर ध्यान दिया, लेकिन वह रविदासिया समुदाय पर प्रभाव रखने वाले डेरा बल्लान को अपने खेमे में नहीं ला पाई); अनुसूचित जातियों की चिंताएं दूर करने में विफलता (बादल की आटा-दाल योजना काम कर गई)। कांग्रेस के लिए रही सही कसर तब पूरी हो गई, जब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने सभी विधानसभा क्षेत्रों में अपने प्रत्याशी उतार दिए और इस तरह कांग्रेस के अनुसूचित जाति वाले वोट बंट गए।

किंतु 2017 में ये सभी बातें अप्रासंगिक हो गईं। सबसे पहले, कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आंतरिक असंतोष को प्रभावशाली तरीके से काबू कर लिया। कांग्रेस के कुछ बागी प्रत्याशी ही नहीं बल्कि वे भी वापस बुला लिए गए, जो छोड़कर जा चुके थे। इसके अलावा ताकतवर और किसी वक्त के अकाली नेता जैसे मनप्रीत सिंह बादल कांग्रेस में आ गए। वह 1995 से 2012 तक राज्य विधानसभा में रहे थे और अकाली दल-भाजपा सरकार में वित्त मंत्री थे। बादल परिवार से मतभेद के बाद उन्हें अकाली दल से निकाल दिया गया, जिसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी बनाकर 2012 के चुनाव लड़े थे। वे जिन दो सीटों से खड़े हुए, उनसे हार गए। करीब एक वर्ष पहले उन्होंने अपनी पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब का विलय कांग्रेस में कर लिया।

कैप्टन अमरिंदर सिंह ने असंतुष्टों को ही नहीं मनाया बल्कि पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू को कांग्रेसी खेमे में लाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सिद्धू ने कांग्रेस में आने से पहले खूब दांवपेच खेले थे, कई महीनों तक आम आदमी पार्टी से पेच लड़ाते रहे और अंत में उनका मोहभंग हो गया। कोई नहीं जानता कि सिद्धू ने कांग्रेस क्यों चुनी, लेकिन खबरें यही थीं कि उन्हें उप मुख्यमंत्री पद दिए जाने का वायदा किया गया था। वह उन्हें नहीं मिला है - अभी तक तो नहीं - लेकिन वह मंत्री जरूर बन गए हैं। इससे भी कैप्टन के दबदबे का पता चलता है।

कांग्रेस के पक्ष में दूसरी बात यह धारणा थी कि अकाली दल में ताकतवर तत्व नशे के कारोबार में लिप्त हैं और कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस धारणा का भरपूर फायदा उठाया। नशे की समस्या गैर अकाली पार्टियों के लिए प्रमुख चुनावी मुद्दा बन गया थी। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ध्यान दिलाया कि प्रवर्तन निदेशालय नशे के कारोबार से कथित संबंधों के सिलसिले में तत्कालीन राजस्व मंत्री विक्रम मजीठिया समेत वरिष्ठ अकाली नेताओं से पूछताछ कर चुका है। अकाली नेता सरवन सिंह फिल्लौर को अपने बेटे से पूछताछ के बाद मंत्री पद छोड़ना पड़ा। राहुल गांधी का यह बयान तो महज चुनावी जुमला रहा होगा कि बादल खेमे ने पंजाब को नशे के अड्डे में बदल दिया है और “राज्य के 70 प्रतिशत से अधिक युवा नशे से प्रभावित हैं”, लेकिन यह सच है कि नशे की समस्या असली है और पंजाब को खाए जा रही है। इसके कारोबार में अकालियों की संलिप्तता के आरोप मतदाताओं के दिमाग में गूंजते रहे।

पंजाब नशा निर्भरता सर्वेक्षण के अनुसार 2002 के आरंभ तक पंजाब में नशे की लत मुख्यतया अफीम तक ही सीमित थी। 2007 तक 90 प्रतिशत नशेड़ी नशीली दवाओं का और 50 प्रतिशत हेरोइन का इस्तेमाल कर रहे थे। 2015 तक हेरोइन का नशा 90 प्रतिशत के खतरनाक स्तर तक पहुंच गया था। इस रुझान को विशेषज्ञों की राय के संदर्भ में रखा जाना चाहिए, जिनका कहना है कि अफीम का नशा करने वाले 90 प्रतिशत से अधिक व्यक्तियों को व्यसन संबंधी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता, लेकिन हेरोइन के नशेड़ियों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। दूसरे शब्दों में हेरोइन का इस्तेमाल बढ़ने के साथ पंजाब में नशे की समस्या बढ़कर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई थी। एक मत यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों में अफीम की खेती पर अंकुश लगाने वाली सरकारी नीतियों ने हेरोइन को नशे के बाजार में छा जाने का मौका दे दिया। इसके अलावा पाकिस्तान भी वह ठिकाना है, जहां से ज्यादातर अवैध नशीले पदार्थ पंजाब में आते हैं।

कांग्रेस की शानदार जीत का कारण आम आदमी पार्टी (आप) का बदतर प्रदर्शन रहा। उसके नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी समूची राजनीतिक ख्याति पंजाब चुनाव की तैयारी में झोक दी थी। उन्हें तीन कारणों से बहुत अधिक उम्मीद थींः पहला, लोकसभा में उनके चारों सांसद पंजाब से ही आए थे; दूसरा, शिरोमणि अकाली दल की अलोकप्रियता; और तीसरी, वह आजमाई हुई और ‘नाकाम रही’ कांग्रेस तथा अकाली दल का ‘नया’ विकल्प दे रहे थे। आप बुरी तरह असफल रही और पराजित हुए अकाली दल से कुछ ही सीटें ज्यादा पाकर उसने कांग्रेस के लिए पूरा मैदान छोड़ दिया। आप नाकाम क्यों रही? - वह 100 सीटों की बात कर रही थी, लेकिन उसे केवल 20 सीटें मिलीं। पहला कारण, वह असरदार स्थानीय नेतृत्व सामने नहीं रख पाई। एक समय तो आप के कुछ नेताओं ने पंजाब के मुख्यमंत्री पद के लिए केजरीवाल तक का नाम उछाल दिया था, जिससे मतदाता भ्रमित हो गए। उन्हें वही नहीं, उनकी पार्टी भी ‘बाहरी’ लगने लगी। बाद में विवादास्पद सांसद भगवंत सिंह मान को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने से भी नकारात्मकता में मामूली कमी ही आई। न तो केजरीवाल और न ही मान कद तथा अनुभव के मामले में कैप्टन के आसपास ठहरते थे। दूसरा कारण, चुनाव से पहले उसके कुछ नेता कुछ ऐसी घटनाओं में लिप्त हो गए, जिनसे सिखों की भावनाओं को चोट पहुंची। आप के चिह्न झाड़ू को एक पवित्र चित्र के ऊपर छापने से स्थानीय जनता नाराज हो गई। पार्टी ने इस चूक के लिए बार-बार माफी मांगी, लेकिन नुकसान तो हो ही चुका था। तीसरा कारण, आम आदमी पार्टी की रणनीति शीर्ष से नीचे तक जाने की थी (जो नरेंद्र मोदी के शक्तिशाली व्यक्तित्व के कारण भाजपा के लिए तो राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर काम करती है, लेकिन आप जिसे दोहरा नहीं पाई)। केजरीवाल को पंजाब का तारणहार बताने की रणनीति भी नहीं चल पाई क्योंकि मोदी के उलट उनके पास शासन चलाने की कोई उपलब्धि नहीं थी, जिसे वह गर्व के साथ दिखाते।

चौथा कारण यह था कि आप के पास अपने अभियान को अंत तक चलाते रहने के लिए कांग्रेस जैसी सांगठनिक ताकत नहीं थी। वास्तव में आप का अभियान आरंभ में ही चरम पर पहुंच गया। घर-घर जाने, नशे की समस्या पर आक्रामक रवैये आदि के बल पर वह चुनाव से पहले शुरुआती महीनों में ही चर्चा में आ गई। लेकिन उसके बाद पार्टी के पास न तो धन बचा और न ही विचार। इसके बाद उसे केवल जुमलेबाजी और व्यक्तिगत हमलों का ही सहारा लेना पड़ा। यही वह अहम समय था, जब कांग्रेस के अभियान ने जोर पकड़ा और पार्टी अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे निकल गई। पांचवां कारण आप की साफ-सुथरा होने की स्वयंभू छवि पर लगा दाग था। भ्रष्टाचार के आरोपों में पार्टी से निकाले गए उसके एक नेता सुच्चा सिंह छोटेपुर ने दावा किया कि दिल्ली और पंजाब की आम आदमी पार्टी टिकट बेच रही थी। दावे के पीछे सच कुछ भी हो, इस मामले ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाली पार्टी की आप की छवि पर दाग लगा दिया।

और अंत में कांग्रेस की जीत का पांचवां कारण था नवजोत सिंह सिद्धू को अपने पाले में लाने में आप का नाकाम रहना। आम आदमी पार्टी में उनका आना निश्चित हो चुका था, केवल औपचारिकता बाकी रह गई थी। लेकिन उसके बाद मामला बिगड़ गया कयोंकि आप ने सिद्धू को वे अधिकार देने से इनकार कर दिया, जो वह पंजाब में मांग रहे थे। संभव है कि दोनों पक्षों ने तगड़ा मोलभाव किया हो और दोनों ही अपने कुछ वायदों से पीछे हटे हों। लेकिन जनता की धारणा मायने रखती और सिद्धू ने आप का खेल उस समय और बिगाड़ दिया, जब उन्होंने पार्टी पर बरसते हुए उसके नेताओं पर गैर भरोसेमंद होने और दिल्ली से ही पंजाब को चलाने की इच्छा रखने का आरोप लगाया। सिद्धू के रूप में आप को जाना-पहचाना चेहरा ही नहीं मिलता बल्कि ऐसा नेता भी मिलता जो पंजाब में ताकतवर जाट समुदाय से है।

पंजाब में अगले विधानसभा चुनाव पांच वर्ष बाद 2022 में हैं। लेकिन उससे पहले एक और लड़ाई है और वह है 2019 का लोकसभा चुनाव। पंजाब में लोकसभा की 13 सीट हैं। 2014 में आप को चार, कांग्रेस को तीन और अकाली दल-भाजपा को बाकी छह सीटें मिली थीं। क्या अकाली दल-भाजपा गठबंधन फिर लौटेगा? क्या आम आदमी पार्टी अपनी चार सीटों से आगे बढ़ पाएगी? या कांग्रेस 2017 की विधानसभा सीट से मिले उत्साह का इस्तेमाल अपनी दोनों प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने में करेगी? योगी के नेतृत्व वाले उत्तर प्रदेश की तरह बहुत कुछ अभी से 2019 के लोकसभा चुनाव तक मिलने वाले दो वर्षों में कैप्टन की सरकार के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा। काम करने और विकास करने पर जोर होना चाहिए क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में अब यही नए प्रतिमान हो गए हैं। कैप्टन यह बात भली भांति जानते हैं और इसी कारण अकाली-भाजपा गठबंधन तथा आप, बशर्ते उस समय तक वह अपनी प्रासंगिकता बरकरार रख सके, के लिए चुनौती और भी कड़ी हो सकती है।

(लेखक द पायोनियर में ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: http://www.newindianexpress.com

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