मीडिया क्यों नहीं ले पा रहा मोदी युग की थाह
Dr A Surya Prakash

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी भाजपा की शानदार जीत और तीन अन्य राज्यों में उसके प्रभावशाली प्रदर्शन ने टिप्पणीकारों तथा चुनाव विश्लेषकों को हैरत में डाल दिया है। इस अविस्मरणीय चुनावी समर का जो परिणाम आया, उसमें और अधिकतर राजनीतिक पंडितों के गहन विश्लेषण एवं चुनाव विश्लेषकों के चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों तथा मतदान उपरांत सर्वेक्षणों (एक्जिट पोल) में बिल्कुल भी समानता नहीं थी। ऐसा लगा मानो मुख्यधारा का मीडिया - प्रिंट और टेलीविजन दोनों - दूर बैठकर चुनावी घटनाक्रम को निष्पक्ष दृष्टि से देखने की क्षमता ही खो चुका है।

इसका एक प्रमुख कारण है टिप्पणीकारों के मन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भाजपा के प्रति गहराई तक बैठा पूर्वग्रह अथवा घृणा और हरेक बात को तथाकथित धर्मनिरपेक्षता एवं हिंदू सांप्रदायिकता के चश्मे से देखने वाली घिसी-पिटी आदत छोड़ने की अनिच्छा। नेहरूवादियों तथा मार्क्सवादी मित्रों के द्वारा फैलाई जाने वाली इस कहानी के अनुसार भारतीय राजनीति में नेहरूवादी अच्छे होते हैं; नेहरूवादियों की पीठ पर सवार रहने वाले मार्क्सवादी भी उनके साथ रहने के कारण अच्छे होते हैं। राष्ट्रवादी विचारों वाले लोग बुरे होते हैं और क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों को सहन किया जाना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर उनका उपयोग किया जाना चाहिए। नेहरूवादी एवं मार्क्सवादी दर्शन पिछले सत्तर वर्षों में मीडिया, विशेषकर अंग्रेजी मीडिया, शिक्षा जगत एवं अफसरशाही में गहरी पैठ बना चुके हैं और उन्होंने सुनिश्चित किया है कि अधिकतर संवाद उनकी बताई लीक पर ही हो। इसीलिए नेहरूवादी अथवा वामपंथी विचारों का होना चलन में है। जो लोग इन दोनों दर्शनों के अनुरूप नहीं चलते हैं, उनसे अछूत की तरह व्यवहार किया जाता है और संपादकीय विभागों के उच्च विभागों से दूर ही रखा जाता है।

2017 के उत्तर प्रदेश की ओर लौटें। चूंकि इन दोनों दर्शनों के वर्चस्व वाला मीडिया हर बात को इसी चश्मे से देखता है, इसलिए वे चुनावी समर को “धर्मनिरपेक्ष” ताकतों और हिंदू सांप्रदायिकों के बीच महायुद्ध बताने वाली इस कहानी से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते! परिणाम से पता चल ही गया कि वे बुरी तरह गलत साबित हुए क्योंकि लोगों ने उनकी कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को “धर्मनिरपेक्ष” नहीं माना और न ही उन्होंने श्री मोदी और उनकी पार्टी को हिंदू सांप्रदायिक माना! वास्तव में यह कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसी चुकी हुई ताकतों - जो लोगों के बीच पुराने भारत के विभाजनकारी, घिसे-पिटे नारे लगा रही थीं - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच की लड़ाई थी, जिसमें मोदी युवाओं और आकांक्षा से भरे लोगों को एक नया भारत देने की बात कर रहे थे, जहां निष्पक्षता ही मूल मंत्र होगी और हर किसी को समान अवसर मिलेंगे।

विमुद्रीकरण के मामले में भी मीडिया पूरी तरह गलत साबित हुआ था। घंटों तक लंबी कतारों में खड़ा रहने वाला निर्धनतम तबका इस मामले में श्री मोदी की मुहिम के साथ था, लेकिन मीडिया के प्रभावशाली खेमे कभी यह देख ही नहीं पाए। मीडिया को यह भी नहीं दिखा कि उज्ज्वला (गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों की महिलाओं को रसोई गैस के कनेक्शन मुफ्त में उपलब्ध कराने की योजना), गरीबों के लिए जन धन योजना तथा कम प्रीमियम वाली बीमा योजना जैसी नीतियों के निष्पक्ष एवं ईमानदारी भरे क्रियान्वयन के जरिये पिछले दो वर्षों में श्री मोदी ने चुपचाप देश भर के गरीबों के दिलों और घरों में जगह बना ली है। इस मामले में उनकी और इंदिरा गांधी की तुलना की जा सकती है। उन्होंने भी गरीबों को प्रभावित किया था और गरीबी हटाने की बातें खूब की थीं, लेकिन कथनी को करनी में बदलने के लिए उनके पास कोई योजना नहीं थी। तुलना यहीं खत्म हो जानी चाहिए क्योंकि अपने विचारों को क्रियान्वित करने की श्री मोदी की क्षमता एकदम अलग है। श्रीमती गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और फिजूल के ऋण मेलों में जनता का धन लुटाया, जहां ऋण अक्सर कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ही मिलते थे। उनके उलट श्री मोदी ने पूरे 25 करोड़ गरीब नागरिकों के बैंक खाते खुलवा डाले।

मीडिया यह भी नहीं समझ पाया कि श्री मोदी ने इस चुनाव में सांप्रदायिकता का दांव बिल्कुल नहीं खेला। उन्होंने केवल विकासपरक नीतियों की बात की, जिन्हें हर जाति, समुदाय, धर्म और क्षेत्र के स्त्री-पुरुषों ने हाथोहाथ लिया। चूंकि मीडिया चुनावी राजनीति में सांप्रदायिक अथवा जातीय संघर्ष की खुराक का आदी हो गया है, इसीलिए उसने यह बात उसके गले ही नहीं उतरी कि प्रधानमंत्री सर्वाधिक धर्मनिरपेक्ष एजेंडा यानी ‘विकास’ पर वोट मांग रहे हैं! मीडिया यही मानता था कि विकास में वोट बटोरने लायक ‘आकर्षण’ नहीं है! श्री मोदी ने पार्टी मुख्यालय में एक सभा को संबोधित करते समय इसका जिक्र यह कहते हुए किया था कि मीडिया यह देखने में नाकाम रहा है कि भाजपा ने केवल विकास के एजेंडा पर चलकर इतनी भारी जीत दर्ज की है।

परिणाम आने के बाद जब श्री मोदी ने पार्टी से कहा कि सरकार बनती हैं बहुमत से, लेकिन चलती हैं सर्व मत से; सरकार सब की होती हैं - जिन्होंने वोट दिया, उनकी भी होती हैं; जिन्होंने वोट नहीं दिया, उनकी भी हैं” तो एकाएक वह शासन नीति की नई ऊंचाइयों पर पहुंच गए। क्या श्री मोदी से पहले आपने किसी भी राष्ट्रीय नेता को चुनावी राजनीति और प्रशासन के बीच इस तरह का स्पष्ट अंतर करते देखा है?

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और मणिपुर से तथा हाल ही में पंचायत एवं निगम चुनाव कराने वाले ओडिशा और महाराष्ट्र से कई संदेश मिल रहे हैं। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि लोग श्री मोदी को ऐसा निर्णायक नेता मानते हैं, जो कठोर निर्णय ले सकता है और मजबूत एवं एकजुट भारत का पुनर्निर्माण कर सकता है। वे देश में बढ़ रहे अलगाववादी रुझानों से और भारत की एकता तथा अखंडता को कमजोर करने का प्रयास करने वालों को कांग्रेस एवं वामपंथसी राजनीतिक तत्वों से मिल रहे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन से चिंता हो रही है। नई दिल्ली और पश्चिम बंगाल में विश्वविद्यालय परिसरों में, जहां वामपंथ समर्थित छात्रों को “भारत को टुकड़े टुकड़े करेंगे” के नारे लगाते सुना जाता है, में हो रही अजीब घटनाओं से औसत भारतीय चिंतित है। इसके अलावा वह यह समझ ही नहीं पा रहा कि कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के नेता कश्मीरी आतंकियों और अलगाववादी नारे लगाने वालों का समर्थन कैसे कर सकते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों का बेशर्मी भरा तुष्टिकरण और कई क्षेत्रीय एवं जाति आधारित पार्टियों की बेहद खतरनाक और विभाजनकारी राजनीति भी चिंता की बात है।

अंत में देश अभी तक उस अस्थिर गठबंधन से उबर नहीं सका है, जिसका नेतृत्व श्री मनमोहन सिंह ने दस वर्ष तक किया और जिसने देश को कमजोर बना दिया तथा प्रशासन की हमारी क्षमताओं पर गंभीर शंकाएं खड़ी कर दीं। कुल मिलाकर तीन दशकों के बाद पूरे देश में कठोर निर्णय लेने और देश को एकजुट रखने की क्षमता से भरे मजबूत नेता की अगुआई वाली सुदृढ़, बेहद महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पार्टी के पक्ष में वातावरण तैयार हो रहा है। यहां अस्थिर गठबंधनों, जातियों की राजनीति करने वाली पार्टियों और विभाजनकारी ताकतों को प्रोत्साहन देने का खतरनाक खेल कर रही दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों जैसी पार्टियों के खिलाफ माहौल बन गया है। और इन सबको ठीक कौन कर सकता है? श्री मोदी, और कौन!

(लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

Image Source: https://thewire.in

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