यह साफ नजर आ रहा है कि जजों की नियुक्ति के मामले पर केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच का टकराव जल्दी खत्म नहीं होने वाला है। जब से सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएनसी) की वैधता को अवैध ठहराया है तब से दोनों के बीच का टकराव और बढ़ गया है। सरकार उस समय बहुत क्रुद्ध हुई जब यूपीए सरकार के कार्यकाल में शुरू किये गए और एनडीए सरकार द्वारा आगे बढ़ाए गए प्रस्ताव को संसद ने संविधान (99वां संशोधन) बिल के रूप में पास करके राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का रास्ता साफ किया और कोर्ट के इस फैसले से यह सारी मेहनत बेकार चली गई। लेकिन सरकार के सामने इस कड़वी गोली को निगलने और जजों के चयन के लिए जिम्मेदार कॉलेजियम (जिसमें न्यायधीश भी शामिल हैं) सिस्टम की कार्यप्रणाली को बेहतर बनाने की प्रक्रिया के लिए सुझाव देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। अदालत ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग द्वारा प्रतिस्थापित किए जाने वाले कॉलेजियम सिस्टम को फिर से बहाल कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे कायम रखने के अक्टूबर-2015 के ऐतिहासिक फैसले के समय से ही केंद्र सरकार नियुक्ति के लिए भेजी गई जजों की सूची को मंजूरी देने के मामले को लटका रही थी। अगस्त के दूसरे सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर केंद्र सरकार ने कॉलेजियम द्वारा राय जानने के लिए भेजी गई जजों के नामों की एक सूची पर तत्परता नहीं दिखाई तो अदालत इस मामले में निर्देश जारी करेगी।
तीन सदस्यीय पीठ ने सरकार से कहा था कि इस गतिरोध को खत्म करने के लिए हमें आदेश पारित करने पर बाध्य ना करें। मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने मामले पर स्पष्ट रूख लेते हुए सरकार से कहा था कि हमें बताएं कि फाइले कहां हैं ? अगर आपको इसमें शामिल नामों पर कोई आपत्ति है तो हमें वापस भेजें, कॉलेजियम इस पर विचार करेगा। आप फाइलों को दबाकर नहीं बैठ सकते।
हाल के दिनों में इसी मामले को आगे बढ़ाते हुए मुख्य न्यायधीश ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में जजों की कमी और न्याय प्रदान करने की प्रणाली में होने वाली देरी में इसकी भूमिका और स्थिति की गंभीरता को भी शामिल करना चाहिए था। इससे पहले अप्रैल माह में एक समारोह के दौरान उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस मामले के जल्द निपटारे की भावुक अपील भी की थी। शीर्ष अदालत इस दाम और दंड नीति से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है लेकिन इसका कोई खास परिणाम नहीं मिल पा रहा है।
समस्या केवल सरकार के साथ ही नहीं है बल्कि कॉलेजियम सिस्टम के अंदर भी जजों के चयन के तरीके पर मतभेद हैं। वरिष्ठ जज और पांच सदस्यीय कॉलेजियम के सदस्य न्यायमूर्ति जे चेलामेस्वर द्वारा कॉलेजियम की बैठक में शामिल होने से इंकार करने के चलते ये मुद्दा अब सार्वजनिक रूप से उजागर हो चुका है। एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि मैंने मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर को पत्र लिखकर सूचित किया है कि चयन प्रक्रिया अपारदर्शी होने के कारण मैं कार्यवाही में शामिल नहीं होना चाहता। उन्होंने अखबार को बताया कि सिस्टम पूरी तरह से पारदर्शी नहीं है। किसी कारण या किसी राय का कोई रिकॉर्ड नहीं होता है। केवल दो लोग नाम तय करते हैं और वापस आकर बैठक में शामिल लोगों से उन नामों पर हां या ना में जवाब मांगते हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट या किसी हाईकोर्ट के जज का चयन इस तरह से किया जा सकता है ? वरिष्ठ न्यायाधीश ने इस मामले पर और भी कड़ी टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि मेरे अनुभव में कॉलेजियम में लोगों का एक गिरोह बन गया है और बाहर के लोगों को इस बात की भनक तक नहीं लगती कि कॉलेजियम के अंदर चल क्या रहा है। यहां तक कि कॉलेजियम के अंदर भी सभी लोगों को ज्यादा कुछ पता नहीं होता है। क्या इस तरह की चयन प्रक्रिया के साथ हम देश के लिए कुछ बेहतर कर सकते हैं ? सुप्रीम कोर्ट ने वास्तव में गंभीर आरोप झेल रही उस व्यवस्था को बहाल किया है जो विश्वसनीयता को ठेस पहुंचा रही है और केंद्र सरकार के साथ उसके टकराव में अग्रणी भूमिका निभा रही है। न्यायमूर्ति जे चेलेमेश्वर की नाराजगी के तथ्य को इस संदर्भ में समझा जा सकता है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन पर रोक लगाने और संविधान के 99वें संशोधन को रद्द करने का फैसला देने वाली पांच सदस्यीय पीठ में वे एकमात्र असहमति की आवाज हैं। लेकिन इससे उनके द्वारा कॉलेजियम की प्रक्रिया पर उठाए गए गंभीर सवालों का महत्व कम नहीं हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बहाल की गई व्यवस्था पर उनकी टिप्पणियों को एक तरह की चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए और विशेष तौर पर भारत के मुख्य न्यायाधीश के लिए जिनका सारा जोर न्याय प्रदान करने की प्रणाली में तेजी लाने में सरकार की विफलता पर केंद्रित है।
अब यह मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर की जिम्मेदारी है कि वे वरिष्ठ न्यायाधीश को कॉलेजियम प्रक्रिया में भाग ना लेने के अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिए राजी करें। वे न्यायमूर्ति चेलामेश्वर द्वारा उठाई गई आपत्तियों को दूर करके ऐसा कर सकते हैं। मुख्य न्यायाधीश के पास एक अन्य विकल्प यह है कि वे न्यायमूर्ति चेलामेश्वर के स्थान पर किसी अन्य न्यायाधीश को कॉलेजियम में शामिल करें।
हालांकि न्यायमूर्ति चेलामेश्वर के गुस्से को लेकर कई कयास भी लगाए जा रहे हैं कि क्या उनका गुस्सा इसलिए था कि कॉलेजियम ने उनके द्वारा प्रस्तावित किसी नाम या कुछ नामों को दरकिनार कर दिया या फिर यह महीनों से उनके अंदर दबे गुस्से की अभिव्यक्ति थी। हम इस हकीकत को तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक कि वे खुद इस बात को स्पष्ट नहीं कर देते लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने पारदर्शिता को सवाल को सफलतापूर्वक उजागर कर दिया है। यह अपने आप में एक विडंबना है कि सुप्रीम कोर्ट अक्सर निर्णय लेने में अस्पष्टता को लेकर अधिकारियों की खिंचाई करता रहता है। अब वह इस सवाल का खुद क्या जवाब देता है यह देखना दिलचस्प होगा।
संयोग से एक अन्य जज जो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर रोक लगाने वाली पीठ में शामिल थे, उन्होंने भी कॉलेजियम सिस्टम की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए थे। न्यायमूर्ति कूरियन जोसेफ एनजेएसी पर रोक लगाने वाली पीठ में न्यायमूर्ति चेलामेश्वर की तरह असहमति की आवाज नहीं थे बल्कि वे बहुमत के साथ थे। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के मामले पर उन्होंने कहा था कि यह यह न्यायिक स्वतंत्रता की अवधारण का अभिन्न अंग है। हालांकि उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम की खामियों की तरफ ध्यान आकर्षित करने का अवसर गवाया नहीं। इस बारे में उन्होंने कहा था कि कॉलेजियम सिस्टम में सुधार होने चाहिए और इसे ग्लासनोस्त और पेरेस्त्राइका जैसे सुधारों की जरूरत है। क्या यह ठीक न्यायमूर्ति चेलामेश्वर की तरह की ही मांग है। इसी तरह से उसी पीठ में बहुमत की एक अन्य आवाज न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने भी इस मामले पर अपनी चिंता जताते हुए कहा कि कॉलेजियम प्रणाली के सही से काम करने के लिए इसमें नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने की जरूरत है।
इसके अलावा कई जजों ने उनमें से किसी एक को जज चुनने के लिए उसे प्राथमिकता देने के तर्क पर सवाल उठाए हैं। जून 2015 के मध्य एनजेएसी पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन जो न्यायिक नियुक्ति के बारे में एक-दो तथ्यों से परिचित है, उसने कॉलेजियम सिस्टम की लो और दो की नीति पर कड़ा प्रहार किया था। इसके अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कहा कि पिछले दो दशकों के दौरान कॉलेजियम सिस्टम न्याय प्रदान करने की प्रणाली में कोई सुधार करने में विफल रहा है। उन्होंने दावा किया कि यहां तक कि मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्रों तक का जवाब नहीं आता है। इसके साथ ही उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा कि कोर्ट में नए वकीलों का हर रोज शोषण होता है। साथ ही उन्होंने अफसोस जाहिर किया कि नेताओं और फिल्म स्टारों को कोर्ट से तत्काल राहत मिल जाती है जबकि एक आम आदमी को सालों तक भटकना पड़ता है। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि आम धारणा यह है कि चयन प्रक्रिया में गलत लोगों को जज बना दिया जाता है और यह कॉलेजियम सिस्टम की स्वाभाविक कमी है।
यह अपने आप में चिंता का विषय है कि सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की एक पीठ ने कॉलेजियम सिस्टम में सुधार के लिए निर्देश जारी करने की बात की। इसके लिए उठाए जा रहे कदमों के बीच भारत सरकार को मुख्य न्यायाधीश की सलाह से एक प्रक्रिया ज्ञापन (एमओपी) तैयार करने के लिए कहा गया। इस प्रक्रिया ज्ञापन पर और विस्तार से बोलते हुए पीठ ने कहा कि समय-समय पर राज्य सरकारों और भारत सरकार की राय (जैसा की जरूरी हो) को शामिल करके इसमें जजों की नियुक्ति के लिए योग्यता के बारे में चर्चा की जा सकती है।
पीठ ने यह भी सुझाव दिया कि इस ज्ञापन के हिस्से के तौर पर दो मानकों को अपनाया जा सकता है। पहला ये कि प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए योग्यता मानदंड सरकार की वेबसाइट पर डाले जाएं और दूसरा यह कि कार्यवाही का रिकॉर्ड रखा जाए जैसे चर्चा के मीनट्स तैयार किए जाएं जिसमें कॉलेजियम में शामिल जजों की असहमति को भी दर्ज किया जाए। अगर हम एक पल के लिए न्यायमूर्ति चेलामेश्वर की शिकायत की तरफ लौंटे तो पाते हैं कि उन्होंने भी कॉलेजियम प्रणाली में अपारदर्शिता और लोकतंत्र के अभाव के आधार पर ही इस पर सवाल उठाए हैं। अगर शीर्ष अदालत इस प्रक्रिया ज्ञापन (एमओपी) के जरिए इन समस्याओं का समाधान चाहती है तो उसने फिर कॉलेजियम की आंतरिक प्रणाली में इस भावना को स्थापित क्यों नहीं किया ?
हालांकि अब यह एमओपी ही सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच विवाद की जड़ बन गया है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार केंद्र सरकार एमओपी के हिस्से के तौर पर एक स्कीनिंग सिस्टम बनाना शामिल करना चाहता है ताकि कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नामों को कुछ तय आधारों पर जांचा-परखा जा सके। इसके साथ ही सरकार इस एमओपी के हिस्से के तौर पर एक “राष्ट्रीय सुरक्षा” धारा भी शामिल करना चाहती है। उपलब्ध रिपोर्टों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट इन सुझाव को लेकर उत्साहित नहीं है, उसका मानना है कि इनसे जजों की नियुक्ति के मामले में कॉलेजियम की प्रधानता खत्म हो जाएगी। हालांकि सरकार का रुख एकदम स्पष्ट है कि ये सुझाव जजों के चयन में जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ाने की सुप्रीम कोर्ट की इच्छा के बिल्कुल अनुकूल हैं। एमओपी पर अंतिम निर्णय लेने के मामले में अब यही एक कदम आगे-एक कदम पीछे का खेल चल रहा है।
हालांकि यह सही है कि खीर का स्वाद उसके खाने में निहित होता है, अब सरकार ने उसे भेज गए नामों को कुछ विशेष टिप्पणियों के साथ लौटा दिया तो अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कॉलेजियम की इस पर क्या प्रतिक्रिया रहती है। ये इलाहाबाद हाईकोर्ट में 44 जजों की नियुक्ति से संबंधित है। इससे पहले सरकार ने इसे रोक लिया था क्योंकि वह इन नामों के बारे में जांच-पड़ताल करना चाहती थी। सरकार ने ऐसा इसले किया था क्योंकि उसे कुछ शिकायतें मिली थी जिनमें कहा गया था कि लिस्ट में जिन अभ्यर्थियों के नाम हैं उनमें से कई पूर्व जजों के रिश्तेदार या संबंधी हैं। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को उसके द्वारा भेजे गए नामों को वापस लौटा दिया और साथ ही उन नामों में से प्रत्येक के बारे में आईबी की रिपोर्ट को भी कॉलेजियम के पास भेज दिया है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि किसी जज या वकील के रिश्तेदार के नाम की अनुशंसा करना हमेशा ही गलत होता है लेकिन सरकार की चिंता इलाहाबाद हाईकोर्ट के पैनल के जरिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची नामों की अनुशंसा के मामले में होने वाली अनियमितताओं की आशंका को लेकर थी। उस स्थानीय पैनल पर पड़ने वाले दबाव और प्रभाव के लेकर चिंता जताई गई थी।
वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट के जज माकर्डेंय काटजू ने अखंडता की कमी और भाई-भतीजावाद की बुराई को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट की आलोचना की थी। यह रुख उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद से ही अपना रखा है। और अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए उन्होंने अपने पसंदीदा शेक्सपीयर के हेमलेट के एक उद्धरण का सहारा लिया। उन्होंने हेमलेट के वाक्य- डेनमार्क के राज्य में कुछ सड़ा हुआ है, का उद्धरण लेते हुए कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ सड़ा हुआ है। हालांकि एक रिटायर्ड जज की इस टिप्पणी को अतिश्योक्तिपूर्ण माना जा सकता है लेकिन फिर भी उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे को अप्रसांगिक मानकर छोड़ा नहीं जा सकता है।
कॉलेजियम सिस्टम का अपना एक इतिहास है। इसकी शुरूआत 1990 के दौर में हुई थी। संविधान में इस तरह की किसी व्यवस्था का कोई जिक्र नहीं किया गया है। कॉलेजियम सिस्टम को स्थापित करने के पीछे मुख्य तर्क यही था कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के मामले में राजनीतिक दखलअंदाजी या प्रभाव खतरनाक है। न्यायिक नियुक्तियों में सरकार के हस्तक्षेप की बेशर्मी की हद को हम आपातकाल लगने से कुछ पहले और आपातकाल के दौर में देख चुके हैं। इस दौरान झुक जाने वाले और ना झुकने वाले जजों के हाल के बारे में बहुत कुछ सब जानते हैं और इस पर और ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। हालांकि संविधान का अनुच्छेद 124(2) ये कहता है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति करते समय सुप्रीम के मुख्य न्यायाधीश से हमेशा सलाह ली जाएगी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ये मुख्य न्यायाधीश को नियुक्ति की अंतिम शक्ति प्रदान करता है। लेकिन इस वाक्य का इस्तेमाल कब्जा करने के तौर पर ले लिया गया है।
एसपी गुप्ता बनाम भारत सरकार केस-1981 जिसे पहला जज केस भी कहा जाता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से ये निर्णय दिया था कि भारतीय संविधान में कहीं भी मुख्य न्यायाधीश की प्रधानता का कोई उल्लेख नहीं है। अदालत ने यह भी कहा था कि अनुच्छेद 124(2) में उल्लिखित सलाह का अर्थ एकाधिकार बिल्कुल नहीं है। अगर अन्य शब्दों में कहे तो इसका अर्थ यह हुआ कि मुख्य न्यायाधीश से सलाह तो की जा सकती है लेकिन सरकार उसे मानने के लिए बाध्य नहीं है। उसके बाद 12 साल तक न्यायिक नियुक्तियों में अपनी प्रधानता को कानूनी जामा पहनाने के लिए कार्यकारी प्रयास किए गए।
अक्टूबर 1993 में नौ जजों की एक पीठ ने प्रधानता के मामले पर रुख बदल दिया। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड बनाम केंद्र सरकार के मामले में न्यायवादिया और प्रधानता पर इस पीठ ने मुख्य न्यायधीश को नियुक्तियों के मामले में प्रधानता प्रदान कर दी। बहुमत से निर्णय लिखते हुए न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने दृढ़तापूर्वक कहा कि मुख्य न्यायधीश की प्रधानता प्राकृतिक रूप से प्रधान है क्योंकि यह मामला न्यायिक परिवार का मामला है और इसमें कार्यकापालिका बराबर का अधिकार नहीं रखती है। क्या कार्यपालिका को बराबर की भूमिका चाहिए ताकि न्यायपालिका में अनुशासनहीनता और अन्य दूसरी बुराईयां विकसित हो जाएं। एक अन्य संदर्भ में पीठ ने अनुच्छेद 50 के तहत राज्य के नीति तत्वों का हवाला दिया जो कहते हैं कि- राज्य की सार्वजनिक सेवाओं के मामले में राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करेगा। इसे जजों से संबंधित दूसरा मामला कहा जाता है।
लेकिन यह मामला यहीं खत्म नहीं हुआ क्योंकि निर्णय एकमत से नहीं हुआ था। एक न्यायधीश एएम अहमदी इससे सहमत नहीं थे जबकि एक अन्य न्यायधीश एमएम पंछी ने कहा कि मुख्य न्यायधीश को खुद को केवल दो जजों (जिन्हें तय किया जाए) के परामर्श तक या फिर किसी तक भी सीमित नहीं करना चाहिए। लेकिन इससे भविष्य के लिए न्याय सिस्टम में भ्रम की स्थिति पैदा हो गई कि क्या मुख्य न्यायाधीश ने दो जजों से भी परामर्श करे बिना निर्णय ले सकते हैं। तब राष्ट्रपति केआर नारायणन ने कदम उठाते हुए अनुच्छेद 124, 217 और 222 ( हाईकोर्ट के जजों के स्थानांतरण के संबंध में) के तहत आने वाले परामर्श पर मुख्य न्यायाधीश के लिए सलाह तलब की। यह सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश की प्रधानता को लेकर तीसरा केस था।
इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्तियों और स्थानातंरण के लिए नौ दिशा-निर्देश जारी किए। न्यायमूर्ति एसपी भरुचा ने इस अवसर का लाभ न केवल इसे वैधता प्रदान के लिए उठाया बल्कि उन्होंने कार्यपालिका के ऊपर मुख्य न्यायधीश की प्रधानता को कार्यान्वित भी कर दिया। और कॉलेजियम सिस्टम अस्तित्व में आ गया। लगभग 15 सालों बाद 99वें संविधान संशोधन और एनजेएनसी के रूप में यह चुनौती अब फिर से सामने आ गई है। और अब इस चुनौती से सामना भी हो गया है।
सभी ने कहा भी और कोशिश भी की ताकि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच का टकराव खत्म हो। यह दोनों ही पक्षों की छवि के लिए यह अच्छा है। और निश्चित रूप से इसका असर उन लोगों पर पड़ेगा जो अपनी समस्याओं के जल्द समाधान के लिए अंतिम विकल्प के तौर पर न्यायालय की शरण लेते हैं। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि व्यक्तियों का संस्थाओं द्वारा खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए यह खेल खेला जा रहा है। सरकार और न्यायपालिका, दोनों को ही इन मतभेदों को दूर करने के लिए व एमओपी को तैयार करने के लिए और अविश्वास को दूर करने के लिए साथ मिलकर काम करना होगा। उम्मीद है कि केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय इस मामले को सुलझाने के लिए आगे आएगा।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टीकाकार व सार्वजनिक मामलों के विश्लेषक हैं)
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