देश में कहीं भी पुलिस जब राजद्रोह कानून के प्रावधानों के तहत कोई मामला दर्ज करती है, इस कानून को समाप्त करने की दुहाई तेज हो जाती है। इसका सबसे ताजा उदाहरण बेंगलूरु में सामने आया, जब कर्नाटक पुलिस ने एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया। इस गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ने कश्मीर में अशांति के कारण वहां की जनता को हो रहे कष्टों की ओर ध्यान खींचने के लिए अपने “ब्रोकन फैमिलीज” अभियान के तहत शहर में एक कार्यक्रम आयोजित किया था। लेकिन उस वक्त बवाल खड़ा हो गया, जब वहां मौजूद कुछ लोगों ने भारतीय सेना के समर्थन में नारे लगाए और जवाब में दूसरे वर्ग ने कश्मीर की आजादी के समर्थन में तथा भारत सरकार के विरोध में चिर-परिचित नारे लगाने शुरू कर दिए। पुलिस ने एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 (ए) समेत विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज कर लिया। यह धारा राजद्रो से संबंधित है।
हैरत की बात नहीं है कि जल्द ही इस पर राजनीति शुरू हो गई। एमनेस्टी ने भारत सरकार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समेत नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का गला घोटने का आरोप लगाया। दिल्ली में कांग्रेस आलाकमान ने कर्नाटक में अपनी ही पार्टी की सरकार के इस कदम से पल्ला झाड़ लिया। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने बताया कि उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री से बात की है और उन्हें आश्वासन मिला है कि समुचित जांच से पहले किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। इसलिए हमारे सामने ऐसी स्थिति है, जिसमें एक राज्य की पुलिस को दिल्ली में बैठे एक पार्टी नेता के निर्देशों पर काम करना होगा। दूसरी बात यह है कि राजद्रोह का मामला अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की शिकायत पर दर्ज किया गया है, जो केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की छात्र इकाई है। इसके अलावा एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक आकार पटेल जाने-माने राजनीतिक टिप्पणीकार हैं, जो अक्सर सरकार की आलोचना करते हैं।
इतनी राजनीति तथा उफनती भावनाओं के बीच यह देखना कठिन है कि कर्नाटक पुलिस इस मामले को निष्पक्ष रूप से कैसे संभालती है। उसके हाथ पहले ही बंधे हुए हैं। मामला निश्चित रूप से अदालत में भी जाएग, जो तय करेगी कि प्रथम दृष्टया राजद्रोह हुआ है अथवा नहीं। इस बीच राजद्रोह के आरोप के पक्ष और विपक्ष में आवाजें उठती रहेंगी। आकार पटेल कहते रहे हैं कि आरोप “बेबुनियाद” है क्योंकि कार्यक्रम मानवाधिकार की समस्या पर प्रकाश डालने के लिए आयोजित किया गया था, जो राजद्रोह नहीं है। दूसरी ओर प्रख्यात न्यायविद और कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने पुलिस की कार्रवाई को यह कहते हुए सही बताया है कि कार्यक्रम बेशर्मी भरी राष्ट्रविरोधी गतिविध बनकर रह गया था।
ऐसा ही विवाद फरवरी में हुआ था, जब दिल्ली में आतंकवादियों मकबूल भट्ट और अफजल गुरु की “न्याय के विरुद्ध हत्या” के विरोध में कार्यक्रम करने पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था। भारत के विभाजन की मांग करने वाले तथा और भी अफजल गुरुओं के पैदा होने के नारे लगाए गए। कार्यक्रम के समर्थकों ने कहा कि नारे लगाने का अधिकार उन्हें संविधान ने दिया है और जिन्होंने नारे लगाए, वे विश्वविद्यालय के छात्र नहीं थे। उन्होंने आरोप लगाया कि भारत सरकार असंतोष को दबाने के लिए राजद्रोह के कानून का दुरुपयोग कर रही है। मामला अब अदालतों में है।
जेएनयू की घटना से कुछ महीने पहले तमिलनाडु के एक लोकगायक कोवन को चेन्नई पुलिस ने राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था क्योंकि उन्होंने मुख्यमंत्री जे जयललिता को निशाना बनाते हुए एक गीत लिखा था। समाज में विद्वेष और वैमनस्य को बढ़ावा देने के नाम पर उन पर राजद्रोह का आरोप लगा था।
ये कुछ उदाहरण हैं, जिनके कारण पिछले कुछ महीनों में राजद्रोह के मामले पर शोर बढ़ा है। आईपीसी की धारा 124 (ए) पर जारी चर्चा में मोटे तौर पर दो प्रश्न हैं: पहला, क्या धारा का दुरुपयोग रोकने के लिए उसमें परिवर्तन करना चाहिए? दूसरा, क्या कानून को खत्म ही कर देना चाहिए? दोनों के समर्थन में मजबूत विचार हैं। एक वर्ग मानता है कि प्रावधान में किसी भी प्रकार का बदलाव करते समय वे खामियां दूर कर देनी चाहिए, जिनके कारण राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को इस कानून के शिकंजे से बचन निकलने का मौका मिल जाता है। दूसरी ओर विरोधी इस बात पर अड़े हैं कि भारतीय स्वाधीनता सेनानियों के खिलाफ इस्तेमाल के लिए अंग्रेजों के समय में लाई गई धारा 124 (ए) की उपयोगिता नहीं बची है और उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
राजदोह के कानून का लंबा इतिहास है। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह प्रावधान पंसद नहीं था और उन्होंने कहा था कि “इससे जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए, उतना अच्छा है।” उन्होंने इसे “बेहद आपत्तिजनक और घृणित” बताया था। निश्चित रूप से उन्हें याद था कि स्वाधीनता सेनानियों के खिलाफ इस कानून का किस तरह इस्तेमाल किया गया था। लेकिन उनके और बाद में आए प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल के दौरान इसे समाप्त करने के लिए कुछ नहीं किया गया। इसका कारण यह नहीं है कि पिछले कई दशकों से सरकारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्धता नहीं है बल्कि कारण यह है कि वे जमीनी हकीकत को समझती हैं। देश कई अलगाववादी और हिंसक आंदोलनों से परेशान रहा है, जैसे खालिस्तान का आह्वान, कश्मीर की आजादी के लिए ‘अभियान’, भारत के खिलाफ माओवादियों के नरसंहार तथा अभियान, पूर्वोत्तर में उग्रवाद आदि। इसीलिए राजनीतिक पार्टियां तथा उनके नेता वोट के फेर में जनता के बीच चाहे जो भी कहते रहे हों, राजद्रोह के कानून की जरूरत उन्हें अच्छी तरह से महसूस हो गई है। यही कारण है कि मुख्यधारा की ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों ने अपने सत्तारूढ़ प्रतिद्वंद्वियों पर धारा 124 (ए) के दुरुपयोग का आरोप ही लगाया है। वे इस प्रावधान को समाप्त करने की मांग नहीं करती हैं।
विवाद तो इसकी व्याख्या के कारण भी होता है। धारा 124 (ए) कहती हैः “मौखिक अथवा लिखित शब्दों अथवा संकेतों अथवा प्रत्यक्ष प्रस्तुति के द्वारा अथवा किसी अन्य तरीके से जो भी व्यक्ति भारत में कानून के द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध घृणा फैलाने अथवा अवमानना करने का प्रयास करता है अथवा उसके प्रति असंतोष की भावना भड़काने का प्रयास करता है, उसे आजीवन कारावास का दंड दिया जाएगा...” इसके उपरांत धारा में ‘असंतोष’ की व्याख्या ‘द्रोह एवं शत्रुता की भावना’ के रूप में की गई है। “कानूनी तरीके” से परिवर्तन की आकांक्षा करते हुए तथा “घृणा, अवमानना एवं असंतोष भड़काए बगैर या उसका प्रयास किए बगैर” सरकार की आलोचना करने वाली टिप्पणी को इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं माना जाता है। कानून के आलोचकों की दलील है कि सरकारी अधिकारियों ने अक्सर लोगों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप यह कल्पना करते हुए लगाए हैं कि उनकी गतिविधियां अथवा शब्द अशांति, घृणा तथा हिंसा फैलाने के इरादे से हैं।
गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज यह दावा करते हुए राजद्रोह के कानून के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में पहुंच गया है कि असंतोष की आवाज उठाने वाले छात्रों, बुद्धिजीवियों तथा पत्रकारों को प्रताड़ित करने के लिए इसका दुरुपयोग किया जा रहा है - इसका मकसद “डर बिठाना तथा असंतोष को दबाना है।” कॉमन कॉज कहता है कि व्यक्तियों तथा संगठनों के खिलाफ इस समय राजद्रोह के आरोपों की जो झड़ी लगी है, वह 1962 के केदारनाथ बनाम बिहार मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किए गए दिशानिर्देशों के विरुद्ध है। कॉमन कॉज की याचिका एमनेस्टी विवाद की पृष्ठभूमि में आई है। राजद्रोह के विरुद्ध कानून को ठीक से समझने के लिए एक अन्य मामले - बलवंत सिंह एवं अन्य बनाम पंजाब (1995) का अध्ययन जरूरी है। पहले इसी मामले को देखते हैं।
बलवंत सिंह और उसके साथी ने 31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के दिन भारत विरोधी एवं खालिस्तान समर्थक नारे लगाए थे। उन्होंने पंजाब को हिंदुओं से छीन लेने की आह्वान भी किया था। उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज हो गया। उच्चतम न्यायालय के दो सदस्यीय पीठ ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि “दो अकेले अपीलकर्ताओं द्वारा केवल दो बार ऐसे नारे लगाए जाना, जिन पर जनता में किसी ने कोई भी प्रतिक्रिया भी नहीं थी, धारा 124 (ए) के प्रावधानों के अंतर्गत नहीं आता... कुछ और ठोस होता तो (राजद्रोह का) आरोप लगता।” पीठ ने आगाह किया कि ऐसे मामलों में अति संवेदनशीलता प्रतिकूल हो सकती है और उससे मुश्किल खड़ी हो सकती है।
धारा 124 (ए) को वापस लिए जाने की मांग कर रहे लोग सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का सहारा ले सकते हैं, लेकिन उन्हें याद रखना होगा कि अदालत ने कानून को असंवैधानिक नहीं कहा था बल्कि प्रशासन को अति संवेदनशील नहीं होने की सलाह भर दी थी। ‘केवल दो बार कुछ नारे लगाना’ - यह महत्वपूर्ण वाक्य है। अगर किसी कार्यक्रम में भारत विरोधी नारे लगाने वाली भीड़ ‘केवल दो बार’ से आगे बढ़कर उसी काम को बार-बार दोहराए तो क्या होगा? साथ ही ऐसी घटनाओं से प्रेरणा पाकर देश भर में राष्ट्र विरोधी एवं आतंकी समर्थक भावनाएं भड़काने वाले ऐसे की कार्यक्रम शुरू कर दिए जाते हैं, उसका क्या? अदालत का आदेश खुलेआम राजद्रोह से भरे काम करने की छूट नहीं देता। इसके अलावा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अदालत ने कहा था कि बलवंत सिंह और उसके साथी के नारों पर जनता ने ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी, जो भारत राष्ट्र के विरुद्ध जाती। लेकिन पिछले कई महीनों से हो रही घटनाओं में एक भारत विरोधी गतिविधि के बाद दूसरी होने लगती है और देश के अलग-अलग हिस्सों में होने लगती है। इस चलन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अब हम केदारनाथ सिंह बनाम बिहार मामले पर आते हैं। पांच न्यायाधीशों के पीठ ने धारा 124 (ए) को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया था। उसने कहा था कि यह प्रावधान अभिव्यक्ति एवं वाणी की मूलभूत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध तो लगाता है किंतु वे प्रतिबंध “सार्वजनिक व्यवस्था के हित में हैं तथा मूलभूत अधिकारों में जिस विधायी हस्तक्षेप की अनुमति है, उसी के दायरे में हैं।” यह पहला मौका था, जब सर्वोच्च अदालत ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के संदर्भ में राजद्रोह कानून की वैधता पर विचार किया। यह अनुच्छेद मौलिक अधिकार के रूप में वाणी एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है, लेकिन कुछ निश्चित परिस्थितियों में उन पर प्रतिबंध भी लगाता है।
किंतु अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि राजद्रोह का अपराध तभी माना जाएगा यदि वह अपराध “हिंसक तरीकों से सरकार का तख्ता पलटने” के इरादे से किया गया हो। उसने यह भी कहा कि “सरकारी उपायों के प्रति इस दृष्टि से असंतोष जताने कि उनमें सुधार हो अथवा कानूनी तरीकों से विवाद करने के लिए कड़े शब्दों का इस्तेमाल भर” राजद्रोह नहीं होता। दूसरे शब्दों में अदालत ने संकेत दिया कि राजद्रोह का किसी भी प्रकार का दुरुपयोग संविधान के अनुच्छेद 19 का उल्लंघन माना जाएगा।
इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि सरकार अथवा भारत राज्य के खिलाफ सभी प्रकार के असंतोष अथवा आलोचना पर धारा 124 (ए) के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती और इतनी सतर्कता बरती ही जानी चाहिए। किंतु इस बात की कल्पना करना कठिन है कि भारत के विखंडन की अपील करना या अपनी हरकतों से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हजारों निर्दोषों की जान लेने वाले आतंकवादियों की प्रशंसा करना ‘सरकार के कामकाज को कानूनी तरीकों से सुधारने अथवा उस पर आपत्ति जताने’ के मकसद से ‘केवल कड़े शब्दों का इस्तेमाल’ कैसे माना जा सकता है। ऐसे मामलों में विचार कहीं से भी रचनात्मक नहीं होता। यह तो राष्ट्र के विखंडन के लिए होते हैं।
राजद्रोह विरोधी कानून का समर्थन करने वालों और उसे खत्म किए जाने की बात करने वालों के बीच टकराव उन अधिकारों को लेकर भी है, जो संविधान के अनुच्छेद 19 ने प्रत्येक भारतीय नागरिक को दिए हैं तथा केदारनाथ मामले में धारा 124 (ए) को सही ठहराते हुए उच्चतम न्यायालय ने जिनका जिक्रम किया है। अलग-अलग संदर्भों में अनुच्छेद 19 का जिक्र इतनी बार किया गया है कि अब अधिकतर लोग संविधान के इसी प्रावधान को सबसे ज्यादा जानते हैं। राजद्रोह कानून के विरोधी अक्सर दावा करते हैं कि आईपीसी की धारा इस अनुच्छेद की भावना के प्रतिकूल है। अनुच्छेद 19 ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ की बात करता है और इसका नियम 1 (ए) कहता है कि “सभी नागरिकों को बोलने का और अभिव्यक्ति का अधिकार होगा।” किंतु इस अनुच्छेद में नियम 2 भी है, जो ऐसी स्वतंत्रत वाणी अथवा अभिव्यक्ति पर निश्चित प्रतिबंध लगाता हैः “नियम (1) का उपनियम (ए) राज्य को ऐसा कोई कानून बनाने से नहीं रोक सकता, जो नियम 1 (ए) द्वारा प्रदत्त अधिकार के प्रयोग पर उचित प्रतिबंध लगाता है।” यह नियम 1963 में हुए संविधान संशोधन - 16वां संविधान संशोधन अधिनियम - के द्वारा किया गया।
किंतु उससे पहले एक और संशोधन किया गया था, जिसने आज के अपवादों की राह तैयार की। दिलचस्प है कि राष्ट्र हित में अभिव्यक्ति तथा वाणी की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाला संविधान संशोधन प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के जरिये आया, जिसे उदार लोकतंत्रवादी नेहरू का पूरा समर्थन प्राप्त था। इस संशोधन ने ही ‘प्रतिबंध’ को संवैधानिक दर्जा दिया, ‘निंदा तथा अभियोग’ को ‘मानहानि’ बना दिया और ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ तथा ‘भड़काने’ जैसे शब्द हानिरहित नारेबाजी तथा राजद्रोह के बीच अंतर करने के काम आने लगे। इस इतिहास से पता चल जाता है कि कांग्रेस अनुच्छेद 19 में हुए संशोधन के सहारे चलने वाली धारा 124 (ए) का समाप्त करने का समर्थन क्यों नहीं करती।
स्पष्ट है कि वाणी की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने वाले संशोधित अनुच्छेद 19 की वैधता पर कानूनी रुख तय हो चुका है और उसी समीक्षा की संभावना नहीं है। धारा 124 (ए) भी कानूनी समीक्षा से गुजर चुकी है, लेकिन उसकी वैधता पर अब भी प्रश्न खड़े किए जाते हैं और उसका उल्लंघन किया जाता है। क्या सर्वोच्च न्यायालय उस पर पुनर्विचार करेगा? यह लाख टके का सवाल है।
राजद्रोह कानून की समीक्षा की अपील का स्वागत भले ही किया गया हो, लेकिन कुल मिलाकर समस्या इस कानून से नहीं है। समस्या अक्सर पुलिस जैसी कानून प्रवर्तन एजेंसियों के अतिरेक भरे रुख से होती है, जबकि उन मामलों में वैसी प्रतिक्रिया की जरूरत ही नहीं होती। भारतीय दंड संहिता में ढेरों प्रावधान हैं, जिनका इस्तेमाल ऐसी स्थितियों से निपटने में किया जा सकता है। कथित रूप से उल्लंघन करने वालों के खिलाफ वे राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन अगर इस्तेमाल गलत होता है तो कई अन्य धाराओं के तहत दर्ज वैध मामलों पर भी असर पड़ सकता है।
राजद्रोह के गलत या सही आरोप झेल रहे व्यक्तियों और संगठनों को शहीद बनाने में उत्सुक राजनीतिक संगठन मामला और भी बिगाड़ देते हैं। अपने किसी स्वार्थ के कारण जब राजनेता पुलिस तथा अन्य जांच एजेंसियों का काम पूरा होने से पहले ही आरोपित व्यक्ति को निर्दोष ठहराने लगते हैं तो वे सोचते तक नहीं कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को कितना नुकसान हो रहा है। एमनेस्टी मामले में हमने ऐसा होते देखा है, जहां कर्नाटक के गृह मंत्री ने भारत विरोधी उपद्रव के मामले में एमनेस्टी को लगभग निर्दोष करार दे दिया है और राजनीतिक बदला लेने के लिए इसका दोष विद्यार्थी परिषद पर ही लगा दिया है।
और अंत में अच्छा होगा यदि मीडिया, विशेषकर समाचार चैनल ऐसे मामलों में उन्माद के शिकार होने से बचें तथा इतना शोर नहीं मचाएं कि दर्शक समझबूझकर समाधान भरा विचार ही नहीं बना सकें। राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़े मामलों में जनभावनाओं का भड़कना स्वाभाविक है, लेकिन अगर लोगों की धारणा अंध राष्ट्रवाद के आधार पर बनती है तो यह अच्छा नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार तथा सार्वजनिक मामलों के विश्लेषक हैं)
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