अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी का भारत दौरा महत्वपूर्ण समय में हुआ और यह दौरा निकट भविष्य में भारत-अफगानिस्तान के रिश्तों की दशा और दिशा तय कर सकता है। भारत-अफगानिस्तान के रिश्तों को नई अहमियत कुछ हद तक विशेष क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के कारण मिली है, कुछ हद तक इसलिए है क्योंकि अफगान सरकार को महसूस हो चुका है कि अपने अप्रिय पड़ोसी पाकिस्ताना से कुछ भी सकारात्मक मिलने की उम्मीद करना बेमानी है और कुछ हद तक इसलिए भी है कि भारत सरकार को लग रहा है कि पाकिस्तान की संवेदनाओं की फिक्र करने (जो मनमोहन सिंह के समय की खासियत थी) के बजाय भारत को अफगानिस्तान की सुरक्षा का ज्यादा खयाल करना चाहिए और अफगानिस्तान को आर्थिक और सैन्य सहारा देकर उसे मजबूत करने के लिए उसे हर तरह के यत्न करने चाहिए।
जहां तक अफगानिस्तान का सवाल है, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय माहौल अनिश्चितताओं से भरा है। कुछ ही महीनों में अमेरिका में नई सरकार चुनी हाएगी और वह अफगानिस्तान को तालिबान द्वारा दिखाई जा रही मध्यकालीन बर्बरता तथा अन्य इस्लामी आतंकी समूहों तथा उनके संरक्षक - पाकिस्तान से बचाने के प्रति कितनी प्रतिबद्ध होगी, अभी किसी को नहीं पता। पाकिस्तान का वैर और दोगलापन किसी से नहीं छिपा और अफगानिस्तान पर दबदबा कायम करने तथा उसे अपनी जागीर बनाकर छोड़ने की पाकिस्तान की मंशा भी किसी से नहीं छिपी है। बाकी पश्चिमी देश अपनी आर्थिक और सुरक्षा संबंधी परेशानियों में इतने घिरे हैं कि उनके पास अफगानिस्तान की फिक्र करने का समय ही नहीं है। चीन किनारे बैठकर इस बात का इंतजार कर रहा है और ताक रहा है कि हालात कैसे बिगड़ते हैं और इस बात में वह अपने शागिर्द पाकिस्तान के साथ है कि अफगानिस्तान में आगे की गतिविधियों पर वह नियंत्रण चाहे न कर सके, उन्हें संभाल तो जरूर ले। ईरान इस्लामिक स्टेट से लड़ने और अपने अरब प्रतिद्वंद्वियों की चालों का जवाब देने में इतना व्यस्त है कि अभी उसे तालिबान से कोई दिक्कत ही नहीं है। रूसी पहले ही अफगानिस्तान में अपनी अंगुलियां जला चुके हैं और अब वहां प्रत्यक्ष भूमिका निभाने में या किसी की तरफदारी करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखती। ऐसे में भारत ही बचता है, जिसकी दिलचस्पी तमाम दिक्कतों के बावजूद अफगानिस्तान के अस्तित्व को बराकर रखने और स्वतंत्र देश पर विकास करते देखने में है। वह नहीं चाहता कि अफगानिस्तान एक बार फिर आतंक का अड्डा नहीं बन जाए, जो तालिबान का दबदबा होने पर बनना तय है।
राष्ट्रपति अशरफ गनी ने ऐसी परिस्थितियों में भारत की यात्रा की। भारत सरकार ने अफगानों को उनके देश के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का भरोसा दिलाया और अफगान सरकार को सुरक्षित रखने के लिए अपने सामर्थ्य भर आर्थिक एवं सैन्य सहायता प्रदान करने की इच्छा भी जताई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफगानिस्तान के लिए 1 अरब डॉलर की सहायता राशि का ऐलान ही नहीं किया, पाकिस्तान से काम करने वाले तथा पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित इस्लामी आतंकी समूहों से लड़ने के लिए अफगान सेना को जो अहम उपकरण चाहिए, उनके लिए सैन्य सहायता प्रदान करने की इच्छा भी भारत की ओर से जताई गई। अफगानिस्तान के लिए भारत जो सैन्य उपकरण खरीद सकता है, उनके अत्याधुनिक होने की संभावना बहुत कम है। लेकिन अत्याधुनिक उपकरणों की जरूरत भी नहीं है क्योंकि बख्तरबंद गाड़ियों (पुरानी ही सही) की दो पलटनों, अचल पंखों वाले विमानों तथा हेलीकॉप्टरों की दो टुकड़ियों कुछ दर्जन तोपों (जिनमें से ज्यादातर का भारत अब इस्तेमाल भी नहीं करता) से ही अफगानिस्तान की फौज का पलड़ा भारी हो जाएगा और अपने दुश्मनों पर उन्हें निर्णायक बढ़त मिल जाएगी।
हालांकि भारत अफगानिस्तान के लिए प्रतिबद्धता बढ़ाने की बात साफ तौर पर कह रहा है, लेकिन भारत के लिए यह भी स्पष्ट रूप से समझना जरूरी है कि वह क्या करने जा रहा है और क्यों करने जा रहा है। भारत को पहले अफगानिस्तान में अपने हित तय करने होंगे और यह भी बताना होगा कि अफगान सरकार का समर्थन करना भारत के हितों के लिए अच्छा क्यों है। इतना होने के बाद भारत को यह देखना होगा कि इन हितों की रक्षा करने के लिए वह किस हद तक जा सकता है। यहां मामला केवल यह नहीं है कि अफगान सरकार को भारत कितनी रकम और सैन्य सहायता दे सकता है, मुद्दा यह भी है कि भारत इतनी सहायता देने के लिए तैयार है या नहीं और भौगोलिक, आर्थिक तथा भू-राजनीतिक तौर पर भारत के सामने कितनी बाधाएं हैं। दूसरे शब्दों में, अफगान सरकार और जनता के समर्थन में प्रभावी भूमिका निभाने की भारत की क्षमता इस बात पर निर्भर करेगी कि कितना काम वह खुद कर सकता है और अपने कौन से मकसद पूरे करने के लिए उसे दूसरे देशों के साथ हाथ मिलाना होगा या उन पर निर्भर रहना होगा।
कोई भी व्यक्ति अगर यह सोचता है कि अफगानिस्तान में भारत के हित वास्तव में पाकिस्तान के कारण हैं तो वह बड़ी भूल कर रहा है। जहां तक पाकिस्तान पर दबाव की बात है तो स्थिर, सुरक्षित एवं स्वतंत्र अफगानिस्तान का मामूली प्रभाव भर पड़ेगा। इतिहास बताता है कि अस्थिर और शत्रुतापूर्ण अफगानिस्तान ने पूरे क्षेत्र को ही अस्थिर किया है तथा ऐसी किसी भी स्थिति को टालना भारत के रणनीतिक हित में ही है। बेशक यह अलग मामला है कि अफगानिस्तान में अस्थिरता का सबसे बड़ा कारण पाकिस्तान ही है और आतंकवादियों की आड़ में जहरीली विचारधारा तथा प्रभाव फैलाने की पाकिस्तान की कोशिश को नाकाम करने में अफगानिस्तान और भारत का जो हित है, वह भारत को अफगानों के लिए कुछ करने की एक और वजह देता है।
निश्चित रूप से भूगोल, अर्थशास्त्र और तकनीकी-सैन्य कारक भारत को कुछ हदों में बांध देते हैं, जिनके कारण अफगानिस्तान पर पूरी तरह अलहदा नीति अपनाने में भारत के सामने बाधा आती है। इसका अर्थ है कि अफगानिस्तान को बरकरार रखने के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से साझेदारों के साथ काम करना होगा। इन साझेदारों - अमेरिका, ईरान, रूस और चीन के साथ काम करने में दिक्कत यह है कि इनमें से हरेक देश के अपने हित और बाध्यताएं हैं, जिनमें से सभी भारत के हितों के अनुरूप हों, यह जरूरी नहीं। इनमें से हरेक बड़ी ताकत को एक दूसरे से दिक्कत है, जिससे मामला और पेचीदा हो जाता है। इसका मतलब है कि भारत को किसी और से टकराए बगैर अपने हितों की रक्षा और उनकी पूर्ति के लिए कूटनीति की बारूदी सुरंगों के बीच से संभलकर निकलना होगा। यह कहना जितना आसान है, करना उतना नहीं है, लेकिन उतना मुश्किल भी नहीं है, जितना दिखता है। इसका एक तरीका यह सुनिश्चित करना है कि अमेरिका, रूस, ईरान और शायद चीन जैसे प्रमुख पक्ष ऐसी नीतियां न बनाएं, जिनसे अफगानिस्तान में समस्या - पाकिस्तान - को अफगानिस्तान का समाधान मान लिया जाए।
अफगानिस्तान में सभी क्षेत्रीय तथा वैश्विक पक्षों को पाकिस्तान के इर्द-गिर्द इकट्ठे होने से रोकने का अपना मकसद हासिल करने के लिए भारत के पास कुछ स्पष्ट तरीके हैं। पहला तो चाबहार बंदरगाह और सड़क तथा रेल नेटवर्क को तैयार और चालू करने में जुटना ही है क्योंकि इससे अफगानिस्तान, मध्य एशिया और रूस का दरवाजा ही नहीं खुलेगा बल्कि ईरान को भी भारत के साथ करीबी रिश्ते बरकरार रखने होंगे। चाबहार परियोजना दुनिया भर के साथ अफगानिस्तान के व्यापार और आवाजाही के रास्ते पर पाकिस्तान की पकड़ को ढीला करेगी और पाकिस्तान का डरावना प्रभाव दूर करने तथा उसके हस्तक्षेप को ताक पर रखने में अफगानिस्तान की मदद करेगी।
चाबहार के रास्ते रूस में प्रवेश का साधन मिलने से रूस के साथ भारत के रिश्ते भी दोनों देशों के बीच व्यापारिक एवं वाणिज्यिक संबंध बढ़ने के साथ और गहरे होंगे। इसके साथ ही भारत को सुनिश्चित करना होगा कि रूस के साथ उसके रक्षा और सुरक्षा रिश्तों को नजरअंदाज नहीं किया जाए। पिछले कुछ वर्षों में इस रिश्ते में कुछ दिक्कतें आई हैं, जिनकी वजह से भारत को रक्षा खरीद के लिए दूसरे देशों से हाथ मिलाना पड़ा है, लेकिन भारत के रक्षा उद्योग में रूस महत्वपूर्ण साझेदार बना रहेगा। अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी से रूस जैसा पुराना दोस्त छिटकना नहीं चाहिए, जो प्रभावशाली और ताकतवर देश बना हुआ है। अगर अमेरिका और चीन भारत के साथ रिश्ते बनाते हुए भी पाकिस्तान जैसे आतंकवादी देश को दुलारना जारी रख सकते हैं तो अमेरिका के साथ रिश्ते मजबूत करने की खातिर भारत रूस के साथ अपने रिश्तों को कमतर नहीं आंक सकता। इतना ही नहीं, यदि सीरिया में रूस के दखल से यही संकेत मिलता है कि अफगान सरकार की सैन्य मजबूती के लिए भारत रूस जैसे पक्के इरादे वाले देश के साथ मिलकर काम कर सकता है।
अफगानिस्तान के साथ मिलकर भारत पाकिस्तान पर दबाव डाल सकता है। लेकिन यहां एक बार फिर याद रहे कि भारत की अफगान नीति का मकसद केवल पाकिस्तान पर दबाव डालना नहीं है। यह तो अफगानिस्तान को सुरक्षित करने के भारत के नीतिगत उद्देश्य को प्राप्त करने का एक जरिया भर है।
भारत पहला काम तो यह कर सकता है कि ड्यूरंड रेखा की मान्यता रद्द कर दे और इस मसले पर अफगानिस्तान के रुख का कूटनीतिक तथा राजनीतिक समर्थन कर दे। दूसरा काम यह हो सकता है कि भारत अफगानिस्तान को वहां पर्याप्त जल संसाधन तैयार करने में मदद करे। अफगानिस्तान के लिए यह बिजली बनाने के लिए ही नहीं बल्कि अफगानिस्तान के खेतों को सींचने के लिए भी बेहद जरूरी है और इन दोनों से ही दीर्घकाल में अफगानिस्तान स्वावलंबी देश बनेगा, जिसे बाकी दुनिया की खैरात पर जिंदा रहने की जरूरत नहीं होगी। हालांकि यह निश्चित है कि काबुल नदी जैसी किसी नदी पर बांध बनने से पाकिस्तान को दिक्कत होगी, जो अपनी कृषि अर्थव्यवस्था के लिए काबुल नदी के पानी पर ही निर्भर है। भारत को अफगानिस्तान के लिए तीसरा काम यह करना होगा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने अफगान सरकार की अधिक सकारात्मक छवि पेश करने के लिए वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करे। पिछले करीब चार दशक से अफगानिस्तान की कहानी युद्ध और हिंसा की कहानी है। लेकिन पिछले डेढ़ दशक से काफी कुछ अच्छा हुआ है और इन अच्छी बातों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने रखा जाना चाहिए। यह जरूरी है ताकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय अफगानिस्तान को उसके पैरों पर खड़े रहने में मदद करता रहे, मझधार में छोड़ न जाए। भारत को चौथा काम यह करना होगा कि परियोजनाओं तथा बजटीय सहायता कार्यक्रमों के जरिये अफगानिस्तान को क्षमता निर्माण में सहायता की जाए। क्षमता निर्माण का कुछ हिस्सा सैन्य उपकरण तथा प्रशिक्षण के जरिये दे दिया जाएगा, लेकिन क्षमता निर्माण में असैन्य पहलू भी है, जो सैन्य पहलू के बराबर ही महत्वपूर्ण है। आखिर में भारत और अफगानिस्तान मिलकर अपने खिलाफ पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे छद्म युद्ध का जवाब भी दे सकते हैं। किंतु आदर्श स्थिति तो यह है कि जैसे को तैसे वाला जवाब ही दिया जाए और पाकिस्तान के भीतर केंद्र से इतर राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने और उसका समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए क्योंकि ये तरीके अधिक मारक क्षमता वाले हैं और उनमें संभावनाएं भी बहुत अधिक हैं।
स्पष्ट है कि करीब डेढ़ दशक से अफगानिस्तान को चुपचाप मदद कर रहे भारत के लिए अब स्थिर और सुरक्षित बनने में सहायता करने के लिीए भारत को अधिक मुखर भूमिका निभानी होगी। किंतु इसके लिए भारत की समग्र राष्ट्रीय शक्ति के सभी तत्वों का इस्तेमाल करना होगा और ऐसा अनौपचारिक या सनक भरे तरीके से नहीं हो सकता। उससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि इसके लिए झटकों और आलोचनाओं को झेलने की खातिर तैयार रहना होगा। किंतु यदि रणनीतिक मकसद इस क्षेत्र को एक और सीरिया या इराक बनने से रोकना है तो भारत को कुछ करना ही होगा।
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