15/16 अक्टूबर को गोवा में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर संभावित बल और समूह के अंतर्निहित सीमाओं पर क्रमशः कुछ प्रकाश डाला जाएगा। ब्रिक्स, एक अवधारणा के रूप में वैश्विक मामलों में पश्चिमी देशों के आधिपत्य का स्थायी मुकाबला करने की विशाल क्षमता रखता है। अकेले चीन और भारत के बीच वास्तविक अर्थ में दोस्ताना और सहयोगपूर्ण संबंध पश्चिम और बाकी देशों के बीच के वैश्विक संतुलन में एक बड़ा अंतर पैदा कर सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका)-यूरोपीय संघ (ईयू) समूह और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) अपनी सैन्य इकाई की सहायता से सभी अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर वैश्विक चर्चा पर हावी रहते हैं और काफी हद तक विचार-विमर्श के संदर्भ निर्धारित करते हैं। हालांकि, विशेष रूप से आर्थिक शक्ति एशिया की ओर स्थानांतरित हो रही है, इसके पीछे का मुख्य कारण है चीन का आर्थिक उद्भव और भारत का स्थिर आर्थिक विकास।
यहां तक कि ब्रिक्स के बाहर चीन-भारत समझौता, सैद्धांतिक रूप से वैश्विक एजेंडे को आकार देने वाले ट्रांस अटलांटिक शक्तियों की वर्तमान स्वतंत्रता को संकीर्ण कर सकता है। हमने देखा है कि कैसे पश्चिमी देशों के लिए अमेरिका के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा प्रमुख मुद्दों का सामना करने की स्थिति में बोर्ड में चीन और भारत को शामिल किए जाने को प्राथमिकता दी जाती है। बोर्ड में एक साथ काम करते हुए, भारत और चीन अपने ताकत की काफी सौदेबाजी कर सकते थे। विशेष रूप से रूस की ताकत के साथ और ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका को जोड़ कर बने पांच ब्रिक्स देशों के पास अंतरराष्ट्रीय शासन में प्रमुख भूमिका निभाने के लिए राजनीतिक शक्ति होगी जिसे वर्तमान में ट्रांस अटलांटिक गठबंधन की शक्ति से संचालित, चेतनाशून्य और स्वयं सेवा की नीतियों के चलते आघात पहुंच रहा है, जो उनके दीर्घकालिक परिणामों को नजरअंदाज करता प्रतीत होता है।
अमेरिका/यूरोपीय संघ/नाटो और ब्रिक्स जैसे शक्ति के दो गुटों के बीच अंतर यह है कि एक तरफ एक गठबंधन है, मुख्य रूप से सैन्य गठजोड़, लेकिन वे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मूल्यों को भी अपना रहे हैं। अटलांटिक लोकतंत्र के दोनों तरफ बहुलतावाद, मीडिया की स्वतंत्रता, न्यायिक स्वतंत्रता, उद्यमशीलता और बाजार अर्थव्यवस्था से उद्देश्य और कार्रवाई की एकता को मजबूती मिलती है। इन साझा मूल्यों के अंतरराष्ट्रीय प्रसार को जहां कहीं भी जरूरत महसूस होती है ‘‘सॉफ्ट पावर’’ और ‘‘सैन्य शक्ति’’ का आक्रामक तरीके से समर्थन मिलता है जो कि ट्रांस अटलांटिक गठबंधन के वैश्विक एजेंडे को निर्धारित करता है। इसकी तुलना में, ब्रिक्स न तो एक सैन्य गठबंधन है और न ही यह साझा मूल्यों पर आधारित है। चीन सत्तावादी है जबकि भारत लोकतांत्रिक है। रूस और अधिक लोकतांत्रिक है और चीन की तुलना में बहुत कम सत्तावादी है, लेकिन इसके राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ढांचे भारत की व्यवस्थाओं से भिन्न हैं। भारत को छोड़ दें, और कुछ हद तक ब्राजील को छोड़ दें तो बाकी तीन देशों के पास सॉफ्ट पावर की कमी है। वैचारिक राज्य के तौर पर सोवियत संघ के पास अपार सॉफ्ट पावर थी; एक गैर-वैचारिक राज्य के रूप में रूस इसका बड़ा हिस्सा खो चुका है, हालांकि अभी भी यह अपने पास जबरदस्त सैन्य शक्ति बरकरार रखे हुए है, तथापि, यह अपने परमाणु और मिसाइल क्षमताओं से परे अमेरिका की बराबरी नहीं कर सकता है। चीन अपनी सैन्य ताकत का बढ़ा रहा है और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के लिए एक चुनौती पेश करनी शुरू कर दी है। ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के पास कोई सामरिक क्षमता नहीं है। ब्रिक्स के असमान प्रकृति एक सीमित सीमा में मुद्दों को जैसे मुख्य तौर पर वैश्विक वित्तीय प्रणाली में सुधार से संबंधित और नए वित्तीय संस्थाओं को स्थापित करने जिससे वित्तीय प्रक्रिया में तेजी आएगी को छोड़कर गठबंधन में शामिल देशों को नीतियों और कार्यों के बीच सामंजस्य बनाने से रोकता है।
ब्रिक्स के भीतर दोषपूर्ण चीजें जो समूहीकरण को कमजोर करते हैं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उनमें से कुछ सीधे तौर पर भारत के हितों को प्रभावित करते हैं। चीन, उत्तर में हमारे क्षेत्र पर कब्जा कर रहा है, और यहां तक कि अगर हम इसे जमीनी हकीकत के तौर पर समझें, तब भी हम इसे बदल नहीं सकते, वह पूर्व में हमारे क्षेत्र के बड़े हिस्से पर अतिरिक्त दावें करता है। चीन सीमा पर समय-समय पर सैन्य घटनाओं को अंजाम देता रहता है ताकि इसे एक राजनीतिक मुद्दे के तौर पर हवा दी जा सके। इससे सीमा मुद्दे को सुलझाने के प्रति उसका कोई वास्तविक झुकाव नहीं होने का पता चलता है, और अंतरिम में यह वास्तविक नियंत्रण रेखा के स्पष्टीकरण का विरोध करता है। भले ही आर्थिक मोर्चे पर वह हमसे जुड़ा हुआ है और ब्रेटन वुड्स संस्थाओं, जलवायु परिवर्तन, दोहा समझौते आदि सुधार के रूप में साझा हित के वैश्विक मुद्दों पर हमारे साथ सहयोग कर रहा है, फिर भी चीन विविध तरीकों से हमारे खिलाफ पाकिस्तान को तैयार करने से बाज नहीं आया है। वह हमें एक परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में पहचान देने से मना करता है, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में सदस्यता के मुद्दे पर, इस आधार पर हमारा विरोध कर रहा है कि हमने गैर परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर नहीं किया है, एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा देता है और अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन कर पाकिस्तान के परमाणु क्षमता को बढ़ावा देता है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) कानूनी तौर पर हमारा क्षेत्र है, लेकिन चीन हमारे साथ अपने व्यवहार से लगातार उस हिस्से को जम्मू-कश्मीर से अलग दिखाने की कोशिश करता आया है, अब उसका चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा पीओके से होकर गुजर रहा है। चीन का यह कदम भारत को जानबूझकर उकसाने वाला है। यह पाकिस्तान की उस स्थिति को समर्थन देने वाला कदम है जिसके तहत वह कहता है कि उसका भारत से विवाद भारत के हिस्से वाले कश्मीर के लिए है, न कि उसके अपने कब्जे वाले कश्मीर के लिए।
अब जबकि आतंकवाद को लेकर इस बात पर अंतरराष्ट्रीय आम सहमति तेजी से बढ़ रही है कि आतंकवाद एक गंभीर खतरा है, जिससे सामूहिक रूप से लड़े जाने की जरूरत है। चीन यह समाधान सुझाता है कि वह आतंकवाद के सभी स्वरूपों और अभिव्यक्ति तथा अच्छे और बुरे आतंकवादियों के भेद का बहिष्कार करता है और जब मामला भारत का आता है तो वह पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई पड़ता है। भारत के विरुद्ध सक्रिय पाकिस्तान आधारित आतंकवादियों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद समिति जैसे प्रासंगिक संगठन द्वारा अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किए जाने के रास्ते में चीन अड़ंगा डालता है। इस संबंध में भारत की संवेदनशीलता और हमारे मामले की वैधता के प्रति पूरी तरह से जागरूक होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र द्वारा जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर को एक आतंकवादी के रूप में घोषित किए जाने को चीन ने बार-बार किया है। उसने पहले भी लश्कर-ए-तैयबा के लखवी को बचाया था। वह भारत में आतंकवाद की समस्या को भारत-पाकिस्तान मतभेद के दायरे में देखता है और इसके समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकृष्ट करने की बजाए दोनों देशों के बीच परस्पर संवाद पर बल देता है।
जहां एक ओर, ब्राजील में हुए 2014 के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के फोर्टालेजा घोषणा पत्र में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर संयुक्त राष्ट्र के व्यापक सम्मति को अंतिम रूप दिए जाने का समर्थन किया गया है, वहीं 2015 के ऊफा घोषणापत्र में इसके बारे में कोई जिक्र नहीं है। यह स्थिति इसके बावजूद है कि हमारी सरकार सक्रिय रूप से राजनयिक स्तर पर इसके लिए अभियान चला रही है। स्पष्ट है कि चीन-पाकिस्तान कारक ने इसमें हस्तक्षेप किया है। वास्तविकता यह है कि ऊफा घोषणापत्र के पैरा में आतंकवाद की चर्चा करते हुए सीरिया, अफगानिस्तान और अफ्रीका में स्थिति की बात हुई है, लेकिन आतंकवाद के मामले में भारत की समस्या पर चुप्पी बनी रही।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की हमारी उम्मीदवारी पर फ्रांस और ब्रिटेन का समर्थन है, सुरक्षा परिषद के विस्तार होने की स्थिति में इसमें शामिल किए जाने को लेकर अमेरिका हमारी योग्यता को लेकर आश्वस्त है और रूस, द्विपक्षीय स्तर पर समर्थन देता है, लेकिन ब्रिक्स के भीतर हम अपेक्षित समर्थन प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं।
जाहिर है यहां भी चीन ही इसका कारण है। ब्रिक्स सम्मेलन वक्तव्यों में इस प्रकार का प्रभावी वक्तव्य कि ‘‘चीन और रूस अंतरराष्ट्रीय मामलों में ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका की स्थिति और भूमिका को महत्व देने की प्रतिबद्धता को दोहराते हैं और संयुक्त राष्ट्र में बड़ी भूमिका निभाने की उनकी आकांक्षा को समर्थन देते हैं’’ तब तक असंतोषजनक है जब तक कि वे इसे संरक्षण नहीं देते। दक्षिण अफ्रीका ने भारत और ब्राजील की तर्ज पर अपनी उम्मीदवारी की घोषणा नहीं की है और घोषणापत्र में यह उल्लेख करना भारत और ब्राजील को स्पष्ट समर्थन देने से बचने की एक कूटनीतिक चाल लगती है।
जब ब्रिक समूह की पहली घोषणा की गई थी तब प्रत्येक देश अपने स्तर पर तीव्र आर्थिक विकास कर रहे थे, और वैश्विक अर्थव्यवस्था में बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाने वाले उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में उन्हें पहचाना गया। आज ब्रिक्स देशों के ज्यादातर देश की छवि एक पिटी हुई अर्थव्यवस्था की हो गई है। तेल की कीमतों में भारी गिरावट के चलते रूसी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है। रूबल में भारी अवमूल्यन हो गया है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के प्रतिबंधों से रूस की वित्तीय कठिनाइयों में बढ़ोतरी हुई है। रूस की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक ढांचागत सुधार नहीं हुआ है। राष्ट्रपति लूला के नेतृत्व में ब्राजील आर्थिक विस्तार के शिखर पर सवार था, लेकिन उसके बाद से अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज की गई है और देश राजनीतिक अव्यवस्था के भंवर में फंसा है। अन्य चार की तुलना में दक्षिण अफ्रीका, अपेक्षाकृत बहुत छोटी अर्थव्यवस्था है और वह भी राजनीतिक और आर्थिक कठिनाई से घिरा है। दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक देश के रूप में चीन की आर्थिक कद दुर्जेय बनी हुई है, लेकिन इसकी अर्थव्यवस्था भी नीचे जा रही है। अतिरिक्त क्षमता और बड़े पैमाने पर ऋणग्रस्तता से चीन की आर्थिक छवि बिगड़ रही है। पश्चिमी देशों में फैली वैश्वीकरण विरोधी भावनाओं के व्यापक प्रसार से ब्रिक्स देशों के समक्ष चुनौतियां कम नहीं होंगे।
भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था में और ब्रिक्स के भीतर अपेक्षाकृत एक प्रगतिशील स्थान रखता है, लेकिन इसे वांछित स्तर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए यहां बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर निवेश करने और प्रमुख प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की जरूरत है। संक्षेप में, पारस्परिक रूप से एक ऐसा सहयोगपूर्ण आर्थिक ढांचा तैयार करने के लिए, जिसके भीतर वे विकास कर सकें, ब्रिक्स देश एक दूसरे पर भरोसा नहीं कर सकते। वैसे भी, चीन का सबसे बड़ा आर्थिक साझेदार अमेरिका है, और वही स्थिति भारत के साथ भी है। यह ब्रिक्स देशों की ‘‘दक्षिण-दक्षिण सहयोग’’ सदस्यता की अवधारणा पर एक अंकुश लगाता है। रूस-चीन व्यापार और आर्थिक संबंधों का काफी विस्तार हुआ है लेकिन ताजा आंकड़े इसमें कमी की दस्दीक करते हैं। भारत का चीन के साथ व्यापार 70 बिलियन डालर के करीब पर रुका हुआ है, जिसमें व्यापार घाटा 50 बिलियन डालर के आसपास है। भारत और चीन के बीच राजनीतिक अविश्वास भारत में चीनी निवेश में बाधा डाल रहे हैं। राष्ट्रपति शी की पिछली भारत यात्रा के दौरान 20 बिलियन डालर के निवेश का संकेत मिला था, वह अभी कागज पर ही है। दोनों पक्षों की तरफ से व्यापार-व्यापार संबंधों को बढ़ावा दिए जाने के प्रयासों के बावजूद भारत-रूस आर्थिक संबंध स्थिर बना हुआ है। वास्तव में, 2015 में द्विपक्षीय व्यापार मात्र 7.83 बिलियन यूएस डाॅलर रहा, इस प्रकार 2014 के मुकाबले इसमें 17.74 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। भारत-रूस राजनीतिक और सैन्य संबंध मजबूत बने हुए हैं लेकिन पाकिस्तान के लिए रूस के सैन्य पहल से हमारे दीर्घकालीन संबंधों में असहजता के भाव उभर रहे हैं। पाकिस्तान को आक्रामक सैन्य उपकरणों की बिक्री करने और एक ऐसे देश के साथ सैन्य अभ्यास आयोजित करने जिसने अफगानिस्तान में रूसी सैनिकों को हताहत करने वाले हमले किए हों, के पीछे मंशा स्पष्ट नहीं है।
यदि ये पहल भारत के प्रति पाकिस्तान की नीतियों में दृष्टिगोचर बदलाव और राज्य की नीति के रूप में आतंकवाद को एक औजार के तौर पर अपने प्रयोग को छोड़ने के संकेत के संदर्भ में किया गया था, तो इसका कोई अर्थ हो सकता था। लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान के तेजी से सक्रिय होने और उड़ी हमले के तुरंत बाद इस सैन्य अभ्यास के उद्देश्य और समय के बारे में कुछ भी समझ पाना मुश्किल है। पाकिस्तान के प्रति इस सहायक हाव-भाव से भले रूस को लाभ मिल रहा हो, लेकिन इसकी कीमत उसे भारतीय उप-महाद्वीप के लिए अपनी उभरती दृष्टिकोण में विश्वास की कमी के रूप में भुगतना होगा, जिसका रूसी सरकार को मूल्यांकन करने की जरूरत है। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से ठीक पहले गोवा में भारत-रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन में मामलों को स्पष्ट करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।
ब्रिक्स देशों के बीच महत्व के अन्य मतभेद से वैश्विक मामलों में इसके प्रभाव भी प्रभावित होते हैं। चीन के एक बेल्ट एक रोड (ओबीओआर) पहल के बारे में भारत की चिंता गंभीर है। इस परियोजना का भूमि आयाम भारत को रणनीतिक तौर पर चतुराई से मात देने में सक्षम है। इसका समुद्री आयाम शीघ्र ही हिंद महासागर में चीन की नौसेना के प्रवेश को सुगम बनाने वाला है, जिसमें ग्वादर का उपयोग चीन के लिए एक अंतिम नौसेना बेस के रूप में किया जाएगा। रूस ओबीओआर पहल का समर्थन करता है। दक्षिण चीन सागर में अंतरराष्ट्रीय कानून की चीन की ओर से अवज्ञा और क्षेत्रीय मुद्दों पर उसकी भावनाओं के कारण दोनों देशों के बीच अस्थिर क्षेत्रीय मुद्दों की वजह से भारत की चिंता बढ़ने वाली है। रूस, हालांकि, दक्षिण चीन सागर विवाद पर चीन के लिए राजनीतिक समर्थन बढ़ा रहा है, इसका प्रमाण हाल ही में इस क्षेत्र में उसके साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास है। जब भारत अमेरिका के साथ अपने संबंधों में सुधार कर रहा है, जो कि रूस के साथ संबंध से पूरी तरह स्वतंत्र है, तब अमेरिका-रूस संबंधों में तेज गिरावट से वैश्विक समुदाय के समक्ष चुनौतियों को दूर करने के लिए ब्रिक्स देशों के मध्य रणनीतिक संधि को मजबूत करने का कार्य बहुत अधिक कठिन है। जहां रूसी विदेश नीति के विशेषज्ञों का मानना है कि रूस के यूरोपीय व्यवसाय का अमेरिका/यूरोपीय संघ द्वारा अस्वीकृति को ध्यान में रखते हुए अब पूरब की ओर बढ़ते उसके ये कदम एक स्थायी नीति विकल्प है। वहीं, यह विवादास्पद है कि अमेरिका से परे यूरोप के साथ संबंध रखने का उसका रणनीतिक लक्ष्य निश्चित तौर पर पीछे छूट गया है और क्या रूस और चीन के बीच अंतर्निहित असंगति तथा एक शक्ति के रूप में रूस पर चीन के प्रभुत्व से पश्चिमी वर्चस्व के खिलाफ कुछ दूर तक साथ चलने की आम सहमति पर अंकुश नहीं लगेगा, खासकर तब जबकि यह पता है कि जितनी अधिक इस आधिपत्य को चुनौती मिलेगी, चीन को उतना ही अधिक लाभ पहुंचेगा।
यह सब होने के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि ब्रिक्स से किसी उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती है। आखिरकार, हमारे प्रमुख हितों को समर्थन देने के लिए ब्रिक्स देशों के बीच भी कई समस्याएं आती हैं, जिसे अमेरिका के साथ संबंध में भी हम झेलते हैं, फिर भी हम देखते हैं कि उस देश के साथ हमारे संबंधों में प्रगति हो रही है। विभिन्न महाद्वीपों में फैले अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए और समस्याओं का और अधिक संतुलित समाधान तलाश करने के लिए गैर-पश्चिमी देशों के लिए यह एक उपयोगी मंच है। अंतरराष्ट्रीय शासन को लोकतांत्रिक बनाने और सर्वसम्मति बनाने को बढ़ावा दिया जाना महात्वपूर्ण है। किसी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने और राष्ट्रीय संप्रभुता का सम्मान जैसे अतंरराष्ट्रीय संबंधों को संचालित करने के परंपरागत सिद्धांतों को सुनिश्चित करने में ब्रिक्स देशों के साथ हमारा साझा हित है, हम उसी का अनुपालन कर रहे हैं और ऐसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दों का हल संयुक्त राष्ट्र के आदेश से बाहर संबंधित पक्ष के गठबंधन में किए जाने के बजाए संयुक्त राष्ट्र में बहुपक्षीय प्रक्रियाओं के जरिये किए जाने चाहिए। वैध सरकारों को अस्थिर करने के लिए लोकतंत्र और मानव अधिकारों की अवधारणाओं के भू राजनीतिक उपयोग और उसे लागू करने में दोहरे मापदंड का भी हम विरोघ करते हैं। एशिया की ओर वैश्विक आर्थिक सत्ता के बदलाव को प्रतिबिंबित करने के लिए हम भी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में सुधार चाहते हैं जिसके तहत विशेष तौर पर आईएमएफ कोटा का पुनर्वितरण होना चाहिए। ब्रिक्स के नवगठित न्यू विकास बैंक और बहुपक्षीय आकस्मिकता रिजर्व व्यवस्था, महत्वपूर्ण उपलब्धियों के रूप में गिने जा सकते हैं, क्योंकि इससे विकास परियोजनाओं को बढ़ावा देने के लिए और जरूरत के समय ऋण देने की पेशकश करने वाले गैर-पश्चिमी देशों की नव वित्तीय क्षमता के विकास का पता चलता है।
इंट्रा ब्रिक्स व्यापार में राष्ट्रीय मुद्राओं के प्रयोग को बढ़ावा देने का उद्देश्य सदस्य देशों को और अधिक वित्तीय स्वायत्तता देना है। देशों पर वित्तीय प्रतिबंध लगाने के लिए अमेरिका द्वारा डॉलर का उपयोग एक हथियार के रूप में किया जाना, एक परेशान करने वाली वास्तविकता है। हमारी ब्रिक्स सदस्यता हमें अपनी विदेश नीति में एक संतुलन बनाए रखने और हमारी सामरिक स्वायत्तता को बनाए रखने में भी मदद करता है। रूस के साथ हमारे पारंपरिक संबंध, हमारे मतभेदों के बावजूद चीन को शामिल करने की जरूरत और ब्राजील के साथ संबंध प्रागाढ़ करने से- चार देशों के समूह का एक सदस्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है, ये उद्देश्य हैं जिन्हें हमारी ब्रिक्स सदस्यता के जरिये पूरा किया जा रहा है।
यहां तक कि ब्रिक्स यदि हमारे लिए महत्वपूर्ण स्थान रखता है, इसके शीर्ष के तहत गतिविधियां एक सीमा से परे हवा से भर चुकी हैं। इन गतिविधियों के मूल्य के बारे में एक और अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण लिया जाना है। अमेरिका, यूरोप, आसियान या सार्क के साथ इतनी व्यापक साझेदारी नहीं है। ब्रिक्स के वर्तमान अध्यक्ष के रूप में हमने अपनी ओर से विशेष आउटरीच के लिए बिम्सटेक देशों को आमंत्रित किया है, लेकिन इसके दायरे के संदर्भ में बिम्सटेक का एजेंडा भी ब्रिक्स के ईर्द-गिर्द ही है। इसके तहत ऊर्जा, सीमा शुल्क के मुद्दांे, ई-कॉमर्स, नारकोटिक्स, प्रतियोगिता नीति, बाह्य अंतरिक्ष, विदेश नीति, पश्चिम एशियाई स्थिति, थिंक टैंक, शिक्षा, युवा मामले, आईसीटी, आर्थिक और व्यापार के मुद्दों, ट्रेड यूनियनों, अंतर-बैंक सहयोग, संस्कृति, श्रम और रोजगार, जनसंख्या, कृषि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा नवाचार, दूरसंचार, आपदा प्रबंधन, भ्रष्टाचार निरोधक, मीडिया, कानूनी सहयोग, औद्योगिक मुद्दों, कर अधिकारियों और राष्ट्रीय सांख्यिकी के प्रमुखों की बैठक, सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों, अंतरराष्ट्रीय विकास सहायता के कार्यवाहक वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक, ब्रिक्स वैश्विक विश्वविद्यालयों के शिखर सम्मेलन, पलायन अधिकारियों के प्रमुखों की बैठक, औद्योगिक सुरक्षा विनियमन, शांति स्थापना पर संवाद, क्षेत्रीय ब्रिक्स परिषद आदि को शामिल किया गया है। ब्रिक्स के पास शैक्षिक, व्यापार, संसदीय, वित्तीय, युवा राजनयिकों और युवा वैज्ञानिकों के फोरम हंै। इसका ब्रिक्स के भीतर परस्पर बहुपक्षीय संबंधों के मामलों में बहुत कम लेना-देना है। केवल एक गहन, प्रगाढ़ होते संबंध ही मेजवानी वाले क्षेत्र में ब्रिक्स देशों को साथ ला रहा है और हकीकत में उनकी नीतियों को आकार दे रहा है और उनका समग्र संबंध वास्तविक बहुप्रचारित एजेंडे का औचित्य साबित करेगा। यह गहन आदान-प्रदान पांच ब्रिक्स देशों के बीच एक वास्तविक मेल-मिलाप में तब्दील नहीं हो पा रहा है।
एक मंच के रूप में ब्रिक्स का महत्व है लेकिन इसे अत्यधिक महत्व देना एक गलती होगी।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और वीआईएफ के डीन हैं)
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