पिछले कुछ हफ्तों के घटनाक्रम, जिनकी परिणति 29 सितंबर 2016 की आधी रात में भारतीय सेना द्वारा नियंत्रण रेखा के पार बेहद सफल लक्षित हमलों (सर्जिकल स्ट्राइक) के रूप में हुई, एक ऐतिहासिक क्षण की रचना कर गए क्योंकि उनसे भारत की पाकिस्तान नीति में एकदम निश्चित बदलाव दिखा। बिना शर्त बातचीत करते रहने की नीति अब हमारे खिलाफ आतंक का इस्तेमाल करने की कीमत वसूले जाने की नीति बन गई है।
आजादी के बाद से ही पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति अपने आप ही बातचीत की बन गई, जिसमें जब-तब तुष्टिकरण किया जाता था और इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता था कि भारत के करीब जाना तो दूर रहा, पाकिस्तान उसे हरमुमकिन तरीके से और खास तौर पर आतंक के इस्तेमाल से नीचा दिखाने की कोशिश करता रहा है। वास्तव में भारत के प्रति पाकिस्तान के रुख की वजह जम्मू-कश्मीर जैसे मसलों पर भारत-पाकिस्तान के मतभेद नहीं हैं बल्कि उसका भारत-विरोधी स्वभाव है। ऐसी परिस्थितियों में पाकिस्तान के साथ बातचीत करते रहने की भारत की चिर-परिचित नीति केवल नाकाम ही नहीं हुई बल्कि उसकी वजह से पाकिस्तान को भारत के खिलाफ काम करने वाली आतंकी गतिविधियों को समर्थन देना जारी रखने का हौसला भी मिल गया। इसलिए पाकिस्तान के साथ ताकत का प्रदर्शन करने का प्रधानमंत्री मोदी का तरीका अतीत से हटकर अच्छा अनुभव है।
भारत की पाकिस्तान नीति में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किए गए बदलावों की पृष्ठभूमि संभवतः जनवरी 2016 के पठानकोट हमले के बाद तैयार हुई, जब यह स्पष्ट हो गया था कि पाकिस्तान कितने भी आश्वासन देता रहे, लेकिन इस मामले में भारत की चिंताओं का गंभीरता के साथ समाधान करने और आतंकी हरकतों को अंजाम देने वालों पर कार्रवाई करने का उसका कोई इरादा नहीं है। घाव पर नमक छिड़कते हुए पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में जबरदस्त हिंसा भड़काना शुरू कर दिया, खास तौर पर बुरहान वानी की मौत के बाद, जिसे उसने बहुत अहमियत देनी शुरू कर दी। तब तक प्रधानमंत्री मोदी अपने पूर्ववर्तियों और विशेष तौर पर प्रधानमंत्री वाजपेयी की लीक पर ही चल रहे थे और पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे थे, जिसमें सबसे नाटकीय तो अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को न्योता देना और शरीफ की सालगिरह पर 25 दिसंबर 2015 को अचानक लाहौर पहुंचना था। लेकिन जब यह साफ हो गया कि पाकिस्तान किसी भी कीमत पर आतंकी ढांचा बंद करने के लिए तैयार नहीं है और भारत में आतंकी भेजना वह जारी रखेगा तो मोदी सरकार ने रास्ता बदलने और पाकिस्तान पर सख्ती दिखाने का फैसला किया ताकि उसे तकलीफ देकर रास्ता बदलने के लिए मजबूर किया जा सके।
भारत की विदेश नीति में इस तरह का आमूल-चूल बदलाव सराहनीय भी है और साहसिक भी। सराहनीय इसीलिए क्योंकि केवल इसी से हमें पाकिस्तान से आने वाले आतंकवाद से मुक्ति मिल सकती है। साहसिक इसीलिए क्योंकि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार भी हैं और अच्छी खासी सैन्य क्षमता भी और अभी तक अमेरिका ने भी ऐसा रास्ता नहीं अपनाया है। इसके अलावा पाकिस्तान अपने सदाबहार दोस्त चीन पर भरोसा कर सकता है, जो उसकी तकलीफें कम करने की कोशिश करेगा।
मोदी सरकार जानती थी कि काम कितना बड़ा और जोखिम भरा है, इसीलिए मोदी सरकार ने समझदारी से चलते हुए देश की ताकत का हरेक पहलू, विशेषकर कूटनीतिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य सुनियोजित तरीके से सामने लाने का फैसला किया ताकि उसका मकसद पूरा हो सके। कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन अभी तक इस प्रदर्शन जबरदस्त रहा है।
कूटनीतिक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह बताने में कि पाकिस्तान वास्तव में आतंक का अड्डा है और उसे अलग-थलग करने में बड़ी कामयाबी हासिल की। उसी का नतीजा है कि एक भी देश ने उड़ी हमले के बाद भारत के सर्जिकल स्ट्राइक की आलोचना नहीं की। सत्ता में आने के बाद से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ प्रधानमंत्री मोदी का मेलजोल और दुनिया भर के नेताओं के साथ उनके निजी रिश्ते ही इसकी सबसे बड़ी वजह हैं। दुख की बात है कि उनकी विदेश यात्राओं के लिए विपक्ष के अधिकतर नेता उनकी आलोचना करते रहे हैं। लेकिन अगर भारत अच्छी स्थिति में है तो इसकी वजह वे यात्राएं ही हैं क्योंकि इन यात्राओं और बैठकों के जरिये ही वह दिखा पाए कि पाकिस्तान भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरा बन रहा है। पाकिस्तान से पैदा होने वाले खतरों को सामने लाने की प्रधानमंत्री की निजी कोशिशों को राजनीतिक और आधिकारिक स्तर पर पूरा समर्थन मिला है और इसी वजह से अंतरराष्ट्रीय समुदाय में पाकिस्तान की इतनी बुरी स्थिति हो गई है, जितनी पहले कभी नहीं हुई थी। यह बात इससे भी साफ होती है कि जब भारत ने इस्लामाबाद में नवंबर 2016 में होने वाले दक्षेस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लेने की घोषणा की तो बांग्लादेश, अफगानिस्तान, भूटान और श्रीलंका भी उसके साथ हो लिया और अब सम्मेलन स्थगित हो गया है। पाकिस्तान को अलग-थलग करने की एक और शानदार पहल के तहत भारत ने गोवा में इसी महीने होने वाले आठवें ब्रिक्स सम्मेलन में केवल दक्षेस देशों को न्योता देने के बजाय बिम्सटेक के सदस्यों को आमंत्रित किया ताकि पाकिस्तान को इस सम्मेलन से बाहर रखा जा सके। व्यावहारिक तौर पर यह एकदम सही भी है क्योंकि लगातार अड़ंगा डालने की पाकिस्तान की नीति ही दक्षेस में ठहराव के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।
राजनीतिक स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में बलूचिस्तान, गिलगिट और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की जनता का जिक्र कर पाकिस्तान की दुखती रग पर हाथ रख दिया। 24 सितंबर को कोझिकोड में अपने भाषण में उन्होंने इसे और भी विस्तार दिया, जब पाकिस्तान की जनता को संदेश देने के बहाने उन्होंने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर, गिलगिट, बाल्टिस्तान और बलूचिस्तान की जनता के साथ-साथ सिंधियों और पख्तूनों के बीच फैले असंतोष की ओर भी ध्यान खींचा। उनमें से कुछ क्षेत्रों में इसका जबरदस्त असर हो चुका है, जो पाकिस्तान के लिए मुश्किल भरा होगा।
आर्थिक क्षेत्र में मोदी सरकार सिंधु जल संधि और पाकिस्तान को एकतरफा तरीके से दिए गए सर्वाधिक पसंदीदा राष्ट्र (एमएफएन) के दर्जे की समीक्षा कर रही है। इस समीक्षा की जरूरत भी है क्योंकि दोनों ही क्षेत्रों में भारत ने पाकिस्तान को बड़ा फायदा पहुंचाने वाली दरियादिली यह सोचकर दिखाई थी कि इससे संबंध बेहतर करने में मदद मिलेगी। 1960 में हुई सिंधु जल संधि के तहत भारत को अपने इलाके से बहने वाले सिंधु के महज 20 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल करने का अधिकार मिला, जबकि पाकिस्तान को 80 प्रतिशत पानी इस्तेमाल करने का अधिकार मिल गया। यह एकतरफा व्यवस्था बिल्कुल अनुचित थी क्योंकि इसमें शामिल छह नदियों का 40 प्रतिशत जलग्रहण क्षेत्र भारत में ही है। इसके अलावा संधि के मुताबिक भारत ने पाकिस्तान को अतिरिक्त नहरें बनाने के लिए 6 करोड़ पाउंड स्टर्लिंग भी दिए थे। अफसोस की बात है कि हम अपने हिस्से के पानी का पूरा इस्तेमाल भी नहीं कर रहे हैं। हम इस्तेमाल फौरन शुरू कर देना चाहिए और इसके साथ-साथ इस संधि से बाहर आने के रास्तों पर भी विचार करना चाहिए। ऐसा मुमकिन होना चाहिए क्योंकि हम पाकिस्तान से आतंकी युद्ध का सामना ही नहीं कर रहे हैं बल्कि पाकिस्तान शिमला समझौते समेत महत्वपूर्ण भारत-पाकिस्तान समझौतों का लगातार उल्लंघन करता आ रहा है। जहां तक पाकिस्तान को 1996 में एकतरफा अंदाज में दिए गए एमएफएन दर्जे की बात है तो उसे खत्म करना मुश्किल नहीं होगा और उससे पाकिस्तान को भी बहुत दिक्कत नहीं होगी क्योंकि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार केवल 2.6 अरब डॉलर का है। लेकिन इस कदम का सांकेतिक महत्व बहुत ज्यादा होगा।
29 सितंबर को भारत द्वारा किए गए सर्जिकल स्ट्राइक उड़ी में हमारे जवानों पर 18 सितंबर को हुए आतंकी हमलों के सटीक और मुंहतोड़ जवाब ही नहीं थे बल्कि इस बात का संकेत भी थे कि अब भारत पाकिस्तान की ऐसी बदतमीजी बरदाश्त नहीं करेगा। इनसे यह संकेत भी मिला कि पाकिस्तान को जवाब देने के लिए भारत के तरकश में सैन्य कार्रवाई का तीर हमेशा मौजूद रहेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस कार्रवाई ने परमाणु जोखिम की वजह से सैन्य कार्रवाई टालने के सिलसिले को तोड़ दिया। सैन्य कार्रवाई से दूर रहने की कोई वजह ही नहीं थी क्योंकि भारत के पास भी परमाणु क्षमता है, जिसके कारण पाकिस्तान के लिए परमाणु हथियार का इस्तेमाल खुदकुशी करने जैसा ही होगा।
हमारे जवानों ने नियंत्रण रेखा के पार 200 किलोमीटर से भी अधिक दायरे में फैले सात आतंकी शिविरों पर पूरी गोपनीयता के साथ हमला करने और बिना कोई नुकसान उठाए 38 आतंकियों का खात्मा करने की जो कार्रवाई की, उसी से पता चलता है कि हमारी सेना पेशेवर रूप से कितनी माहिर है। हमारी सरकार ने और इस कार्रवाई की योजना बनाने में शामिल लोगों ने टकराव भड़कने की कम से कम आशंका वाले लक्ष्य चुनने में, यह स्पष्ट करने में कि कार्रवाई आतंकवादियों के ही खिलाफ थी और यह बताने में कि हमने उससे अधिक कुछ भी करने की बात नहीं सोची थी, लेकिन किसी भी स्थिति के लिए हम बिल्कुल तैयार हैं, उतनी ही परिपक्वता और कुशलता दिखाई है। हमारे द्वारा कोई भी कार्रवाई किए जाने से पाकिस्तान का इनकार दर्शाता है कि उसे अपने ही लोगों से असुरक्षा महसूस हो रही है। इससे पाकिस्तान के पास भारत के खिलाफ जवाबी हमला करने का बहाना भी नहीं रह गया है और अब अगर टकराव बढ़ता है तो उसका दोष पाकिस्तान पर ही मढ़ा जाएगा। अंत में पाकिस्तान की जनता को जब भी सच पता चलेगा तो वहां की सेना बहुत अजीब स्थिति में फंस जाएगी।
भारत की पाकिस्तान नीति की दिशा जिस तरह बदली है और आतंक का इस्तेमाल करने पर पाकिस्तान को सजा देने का जो तरीका अपनाया गया है, वह स्वागत योग्य है और यह नीति तभी कामयाब होगी, जब इस पर लंबे समय तक चला जाएगा। इस नीति को बहुआयामी ही नहीं होना चाहिए बल्कि इसके जरिये पाकिस्तान पर लगातार दबाव भी बढ़ाया जाना चाहिए। अपने प्रयासों को पूरा करने के लिए हमें अपनी समूची राष्ट्रीय शक्ति के सभी तत्वों का प्रयोग करना चाहिए और सफलता हासिल करने के लिए हमें प्रत्यक्ष और परोक्ष कोई भी तरीका अपनाने से हिचकना नहीं चाहिए।
(लेखक पूर्व राष्ट्रीय उप सुरक्षा सलाहकार हैं)
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