पखवाड़े भर पहले बेंगलूरु और चेन्नई में हिंसा भड़क उठी। लोगों की जानें गईं और आगजनी करने वालों ने करोड़ों रुपये की सार्वजनिक संपत्ति नष्ट कर दी। इसकी वजह उच्चतम न्यायालय का 5 सितंबर का आदेश था, जिसके मुताबिक कर्नाटक को अगले 10 दिन तक रोज तमिलनाडु के लिए 15,000 क्यूसेक पानी छोड़ना था। बाद में इसे घटाकर 12,000 क्यूसेक प्रतिदिन कर दिया गया, लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था। शुक्र है कि वह पागलपन अब थम चुका है। लेकिन दोनों राज्यों के बीच नदी के पानी के बंटवारे का विवाद सुलग रहा है। सौहार्दपूर्ण समाधान दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है और सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम आदेश का इंतजार किया जा रहा है।
कावेरी जल विवाद इस देश में अपनी तरह का इकलौता विवाद नहीं है। रावी, व्यास, कृष्णा और कई अन्य नदियों के पानी के ऊपर अधिकार को लेकर विवाद है। भारत में 14 प्रमुख नदियां हैं और उनमें से सभी एक से अधिक राज्यों में बह रही हैं। 44 मझोले आकार की नदियां हैं, जिनमें नौ कम से कम दो राज्यों से होकर गुजरती हैं। प्रमुख नदियां वे हैं, जिनका जलग्रहण क्षेत्र 20,000 वर्ग किलोमीटर या उससे अधिक है। जिनका जलग्रहण क्षेत्र 20,000 वर्ग किलोमीटर से कम है, उन्हें मझोली नदी कहा गया है। अंतरराज्यीय प्रकृति के कारण टकराव होते ही हैं और राज्य या तो अपनी क्षमता से अधिक पानी मिलने की शिकायत करते हैं या जरूरत से कम पानी मिलने की। बारिश कम हो तो समस्या और भी गंभीर हो जाती है।
गोल्डमैन सैक्स ने एक बार पानी को “अगली शताब्दी का पेट्रोलियम” कहा था, जिसके लिए युद्ध भी हो सकते हैं। संगठन का इशारा पानी की कमी के कारण दुनिया भर में पैदा हो रहे गंभीर टकरावों की ओर था। लगभग एक साल पहले न्यूजवीक पत्रिका लिखा था कि सीरिया के दरा शहर में एक जलाशय से पानी के आवंटन में भ्रष्टाचार के कारण देश में उपद्रव शुरू हो गए हैं। उसने आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट के उन अभियानों की ओर संकेत किया, जिसमें खुद को चलाने के लिए वह पानी की आपूर्तियों पर अपना नियंत्रण कायम करना चाहता था। पत्रिका ने लिखा कि हेग में स्थायी मध्यस्थ न्यायालय के पास नदी बेसिन विवादों से जुड़े 263 मामले हैं।
भारत का अंतरराष्ट्रीय विवाद भी है - सिंधु नदी के पानी पर पाकिस्तान के साथ। न्यूजवीक ने लिखा, “भारत, जो सिंधु की ऊपरी धारा पर 45 पनबिजली परियोजनाएं बना चुका है या बनाने जा रहा है, यह कहता रहा है कि बहाव कभी प्रभावित नहीं होगा। किंतु पाकिस्तान भारत के बारे में उसी तरह भ्रम का शिकार है, जैसे आईएसआईएस तुर्की के बारे में और इसीलिए वह अपनी घरेलू सामाजिक बुराइयों के लिए हमेशा से भारत को दोषी ठहराता रहा है।” पत्रिका ने हाफिज सईद जैसे आतंकवादियों का उदाहरण दिया, जो भारत के “जल आतंकवाद” की बात कहता रहा है और “पानी बहेगा या खून” का नारा दे चुका है।
पाकिस्तान कितना भी विरोध करे, सिंधु भारत के लिए कोई मुद्दा ही नहीं है। घरेलू समस्याएं ज्यादा चिंता की बात हैं। पानी लगातार कम होता जा रहा है। देश की जनसंख्या पिछले छह दशकों में लगभग चार गुना बढ़ चुकी है, लेकिन यहां बारिश अब भी उतनी ही होती है, जितनी 60 साल पहले होती थी। जलवायु परिवर्तन मॉनसून पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। कई नदियां सूख चुकी हैं और सदियों से देश को पानी दे रहे जल निकाय या तो गुम हो गए हैं या खत्म हो गए हैं। किसी समय बहुत विशाल, लेकिन अब अदृश्य हो चुकी सरस्वती नदी को पुनर्जीवित करने की कोशिशों की तरह इनमें से कुछ को बहाल करने के प्रयासों की निंदा यह कहकर की गई कि सांप्रदायिक नजरिये से ऐसा किया जा रहा है। इसीलिए स्थितियां तो पानी के लिए और भी लड़ाइयों की बन रही हैं। ऐसे में क्या हमारे पास उनसे निपटने की संस्थागत प्रणालियां हैं? और क्या वे प्रभावी हैं?
पहले प्रश्न का केवल और केवल एक ही उत्तर है - ‘हां’, लेकिन दुर्भाग्य से दूसरे प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ है। नदी के जल बंटवारे का लगभग हरेक बड़े विवाद का समाधान ढूंढने के लिए कोई न कोई न्यायाधिकरण माथापच्ची कर रहा है। कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण है, जिसमें कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और केरल हैं; रावी और व्यास जल न्यायाधिकरण के सामने पंजाब, हरियाणा और राजस्थान आपस में भिड़े हुए हैं और कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण के सामने कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश हैं।
बात यहीं खत्म नहीं होती। ऐसे मुद्दों से निपटने के लिए संविधान में प्रावधान हैं। संविधान का अनुच्छेद 262(1) नदी जल विवाद से संबंधित है और उसमें संसद को इसके लिए कानून बनाने का अधिकार है। इसमें कहा गया है, “किसी अंतर-राज्यीय नदी अथवा नदी घाटी के अथवा उसमें जल के प्रयोग, वितरण अथवा नियंत्रण के संबंध में किसी प्रकार के विवाद अथवा शिकायत के निर्णय हेतु संसद कानून बना सकती है।” उसी अनुच्छेद का उपनियम 2 यह सुनिश्चित करता है कि “न तो सर्वोच्च न्यायालय और न ही कोई अन्य अदालत उपनियम 1 के निर्देशों के अनुसार किसी विवाद अथवा शिकायत के संबंध में निर्णय नहीं देगा। हालांकि बाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी विधान की व्याख्या करने अथवा किसी न्यायाधिकरण अथवा वैधानिक निकाय के अधिकार क्षेत्र की सीमाएं सुनिश्चित करने के उसके अधिकार पर रोक नहीं लगी है।
संवैधानिक प्रावधानों के अलावा अन्य कानूनी रास्ते भी हैं, जैसे नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 और अंतर-राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956। पहला सरकारों को अंतर-राज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों के विकास एवं नियमन से जुड़े मामलों में सरकारों को सलाह देने के लिए है और इसके सदस्रू सिंचाई, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग, बाढ़ नियंत्रण, जल संरक्षण, मृदा संरक्षण, वित्त, प्रशासन आदि के क्षेत्रों में विशेषज्ञ होते हैं। दूसरा अधिनियम राज्यों द्वारा विवादों को केंद्र द्वारा नियुक्त न्यायाधिकरण के पास ले जाने का मार्ग प्रशस्त करता है। विवाद के समाधान के लिए ऐसे न्यायाधिकरण के सदस्यों को भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त किया जाता है।
इस प्रकार विभिन्न निकाय एवं सरकारें इस मामले से जुड़ी होती हैं। याद रहे कि संविधान की सातवीं अनूसूची की प्रविष्टि 17 के अंतर्गत पानी राज्य का विषय है, लेकिन उसी अनूसूची में केंद्रीय सूची की प्रविष्टि 56 कहती है कि “संसद ने कानून के द्वारा केंद्र के नियंत्रण में जितना नियमन एवं विकास तय किया है, उस सीमा के भीतर अंतर-राज्यीय नदियों एवं नदी घाटियों का नियमन तथा विकास जनहित में तेजी से किया जाना चाहिए।” दूसरे शब्दों में कहें तो पानी समवर्ती विषय हो जाता है।
इसके साथ ही हम दूसरे पहलू पर आ जाते हैं: कानूनी प्रक्रिया की शक्ति होने के बावजूद विवादों को ठीक तरह से सुलझाने के लिए विवाद समाधान के प्रयास नाकाम क्यों होते रहे हैं? उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने हाल ही में टेलीविजन पर एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले को नहीं सुलझा सकता। उन्होंने कहा, “न्यायाधीश राजा कनूट की तरह व्यवहार करते हैं, जिसने लहरों को उतरने का हुक्म दिया और मान लिया कि लहरें उतर जाएंगी।” साफगोई के साथ बोलने लेकिन खरी-खरी कहने के लिए मशहूर न्यायमूर्ति काटजू ने दोटूक लहजे में कहा कि जल विवादों को कानूनी क्या राजनीतिक तरीके से भी नहीं सुलझाया जा सकता और भारत तथा विश्व भर से बुलाए गए विशेषज्ञों का समूह राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ ही मामला सुलझा सकता है। किंतु कानून सर्वोच्च न्यायालय को दखल देने का अधिकार देता है और उसे ऐसा करना ही था, खासकर तब जब संबंधित पक्ष शिकायत लेकर उसके पास पहुंचे थे।
जो भी हो, राजा कनूट का किस्सा झूठा ही लगता है। कहा जाता है कि डेनमार्क, नॉर्वे और इंगलैंड का राजा दंभी इसीलिए हो गया था क्योंकि उसके दरबारियों ने उसे यकीन दिला दिया था कि उसके पास अलौकिक शक्तियां हैं। उसके बाद वह समुद्र के किनारे गया और लहरों से लौट जाने के लिए कहा। उसने कहा, “तुम उसी तरह मेरे अधीन हो, जिस तरह वह जमीन मेरी है, जिस पर मैं बैठा हूं और मेरे स्वामित्व का विरोध करने वाले किसी शख्स को माफी नहीं मिली है। इसीलिए मैं तुम्हें आदेश देता हूं कि मेरी जमीन पर मत आओ और न ही अपने मालिक के कपड़े और पैर गीले करने का खयाल भी मन में लाओ।” यह कहानी 12वीं सदी के एक किस्सागो ने सुनाई, लेकिन बाद में इतिहासकारों को इसकी प्रमाणिकता का कोई प्रमाण नहीं मिला। फिर भी जबरदस्त विश्वसनीयता वाले विशेषज्ञों को शामिल करने के न्यायमूर्ति काटजू के दृष्टिकोण में दम है।
आंदोलित राजनीतिक वातावरण में समाधान और भी मुश्किल हो गया है क्योंकि क्षेत्रीय दलों ने पानी को सामुदायिक पहचान का विषय बना लिया है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक घोर प्रतिद्वंद्वी हैं, लेकिन कावेरी मसले पर दोनों एक जैसी बात बोलेंगी। वे एक दूसरे को जंग में पछाड़ने की ही कोशिश करेंगे। कर्नाटक में जनता दल (सेक्युलर) आक्रामक हो गया है, जिसके कारण सत्तारूढ़ कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी धमकी भरी भाषा का इस्तेमाल करने लगी है।
विशेषज्ञों केजे रॉय और एस जनकराजन ने 2011 में एक शोधपत्र “इंटर-स्टेट वाटर डिसप्यूट्स अमंग रिपरियन स्टेटः द केस ऑफ कावेरी रिवर फ्रॉम पेनिन्सुलर इंडिया” प्रकाशित किया। इसमें विवाद का ऐतिहासिक संदर्भ दिया गया, संवैधानिक, कानूनी, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय मामलों पर चर्चा की गई और संकट सुलझाने के लिए किए गए विभिन्न प्रयास बताए गए। लेखकों ने कहा कि “हालांकि बातचीत की प्रक्रिया से अभी तक कोई समाधान नहीं मिला है, लेकिन प्रक्रिया ने कीमती सबक सिखाए हैं।” उनके अनुसार उनमें से कुछ निम्न प्रकार से हैं:
अध्ययन के निष्कर्ष में कहा गया कि कावेरी मुद्दे के अत्यधिक राजनीतिकरण ने पहले से ही पेचीदा मुद्दे को और उलझा दिया है; कि कावेरी बेसिन में पानी की कमी है और एक-दूसरे से झगड़ रहे पक्ष वहां मिलने वाले पानी से लगभग दोगुने पानी का दावा कर रहे हैं; कि मुद्दा इस्तेमाल से बचे पानी के बंटवारे का नहीं बल्कि पानी की किल्लत के बंटवारे का है; और विवाद निपटाने के लिए कानूनी तथा सामाजिक दोनों प्रकार के तरीके अपनाने चाहिए। लेखकों का संभवतः सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह था कि विवाद चलते रहें, इसके लिए भी समझौता होना ही चाहिए। उन्होंने कहा, “अधिक अनिश्चितता और बेचैनी से दोनों राज्यों के किसानों पर रोजी-रोटी कमाने का दबाव बढ़ जाता है, जबकि संबंधित राज्यों तथा उनकी जनता को लंबे संघर्ष के एवज में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरणीय कीमत चुकानी पड़ती है।”
कावेरी जल बंटवारा विवाद 1924 का है, जब मद्रास प्रेसिडेंसी और मैसूर राज्य ने समझौता किया था। समझौता अगले 50 साल के लिए किया गया था। लेकिन समझौते के 12 साल बाद कर्नाटक (जिसे मैसूर मिल गया) ने कई प्रावधानों की ओर संकेत किया, जिन पर उसे गंभीर आपत्ति थी और पुनर्विचार की मांग की गई थी। तमिलनाडु (जो मद्रास प्रेसिडेंसी का पुराना नाम था) अड़ गया कि मामले पर पूर्व निर्धारित 50 साल के बाद ही विचार किया जाएगा। उसके बाद मामला सुलझाने के लिए बातचीत शुरू हो गई। जब संबंधित राज्य समाधान में नाकाम रहे तो मामला केंद्र के पास आया और कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण के सामने भेज दिया गया।
न्यायाधिकरण ने अपना अंतिम निर्णय 2007 में सुनाया। लगभग 16 साल पहले इसने एक अंतरिम आदेश सुनाया था, जो तमिलनाडु के पक्ष में था। दिलचस्प है कि तमिनाडु को पीड़ित पक्ष होना चाहिए था क्योंकि 1924 के समझौते में उसे 2007 के फैसले के मुकाबले कम पानी मिला था। 1924 के समझौते के मुताबिक पानी में कर्नाटक का केवल 16 प्रतिशत हिस्सा था, जबकि तमिलनाडु को 80 प्रतिशत पानी मिलना था। न्यायाधिकरण के आदेश मे तमिनाडु का हिस्सा घटकर 57 प्रतिशत रह गया और कर्नाटक का बढ़कर 37 प्रतिशत हो गया। स्वभाविक रूप से हिस्सा और भी अहम है क्योंकि आबादी विस्फोटक तरीके से बढ़ी है और जरूरत भी उसी के अनुसार बढ़ गई है।
अफसोस की बात है कि वर्तमान अतीत की तुलना में सुखद नहीं है। तमिलनाडु और कर्नाटक राज्यों की लड़ाई जारी है। दोनों ने उच्चतम न्यायालय में अपने-अपने पक्ष रखने के लिए वकीलों की फौज तैयार कर रखी है। असल में तमिलनाडु याची के रूप में उच्चतम न्यायालय पहुंचा था और दावा किया था कि कर्नाटक न्यायाधिकरण के अंतिम आदेश का पालन नहीं कर रहा है। तमिलनाडु ने कहा कि यदि कर्नाटक फौरन पानी नहीं छोड़ता है तो भारी तादाद में फसल बर्बाद हो जाएगी और तमिलनाडु के किसानों की स्थिति गंभीर हो जाएगी। जवाब में शीर्ष न्यायालय के दो सदस्यीय पीठ ने इस बात के लिए कर्नाटक की सराहना की कि सद्भावना दिखाते हुए वह 8 से 12 सितंबर के बीच 10,000 क्यूसेक पानी छोड़ने के लिए खुद ही राजी हो गया। तमिलनाडु ने अदालत को बताया कि उस अवधि में उसे रोजाना 20,000 क्यूसेक पानी की जरूरत थी। बीच का रास्ता अपनाते हुए अदालत ने 15,000 क्यूसेक पानी का आदेश दिया (जिसे दोनांे राज्यों में हिंसा भड़कती देखकर बाद में घटाकर 12,000 क्यूसेक कर दिया गया)।
अदालत स्वाभाविक रूप से उपद्रव से नाराज थी और संभवतः उसे ऐसा लगा कि उसे मजबूर करने के लिए यह सब किया जा रहा है। उसने दोनों राज्यों की सरकारों को याद दिलाया कि “कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए वे संवैधानिक रूप से बाध्य हैं।” पीठ ने पुराने आदेश में संशोधन के सिलसिले में जल्द सुनवाई के लिए याचिका पेश करने की कर्नाटक की दलील पर आपत्ति जताई। याचिका में “कर्नाटक के विभिन्न भागों में भड़के स्वतःस्फूर्त आंदोलनों का जिक्र था, जिन्होंने सामान्य जनजीवन को बाधित कर दिया है।” कर्नाटक के वकील ने बाद में खेद जताया और पीठ ने अपने आदेश में संशोधन किया - 15,000 क्यूसेक प्रतिदिन से घटाकर 12,000 क्यूसेक प्रतिदिन पानी छोड़ने का आदेश दिया।
कावेरी जल विवाद ने जनभावनाओं को तार्किक विचारों के ऊपर हावी होने देने के खतरे बताए हैं। गुस्से को काबू में रखने और उसमें साझेदार नहीं बनने की जिम्मेदारी राजनीतिक वर्ग की है। विभिन्न न्यायाधिकरणों को भी निर्णय जल्द से जल्द देने चाहिए और शीर्ष न्यायालय को भी ऐसा ही करना चाहिए। याद रखिए कि कावेरी न्यायाधिकरण का अंतरिम आदेश 1991 में ही आ गया था, लेकिन अंतिम आदेश 2007 में आ पाया। इस बीच जल विवादों में उलझे विभिन्न पक्षों को समझना चाहिए कि झगड़ते रहने और जान-माल को नुकसान पहुंचाने वाले बड़े आंदोलनों की आंच झेलने से बेहतर यह है कि कुछ कम पानी से संतोष कर लिया जाए।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार तथा सार्वजनिक मामलों के विश्लेषक हैं।)
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