कश्मीर में हिंसक विरोधों की झड़ी और मानवाधिकार उल्लंघन के झूठे आरोपों के साथ भारत को बदनाम करने की पाकिस्तान की धूर्तता भरी कोशिशों कूटनीतिक दुनिया में पुराना और हमेशा प्रासंगिक रहने वाला सवाल एक बार फिर खड़ा कर दिया है, “पाकिस्तान से कैसे निपटा जाए?” बार-बार यह महसूस होता आया है कि पिछले 60 साल में भारत के पास कोई व्यवस्थित और दीर्घकालिक पाकिस्तान नीति नहीं रही है। हमारी नीति अधिकतर प्रतिक्रियावादी, उसी समय काम करने की पक्षधर और अल्पकालिक होती है तथा गलत अनुमानों पर आधारित होती है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जैसे सैन्य अधिकारियों तथा नौकरशाहों/कूटनीतिक खेमे के बीच संवाद की कमी या अफसरों में सैन्य अधिकारियों के प्रति वैर भाव। अन्य कारणों में भारत के नीति निर्माता एवं बौद्धिक खेमों के रणनीतिक विचारों में राष्ट्रवादी तथा यथार्थवादी परिदृश्य की कमी आदि हो सकते हैं। नेहरू के आदर्शवादी विचारों से प्रेरणा पाने वाले नैतिकतावादी तथा आदर्शवादी रुख ने भारत की रणनीतिक संस्कृति को उसके लिए नुकसानदेह बना दिया है और अब इसे बदला भी नहीं जा सकता।
इस लेख में मैं ऐसे ही एक आदर्शवादी दृष्टिकोण को खोलूंगा, जो पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक संपर्क तथा राजनीतिक स्तर पर लगातार बातचीत का एवं ट्रैक 2, 3 या 4 की वकालत करता है। कट्टर उदारवादियों से लेकर तथाकथित आदर्शवादी नीति विशेषज्ञ तक हर तबके के लोग ऐसे जुमलों को पसंद करते आए हैं। ऐसे नजरिये के साथ दिक्कत यह है कि पाकिस्तानी की मनोदशा को, उसकी असली मंशा को और उसकी अस्तित्व संबंधी चुनौतियों को यह समझता ही नहीं। इन मुद्दों की पड़ताल के लिए राष्ट्र के उद्भव और पिछले 70 साल में उसके सामाजिक-राजनीतिक विकास पर नजर डालनी होगी।
पाकिस्तान के साथ रणनीतिक वार्ता के मुद्दे में एक ही सवाल बार-बार आता है, “भारत बात करे तो किससे करे?” पाकिस्तान में फैसला लेने वाले कई पक्ष हैं। सबसे महत्वपूर्ण और सबसे ताकतवर सेना है, जो देश चलाती है। सेना में भी आईएसआई है, जिसे रणनीतिक दुनिया में “डीप स्टेट” कहा जाता है, जो असली ताकत है और सरकारी मशीनरी पर जिसका नियंत्रण है। उसके बाद नवाज शरीफ, जरदारी और इमरान खान जैसे कमजोर लोकतांत्रिक नेता हैं। सरकार से इतर वहां लश्कर-ए-तैयबा, जमात-उल-दावा, तहरीक-ए-तालिबान और ढेर सारी धार्मिक पार्टियां हैं, जो चरमपंथी गुट, आतंकवादी संगठन, धर्मादा संगठन या राजनीतिक संगठन का चोला पहनकर काम करती हैं। इन संगठनों को पिछले कई दशकों में सेना ने अपने राजनीतिक और रणनीतिक हितों की पूर्ति के लिए पाला-पोसा है। अब पाकिस्तान की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और औपचारिक सरकारी मशीनरी में उनकी गहरी भूमिका है और चिंता की बात यह है कि इनमें से कई संगठन सेना के काबू से बाहर हो गए हैं और विभिन्न देशों में फैले अपने मजबूत नेटवर्क, नए सदस्यों और धन की लगातार आपूर्ति और उग्रवाद तथा आतंकवाद में माहिर होने के कारण वैश्विक इस्लामी आंदोलन के ताकतवार हथियार बन गए हैं। अंत में सऊदी अरब, चीन और अमेरिका जैसे अंतरराष्ट्रीय पक्ष हैं, जिनका पाकिस्तान में जबरदस्त राजनीतिक तथा आर्थिक प्रभाव है।
ऊपर बताए गए सभी पक्षों में व्यावहारिक तौर पर सेना और आईएसआई को सबसे अहम माना जा सकता है। यह दलील दी जा सकती है कि यदि भारत ठोस कार्रवाई और नतीजे के लिए पाकिस्तान में वास्तव में किसी संस्था के साथ बातचीत करना चाहता है तो उसे सेना के साथ बात करनी चाहिए। किंतु सवाल यह है कि कश्मीर, आतंकवाद और सरकार से बाहर की ताकतों के मसले निपटाने के लिए बातचीत करने में सेना की दिलचस्पी वाकई है या नहीं?
क्रिस्टीन फेयर, आयशा सिद्दीकी, हुसैन हक्कानी और एम जे अकबर जैसे जाने-माने पाकिस्तान विशेषज्ञों का कहना है कि पाकिस्तान में सेना का अस्तित्व ही कश्मीर विवाद से जुड़ा है। जब तक वह इस धारणा को बरकरार रखेगा कि भारत बड़ा खतरा है और वैचारिक शत्रु है तब तक उसे जबरदस्त राजनीतिक और सामाजिक दबदबे के साथ देश के राजस्व का बड़ा हिस्सा, तमाम फायदे, जमीन, वित्तीय संसाधन और सरकार से दूसरे किस्म के लाभ मिलते रहेंगे। और इसके लिए जरूरी है कि कश्मीर के मुद्दे को जिंदा रखा जाए। जब भी किसी लोकतांत्रिक नेतृत्व की ओर से शांतिपूर्ण वार्ता की कोशिश होती है तो सेना की ओर से उसका विरोध होता है बशर्ते बातचीत सेना के कहने पर नहीं हो रही हो और उसमें सैन्य अधिकारियों की सक्रिय सहभागिता नहीं हो। उसके अलावा वहां जिहादियों का बड़ा ढांचा है, जो पिछले 60 साल में कश्मीर के मसले पर भावनाओं को भड़काकर तैयार किया गया है। जिहादियों का भारी भरकम ढांचा अब नियंत्रण के बाहर हो गया है और कश्मीर के विवाद को जारी रखने में ही उसका फायदा है। अगर शांति के प्रयास कामयाब हो गए तो उनकी आय और दबदबा घटने का डर है। इसीलिए शांतिपूर्ण वार्ता की किसी भी कोशिश को नाकाम करने के लिए संगठित रूप से हिंसा को अंजाम दिया जाता है। इधर यह भी कहा जाने लगा है कि जिहादी संगठन सेना के काबू से बाहर होकर भस्मासुर बन गए हैं और इसीलिए उनकी आतंकी कार्रवाइयों के लिए सेना को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। लश्कर-ए-जंगवी, सिपह-ए-साहबा और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी समूहों ने पाकिस्तान के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है और सेना के साथ उनकी जंग छिड़ी रहती है, लेकिन भारत में आतंवाद फैलाने वाले संगठनों जैसे लश्कर और जैश के मामले में ऐसा नहीं है। इन ताकतों को पाकिस्तानी सेना आज भी “रणनीतिक संपदा” मानती है और खासी तवज्जो देती है।
जहां तक राजनीतिक पार्टियों का सवाल है तो पहले तो यही बात माननी होगी कि उनका खास प्रभाव ही नहीं है। दूसरी बात, भारत को अस्तित्व के लिए ही खतरा मानने की धारणा को बढ़ावा दिए जाने के बाद शांति के लिए ‘आमादा’ हो जाना इन कमजोर लोकतांत्रिक ताकतों के लिए राजनीतिक आपदा से कम नहीं होगा। अतीत से चले आ रहे विवादों के किसी स्वीकार्य समाधान में मदद करने की ईमानदारी भरी कोशिश किए बगैर भारत और पाकिस्तान को ‘संघर्ष, फिर वार्ता और फिर संघर्ष’ के सिलसिले में ही उलझाए रहने में अमेरिका और चीन जैसी अंतरराष्ट्रीय ताकतों के अपने हित हैं। अंत में पाकिस्तान की आम जनता झूठ, घृणा और धार्मिक चरमपंथ के बदल पर सालोसाल से चले आ रहे तथा तोड़-मरोड़कर पेश किए गए राष्ट्रवाद के नफरत भरे आलाप से उकता गई है। बाद में वहाबियों और देवबंदियों के बीच समाज के बंटवारे ने उदारता और सहिष्णुता भरी इस्लामी संस्कृति पर आखिरी चोट की है तथा पश्चिम विरोधी, काफिर विरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी एवं भारत विरोधी घृणा को हवा दी है। ऊपर बताई गई ताकतें तमाम मुद्दों पर एक दूसरे से टकरा सकती हैं किंतु भारत को अस्तित्व के लिए खतरा मानने की धारणा पर सब एक साथ हैं और मानती हैं कि भारत से घृणा ही की जानी चाहिए तथा हर कदम पर और हर तरह से उसका विरोध ही होना चाहिए।
विभिन्न पक्षों और उनकी असली मंशा को जानने के बाद मैं इस मामले में गहराई तक जाना चाहूंगा और संदेह से भरी इस मानसिकता, जंग की इच्छा तथा लगातार चली आ रही दुश्मनी के पीछे के असली कारण समझने के लिए पाकिस्तान के अतीत की पड़ताल करूंगा। निसिद हजारी ने ‘फॉरेन पॉलिसी’ नाम की पुस्तक में लिखा है कि कांग्रेस ने बंटवारे का जो विरोध किया था, उसके कारण पाकिस्तानी हमेशा यही मानते हैं कि उस पार्टी को पाकिस्तान का विचार ही नागवार गुजर रहा था। हालांकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आदर्शवाद, सद्भावना और धर्मनिरपेक्षता की खातिर ऐसा किया था, लेकिन इस्लाम के गढ़ के रूप में स्वतंत्र पाकिस्तान बनाने का विचार देने वालों और उनका अनुसरण करने वालों के लिए यह विचार धार्मिक आस्था से जुड़ा था और उसका किसी भी तरह का विरोध उनके लिए सभ्यता और अस्तित्व का संकट होना ही था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को अपने नजरिये से समझने की कोशिश की और इसीलिए वह पाकिस्तान आंदोलन के पीछे की चेतना को कभी समझ ही नहीं सकी। अपनी शानदार पुस्तक “टिंडरबॉक्स - पास्ट एंड फ्यूचर ऑफ पाकिस्तान” में एम जे अकबर कहते हैं कि पाकिस्तान के विचार का जन्म उस डर के कारण हुआ होगा, जो मुगल साम्राज्य के पतन के बाद मुस्लिम अभिजात्य वर्ग तथा बुद्धिजीवियों के मन में पनपा था। सर सैयद अहमद खान और मुहम्मद इकबाल जैसे मशहूर दार्शनिक एवं बुद्धिजीवी भी अपनी आधुनिक एवं धर्मनिरपेक्षता भरी शैक्षिक पृष्ठभूमि के बावजूद बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ बराबर के साझेदार के रूप में राजनीति करने के विचार को कभी स्वीकार नहीं कर पाए। पाकिस्तान में मुख्यधारा की शैक्षिक एवं रणनीतिक चर्चाओं में पाकिस्तान को मुख्य रूप से इस्लामी देश माना जाता है और भारत को “हिंदू भारत” कहा जाता है। पाकिस्तानी सेना का दर्शन भी उसे “हिंदू भारत” के खिलाफ खड़ा करता है। और ये शब्द मैं सांप्रदायिक मंशा दर्शाने के लिए इस्तेमाल नहीं कर रहा हूं, मेरा इरादा दक्षिण एशिया के रणनीतिक विचारों की वस्तुस्थिति पेश करने का है। पाकिस्तानी प्रशासन ऐसे ही सोचता है और इसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता। अधिक से अधिक आप इस तथ्य को समझ और स्वीकार कर सकते हैं तथा उसी के अनुरूप काम कर सकते हैं।
दूसरी बात, पाकिस्तान के गठन के साथ ही वहां सरकार से इतर ताकतें बहुत शक्तिशाली रही हैं। उसका निर्माण राष्ट्र के तौर पर होना था, लेकिन इस्लाम के अलावा उसे राष्ट्र के तौर पर एक रखने वाला कोई कारक ही नहीं है। इस तरह पछले 70 साल में इस्लाम और कश्मीर राष्ट्रवाद की फसल उगाने के मुख्य हथियार बनकर उभरे हैं। इसीलिए भारत को अस्तित्व के लिए खतरा बताने वाली धारणा को बरकरार रखना और आगे बढ़ाना उसके अस्तित्व के लिए बाध्यता सरीखा है। बाध्यता न कहें तो भी यह ऐसा मसला है, जो सभी मुख्य पक्षों को एक साथ ले आता है। इसीलिए पाकिस्तानी (उनकी सेना) भारत के खिलाफ पूरी जंग चाहे पसंद नहीं करें, लेकिन जंग से कुछ कम वे लगातार करना चाहेंगे और कभी-कभार करगिल जैसी हरकतों को भी अंजाम देना चाहेंगे।
पाकिस्तान से संवाद करते समय पाकिस्तान की ऊपर बताई गई सीमाओं का ध्यान रखना होगा और पाकिस्तानी मानसिकता की बारीक समझ के आधार पर दीर्घकालिक नीति तैयार करनी होगी। जब तक हम उनकी हरकतों के पीछे की वजहें और दलीलें नहीं समझते, हम उनके रणनीतिक रवैये का अंदाजा नहीं लगा सकते। अब सवाल यह खड़ा होता है कि ऐसी पेचीदगी भरे विरोधी से बात करने का सही रास्ता क्या है। सबसे पहले तो संवाद इस बात पर आधारित होना चाहिए कि पाकिस्तान भविष्य में क्या चाहता है और क्या हासिल करने के लिए यह सब कर रहा है। ऐसा नजरिया उद्देश्यपूर्ण होता है और कश्मीर तथा सीमा पार आतंकवाद जैसे पुराने विवादों के स्थायी समाधान हासिल करने की अवास्तविक इच्छाओं के साथ शुरू होता है। तरीका एकदम सटीक होना चाहिए, जिसका पहला लक्ष्य सैन्य टकराव और आतंकवादी हमलों पर लगाम लगाना होगा। इस दर्शन के साथ संवाद की रणनीति को गुप्त दबाव की रणनीतियों से लेकर औपचारिक वार्ता प्रक्रिया रोकने तक तमाम बातों के लिाए तैयार रहना चाहिए। दूसरी बात, हमें विभिन्न पक्षों को आंकना होगा और उसके बाद तय करना होगा कि किसके साथ संवाद किया जाए। संवाद में केवल और केवल हमारे राष्ट्रीय हित के आधार पर काम करने की प्रणाली तैयार की जाए और उसे रणनीतिक एवं सामरिक दोनों तरीकों से लागू किया जाए। सबसे महत्वपूर्ण पक्षों के साथ संवाद करते समय भारत को क्षेत्र में अपने दीर्घकालिक रणनीतिक हितों के हिसाब से उन्हें मजबूत भी करना चाहिए। तीसरी बात, कूटनीतिक प्रयासों के जरिये अंतरराष्ट्रीय तौर पर अलग-थलग करने में खर्च कम होगा और फायदा ज्यादा मिलेगा। चौथी बात, दोनों देशों की खुफिया एजेंसियों के बीच संवाद के प्रत्यक्ष रास्ते भड़काऊ भावनाओं से पनपी टकराव की कई स्थितियों को टालने में मदद कर सकते हैं। अंत में भारत को अपनी सीमाएं तय करनी चाहिए और वह काम करना चाहिए, जिसका ऐलान उसने कर दिया हो। भारत के प्रत्याक्रमण और गोपनीय कार्रवाई का वास्तविक भय वहां की सरकार के समर्थन वाले आतंकवादी तत्वों को मुंबई जैसा दुस्साहस करने से रोकेगा क्योंकि दोबारा वैसा हो गया तो सैन्य कार्रवाई होगी, जो परमाणु युद्ध में भी बदल सकती है।
अंत में मैं यही कहूंगा कि बीच का रास्ता संभव है, जिसमें ‘भारत के डर’ को जिंदा रखकर पाकिस्तान के मुख्य पक्ष भी संतुष्ट हो जाएंगे और छिटपुट सैन्य कार्रवाई के परमाणु युद्ध में बदल जाने के खतरे से पनपने वाली अनिश्चितता और अस्थिरता भी समाप्त हो जाएगी। दोनों को बराबर कीमत चुकानी होगी क्योंकि इसमें नफा और नुकसान बराबर हैं। हमें पाकिस्तान की प्रवृत्ति, आकांक्षा और सीमाओं को सही तरीके से समझना होगा और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना होगा। अगर हम उन्हें ठीक से समझ गए तो हम उन्हें ज्यादा तार्किक तरीके से काम करने के लिए और गलत हरकतें बंद करने के लिए मजबूर कर सकते हैं।
पाकिस्तान के गैर-सांप्रदायिक अस्तित्व के सामने नैतिकता भरी बातें करने की भारत की आदत कुछ इस तरह की है, जैसे हम इतिहास को बदलने की कोशिश कर रहे हों। बंटवारा हो चुका है और यह ऐतिहासिक तथ्य है, जिसे न तो नकारा जा सकता है और न ही सफल तथा विविध संस्कृतियों वाले लोकतंत्र के तौर पर भारत के 70 साल के अस्तित्व के कारण नैतिक रूप से बेहतर होने का ढिंढोरा पीटने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। हमने देखा होगा कि जो समाज और राजनीतिक व्यवस्थाएं धार्मिक चरमपंथ के बूते चलती हैं, उन्हें सांप्रदायिकता और लोकतंत्र की अधिक परवाह नहीं होती।
(लेखक जनसंपर्क, अर्थशास्त्र एवं नीति सलाहकार हैं। वह स्वतंत्र पत्रकार भी हैं।)
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