भारत की सशस्त्र सेनाओं ने हमारे पश्चिमी पड़ोसी के खिलाफ चार युद्ध लड़े और जीते हैं, एक ऐसे पड़ोसी के खिलाफ, जहां देश के पास सेना नहीं है बल्कि सेना के पास देश है। इन स्पष्ट जीतों के बावजूद भारतीय सेना उस तरह राजनीति की शिकार कभी नहीं हुई है, जैसा हमने पश्चिम में सीमा के पार देखा है।
यहां सेना पूरी तरह गैर राजनीतिक रही है, इतनी गैर राजनीतिक कि वहां राजनीतिक चर्चा से भी सख्त परहेज किया जाता है। सशस्त्र सेनाओं ने लोकतांत्रिक भावना का पालन किया है और हमेशा सेना पर ‘असैन्य नियंत्रण’ के सिद्धांत का पालन करते रही हैं। इसी भावना के कारण सरकार उग्रवाद से लेकर प्राकृतिक आपदाओं जैसी घरेलू आपात स्थितियों में भी, जहां नागरिक प्रशासन तथा राजनीतिक नेतृत्व बुरी तरह नाकाम हो जाते हैं, सेना को आखिरी विकल्प के रूप में ही तैनात करती है। किंतु राजनीतिक संस्थाओं और पत्रकार होने का बहाना बनाने वाले आकार पटेल जैसे व्यक्तियों ने अपनी कथित ‘वाणी’ में तुच्छ फायदों के लिए सेना को बैसाखी की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। यह बहुत घातक चलन है और अगर इस पर काबू नहीं किया गया तो हमारे समाज का ताना-बाना बिगड़ जाएगा।
सशस्त्र बल भरोसे और सम्मान के माहौल में इस विश्वास के साथ काम करते हैं कि देश ने उन्हें अपनी क्षेत्रीय संप्रभुता और राष्ट्रहितों की रक्षा का जिम्मा सौंपा है। यह जिम्मेदारी के साथ ही वह सम्मान जुड़ा होता है, जो आम जनता उस कार्य के लिए देती है, जिसमें जान की बाजी लगाना अनिवार्य होता है। हमारे जैसे लोकतंत्र में इस सम्मान को बनाए रखना और बढ़ाना राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांतों और संविधान का पालन करके ही सुनिश्चित हो सकता है। केंद्र और राज्यों के राजनीतिक ढांचे में कितने भी परिवर्तन हुए हों, भारतीय सशस्त्र सेनाओं को पिछले सत्तर वर्ष में राष्ट्र से यह सम्मान मिलता ही रहा है। भारत के राजनीतिक इतिहास के सबसे खराब दौर में भी, चाहे आपातकाल हो या ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद का समय, सशस्त्र बल कभी भी राजनीति का हिस्सा नहीं बने हैं। राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए राजनीति से एकदम दूर रहने के सशस्त्र सेनाओं के इस संकल्प ने ही भारतीय जनता के मन में उनके प्रति श्रद्धा पैदा की है। यही वजह है कि राह चलता आदमी सेना के जवान को सम्मान और श्रद्धा के भाव से देखता है। एक के बाद एक सरकारें भी तुच्छ राजनीतिक फायदों के लिए सशस्त्र सेनाओं के इस्तेमाल से दूर ही रही हैं, जिससे भारतीय राजनीति में सेना का स्थान और मजबूत हुआ है तथा उसके प्रति समाज की भावनाएं भी बलवती हुई हैं। युद्ध क्षेत्र में ही नहीं, राष्ट्रीय आपदाओं के दौरान देश के भीतर भी सशस्त्र सेनाओं के कामों ने इन भावनाओं को और बढ़ावा दिया है। मॉनसून के दौरान जब हमारे पहाड़ों और मैदानों का बड़ा हिस्सा भूस्खलन और बाढ़ से घिर जाता है तो अक्सर “सेना को बुलाओ” की गुहार सुनाई दे जाती है। ठोस नतीजे देने की सेना की क्षमता, जो चेन्नई बाढ़ के दौरान भी देखी गई, ही उसे नागरिक प्रशासन से अलग खड़ा कर देती है। ऐसरी क्षमताएं राष्ट्र द्वारा सेना को मुहैया कराए जा रहे संसाधनों का ही नतीजा नहीं हैं बल्कि ये जिम्मेदारी और जवाबदेही की उस परंपरा का नतीजा हैं, जो राष्ट्र द्वारा जताए गए भरोसे के कारण सेना के भीतर दिखती है।
किसी भी दूसरी संस्था की तरह सशस्त्र सेनाओं में भी आंतरिक समस्याएं हैं, चाहे अलग-अलग अंगों के बीच हों, राजनीतिक हलकों से हों या जवानों के बीच ही हों। इनमें से कुछ समस्याएं कभी-कभार सार्वजनिक चर्चा में भी झलक जाती हैं और यह सही भी है क्योंकि समाज का एक वर्ग इनसे प्रभावित होता है। सेना में आने से पहले और वहां से निकलने के बाद सैन्यकर्मी भी उसी समाज का हिस्सा होता है। किंतु हमारे जैसे परिपक्व लोकतंत्र में इन समस्याओं को सुलझाना होता है, चरित्रगत खामी नहीं मानना होता है। जिन वास्तविक कष्टों की बात जवानों ने सार्वजनिक तौर पर खुद नहीं कही है, लेकिन सत्ता जिनके बारे में चर्चा कर रही है, उन तकलीफों का जिक्र आने पर सेना को ‘वेतन के लिए काम करने वाली’ बता देना अकल्पनीय होगा। ऐसी विचारों को घृणित मानकर छोड़ दिया जाना चाहिए, लेकिन सशस्त्र सेनाओं के जवानों और अधिकारियों की भूमिका और मनोबल को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए अपने ओछे मकसद पूरे करने के लिए उन्हें इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बड़ी समस्या है। यह प्रवृत्ति भारतीय लोकतंत्र के स्तंभों के कुछ वर्गों में घर कर गई है चाहे राजनीतिक वर्ग हो, मीडिया हो या नागरिक समाज हो।
हाल ही में कुछ राजनेताओं ने सैन्य कार्रवाई की सचाई और उसके उद्देश्यों पर सवाल खड़े किए हैं, अक्षम्य हैं, मूर्खतापूर्ण हैं और निश्चित रूप से ऐसा राजनीतिक फायदे के लिए किया गया है। ओआरओपी पर जारी संघर्ष से जुड़े एक पूर्व सैनिक की दुखद मौत पर हो रही राजनीति ने माहौल और भी खराब कर दिया। ‘सर्जिकल’ शब्द अब औसत भारतीय की रोजमर्रा की भाषा में शामिल हो गया है, यहां तक कि 500 और 1,000 के नोटों के बारे में हाल की अधिसूचना को भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि सशस्त्र सेनाएं ‘आलोचना’ से परे हैं, लेकिन उनकी आलोचना न्यायोचित होनी चाहिए, एक ऐसी संस्था को नीचा दिखाने के लिए नहीं होनी चाहिए, जिसने सात दशकों से भी ज्यादा समय में विश्वास और सम्मान के साथ खुद को खड़ा किया है। सशस्त्र सेनाओं के अपने भेद हैं, जो कई बार सार्वजनिक हो गए हैं और उन्हें सही तरीके से निपटा भी दिया गया है, लेकिन ऐसा संस्थागत खामी की वजह से नहीं बल्कि किसी विशेष व्यक्ति की दुर्भावना के कारण होता है। संस्थागत खामी होती तो सामाजिक प्रतिकार होता और सशस्त्र सेनाओं को आज जो सम्मान मिलता है, स्थिति उसके ठीक उलट होती।
सशस्त्र सेनाओं के उपयोग या ‘दुरुपयोग’ के मुद्दे पर लौटें तो इसकी वजह संभवतः यह है कि राजनीति और समाज के इन वर्गों को उनकी खामियों और वायदे पूरे करने में नाकामी के कारण न तो पर्याप्त सम्मान मिलता है और न ही उन पर भरोसा किया जाता है। इस कारण विश्वसनीयता की कमी हो गई है और इसीलिए ये तबके सशस्त्र सेनाओं की सफलता का फायदा उठाना चाहते हैं, जिससे खुद सैन्य बलों को ही खीझ और चिढ़ होती है। संवैधानिक शिष्टाचार के कारण सशस्त्र सेनाओं के पास इस दुखदायी और अनचाही तवज्जो को झेलने के अलावा कोई और चारा भी नहीं होता। इस दुखदाई जमावड़े में भारतीय नागरिक समाज के कई मौकापरस्त और लुटेरे किस्म के ‘आकार’ भी शामिल हो जाते हैं, जो फायदा उठाने की फिराक में रहते हैं चाहे उसके लिए कितना ही निंदनीय तरीका अपनाना पड़े।
जिम्मेदार समाज में व्यथित करने वाली ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगना चाहिए और उसके लिए बाहर से किसी की मर्जी थोपी नहीं जानी चाहिए बल्कि समाज के भीतर से ही उपाय होने चाहिए। भारत की सशस्त्र सेनाएं देश की बहुत शक्तिशाली साधन हैं, जिनका उपयोग बाहरी आक्रमण, राष्ट्रीय संकट और प्राकृतिक आपदाओं के समय किया जाता है। निर्वाचित राजनेता युद्ध के समय उनकी तैनाती का फैसला कर सकते हैं, लेकिन राजनीतिक संग्राम में बैसाखी की तरह उनका इस्तेमाल किया गया तो देश को उस समय गंभीर नुकसान उठाना पड़ सकता है, जब उनकी वास्तविक जरूरत होती है।
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