बमुश्किल महीने भर पहले प्रधानमंत्री मोदी भारत के लिए अत्यधिक रणनीतिक महत्व वाले पुराने संबंधों को मजबूत करने के लिए सऊदी अरब में थे। बीस लाख से अधिक भारतीय वहां रहते हैं, अपने घर धन भेजते हैं और उस संबंध को बनाए रखने में मदद करते हैं, जिससे भारत की ऊर्जा संबंधी अधिकतर आवश्यकताएं पूरी होती हैं। यात्रा के दौरान भारत में हुई सभी टिप्पणियों में सऊदी अरब और ईरान के साथ भारत के संबंधों में संतुलन लाने की आवश्यकता का जिक्र अवश्य हुआ। ईरान के साथ संबंध अब नए रास्ते पर हैं किंतु वह रास्ता अभी तक अनिश्चित है। मोदी ने उन्हें निराश नहीं किया है और जल्द ही वह ईरान की यात्रा पर जाएंगे। इस यात्रा के रणनीतिक महत्व को जनता के दिमाग में गहराई तक बिठाना आवश्यक है ताकि वह यात्रा के विश्लेषण को ठीक से समझ सके।
ईरान में शाह का तख्तापलट करने वाली और सत्ता के हरेक पहलू में इस्लाम को प्रमुखता देने वाली 1979 की क्रांति के बाद इस देश ने लगभग 35 वर्ष अलग-थलग पड़कर बिताए। कई मायनों में 1979 में शिया इस्लाम के उद्भव पर सुन्नी सलाफी जगत से प्रतिक्रिया हुई। इस्लाम के भीतर की विचारधाराओं एवं आस्थाओं के बीच तीव्र द्वंद्व के कारण ऐसी घटनाएं हुईं, जिनके कारण इस्लामिक स्टेट (दाएश) अस्तित्व में आया और बरकरार रहा। कट्टरपंथी इस्लाम से खाद-पानी पाने वाला आतंकवाद पूरी दुनिया में देखा जा रहा है और इसकी जड़ ईरान के धर्म आधारित कट्टरपंथ के उभार पर होने वाली प्रतिक्रिया में ही छिपी हैं।
अछूत देश के रूप में वर्षों हाशिये पर पड़े रहने के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय के स्वीकृत सदस्य के रूप में ईरान की वापसी से सरगर्मी बढ़ गई हैं। इसकी भू-रणनीतिक स्थिति आकर्षण की बड़ी वजह है और यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि इस्लामी राजनीतिक जगत का एक छोर इसके हाथ में है। भू-रणनीतिक मोर्चे पर फारस की खाड़ी में होरमज जलडमरूमध्य पर इसका नियंत्रण इसके महत्व में कई गुना वृद्धि कर देता है। “ओमान और ईरान के बीच स्थित होरमज जलडमरूमध्य तेल का सबसे महत्वपूर्ण मार्ग है, जहां से 2011 में रोजाना लगभग 1.70 करोड़ बैरल तेल गुजरता था, जो समुद्र के रास्ते जाने वाले तेल का लगभग 35 प्रतिशत था और दुनिया भर के तेल कारोबार का लगभग 20 प्रतिशत था। कच्चे तेल के इस निर्यात का 85 प्रतिशत से अधिक हिस्सा एशियाई बाजारों में गया।” होरमज जलडमरूमध्य को अस्थायी तौर पर भी बंद कर दें तो तेल पर होने वाला कुल खर्च बहुत बढ़ जाएगा और उपलब्धता बहुत कम हो जाएगी।
भारत के लिए ईरान की गैस बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि पाकस्तिान की जिद के कारण मध्य एशिया और रूस की गैस जमीनी पाइपलाइनों के जरिये नहीं लाई जा सकती। अगर पाकिस्तान ढील देता है (जिससे उसे भी आर्थिक फायदा होगा) तो भारत की गैस संबंधी जरूरतों का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा ईरान से जमीनी पाइपलाइनों के जरिये लाया जा सकता है और समुद्र के भीतर की पाइपलाइनों की भी लंबे अरसे से पड़ताल चल रही है। किंतु इतने वर्षों तक ईरान पर प्रतिबंध लगे होने के कारण सब कुछ ठप था और ईरान के साथ मजबूत आर्थिक संबंध के फायदे समझने के बाद भी भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के प्रतिबंधों का खयाल रखना था।
भारत के लिए इन सबसे भी अधिक महत्वपूर्ण है पाकिस्तान के बाहर से गुजरने के लिए और जमीन के रास्ते अफगानिस्तान एवं मॉस्को के उत्तर दक्षिण गलियारे तक पहुंचने के लिए चाबहार (ईरानी बंदरगाह) का इस्तेमाल करना। पश्चिम एशिया एक बार फिर सामरिक, आर्थिक एवं राजनीति प्रतिद्वंद्विता (ग्रेट गेम) का केंद्र बन गया है। पुरानी प्रतिद्वंद्विता का लक्ष्य दक्षिण की ओर बढ़ रहे रूस को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य तक पहुंचने से रोकना था। इस बार मामला सड़कों, रेल मार्ग, ऊर्जा पाइपलाइनों और कुछ हद तक विचारधारा का है, जिसमें चीन के पश्चिमी और रूस के पूर्वी विस्तार को भारत के उत्तरी विस्तार के जरिये संतुलित करना होगा। ईरान के सहयोग से चाबहार का इस्तेमाल करने पर ही ऐसा संभव है। तेहरान इससे मुंह मोड़ता रहा है और इसे कुछ हद तक सही भी ठहराया जा सकता है। लेकिन उसे समझना होगा कि अकेला भारत ही ईरान के हितों के विरुद्ध काम नहीं कर रहा था, उस पर अंतरराष्ट्रीय आम सहमति थी।
भू-रणनीतिक पहलुओं से मिलने वाला अंतिम प्रमुख लाभ है अफगानिस्तान में ईरान की गुपचुप किंतु बहुत महत्वपूर्ण भूमिका। वह हार्ट ऑफ एशिया कार्यक्रम का अंग है और उसके बलूचिस्तान तथा अफगानिस्तान के पश्चिम में होने से भारत को विशेष सामरिक लाभ मिलता है। किंतु प्रधानमंत्री को इस पर बहुत अधिक जोर देने से बचने की सलाह दी जानी चाहिए। ईरान को पता है कि भारत-पाकिस्तान रणनीतिक समीकरण में उसका कितना महत्व हो सकता है किंतु अभी तक वह तटस्थ ही रहा है। इस्लामिक जगत का ध्वजवाहक बनने की बड़ी महत्वाकांक्षा के कारण वह धीमे स्वर में ही सही, लेकिन पाकिस्तान के पक्ष में बोलने के लिए बाध्य है। ईरान के शाह के समय में भी उसने पाकिस्तान का समर्थन करने का फैसला लिया था, जबकि उस वक्त कोई बड़ी बाध्यता नहीं थी। इस ऐतिहासिक भूल के कारण भारत की रणनीतिक योजना प्रभावित नहीं होनी चाहिए और भावी संबंध भी सीमित नहीं होने चाहिए।
ईरान का महत्व केवल आर्थिक, ऊर्जा एवं भू-रणनीतिक पहलुओं के कारण ही नहीं है। इसका वैचारिक महत्व सदैव था किंतु इस्लामिक जगत में वह अपने कद के अनुरूप नहीं बोलता था। इसका शिया इस्लाम कई मायनों में शुद्धतावादी हो सकता है किंतु उसने धर्म के राजनीतिक पक्षों के बजाय आध्यात्मिक एवं बौद्धिक पक्षों पर अधिक जोर दिया है। भारत में बसे मुसलमानों में भी शिया अल्पसंख्यक हैं, जिन पर ईरान की इस्लामिक विचारधारा का प्रभाव है। जिस समय पूरी दुनिया सलाफियों के विरुद्ध अभियान चलाने के लिए जूझ रही है, उस समय ईरान ने अपनी छाप छोड़ने की कोशिश नहीं की है। यह बात भली भांति पता है कि ईरान का पूरा सहयोग मिलने पर ही दाएश को पराजित और खत्म किया जा सकता है।
क्या ईरान के साथ भारत के संबंधों पर अमेरिका-ईरान के अनिश्चितता भरे संबंधों का असर पड़ेगा, विशेष रूप से यह देखते हुए कि भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी और भी मजबूत होती जा रही है? रणनीतिक रूप से स्वतंत्र रहने पर ईरान का जोर रणनीतिक द्विपक्षीय संबंधों के प्रति भारत के दृष्टिकोण का एकदम प्रतिबिंब है। भारत ने ईरान की परमाणु नीति पर मतदान के दौरान वह रणनीतिक स्वतंत्रता प्रदर्शित नहीं की थी। किंतु उस कदम में भी कुछ व्यावहारिकता थी। अब ईरान अंतरराष्ट्रीय मंच पर आ रहा है और अपने विरुद्ध मतदान करने वाले अधिकतर राष्ट्रों के साथ संवाद कर रहा है तो भारत को अपने पुराने रुख पर लज्जित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। ईरान की अर्थव्यवस्था को संवारने के लिए साहसिक कदम उठाए जाने हैं और उसकी ऊर्जा का प्रमुख ग्राहक होने के नाते भारत को इसमें योगदान करना चाहिए।
सैन्य क्षेत्र में दोनों देशों के सशस्त्र बलों के बीच संयुक्त सहयोग दिखाई नहीं दे रहा होगा। किंतु खुफिया सूचनाओं को साझा किया जा रहा है और सलाह भी ली जा रही है। अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को देखते हुए भारत ईरान से होते हुए ही जमीन के रास्ते अफगानिस्तान में जा सकता है। कंदहार और हेरात जैसे अन्य केंद्रों में भारत की उपस्थिति पर पाकिस्तान का जो चिढ़ भरा रुख है, उसकी काट ईरान के सहयोग से ही करनी होगी। याद रखना चाहिए कि भारत और ईरान दोनों नौ पार्टियों के गठबंधन के समर्थन में थे। भारत और ईरान को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के विरुद्ध भी एक ही मोर्चे पर दिखना चाहिए। वास्तव में ईरान को एक शरारती देश के रूप में बनी अपनी छवि को खत्म करने के लिए भारत की अच्छी छवि का सहारा लेना चाहिए।
हालांकि प्रधानमंत्री की यात्रा चीन के राष्ट्रपति की यात्रा के बाद हो रही है, लेकिन उसका समय सटीक लगता है। यात्रा जल्दी होती तो ईरान प्रतिबंध हटाए जाने तथा वित्तीय बाध्यताओं के प्रभावों से निकलने का प्रयास ही कर रहा होता। लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उसकी स्वीकार्यता बढ़ती दिख रही है। ईरानियों को एक ही बात अखरेगी और वह है इजरायल तथा सऊदी अरब के साथ भारत के बहुत मजबूत रिश्ते। उसे यह यकीन दिलाना होगा कि भारत किसी भी साझेदार के हितों को चोट पहुंचाए बगैर तीनों के साथ अपनी दोस्ती निभा सकता है।
जैसे-जैसे यात्रा का समय नजदीक आएगा, रणनीतिक संतुलन के स्तर, नीति और केंद्र बिंदु के बारे में स्पष्ट रूप से समझाने के लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता होगी, जो दोनों राष्ट्रों की सभी आकांक्षाएं पूरी करने के लिए आवश्यक है।
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