दाएश के सामने आने के दो साल बाद भी दुनिया उस खिलाफत की महत्वाकांक्षाओं का खमियाजा भुगत रही है, जिसे अबू बक्र अल बगदादी ने उत्तरी इराक एवं सीरिया में स्थापित किया। कथित खिलाफत की ताकत भू-क्षेत्र पर उसके अधिकार, वित्तीय आय के तंत्र, नेतृत्व, लड़ाकों की फौज तथा इस्लामी तीर्थस्थलों एवं कबायली अरब क्षेत्रों के साथ भौगोलिक नजदीकी के कारण उसके भावनात्मक लगाव में निहित है। दाएश का अस्तित्व दो वर्ष तक बना रहा है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र समेत बाकी दुनिया उससे निपटने के तरीके पर सहमत ही नहीं हो पाई है। इसके अलावा सीरिया में अराजकतापूर्ण छद्म युद्ध की स्थिति तथा इराक में संघर्ष के बाद की अशांति ने उद्देश्य ठोस और साकार रूप नहीं ले पाए। दाएश पहले से काफी कमजोर हो गया है, लेकिन पेचीदा और लगातार बदली स्थितियों से उसे मदद मिली है।
दाएश की ताकत
दाएश को शिकस्त देने ती कोई भी रणनीति तैयार करने से पहले इस बात की पड़ताल करना जरूरी है कि पूरी दुनिया के खिलाफ होने के बाद भी दाएश का वजूद बरकरार कैसे है। यहां पारंपरिक सैन्य खुफिया मूल्यांकन की जरूरत है।
दाएश आतंक की रणनीति अपनाता है, लेकिन वास्तव में वह आतंकवादी संगठन नहीं है। यह विद्रोही सेना जैसा है। इसे सैन्य ताकत उन अनूठे और नए तरीकों से मिलती है, जिन्हें वह अपनाता है, जिनमें सबसे प्रमुख है मनोवैज्ञानिक जंग, जिसका ऐसा स्तर नाजी काल के बाद से नहीं देखा गया है। दुनिया भर में युवाओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए विचारधारा के संदेशों, नकारात्मक दुस्साहस और पलायनवाद तथा भयभीत करने वाले तरीकों का इस्तेमाल किया गया है। किंतु अंतरराष्ट्रीय लड़ाकों के बड़े पैमाने पर इकट्ठा होने और बड़े आंकड़े (10,000 से 30,000 के बीच) के बावजूद दाएश अपने अभियानों के लिए केवल उन पर आश्रित नहीं है। किंतु उनके कारण एक स्तर तक आधुनिकता तो निश्चित रूप से आ गई है क्योंकि दाएश में शामिल बाथ नेतृत्व से ऐसी आधुनिकता की उम्मीद नहीं की जा सकती। दाएश का मुख्य सैन्य कमांडर चेचेन्या का उमर माना जाता था, जिसे अब मरा हुआ बताया जा रहा है।
दाएश की बड़ी ताकत धूर्तता भरे पोस्टर और सोशल मीडिया अभियान हैं, जिन्हें दुनिया भर में बैठे लोग संभालते रहे हैं। उनमें से एक शमी भारत में बेंगलूरु से बेहद सक्रिय ट्विटर खाता चलाता था। दाएश की सैन्य ताकत विभिन्न प्रकार के नेटवर्क से आती है। उनमें से प्रमुख हैं बाथ पार्टी के पूर्व नेता, इराक की बिखर चुकी सेना, सुन्नी कबायली लड़ाके, सुन्ना और नक्शबंदी फौजें, जाने-माने इराकी इस्लामिस्ट और मुस्लिम ब्रदरहुड की इराकी शाखा, जिसे रिवॉल्यूशनरी बिग्रेड भी कहा जाता है। पूरे इराक में फैले सुन्नी तत्व इसलिए एकजुट हुए क्योंकि अमेरिकी सेनाएं सुन्नियों को निशाना बनाने से शिया राजनीतिक नेतृत्व को रोक नहीं सकीं। अमेरिकी नेतृत्व ने इराक में प्रतिरोध को दबाने की कोशिश तो की, लेकिन संघर्ष के बाद राजनीतिक परिवर्तन अपना काम कर कर गए, जिन पर नजर रखी जाती तो शायद स्थिति ऐसी नहीं होती।
यह समझना अहम है कि अमेरिकी सेनाओं ने पूरा नेतृत्व शिया योद्धाओं के हाथों में जाने से रोकने के लिए सुन्नियों के साथ संपर्क रखा और उन्हें ताकतवर भी बनाया। यह संपर्क आज के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, जिसकी व्याख्या इस लेख में बाद में की जाएगी।
अपने विरोधियों के दिलों में दहशत पैदा करने, कुछ को डराने वाली, कुछ को उबाने वाली और बाकी को रिझाने वाली शैतानी छवि धारण करने की दाएश की क्षमता ही पिछले दो वर्षों से उसकी मदद कर रही है। उसने सलाफियों से भी अधिक चरमपंथी विचारधारा आरंभ की, जिसमें इस्लाम से इतर धर्मों के प्रति असहिष्णुता के विचार को बहुत अधिक तवज्जो दी गई है। इस्लाम के भीतर अन्य आस्थाओं को भी उसने ऐसे ही निशाना बनाया है, जिसमें शिया सबसे प्रमुख हैं। सार्वजनिक तौर पर सिर कलम कर, जिंदा जलाकर और यजीदी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार समेत अन्य प्रकार की बर्बरता दिखाकर, पालमीरा तथा अन्य स्थानों पर ऐतिहासिक कृतियां नष्ट कर एवं उनके वीडियो बनाकर असल में संदेश दिया जा रहा था। इस संदेश का अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग प्रभाव होता। हालांकि इस्लामी दुनिया में इसके प्रति बड़ी घृणा जताई, लेकिन सलाफी समुदाय में कुछ तत्व हैं, जो दाएश की बर्बरता भरी विचारधारा, आस्था एवं तरीकों की निंदा नहीं करते। इस्लाम के भीतर अनिश्चितता का एक तत्व है, जो संदेह के मार्ग पर चलता है और किसी भी समय नकारात्मक हरकत कर सकता है।
सभी को पता है कि दाएश को इस बीच मोसुल और इरबिल के खजानों से हुई लूट से रकम मिली। उसके बाद मोसुल की रिफाइनरी से तेल को वैश्विक बाजारों में चल रही कीमतों के मुकाबले आधे दाम पर बेचा गया, जो बहुत बुरी, लेकिन अबूझ हरकत रही। दाएश के साथ लड़ रहे देश उस तेल को खरीदकर उसका खजाना भरते रहे। सबूत होने के बाद भी घिनौनी हरकतों की तरफ से आंखें मूंदना अंतरराष्ट्रीय समुदाय को बखूबी आता है (भारत में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद इसका ही उदाहरण है)। जॉर्डन से इराक में आने वाले ट्रकों की आवाजाही पर कर लगाकर, आम जनता से कर वसूलकर और (इसकी पुष्टि होनी अभी बाकी है) अफगानिस्तान तथा तुर्की में नशे की तस्करी करने वालों से कर वसूलकर भी आर्थिक जरूरतें पूरी की गईं। रूसियों के आने के बाद मोसुल रिफाइनरी, उसके बुनियादी ढांचे को चुनकर निशाना बनाए जाने तथा वहां से तेल की निकासी बंद करने के कारण वित्तीय प्रवाह इतना कम हो गया कि अब लड़ाकों को आधा वेतन ही मिल रहा है, जिससे कुछ समय बाद विरोध निश्चित रूप से कमजोर हो जाएगा। इससे यह भी पता चलता है कि दाएश को सबसे अधिक चोट पहुंचाने की रणनीति तैयार की जा रही है।
सैन्य साधनों की आवाजाही महत्वपूर्ण प्रश्न है। उसे कम कीजिए या रोक दीजिए और सैन्य ताकत घट जाएगी। किंतु पूरी दुनिया में प्रतिरोध के आंदोलन हथियारों एवं गोला-बारूद के अंधाधुंध एवं अवैध प्रवाह के कारण ही फलते रहे हैं। जमीनी एवं समुद्री सीमाएं भी अब इसे रोक नहीं पातीं। इराक और सीरिया तथा सऊदी अरब की अनियंत्रित उत्तरी सीमाएं इस आवाजाही में मददगार हैं। इसमें कौन सी एजेंसियां लिप्त हैं, यह अभी अनिश्चित है किंतु अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसियां संभवतः इसके बारे में अच्छी तरह से जानती हैं। दाएश की क्षमताएं कम करने के प्रति उदासीनता संभवतः इसलिए है क्योंकि अभी तक हित निश्चित नहीं किए गए हैं। सीरिया में कई मोर्चों से होने वाली हिंसा के साथ लगातार चलता गृह युद्ध और सहयोगियों एवं उद्देश्यों के बारे में अनिश्चितता इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है।
दाएश अपने प्रतिनिधियों का नेटवर्क तैयार करने में भी सफल हो गया है, जो उसकी सफलता से प्रेरित होते हैं। सोमालिया में अल शबाब, नाइजीरिया और माली में बोको हराम, सिनाई और लीबिया में दाएश ततव कमजोर सरकार एवं नियंत्रण का फायदा उठाते हैं। बांग्लादेश और इंडोनेशिया तक प्रभाव होने के दावे जल्दबाजी भरे लगते हैं और शायद ‘प्रभावित’ करने के लिए किए गए हैं।
दाएश स्वयं को यूरोप की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताने में सफल रहा है। इसने सीरियाई गृह युद्ध और लोगों के विस्थापन पर उसके प्रभाव का फायदा उठाया है। साथ ही उसने विशेषकर उत्तरी अफ्रीका से पश्चिम यूरोप में आए दूसरी और तीसरी पीढ़ी के अलग-थलग पड़े प्रवासियों की सहानुभूति का भी लाभ उठाया है। विशाल पैमाने पर हो रहे आतंकी हमलों तथा उसके प्रभावों के कारण पश्चिम अथवा नाटो से बहुत अधिक एवं मजबूत प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी, लेकिन वर्तमान आर्थिक स्थितियों के कारण ऐसा नहीं हो पाया है। अमेरिका और उसके सहयोगियों को अफगानिस्तान तथा इराक में कभी खत्म नहीं होने वाली जंग में झोंकने वाली 11 सितंबर की कार्रवाई के बाद का अनुभव भी एक अहम कारक है। दाएश ने पश्चिमी प्रतिक्रिया की सीमाओं को पहले ही पूरी तरह भांप लिया था और उनका लाभ भी उठाया।
एक अमेरिकी पत्रिका की टिप्पणी में से यह पंक्ति संभवतः बिल्कुल सटीक तरीके से बताती है कि स्थिति को कैसे देखा जा रहा है - “जब तक इस्लामिक स्टेट “खिलाफत” को चलाता रहेगा, वह दुनिया भर से जिहादियों के लिए प्रेरणा और प्रशिक्षण स्थल का काम करता रहेगा और उनमें अमेरिका तथा यूरोप से भी बड़ी संख्या में जिहादी होंगे।”
जवाबी रणनीतिः कारगर कारक
दिमाग में पहला खयाल तो अफगानिस्तान और इराक जैसे अभियान का ही आता है। भीषण हवाई हमले, विशेष सेना के अभियान, प्रतिरोधी गुटों की ताकत तैयार करना और लड़ने तथा मोर्चा संभालने के लायक क्षमता होना। किंतु कुछ कारक इस रणनीति के खिलाफ जाते हैं।
जवाबी रणनीति: जरूरी सिद्धांत
संभावित सिद्धांत के कुछ घटक नीचे दिए गए हैं:-
जवाबी रणनीतिः कुछ आवश्यक पहलू
सैन्य क्षेत्रः सबसे पहले सभी सैन्य संसाधनों का पूरी तरह इस्तेमाल संभव नहीं है। यह सीमित ही रहेगा किंतु हवाई हमलों पर जोर दिया जाना चाहिए। इसकी जिम्मेदारी रूस और पश्चिमी शक्तियों को साझा करनी होगी। अन्य खाड़ी देशों को इस प्रयास में शामिल करने, जिम्मेदारी उठाने और भविष्य में उनके हित इससे जोड़ने के लिए यमन में युद्ध समाप्त करना आवश्यक है।
सैन्य रणनीति का दूसरा तत्व है हमलों के लिए विशेष बल को मजबूत करना। प्रतिरोध को कमजोर करने एवं संसाधनों को समाप्त करने के लिए जरूरी है कि इराकी सेना तथा अन्य सैन्य तत्व दाएश के प्रभुत्व वाले इलाकों को शेष दुनिया से काटकर अलग-थलग कर दें।
मोसुल जैसे प्रमुख लक्ष्यों पर पूरा ध्यान दिए जाने की जरूरत है और साथ में यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आम जनता को कम से कम नुकसान हो।
साइबर क्षेत्र को बेहतर और अधिक सतर्कता के साथ ध्यान देना होगा। जिन मनोवैज्ञानिक हथियारों का इस्तेमाल हो रहा है, उनका जवाब देना होगा। अमेरिकी विचार समूह अभी तक असहाय ही रहे हैं और उन्होंने इस मामले में दाएश का दबदबा एक तरह से स्वीकार कर लिया है। इसकी वजह पश्चिम एशिया के प्रति अमेरिका की उदासीनता ही है।
ईरानी थल सेना के कारण दिक्कतें आएंगी, हालांकि वह ऐसा देश है, जो अधिकतम सैन्य संसाधन उपलब्ध करा सकता है। ईरान के सैन्य संसाधन को उस समय के लिए रोककर रखना उचित होगा, जिस समय एकाएक अधिक सेना की जरूरत होगी।
संयुक्त राष्ट्र के पास ऐसे अभियान के जरिये अपनी क्षमताएं दिखाने का मौका है, जो चैप्टर 6 के अनुसार ही हो, लेकिन जिसे सुरक्षा परिषद की अनुमति मांगे बगैर ही चैप्टर 7 की शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार हो। किंतु यह सब तभी हो सकता है, जब जिनेवा प्रक्रिया को स्थायी युद्धविराम एवं राजनीतिक प्रक्रिया में थोड़ी-बहुत सफलता प्राप्त हो। सीरिया को शांत रखना और दाएश को उसकी जमीन का सहारा लेने से रोकना इराक में होने वाले अभियानों में प्रभावी योगदान करेगा। संयुक्त राष्ट्र बलों की उपस्थिति का फायदा मानवीय अभियानों में भी उठाया जा सकता है ताकि यूरोप भाग गए विस्थापित लोगों को वापस लौटने में मदद की जा सके।
राजनीतिक क्षेत्रः राजनीतिक कार्यक्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण पहलू सांप्रदायिक समस्या ही है। उन सुन्नी तत्वों को अलग करने की जरूरत है, जो तत्कालीन मलिकी सरकार के समय उभरने वाले शिया प्रभुत्व के कारण ही दाएश के साथ हैं। उनका वैचारिक संबंध न के बराबर है। उन्हें अमेरिकी उपस्थिति से रहित इराक में उनकी स्थिति के प्रति अधिक आश्वस्त किए जाने की आवश्यकता है। सुन्नी तत्वों के साथ अमेरिका के गहरे संबंध हैं और उसे उन्हें फिर बहाल करने की जरूरत है। तटस्थ सऊदी अरब का सहयोग अब भी प्रभावी होगा। जहां तक ईरान का सवाल है, इसे पूरी पारदर्शिता के साथ अंजाम देना होगा और रणनीति को पूरी तरह समझना भी होगा।
कूटनीतिक क्षेत्रः अंतरराष्ट्रीय वातावरण में ईरान का विश्वास बढ़ने के साथ ही अमेरिका-ईरान संबंधों में आ रहे सौहार्द का इस क्षेत्र में भी प्रयोग किया जाना चाहिए। यमन में सऊदी और ईरान के बीच छद्म युद्ध समाप्त करना होगा क्योंकि इससे दाएश के भरोसे को बल ही मिलता है। अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र (संभव हो तो रूस भी) को इसकी पहल करनी होगी। वास्तव में चीन ऐसी शक्ति है, जिसने तेहरान और रियाद से बराबर दूरी बनाकर रखी है और इस युद्ध से चीन के पूरी तरह अलग रहने के बाद भी उसके लिए सकारात्मक भूमिका तलाशी जा सकती है।
ईरान और सऊदी अरब के प्रति दाएश का भी समान वैर भाव है। सऊदियों को लेवेंट क्षेत्र में हिजबुल्ला-ईरान-सीरिया की तिकड़ी की बढ़ती ताकत से चिंता है और उसे लगता है कि दाएश के सफाए से यह इलाका इस तिकड़ी के और इराक की शिया प्रभुत्व वाली सरकार के हाथ में चला जाएगा। इसलिए दाएश के खिलाफ सक्रिय होने में उसकी दिलचस्पी नहीं है। ईरान और सऊदियों को दाएश सभी के लिए एक बराबर खतरा लगे ओर एकसमान खतरा नजर आए और दोनों रत्ती भर भी सहयोग करें, यह बेहद आदर्शवादी कल्पना हो सकती है। लेकिन इसके लिए राजनयिक या कूटनीतिक प्रयास किए जाने चाहिए। संभवतः यहां भारत की भूमिका हो सकती है।
आर्थिक क्षेत्रः दाएश को अलग-थलग करने के लिए ‘चोक इफेक्ट’ का इस्तेमाल किया जाए। उत्तरी इलाकों में बंधक बनाई गई जनता की मानवीय आवश्यकताएं पूरी करना जरूरी हो सकता है किंतु बाकी सभी सामान को उस इलाके में बड़ी मात्रा में पहुंचने से रोका जाए। सीमाएं सील करना व्यावहारिक नहीं है क्योंकि कुछ न कुछ सामग्री गुपचुप अंदर आ ही जाएगी। किसी भी प्रत्यक्ष वस्तु पर पूरा नियंत्रण होना चाहिए। तेल से संबंधित सभी व्यावसायिक गतिविधियां कम होनी चाहिए। गोपनीय छद्म बैंक खातों पर नजर रखे जाने से दाएश को खुराक मिलनी बंद हो जाएगी। फिर भी अवैध विदेशी खातों में रकम जमा होने से दुनिया रोक नहीं सकती, इसलिए इस मामले में बहुत कुछ होने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
यह विदित है कि दाएश कुछ छिटपुट तालिबान तत्वों के सहारे अफगानिस्तान में घुसने की जुगत भिड़ा रहा है। वह अभी तक सफल नहीं हुआ है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान ऐसा क्षेत्र है, जो दाएश को इस इलाके से चल रहे अवैध नशे के व्यापार पर नियंत्रण का मौका देगा। ऐसा होता है तो दुनिया को दाएश के खिलाफ लंबी लड़ाई के लिए कमर कस लेनी होगी। इसलिए दाएश को अफगानिस्तान-पाकिस्तान में या मध्य एशिया के गैस भंडार वाले तुर्कमेनिस्तान, जहां दाएश सत्ता हथियाने की फिराक मे है, में आने से रोकने के हरसंभव प्रयास करने होंगे।
दाएश को मिलने वाले वित्तीय सहारे की अधिक जांच कराया जाना जरूरी है ताकि उसकी आय के संभावित गोपनीय स्रोतों का पता चल जाए। इसलिए रोकने और जवाब देने के लिए गंभीर उपायों की जरूरत है।
मैं कल्पना कर सकता हूं कि सुझाई गई जवाबी रणनीति की कड़ी आलोचना हो रही है। किंतु विश्व अर्थव्यवस्था ऐसी जंग के लिए पूर्ण सैन्य उपयोग की अनुमति नहीं देती, इस कारण यही सबसे व्यावहारिक रणनीति है। इसके अलावा अभियान चलाने के लिए बहुराष्ट्रीय प्रयास करना आसान नहीं है। दाएश भी यह बात समझता है और वह अपने तरीकों और भड़काने वाले तत्वों का व्यापक प्रयोग करना चाहेगा ताकि 11 सितंबर के बाद जैसा भावनात्मक ज्वार न आ सके। यह स्पष्ट है कि जब तक सीरिया की समस्या नहीं सुलझाई जाती तब तक दाएश स्थिति का फायदा उठाता रहेगा। सुझाई गई जवाबी रणनीति में यह उसी तरह अपरिहार्य है, जिस तरह दाएश के प्रति समर्थन खत्म करने और उसे कमजोर करने के लिए सुन्नी तत्वों का इस्तेमाल करना। उसी तरह प्रधानमंत्री अबादी की निष्पक्षता के साथ शासन करने और सांप्रदायिक सहयोग के लिए कार्य करने की क्षमता भी यह सुनिश्चित करेगी कि केवल शिया नहीं बल्कि सभी इराकी दाएश के खिलाफ खड़े हो जाएं।
दाएश को हराने का तरीका जो भी हो, वह केवल एक आयाम वाला नहीं हो सकता। इसे समग्र होना पड़ेगा और अमेरिका को अनिच्छा के साथ ही सही इसका नेतृत्व करना पड़ेगा। इस रणनीति के अंशों का अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रभाव होगा, लेकिन हिटलर की तरह बढ़ती जा रही इस आफत से दुनिया को मुक्ति दिलाने के लिए जरूरी प्रयास कम नहीं होने चाहिए।
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