विदेश सचिवों की बैठकः स्पष्टवादी, हां; रचनात्मक, नहीं
Sushant Sareen

नई दिल्ली में ‘हार्ट ऑफ एशिया’ सम्मेलन के दौरान भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों की बैठक में कोई प्रगति नहीं हुई। वास्तव में यह बैठक इतनी महत्वहीन थी कि मीडिया का वह उन्माद भी गायब था, जो भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ भी होने पर नजर आता है। गनीमत यही रही कि दोनों पक्ष प्रत्येक उपलब्ध मंच पर एक दूसरे से संवाद करते हैं या आप चाहें तो कह सकते हैं कि इसका दिखावा करते हैं। यद्यपि भारत ने ‘संबंधों को आगे ले जाने’ में दिलचस्पी दिखाई और पाकिस्तान ने ‘समग्र वार्ता जल्द से जल्द आरंभ करने’ का समर्थन किया, लेकिन यह स्पष्ट महसूस हुआ कि दोनों पक्ष बातचीत का केवल दिखावा कर रहे थे।

नई दिल्ली में हुई बैठक स्पष्ट बताती है कि भारत और पाकिस्तान के संबंध बिगड़कर पहले जैसे हो रहे हैं। पिछले साल दिसंबर में इस्लामाबाद में ‘हार्ट ऑफ एशिया’ सम्मेलन के दौरान ‘समग्र द्विपक्षीय वार्ता’ के बारे में हुई बड़ी-बड़ी बातें नाकाम साबित हुई हैं। इस्लामाबाद कश्मीर के मसले पर वही पुराना रावलपिंडी वाला राग अलाप रहा है और भारत पाकिस्तान को यह याद दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है कि ‘द्विपक्षीय संबंधों पर आतंकवाद के प्रभाव को वह खारिज नहीं कर सकता’, इसलिए यह स्पष्ट था कि दोनों विदेश सचिवों के बीच चर्चा ‘रचनात्मक’ होने के बजाय ‘स्पष्ट’ अधिक रही। इसमें एक-दूसरे से बात नहीं की जा रही थी बल्कि एक-दूसरे को बात सुनाई जा रही थीं। इसमें आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि पाकिस्तानी पहले से तैयार कहानी लाए थे, जो ‘सार्थक बातचीत’ चाहने के उनके दावों के उलट थी।

बैठक में हुई बातचीत के बारे में बयान जारी कर अपना पक्ष रखने से पहले पाकिस्तानियों ने बैठक समाप्त होने का भी इंतजार नहीं किया, इसी से स्पष्ट पता चलता है कि भारत में वार्ताकारों से संवाद के बजाय अपने देश में समर्थन जुटाने में उनकी अधिक दिलचस्पी थी। पाकिस्तान में सरकार और सेना के संबंध देखते हुए और नागरिक सरकार की उन बढ़ती राजनीतिक कठिनाइयों को देखते हुए इसी की अपेक्षा थी, जो कठिनाइयां उसे भारत के साथ संबंध सुधारने नहीं दे रही हैं।

सेना पहले ही प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर कड़ी नजर रख रही है। सैन्य प्रतिष्ठान के साथ जुड़े हुए पत्रकार ये कहानियां फैला रहे हैं कि नवाज शरीफ को जैसे ही पठानकोट हमले के बारे में पता चला, उन्होंने अपने सहयोगियों से शिकायत की कि जैसे ही वह भारत की ओर हाथ बढ़ाते हैं, सेना की ऐसी हरकतें उनके प्रयासों पर पानी फेर देती हैं। यहां तक कि इमरान खान जैसे राजनीति प्रतिद्वंद्वी भी उन पर अपने निजी कारोबारी हितों के कारण भारत के प्रति ‘नरम’ रवैया अपनाने का आरोप लगाते रहे हैं। पनामा दस्तावेजों के खुलासे के बाद और पाकिस्तान में उन पर तथा उनके परिवार पर धन शोधन, कर चोरी तथा भ्रष्टाचार के आरोपों पर सब कुछ स्पष्ट बताने की बढ़ती मांग के कारण उनकी राजनीतिक स्थिति काफी कमजोर हो गई है। ऐसे तनावपूर्ण एवं अविश्वास भरे राजनीतिक वातावरण में नवाज शरीफ भारत के प्रति नरम होने का आरोप या कश्मीर पर भारत के हाथों ‘बिकने’ का आरोप तो बिल्कुल भी नहीं चाहते होंगे। नवाज शरीफ निश्चित रूप से भारत के साथ सख्त एवं अड़ियल रवैया अपनाकर खुद को सुरक्षित भी करना चाहेंगे और अपनी ‘देशभक्ति’ भी साबित करना चाहेंगे।

भारत की ओर से भी जनता और संभवतः अधिकारियों को भी पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की अधिक इच्छा नहीं है और पठानकोट में पीठ में छुरा घोंपे जाने के बाद तो और भी कम इच्छा है। जब तक आतंकवाद के मसले पर भारत को पाकिस्तान से कुछ संतुष्टि नहीं मिलती है तब तक पाकिस्तान के प्रति कोई झुकाव दिखाना चाहे वह नाटकीय ही क्यों न हो, प्रधानमंत्री के लिए बेहद कठिन और राजनीतिक रूप से जोखिम भरा होगा। जब पाकिस्तानी सेना को यह भ्रम हो रहा है कि पाकिस्तान इस क्षेत्र में और उसके परे नया गुरुत्व केंद्र बनकर उभर रहा है - और यह पहली बार नहीं है - तो पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को भारत के साथ अपने संबंध सुधारने में कोई दिलचस्पी शायद ही होगी और उसमें फायदा भी शायद ही दिखेगा।

इन परिस्थितियों में पाकिस्तान के साथ संयोग से होने वाली या पूर्व निर्धारित बातचीत में कुछ भी ‘रचनात्मक’ होने की अपेक्षा करना बेवकूफी ही होगी। इससे भी बुरा यह है कि पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए सही समय की प्रतीक्षा करना निरर्थक है क्योंकि जब तक द्विपक्षीय संबंधों में परिवर्तन करने वाली स्थितियां उत्पन्न नहीं होतीं तब तक वार्ता प्रक्रिया योजनाहीन ही रहेगी। पाकिस्तान में हर समय सेना और सरकार के संबंधों की स्थिति ही विघ्न डालती दिखती है किंतु इसमें निहित कुछ अन्य मूल मुद्दे भी हैं, जिनमें पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान (सरकारी भी और सैन्य भी) का वैचारिक रूप से सख्त, कट्टर रवैया भी शामिल है, संबंध सामान्य होने की किसी भी संभावना का विरोध करता है। जब पाकिस्तान में सेना और सरकार में सहमति होती है तो उसमें आत्मविश्वास आ जाता है और वह भारत की ओर हाथ बढ़ाता है और जब सेना एवं सरकार में सहमति नहीं होती है तो अलग तरह की समस्याएं खड़ी होती हैं। अगर कमान सेना के हाथ होती है और वह कोई प्रस्ताव रखती है तो सरकार उसे नकार देती है (पीपीपी ने मुशर्रफ का प्रस्ताव नकार दिया था क्योंकि उसमें लोकतांत्रिक सहमति नहीं थी), जब सरकार ठीक बात कर रही होती है तो सेना उसे अस्थिर कर देती है, जिस कारण बातचीत का कोई अर्थ नहीं रह जाता और अगर सरकार विवेकहीन है तो बातचीत आगे बढ़ेगी ही नहीं।

इसलिए मूल बात यह है कि आपके बातचीत करने से या बातचीत नहीं करने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसका अर्थ है कि जब आपकी मर्जी हो तो आप बात करें और जब मर्जी हो तो बात करना बंद कर दें। भारत ने अपनी सुरक्षा संबंधी चिंताओं की रक्षा बलपूर्वक कर अच्छा किया है।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 13th May 2016, Image Source: http://www.newindianexpress.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International

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