जो मानते हैं कि कांग्रेस पार्टी और उसकी ओर झुकाव वाले इतिहासकारों ने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के साथ न्याय नहीं किया है, उन्हें राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की आत्मकथा “टर्बलंट इयर्सः 1980-1996” का दूसरा खंड पढ़कर अच्छा लग सकता है, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में श्री राव के सामने आई प्रमुख समस्याओं पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। मुखर्जी शाह बानो मामले में अदालत का फैसला पलटने के राजीव गांधी के निर्णय, बाबरी मस्जिद विध्वंस और 1991 में भुगतान संतुलन संकट समेत कई विस्फोटक सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक मुद्दों पर बात करते हैं, जिनका सामना देश ने उस दौरान किया था। मुखर्जी स्वीकार करते हैं कि शाह बानो मामले में अदालती फैसले को पलटने के लिए विधेयक - मुस्लिम महिला (तलाक होने पर अधिकारों की सुरक्षा) विधेयक - लाने के राजीव गांधी के निर्णय की “आलोचना हुई और उनकी आधुनिक होने की छवि को धक्का लगा।” राष्ट्रपति की दृष्टि में 1 फरवरी, 1986 को राम जन्मभूमि मंदिर को खोलना संभवतः (राजीव गांधी की) एक और भूल थी। लोग मानते थे कि इनसे बचा जा सकता था।”
वास्तव में शाह बानो मामले और अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के मामले में राजीव गांधी जो घटिया चाल चल रहे थे, उसका बहुत मामूली सा जिक्र चाशनी में लपेटकर किया गया है। मुखर्जी यह नहीं बताते हैं कि मंदिर के ताले खोलने और बाद में अपने गृह मंत्री बूटा सिंह को मंदिर निर्माण के लिए शिलान्यास समारोह में भाग लेने के लिए अयोध्या भेजने के राजीव गांधी के निर्णय के पीछे कौन सी राजनीतिक चाल थी। चूंकि शाह बानो दौर के बाद उन पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाया जा रहा था, इसलिए गांधी ने पलटी मारी और राम मंदिर निर्माण का अपना संकल्प दिखाकर हिंदुओं को खुश करने की कोशिश की। विश्व हिंदू पषिद द्वारा आयोजित यह समारोह 1989 के लोकसभा चुनावों से ऐन पहले हुआ था और गांधी उम्मीद कर रहे थे कि इस कोशिश से उन्हें हिंदुओं के वोट मिल जाएंगे। इन कृत्यों के कारण उत्तर भारत के बड़े हिस्सों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया।
कांग्रेस पार्टी के साथ मुखर्जी के लंबे जुड़ाव और कई प्रधानमंत्रियों के साथ उनकी निकटता देखते हुए ये छिटपुट टिप्पणियां भी एक कारण से बहुत महत्वपूर्ण हैं: इनसे उन घटनाओं के बारे में भ्रम दूर होता है, जिनके कारण अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ।
यह सत्य है कि जिस दिन अयोध्या में विवादित ढांचे को धराशायी किया गया, उस दिन (6 दिसंबर, 1992) नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, लेकिन यह भी सत्य है कि मंदिर का ताला राजीव गांधी ने खोला था। उसके बाद राजीव गांधी ने ही यह सुनिश्चित किया कि उनकी सरकार शिलान्यास समारोह में आधिकारिक रूप से शामिल रहे, जिसने एक प्रकार से मंदिर के निर्माण का संकेत दिया। यदि गांधी ने ये कदम नहीं उठाए होते तो बाबरी ढांचे का विध्वंस करने वाली राजनीतिक स्थितियां नहीं बनतीं।
पिछले दो दशकों में कांग्रेस पार्टी ने मीडिया और शिक्षाविदों के उपकृत करने वाले वर्गों के साथ मिलकर अयोध्या विवाद में राजीव गांधी की मुख्य भूमिका को छिपाने एवं पूरा आरोप नरसिंह राव पर थोपने का प्रयास किया। कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य के रूप में और राष्ट्रीय राजनीति के चतुर समीक्षक के रूप में मुखर्जी ने सचाई सामने लाने का प्रयास किया है।
मुखर्जी मानते हैं कि बाबरी मस्जिद विध्वंस रोकने में राव की नाकामी उनकी सबसे बड़ी असफलताओं में थी। किंतु वह राव को इस बात के लिए दोषी नहीं ठहराते कि उन्होंने यह नहीं माना कि उत्तर प्रदेश सरकार अपना वायदा पूरा नहीं करेगी और विध्वंस की पूर्व संध्या पर वहां राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया। मुखर्जी कहते हैं, “कई लोग मस्जिद विध्वंस के लिए पी. वी. को दोषी ठहराते हैं। मैं उस समय मंत्रिमंडल में नहीं था और इसीलिए बाबरी मस्जिद मामले में लिए गए निर्णय का हिस्सा भी नहीं था। किंतु मुझे लगता है कि भारत सरकार के सामने कोई और विकल्प नहीं था। वह विकल्पहीन थी। केंद्र सरकार किसी निर्वाचित राज्य सरकार को केवल इस संदेह के आधार पर नहीं हटा सकती थी कि बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का अपना दायित्व वह पूरा नहीं कर पाएगी।”
पीछे मुड़कर देखने पर अब लोग यह तर्क दे सकते हैं कि सरकार को अनुच्छेद 356 के तहत राज्य सरकार को बर्खास्त कर देना चाहिए था। लेकिन यह घटना के बाद कहने की बातें हैं। “राष्ट्रपति शासन को संसद में मंजूरी कैसे मिलती? राज्य सभा में कांग्रेस का बहुमत नहीं था।”
राष्ट्रपति ने पिछले दो दशकों में कांग्रेस पार्टी द्वारा किए गए एक अन्य ऐतिहासिक अन्याय को भी सुधारने की कोशिश की है और वह अन्याय है 1991 से 1996 के बीच हुए शानदार आर्थिक कायापलट का श्रेय, भारतीयों की उद्यमशीलता को सामने लाने और भारतीयों को खुद में विश्वास करने योग्य बनाने का श्रेय राव को नहीं देना।
मुखर्जी ने कई मामलों में नरसिंह राव की भरपूर प्रशंसा की है और 1991 में आरंभ किए गए आर्थिक सुधारों को राव की सबसे बड़ी सफलता बताया है। जून, 1991 में जब राव प्रधानमंत्री बने थे तो देश की अर्थव्यवस्था संकट में थी। जब उन्होंने सत्ता संभाली तो देश का विदेशी मुद्रा भंडार दरक चुका था और देश पर भुगतान से चूकने का खतरा मंडरा रहा था। उसके पास केवल दो सप्ताह तक पेट्रोलियम आयात करने भर के डॉलर बचे थे। मुद्रास्फीति की दर 13 प्रतिशत थी, जो जल्द ही 17 प्रतिशत तक पहुंच गई। विनिर्माण और उद्योग रुक से गए थे और संकट इतना गंभीर था कि पिछली सरकार को आयात हेतु मात्र 20 करोड़ डॉलर जुटाने के लिए भी देश का सोना बैंक ऑफ इंगलैंड के पास गिरवी रखना पड़ा था।
किसी भी प्रधानमंत्री के सामने आई आर्थिक चुनौतियों में यह सबसे बड़ी चुनौती थी और राव इसका सामना करने के लिए तैयार थे। मुखर्जी कहते हैं, “इन सुधारों ने देश को उच्च वृद्धि दर के रास्ते पर डाल दिया और हमारी वास्तविक आर्थिक क्षमता सामने लाने में सहायता की।” वह कहते हैं कि राव ने “बड़ी दूरदर्शिता के साथ” डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री चुना और डॉ. सिंह को “वित्तीय संकट से निकलने तथा दूरगामी परिवर्तन करने की पूरी छूट दी, जिन्होंने भारत को आज की आर्थिक शक्ति बना दिया।”
इतना ही नहीं, राव ने उद्योग मंत्रालय स्वयं संभाला और “लाइसेंस राज समाप्त करने में सीधी भूमिका भी निभाई।”
नरसिंह राव की एक अन्य प्रमुख और शानदार उपलब्धि थी पंजाब में आतंकवाद की समस्या से निपटने का उनका तरीका। मुखर्जी कहते हैं कि उन्होंने बड़ी सूझबूझ दिखाई तथा पंजाब में आतंकवाद समाप्त कर दिया और मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार स्थापित की। यद्यपि राव की सरकार अल्पमत की थी किंतु उन्होंने अपनी “राजनीतिक चतुराई” के कारण पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।
जो मानते हैं कि भारत के महानतम प्रधानमंत्रियों में से एक नरसिंह राव को राष्ट्रीय नेताओं के बीच उचित स्थान नहीं दिया गया, उन्हें सच्चाई सामने लाने के लिए राष्ट्रपति का आभारी होना चाहिए।
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