क्या भारत के पास है योजना ‘बी’ (बलूचिस्तान)
Sushant Sareen

पाकिस्तान से बहस में कुछ बढ़त हासिल करने के लिए कुछ वर्षों से अब बलूचिस्तान भारत में एक प्रचलित-सा शब्द बन गया है। इस प्रक्रिया में भारत ने पाकिस्तानी राज्य की ताकत के खिलाफ एकाकी जंग लड़ रहे बलूचों का भारी नुकसान किया है। जब भी कोई भारतीय बिना किसी इरादे के भी ‘बी’ शब्द का जिक्र कर दे, पाकिस्तानियों को बलूच की राष्ट्रवादी आकाँक्षाओं को कुचलने के लिए अपनी बर्बर सैन्य शक्ति बढ़ाने का, एक हद तक वैध आड़ और बहाना मिल जाता है। एक अर्थ में, यह बलूचों के लिए दोहरी मार है; वे भारत से कोई सामग्री, यहाँ तक कि नैतिक समर्थन भी हासिल किये बगैर क्रूर पाकिस्तानी कार्रवाई का आघात झेलते हैं। स्पष्ट है कि बलूचों की मदद की बजाय भारत अगर बलूचों के लिए महज खोखली बयानबाजी ही कर सकता है तो भारतीयों को वास्तव में उन्हें नुकसान पहुँचाना बंद कर देना चाहिए।

बलूचिस्तान के मुद्दे में दिलचस्पी लेने के लिए भारत के पास मोटे तौर पर चार संभावित कारण हैं। पहला तो वही है जो हम पहले से ही करते रहे हैं, हम पाकिस्तानियों के साथ बहस में बलूचिस्तान को लाते हैं क्योंकि यह उन्हें तड़पा देता है। आखिरकार बलूचिस्तान पाकिस्तान की दुखती रग है, और अगर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में विवेक जैसी कोई चीज रही होती तो पाकिस्तान मानवता के अपराध, जो उसने किये हैं और बलूच में जारी रखे हुए है, के लिए बेइज्जत हो गया होता। पाकिस्तानी, जो बेशर्मी पर उतर कर बलूचिस्तान में अपनी मुश्किलों के लिए भारत पर आरोप लगा रहे हैं – कथित भारतीय जासूस के मसले पर रचा गया नाटक भारत पर पाकिस्तान द्वारा लगाये जाने वाले अनोखे आरोपों की श्रृंखला में महज एक कड़ी भर है – बलूच पर थोपी जा रही जघन्यता की सच्चाई से वाकिफ हैं और बहस में इन बिंदुओं को उठाये जाने पर स्वयं को रक्षात्मक पाते हैं। लेकिन नायकत्व का आनंद नीति नहीं है। यद्यपि पाकिस्तानी जब भी कश्मीर का जिक्र करते हैं, उनको चोटिल करने के लिए बलूचिस्तान का मुद्दा हमारे पास है, लेकिन इससे बलूचों को कोई फायदा नहीं है।

बलूचिस्तान में संलिप्तता के लिए भारत के पास दूसरा कारण भारत में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित और समर्थित सभी तरह के आतंकवाद, घुसपैठ और अलगाववाद के बदले के रूप में हो सकता है। पाकिस्तान के मुकाबले भारत के लिए बलूचिस्तान एक सर्वोत्कृष्ट उत्तोलक के रूप में भूमिका निभा सकता है और इस तरह भारत के भीतर पाकिस्तान द्वारा की जा रही गतिविधियों से कदम पीछे खींचने के लिए समझौते का एक अस्त्र हो सकता है। और अंतत: भारत कश्मीर में या देश के भीतर कहीं भी पाकिस्तान द्वारा हम पर की जा रही कार्रवाई के लिए बलूचिस्तान में हिसाब बराबर कर सकता है। लेकिन एक व्यापक रणनीतिक संदर्भ में, जैसे को तैसा की नीति न यहाँ है, न वहाँ है। बहुत अच्छी स्थिति में इसका महज एक सीमांत उपयोगिता है क्योंकि यह वास्तव में रणनीतिक वातावरण को किसी सार्थक दिशा में नहीं ले जाता है। और महत्वपूर्ण यह है कि यह लंबे समय तक चलने वाला भी नहीं है क्योंकि यह लोगों का रुख बदल देगा जो महसूस करते हैं कि वे प्यादे की तरह इस्तेमाल किये जा रहे हैं जिसे किसी और के हित के लिए कुर्बान कर दिया जायेगा।

बलूच के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करने का तीसरा कारण यह हो सकता है कि यह करना सही है, यह अनिवार्य है और कर्तव्य है जिसे अवश्य किया जाना चाहिए। बलूचिस्तान फिलहाल पाकिस्तानी राज के खिलाफ पाँचवाँ और सबसे लंबा और खूनी विद्रोह देख रहा है। क्वेटा छावनी पर रॉकेट हमलों, तोड़फोड़ की कार्रवाई, वार्ताकारों और सुरक्षा अधिकारियों की लक्ष्यित हत्या की खबरें आना शुरू होने के बाद इस ताजा विद्रोह को 2001-02 के जैसा माना जा सकता है। वर्ष 2006 में अस्सी की उम्र पार कर चुके बलूच नेता नवाब अकबर बुग्ती की हत्या के बाद विद्रोहियों ने रफ्तार बदल ली थी और ज्यादा तीखे हो गये थे।

पिछले चार विद्रोहों की तरह, पाँचवाँ विद्रोह भी पंजाब के प्रभुत्व वाले पाकिस्तान द्वारा बलूचों को नुकसान पहुँचाने, भेदभाव किये जाने, किनारे किये जाने और शोषण के चलते भड़का है। पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा समर्थित और कई मामलों में पाकिस्तानी सुरक्षाकर्मियों द्वारा संचालित मौत के दस्तों द्वारा हजारों लोग निर्दयतापूर्वक मार डाले गये और हजारों अन्य लापता हो गये – अगवा कर लिये गये, प्रताड़ित किये गये और बाद में मार डाले गये। मीडिया मुँह बंद किये है और किसी स्थानीय बलूच पत्रकार द्वारा इमानदारी से रिपोर्ट देने का साहस या बेवकूफी करने पर उसे निरपवाद रूप से धमकाया जाता है और कभी-कभी ’खामोश’ कर दिया जाता है। अखबार बंद हो गये हैं और इंटरनेट पर सख्त निगरानी है, टीवी चैनलों की सीमित पहुँच है, संक्षेप में पुलिस राज कायम है। धर्मनिरपेक्ष बलूच के मुस्लिमों को ‘अच्छा’ बनाने के लिए लश्कर-ए-तोइबा जैसे आतंकी गुटों को बलूच समाज में इस्लामी उग्रवाद के बीज बोने के लिए उन स्थानों पर छूट दे दी गयी है। विकास के नाम पर वृहद परियोजनाएँ शुरू की गयी हैं जिनका उद्देश्य पहले से ही उपनिवेश बने बलूच को और ज्यादा उपनिवेश बनाना और बलूचों को ‘रेड इंडियन’ के स्तर तक घटा देना है। अत्यधिक प्रशंसित ग्वादर पत्तन परियोजना ने स्थानीय बलूचों को उनके खुद के शहर में एलियन बना दिया है, उनकी रिहाइश और आजीविका को तहस-नहस कर दिया है और चीन के अधिपतियों के रास्ते से दूर रखने के लिए रंगभेद जैसी नीतियाँ लागू कर दी हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में बलूच के संघर्ष को समर्थन देना न केवल भारत के लिए बल्कि सही सोचने वाले अन्य देशों के लिए भी नैतिक कर्तव्य बन गया है। देशों की नीति को निर्देशित करने वाली यह स्वार्थी रणनीतिक बाध्याताएँ और गणनाएँ बलूच में दृष्टिगोचर होती हैं जहाँ पश्चिम में मानवाधिकारों के ‘ठेकेदार’ पाकिस्तान के खिलाफ चूँ तक नहीं करते। ह्यूमन राइट वाच और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठनों ने यद्यपि बलूचिस्तान में हालात पर रिपोर्ट प्रकाशित कीं लेकिन इस मुद्दे पर वे वास्तव में व्यथित नहीं हुए, बहुत मामूली खेमेबंदी की। दूसरे शब्दों में, बलूचिस्तान के हालात पर उन्होंने महज होठ हिलाये जो शायद उन्हें पाखंड और दोहरे मानक का आरोपी बनाये।

बलूच का समर्थन करने का चौथा कारण यह है कि स्वतंत्र बलूचिस्तान हमारी व्यापक रणनीतिक गणनाओं के मुफीद बैठता है। यह न केवल पाकिस्तान को उसकी औकात में लाता है बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण यह कि पाकिस्तान को भू-रणनीतिक महत्व देने वाले इलाके से वंचित कर देता है। अगर बलूचिस्तान की कोई रणनीतिक प्रासंगिकता है तो वह पाकिस्तान के भीतर नहीं, बल्कि बाहर है। इसकी भौगोलिक स्थिति बलूचिस्तान को क्षेत्र में एक रणनीतिक प्रधानता देगी। इससे भी आगे, बलूच समाज का धर्मनिरपेक्ष चरित्र क्षेत्र में प्रगतिशील मूल्यों का वाहक बनेगा जहाँ अभी जेहाद की ज्वाला तेजी से विनाश कर रही है।

स्पष्ट है कि अगर भारत बलूच का समर्थन करना पड़ा तो यह निश्चितरूप से ऐसा करना सही होने और इसका रणनीतिक मायने होने की वजह से करना चाहिए। लेकिन अगर भारत वास्तव में ऐसा करने का निर्णय करता है तो इसे उद्देश्य के हासिल होने तक अनिवार्य तौर टिके रहना चाहिए। दुर्भाग्यवश, भारत नीति में उतार-चढ़ाव और आधे-अधूरे समाधानों के लिए कुख्यात है। सबसे खराब स्थिति तो यह है कि भारत को एक अविश्वसनीय देश के रूप में देखा जाता है जो सौदा करने के लिएलोगों को मझधार मेंछड़ दोती है। भारत ने1970 में बलूच केसाथ हूबहू ऐसा ही किया था, यहाँ तक कि भारत को मित्र समझने वाले शीर्ष नेताओं को वीजा देने से इनकार कर दिया गया था क्योंकि तत्कालीन सरकार पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल जियाउल हक से प्रीत दिखाना चाहती थी। भारत को अंत में दोनों तरफ से नुकसान उठाना पड़ा : इसने जिया से बिना कुछ पाये बलूचों का भरोसा खो दिया।

अंतरराष्ट्रीय जगत के सामने बलूचिस्तान के मुद्दे को उठाने के लिए एक जबरदस्त कूटनीतिक और प्रचारात्मक अभियान चलाने के अलावा भारत को कोई भी कदम बढ़ाने से पहले बलूचिस्तान पर स्वयं को शिक्षित भी अवश्य करना चाहिए। भारत में राजनीतिक स्तर पर बलूचिस्तान के बारे में अनभिज्ञता विस्मयकारी है। शर्म-अल-शेख की विफलता पर संसदीय बहस के दौरान जदयू नेता शरद यादव ने बहुत आवेश के साथ बलूचिस्तान पर बोला और इसे खान अब्दुल गफ्फार खान से जोड़ दिया! जब तक कि हम बलूचिस्तान के बारे में बेहतर ढंग से नहीं जानते, तब तक हम उन अपार कठिनाइयों और जटिलताओं को नहीं जान पायेंगे जिनका सामना हमें इस मसले में पड़ने पर करना होगा।

इनमें सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता शामिल है जिसमें आदिवासी सरदार और यहाँ तक कि विपक्ष में राष्ट्रवादी खेमे की अगुवाई करने वाले राजनीतिक नेता गद्दारों की तरह व्यवहार करने और पैसे और प्रभुत्व के लिए अपने ही लोगों और अपनी ही माटी को बेचने में थोड़ा भी नहीं हिचकिचायेंगे। किसी एक पार्टी या संगठन के नेतृत्व में किसी सुसंगत राष्ट्रीय आंदोलन का न होना आत्मनिर्णय के लिए बलूचों के संघर्ष में सबसे बड़ी कमजोरियों में एक है। दूसरे शब्दों में, स्वतंत्रता की आग भले गहरे धधक रही हो, लेकिन उद्देश्य को हासिल करने के लिए इस आग को दिशा दे सकने वाली राजनीति ही पूरी तरह गड़बड़ है। और अंत में, ईरान (जिसकी अपनी स्वयं की बलूच समस्या है जो महज जातीय ही नहीं बल्कि अलगाववादी भी है) जैसे पड़ोसी देशों की संवेदनशीलता का भी ध्यान रखना होगा क्योंकि सहायता सामग्री उपलब्ध कराने की व्यवस्था बलूचिस्तानके पड़ोसियों के सहयोग पर निर्भर करेगी।

जैसी हमारी आदत है, हम स्वयं को भ्रम में डाल सकते हैं कि बलूचिस्तान पर महज खोखली वाक्पटुता इस जंग को जीतने के लिए पर्याप्त होगी। यह मूढ़ता होगी जिससे अवश्य ही बचना होगा। हालाँकि एक बड़ी मूढ़ता बिना सोचे-समझे कूद जाना और फिर आधा काम होने के बाद निकल जाना होगा। इस बार अगर भारत कुछ शुरू करता है, तो उसे दुष्टों के साथ किसी एवजी समझौते में पड़े बिना अपनी कार्रवाई को अंतिम मंजिल तक ले जाने का उद्देश्य रखना चाहिए।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 3rd May 2016, Image Source:http://www.crisisbalochistan.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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