मुश्किल में कश्मीर
KM Singh

1947 में विभाजन से पहले के दिनों में जब उत्‍तर पश्चिम भारत का ज्‍यादातर हिस्‍सा सांप्रदायिक उन्‍माद से ग्रस्‍त था, उस समय पड़ोसी राज्‍य जम्‍मू-कश्‍मीर में किसी भी प्रकार के सांप्रदायिक तनाव का कोई संकेत नहीं मिला। इससे महात्‍मा गांधी को सांत्‍वना मिली, जिन्‍होंने अपनी आत्‍मकथा में लिखा, ‘‘जम्‍मू–कश्‍मीर में मुझे उम्‍मीद की किरण नजर आती है।’’ कश्‍मीर सदियों से शांति एवं सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल रहा था। मुगलों के समय से ही कश्‍मीर को ‘धरती का स्‍वर्ग’ कहा जाता था। अपने प्राकृतिक सौंदर्य, सूफी संस्‍कृति और सांप्रदायिक मेलजोल के कारण वास्‍तव में यह स्‍वर्ग ही था। अपराध की बहुत कम दर के साथ शायद यह भारत में सबसे सुरक्षित स्‍थान था। श्रीनगर की सड़कों पर महिलाओं को देर रात में बगैर किसी डर के घर लौटते देखना 1980 के दशक तक सामान्‍य बात थी।

दुर्भाग्‍य से किसी जमाने का ‘धरती का स्‍वर्ग’ पिछले करीब तीन दशक से नर्क की तरह हो गया है। एक पूरी युवा पीढ़ी आतंकवाद से ग्रस्‍त परिवेश में पली-बढ़ी है, जिसका उसकी सोच पर नकारात्‍मक असर हुआ है। इसका दोष भारत और पाकिस्‍तान दोनों को देना होगा, जिनकी हीलाहवाली के कारण कश्‍मीर में ऐसे हालात हुए हैं। भारत को अपने भीतर झांकना चाहिए कि पिछले करीब सात दशक में वह कश्‍मीर के लोगों के दिल और दिमाग क्‍यों नहीं जीत सका। पाकिस्‍तान तो आजादी के वायदे कर पाकिस्‍तानियों का शोषण करने और राज्‍य में आतंकवाद को लगातार बढ़ावा देने की जिम्‍मेदारी से मुकर नहीं सकता।

अतीत में की गई कई पहलें, चाहे 1972 का शिमला समझौता हो या 1999 का लाहौर घोषणापत्र, 2001 की आगरा शिखर बैठक हो या प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा 2003 में आरंभ की गईं विश्‍वास बढ़ाने की पहलें, उसी वर्ष ईद-उल-फित्र पर पाकिस्‍तान द्वारा संघर्षविराम हो या 2004 में प्रधानमंत्री वाजपेयी और राष्‍ट्रपति मुशर्रफ का संयुक्‍त संवाददाता सम्‍मेलन, जिसमें उन्‍होंने आश्‍वस्‍त किया था कि ‘‘वह पाकिस्‍तान के नियंत्रण वाले किसी भी क्षेत्र का प्रयोग आतंकवाद के किसी भी प्रकार के समर्थन के लिए नहीं होने देंगे’’, लेकिन सब कुछ लगभग असफल ही रहा। जब भी स्थिति सामान्‍य करने के लिए शांति वार्ता की दिशा में कोई महत्‍वपूर्ण पहल होती है तभी पाकिस्‍तान का कोई आक्रामक कृत्‍य या उसके प्रत्‍यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन वाला आतंकी हमला बात बिगाड़ देता है: 1999 में का‍रगिल था, 2001 में संसद पर हमला था, 2008 में मुंबई हमला था और 2016 में पठानकोट हमला था।

इस सिलसिले में इस बात का जिक्र करना ठीक हो सकता है कि अमेरिका में पाकिस्‍तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्‍कानी ने अपनी पुस्‍तक ‘इंडिया वर्सस पाकिस्‍तान : व्‍हाई काण्‍ट वी जस्‍ट बी फ्रेंड्स’ में लिखा है कि भारत और पाकिस्‍तान के बीच दोस्‍ती की गुंजाइश कम हो रही है कश्‍मीर पर पाकिस्‍तान की नीति ‘या तो जनमत संग्रह या कुछ भी नहीं’ ही रही है। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ (और प्रधानमंत्री मोदी) के सकरात्‍मक कदमों के बाद भी संबंध सामान्‍य करने के लिए बातचीत नहीं होने देने के पाकिस्‍तान के हठ भरे रवैये के लिए इससे बेहतर शब्‍द कोई नहीं हो सकता।

जहां तक जम्‍मू-कश्‍मीर में जनमत संग्रह का मसला है तो पाकिस्‍तान को यह स्‍वीकार करना चाहिए कि संयुक्‍त राष्‍ट्र घोषणापत्र के चैप्‍टर 6 के अंतर्गत 22 अप्रैल, 1948 को पारित किया गया संयुक्‍त राष्‍ट्र का प्रस्‍ताव सलाह भर था, उसे लागू करने की बाध्‍यता नहीं थी। इसके अलावा इसकी प्रासंगिकता अरसा पहले ही खत्‍म हो चुकी है क्‍योंकि इसे संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद की ‘अनसुलझे अंतरराष्‍ट्रीय विवादों की वार्षिक सूची’ से भी बाहर कर दिया गया है। यह भी याद रखा जा सकता है कि संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद के स्‍थान पर बहुत पहले ही शिमला समझौता लागू हो चुका है और पूर्व राष्‍ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने भी इस यथार्थ को स्‍वीकार किया था। और इसी दलील को आगे ले जाएं तो ‘समग्र वार्ता प्रक्रिया’ के तहत कश्‍मीर के ‘मुख्‍य’ मुद्दे पर बातचीत की पाकिस्‍तान की पुरानी मांग संयुक्‍त राष्‍ट्र प्रस्‍ताव के मुताबिक नहीं है। इसलिए इस मुद्दे को संयुक्‍त राष्‍ट्र में उठाने के जो प्रयास पाकिस्‍तान लगातार करता है, वे बेकार ही हैं। क्‍या पाकिस्‍तान अवैध रूप से कब्‍जा किए गए हिस्‍से खाली कर एकदम शुरुआत से बातचीत आरंभ करने के लिए तैयार है? क्‍या वह चीन से भी उस बड़े इलाके को खाली करने के लिए कहेगा, जो उसने चीन के सुपुर्द कर दिया है?

पाकिस्‍तानी शासकों के लिए इस बात को समझने का यह एकदम सटीक वक्‍त है कि जनमत संग्रह अब कोई मुद्दा रह ही नहीं गया है। भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी समझदार व्‍यक्ति को संयुक्‍त राष्‍ट्र के प्रस्‍तावों की नहीं बल्कि आतंकवाद की अधिक चिंता है। कोई भी देश यदि आतंकवाद की साजिश रचता है या उसे बढ़ावा देता है तो उसके पास खुद को सही ठहराने का आज कोई तरीका नहीं है। अधिकतर पश्चिमी देश आज भारत को पाकिस्‍तान प्रायोजित आतंकवाद का शिकार मानते हैं। सामान्‍य तौर पर आतंकवाद के मसले पर और विशेषकर 26/11 के मुंबई हमले तथा पठानकोट हमले पर भारत को अमेरिका समेत पश्चिमी विश्‍व से अधिक से अधिक समर्थन प्राप्‍त हो रहा है। पाकिस्‍तान ज्‍यादा से ज्‍यादा हाशिये पर खिसकता जा रहा है।

सीमा पार से भारत में फैलाए जा रहे आतंकवाद के मामले में बड़ी समस्‍या यह है कि पाकिस्‍तान इससे लगातार इनकार करता रहा है। 26/11 के मुंबई हमले और हाल के पठानकोट हमले के बारे में ढेर सारे अहम सबूत दिए जाने के बावजूद पाकिस्‍तान इससे इनकार कर रहा है। 26/11 के आतंकी हमलों में पाकिस्‍तान की भूमिका हुसैन हक्‍कानी की किताब में एक बार फिर खुलकर सामने आ गई है। लेखक आईएसआई के तत्‍कालीन प्रमुख जनरल शुजा पाशा की 24/25 दिसंबर, 2008 की वाशिंगटन यात्रा का जिक्र करते हैं, जिसमें उन्‍होंने 26/11 के आतंकी हमलों के बारे में चौंकाने वाले खुलासे किए थे। हक्‍कानी लिखते हैं कि जनरल पाशा ने उनके सामने स्‍वीकार किया था कि 26/11 के हमलों की योजना बनाने वाले ‘हमारे लोग’ थे, लेकिन यह ‘हमारा काम’ नहीं था। पाशा ने सीआईए प्रमुख जनरल माइकल हेडन को भी कथित तौर पर यह बताया था कि उस हमले की योजना में सेवानिवृत्‍त सैन्‍य अधिकारियों और सेवानिवृत्‍त खुफिया अधिकारियों की भूमिका थी। भारत ही नहीं अमेरिका के राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार द्वारा सभी सामग्री, जिसमें हमलों के दौरान हुई बातचीत के टेप भी शामिल हैं, मुहैया कराए जाने के बाद भी पाकिस्‍तान ने 26/11 मामले में आरोपित (अधिकारियों) के खिलाफ सबूतों पर कभी कार्रवाई ही नहीं की है, इसी से पाकिस्‍तानी सरकार पर सवाल खड़ा होता है।

भारत के खिलाफ काम करने वाले आतंकी गुटों से निपटने के पाकिस्‍तानी रवैये और लगातार इनकार करने के उसके स्‍वभाव के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्‍तान के साथ मतभेद खत्‍म करने के लिए महत्‍वपूर्ण सक्रिय चेष्‍टा की हैं। उनका पहला कदम अपने शपथ ग्रहण समारोह (मई, 2014) में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को न्‍योता भेजना था, जिसे पाकिस्‍तानी प्रधानमंत्री ने सेना समेत कुछ वर्गों के विरोध के बावजूद गर्मजोशी से स्‍वीकार किया। उसके बाद कई सकारात्‍मक पहलें हुईं, जैसे जनवरी, 2015 में उफा और नवंबर, 2015 में पेरिस में दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात, दिसंबर, 2015 में दोनों देशों के राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक और दिसंबर, 2015 में ही विदेश मंत्री सुषमा स्‍वराज की पाकिस्‍तान यात्रा। इन सबसे भी ज्‍यादा प्रधानमंत्री मोदी ने लाहौर की ऐतिहासिक यात्रा से सबको चौंका दिया, जब 25 दिसंबर, 2015 को वह प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनकी सालगिरह पर और उनकी बेटी को विवाह की मुबारकबाद देने अचानक वहां पहुंच गए। इस यात्रा को दोनों देशों में व्‍यापक स्‍तर पर सराहा गया और भारत में पाकिस्‍तान के विरोधियों तथा पाकिस्‍तान में भारत के विरोधियों के मुंह भी बंद हो गए। रिश्‍तों में उम्‍मीद के साथ दोनों देशों के बीच नए गठजोड़ की संभावना दिखने लगी। मेलजोल इस तरह का था कि उसके फौरन बाद हुए पठानकोट हमले भी प्रधानमंत्री मोदी को सार्थक संपर्क करते रहने की नीति जारी रखने के संकल्‍प से डिगा नहीं सके। दोनों पक्षों विशेषकर भारत की ओर से नपी तुली और परिपक्‍वता भरी प्रतिक्रिया हुई। अप्रत्‍याशित फैसला लेते हुए भारत ने पाकिस्‍तान से संयुक्‍त जांच दल (जेआईटी) को मार्च, 2016 के अंतिम हफ्ते में दिल्‍ली तथा पठानकेट आने दिया और सीमा पार आतंकवाद से निपटने में दो पड़ोसियों के बीच कर सहयोग भरी भावना का प्रदर्शन किया। जेआईटी को नाम, पते और हथियार समेत पर्याप्‍त सबूत सौंप दिए गए। राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने स्‍वयं यह सुनिश्चित किया कि सभी उपलब्‍ध सामग्री एवं सबूत पाकिस्‍तानी जांचकर्ताओं को मुहैया कराए जाएं।

अब उन्‍हें केवल सबूतों पर काम करना है क्‍योंकि हमले की योजना बनाने, तैयारी करने और उसे अंजाम देने से संबंधित सभी सबूत पाकिस्‍तान के ही पास हैं।

लेकिन ये सभी प्रयास एक बार फिर नाकाम होते दिख रहे हैं क्‍योंकि पाकिस्‍तान फिर इनकार कर रहा है। भारत आए जेआईटी दल के दौरे के बारे में पाकिस्‍तान की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया अभी नहीं आई है और भारत के एनआईए दल के पाकिस्‍तान दौरे पर अनिश्चितता छाई हुई है। पाकिस्‍तान ने तो पठानकोट में मारे गए 4 पाकिस्‍तानी आतंकवादियों के शव लेने से भी इनकार कर दिया है और खबरों के मुताबिक उन्‍हें धार्मिक परंपराओं के साथ यहीं दफना दिया गया। एनआईए की पाकिस्‍तान यात्रा को लेकर पाकिस्‍तान अनिच्‍छुक इसीलिए है क्‍योंकि उसे डर है कि कहीं भारतीय जांचकर्ता पठानकोट हमले के मुख्‍य षड्यंत्रकारी जैश-ए-मुहम्‍मद के मसूद अजहर से सवाल करने की मांग न कर डालें। जेआईटी को भारत भेजने के प्रधामंत्री नवाज शरीफ सरकार के फैसले की मुखर आलोचना भी शुरू हो गई है। नवाज शरीफ के आलोचक मानते हैं कि यह इस बात की स्‍पष्‍ट स्‍वीकारोक्ति है कि आतंकी हमले में पाकिस्‍तानी तत्‍वों की भूमिका थी। बातचीत की प्रक्रिया में सकारात्‍मक तेजी आने की संभावना इसलिए भी कम हो गई है क्‍योंकि पनामा कांड के बारे में खबरों के बाद नवाज शरीफ की स्थिति कमजोर हो गई है।

अब मामला पाकिस्‍तान के पाले मे है और इस्‍लामाबाद से ज्‍यादा रावलपिंडी को तय करना है कि वार्ता प्रक्रिया का क्‍या किया जाना है। कुल मिलाकर इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि पिछले दो वर्षों में दोनों प्रधानमंत्रियों ने दोनों देशों के बीच रिश्‍ते सामान्‍य करने की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाने के लिए बड़ी मेहनत की है। लेकिन हौसला कमजोर होता दिख रहा है क्‍योंकि पाकिस्‍तान में नवाज शरीफ कमजोर पड़ रहे हैं और उनके विरोधी ताकतवर होते जा रहे हैं। जहां तक भारत का सवाल है तो पठानकोट में उसकी पीठ में जो छुरा घोंपा गया है, उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी के लिए पाकिस्‍तान की ओर कोई नई पहल करना तब तक बहुत मुश्किल है, जब तक भारत को पाकिस्‍तान की ओर से सकारात्‍मक प्रतिक्रिया या संकेत नहीं मिलते हैं, विशेषकर पठानकोट जांच के बारे में और इस बात पर कि मसूद अजहर, हाफिज सईद और लखवी जैसे लोगों से पाकिस्‍तान कैसे निपटेगा।

(लेखक खुफिया ब्‍यूरो के विशेष सचिव, सीआईएसएफ के महानिदेशक और राष्‍ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के सदस्‍य रह चुके हैं।)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 29th June 2016, Image Source: http://www.newindianexpress.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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