पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अजीज ने पिछले दिनों एक साक्षात्कार में हास्यास्पद आरोप लगाया कि भारत आतंकवाद को पाकिस्तान से बातचीत नहीं करने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। उन्होंने धूर्तता के साथ यह दावा भी किया कि पाकिस्तान ने पठानकोट आतंकी हमले के मामल में भारत का सहयोग किया है और पाकिस्तान पर पर्याप्त प्रयास नहीं करने का आरोप लगाना सही नहीं है। सरताज अजीज के साक्षात्कार से कम से कम इतना तो साफ है कि वह भारत को इशारा कर रहे हैं कि भारत में पाकिस्तान की सरकार के समर्थन वाले और उसके समर्थन के बगैर काम करने वाले तत्व, जो सरकार समर्थित तत्वों के सहयोगी की तरह काम करते हैं, भारत में कितना भी आतंक फैलाते रहें, भारत को पाकिस्तान के साथ बातचीत बहाल करनी ही चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो वह आतंकवाद को भारत के खिलाफ नीतिगत उपाय की तरह इस्तेमाल करते रहने के पाकिस्तान के अधिकार पर जोर दे रहे हैं और मानते हैं कि भारत को या तो आंतकी हमलों की ओर से आंखें मूंद लेनी चाहिए या हमलों के साथ जीना सीख लेना चाहिए। इस बात का स्वीकार्य होना तो दूर की बात है, भारत के लिए इसकी कोई तुक ही नहीं है।
पठानकोट मामले में पाकिस्तान ने भारत का कितना ‘सहयोग’ किया है, यह उसी अखबार के एक और समाचार से साफ हो जाता है, जिस अखबार में सरताज अजीज का साक्षात्कार छपा था। इस समाचार के मुताबिक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के एक वरिष्ठ सहयोगी – अधिकारी का नाम नहीं बताया गया है मगर वह सरताज अजीज या तारिक फतेमी हो सकते हैं या पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार लेफ्टिनेंट जनरल नासिर जंजुआ भी हो सकते हैं – ने कहा कि पाकिस्तान का जो संयुक्त जांच दल पठानकोट गया था, उसे नहीं लगता कि हमलों की योजना पाकिस्तानी धरती पर बनाई गई थी। भारत में होने वाले हमलों पर जब भी पाकिस्तान से सवाल पूछे जाते हैं तो पाकिस्तान जो धूर्तता दिखाता है, वह उसकी दूसरी खबरों में साफ झलक रही थी, जिनमें कहा गया था कि ‘भारत से कोई भी जैश-ए-मोहम्मद के नंबरों पर बात कर सकता है’ या ‘(एक आतंकवादी और उसकी मां के बीच हुई) बातचीत से यह साबित नहीं होता कि वह यहां (पाकिस्तान) से गया था।’ (शायद वह मंगल ग्रह से आया था, लेकिन मंगलवासी की मां पाकिस्तान में कैसे पहुंची?)
पाकिस्तान के विदेश सचिव अमेरिका से आए अधिकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल के सामने जिस समय पुराना राग अलाप रहे थे कि ‘पाकिस्तान राष्ट्रीय कार्य योजना के मुताबिक सभी लड़ाकों और आतंकियों को अपनी धरती से खत्म करने के लक्ष्य की ओर पहले से काम कर रहा है’, उसी समय सैन्य प्रतिष्ठान ‘भले’ आतंकी समूहों – दिफा-ए-पाकिस्तान काउंसिल, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकी संगठन घोषित हो चुके लश्कर-ए-तैयबा और जमातुद दावा तथा प्रतिबंधित सुन्नी आतंकी संगठन एएसडब्ल्यूजे शामिल हैं – को वॉशिंगटन में होने वाली भारत-अमेरिका शिखर वार्ता के खिलाफ तथा उस ड्रोन हमले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने पाकिस्तान की सड़कों पर उतार दिया, जिस हमले में पाकिस्तान समर्थित अफगान तालिबान प्रमुख मुल्ला अख्तर मंसूर मारा गया था। डीपीसी को उतारने का एकमात्र उद्देश्य पूरी दुनिया को यह धमकी देना था कि यदि पाकिस्तान की मनचाही बात – भारत के समान दर्जे में रखा जाना – नहीं होती है तो जिहादी खतरा हो सकता है।
बाकी दुनिया संभवत: इस नाटक को समझ चुकी है, लेकिन पाकिस्तानी यही मानते हैं कि वे जिहादी धमकी देकर और कभीकभार उसका इस्तेमाल कर अब भी कुछ हासिल कर सकते हैं। ऐसे घटनाक्रम के बीच जैश प्रमुख मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी करार देने के मसले पर सरताज अजीज का तथाकथित ‘सैद्धांतिक रुख’ – पाकिस्तानियों का सिद्धांत की बात करना वैसा ही है, जैसा शैतान का धर्मग्रंथों की बात करना - की आड़ लेना उसी कपट का हिस्सा है, जो आतंकवाद पर पाकिस्तान का चिरपरिचित रवैया है बन चुका है। और जब वह अजहर की तरफ से बोलते हुए भारत पर आरोप लगाते हैं कि वह उसे दोषी ‘मान’ रहा है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पाकिस्तानियों की अपने किसी भी चहेते आतंकवादी (जिन्हें ‘रणनीतिक संपदा’ भी कहा जाता है) के साथ इंसाफ करने की कोई मंशा नहीं है। जब अजीज दावा करते हैं कि जैश को समर्थन देने वाले पाकिस्तानी सरकारी तत्वों को एनआईए ने पाक-साफ करार दिया है तो एक बार फिर वह पाखंड दिखाते हैं। एनआईए प्रमुख ने केवल यह कहा है कि भारतीय जांचकर्ताओं को इस बात के पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं कि पठानकोट हमले की योजना बनाने में पाकिस्तानी एजेंसियों का हाथ था। इसका मतलब यह बताना कि बेकसूर करार दिया गया है असल में तथ्यों को जानबूझकर अपनी सुविधा के मुताबिक तोड़ना मरोड़ना है।
पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा भारत पर आतंकवाद के इस्तेमाल का आरोप लगाना पाकिस्तान की हद से अधिक नीचता है। हकीकत यह है कि बातचीत रोकने के लिए आतंकवाद को बहाना भारत नहीं बना रहा है बल्कि यह पाकिस्तान है, जो बातचीत के साथ ही आतंकवाद के इस्तेमाल का अधिकार या खुली छूट चाहता है। लेकिन यह सोचना बेवकूफी ही है कि बातचीत और आतंकवाद एक साथ चल सकते हैं, तब तो बिल्कुल ही नहीं चल सकते, जब पाकिस्तान अपनी जमीन से बेरोकटोक काम करने वाले आतंकवादी संगठनों की गतिविधियों पर रोक लगाने के बारे में गंभीर ही नहीं है, कार्रवाई करना तो दूर की बात है। यदि पाकिस्तान बातचीत के बारे में गंभीर है तो उसे समझना होगा कि आतंकवाद बातचीत की प्रक्रिया को आगे ले जाने में बाधा बनने जा रहा है। इसीलिए यदि पाकिस्तान ‘अबाध तथा अबाध्य‘ वार्ता चाहता है तो उसे कुछ करते हुए ही नहीं दिखना चाहिए बल्कि अपनी जमीन से काम कर रहे आतंकवादियों के सफाये के लिए ठोस कार्रवाई भी करनी चाहिए।
पाकिस्तान के इस दोगले रवैये के लिए और उसके इस यकीन के लिए कि बातचीत तथा आतंकवाद साथ चलते रह सकते हैं, कुछ हद तक भारत भी दोषी है। पाकिस्तान के मुद्दे पर भारत की सबसे बड़ी नीतिगत नाकामियों में एक तो यह है कि चाहे आतंकवाद हो या पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद हो, वह पाकिस्तान या किसी भी अन्य देश का यह भ्रम दूर नहीं कर सका है कि वे अपनी हदें लांघ सकते हैं। भारत में पाकिस्तान के बारे में और भारत समेत सभी पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण एवं सामान्य संबंध रखने की उसकी घोषणा के बारे में कोई भ्रम नहीं है, लेकिन समस्या यह है कि भारत जब भी पाकिस्तान के साथ बातचीत करता है, विशेषकर तब, जब वह अपनी सीमाओं में कुछ नरमी लाता है तो पाकिस्तानी यह सोचने का साहस करने लगते हैं कि वह अपनी हरकतें पहले की तरह जारी रख सकते हैं। भारत को यह सिलसिला खत्म करना होगा और पाकिस्तान ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में मौजूद अन्य मध्यस्थों को भी स्पष्ट तथा दोटूक संदेश देना होगा कि वह पाकिस्तान से बातचीत के लिए तैयार तो है, लेकिन पाकिस्तान भारत के ऊपर या खुद अपने ऊपर दबाव डालकर बातचीत नहीं करवा सकता। अगर पाकिस्तान वास्तव में भारत के साथ बातचीत चाहता है तो उसे 26/11 के हमलों तथा पठानकोट हमलों के योजनाकारों एवं दोषियों को सजा देने का अपना वायदा पूरा करना होगा। और उसे आतंकवादी गतिविधियों को भी सरकारी कामकाज से दूर करना होगा।
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