प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के दो वर्ष 25 मई, 2016 को पूरे हो गए और इस बात की पड़ताल करने का यह बिल्कुल सही समय है कि सरकार की पाकिस्तान नीति कितनी सफल रही, पाकिस्तान के साथ संबंधों में उसे कौन सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा और द्विपक्षीय संबंधों में कितनी संभावनाएं हैं। भारत-पाकिस्तान संबंधों की हकीकत यही है कि दशकों उनमें उतार-चढ़ाव रहा है। पिछले दो वर्ष भी अपवाद नहीं रहे क्योंकि उतार-चढ़ाव से भरे ये संबंध एक चौहद्दी के भीतर कैद हैं। वास्तव में यह सच है कि इन संबंधों में किसी भी तरह की गरमाहट की संभावना को आतंकवादी घटनाएं खत्म कर देती हैं, ऐसा हरेक प्रयास विफल ही हो जाता है।
पिछले दो साल में दो एकदम नई और अनूठी पहल हुईं और दोनों ही प्रधानमंत्री मोदी द्वारा उठाई गई थीं – पहली मई, 2014 में अपने –शपथ ग्रहण के लिए प्रधानमंत्री नवाज -शरीफ समेत दक्षेस नेताओं को आमंत्रित करना और 25 दिसंबर, 2015 को काबुल से लौटते समय शरीफ को जन्मदिन की बधाई देने के लिए अचानक लाहौर तथा रायविंद पहुंच जाना। इसके अलावा उफा में शांघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक के दौरान 10 जुलाई, 2015 को दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात हुई, जहां आतंकवाद से संबंधित सभी मसलों पर चर्चा के लिए दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक पर तथा नवंबर, 2015 में जलवायु सम्मेलन के दौरान पेरिस में दोनों प्रधानमंत्रियों की संक्षिप्त मुलाकात पर सहमति बनी। इन दोनों बैठकों ने बातचीत की रुकी हुई प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। इनके पश्चात् बैंकॉक में 6 दिसंबर, 2015 को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकारों की बैठक हुई और 8-9 दिसंबर, 2015 को इस्लामाबाद में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तथा प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सलाहकार सरताज अजीज के बीच मुलाकात हुई, जिसमें समग्र द्विपक्षीय वार्ता का प्रारूप घोषित किया गया।
इन सकारात्मक बातों के साथ कुछ निराश करने वाली घटनाएं भी हुईं, जैसे 25 अगस्त, 2014 को निर्धारित विदेश सचिव स्तरीय वार्ता का रद्द होना और जनवरी, 2016 में होने वाली विदेश सचिव स्तरीय वार्ता का टलना, जुलाई, 2015 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तरीय बातचीत रद्द होना, 2014 की दूसरी छमाही में और फिर जुलाई-अगस्त 2015 में संघर्ष विराम का भारी उल्लंघन होना तथा पाकिस्तानी संगठनों द्वारा जुलाई, 2015 में गुरदासपुर एवं जनवरी, 2016 में पठानकोट में आतंकवादी हमले किया जाना।
इसीलिए लगता तो यही है कि पाकिस्तान नीति की उपलब्धि यही है कि समग्र द्विपक्षीय वार्ता तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तरीय वार्ता के प्रारूप बन गए हैं, लेकिन उन्हें अभी शुरू होना है। इसके बावजूद आतंकवाद पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालने के मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
यही कारण है कि भारत-पाक संबंधों को ट्वेंटी-20 मैच मानने वाले फौरी विश्लेषक इस बात पर जोर देते रहे हैं कि दो वर्ष पूरे होने पर सरकार के पास दिखाने के लिए बहुत कम ‘परिणाम’ हैं। वे कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की अद्भुत पहलों के कारण उत्पन्न हुई आशाएं भी समाप्त हो गई दिखती हैं। अधिक आलोचक प्रवृत्ति के लोग कहते हैं कि ऐसा पहले भी हो चुका है और बातचीत में अब आगे कुछ नहीं हो सकता, इसलिए शांति और सामान्य संबंधों की कोई भी उम्मीद नहीं है।
ऐतिहासिक रूप से ही पाकिस्तान के साथ संबंधों की सड़क ऊबड़खाबड़ रही है। जब पूर्व प्रधानंत्री राजीव गांधी ने 1988 में नवनिर्वाचित बेनजीर भुट्टो से मुलाकात की थी तो उर्दू अखबारों ने कटाक्ष करते हुए लिखा ‘‘बेनजीर और राजीव में मुस्कराहटों के तबादले हुए।’’ बेनजीर को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे’ और ‘गद्दार’ की तरह दिखाया गया, जिसने सिख कार्यकर्ताओं की कथित सूची राजीव गांधी को थमा दी। फरवरी, 1999 में प्रधानमंत्री वाजपेयी लाहौर गए और उन्हें कारगिल और बाद में भारतीय संसद पर हमले के तोहफे थमाए गए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मुंबई में हमलों (26/11) का सामना करना पड़ा।
भारत-पाक संबंधों की ऐसी सच्चाई और प्रकृति होने के कारण सरकार की नीतियों का विश्लेषण ‘परिणामों’ के दृष्टिकोण से करने के बजाय यह उचित रहेगा कि सरकार की पाकिस्तान नीति पर दीर्घावधि में विचार किया जाए और पूछा जाए कि सरकार क्या पाने का प्रयास कर रही है और उसके सामने क्या चुनौतियां हैं?
संबंधों के बारे में सरकार का दृष्टिकोण प्रधानमंत्री ने उस समय स्पष्ट कर दिया, जब उन्होंने 15 दिसंबर, 2015 को आईएनएस विक्रमादित्य पर संयुक्त कमांडर सम्मेलन को संबोधित किया। उन्होंने निम्नलिखित बिंदु कहे: (1) भारत अपनी सुरक्षा से समझौता किए बगैर ‘‘इतिहास की दिशा बदलने’’ तथा आतंकवाद समाप्त करने के लिए इस्लामाबाद के साथ बातचीत बहाल कर रहा है। (2) पाकिस्तान की मंशा परखी जाएगी और आतंकवाद पर उसकी प्रतिबद्धता से इसका फैसला किया जाएगा। (3) उद्देश्य है शांतिपूर्ण संबंधों का निर्माण करना, सहयोग बढ़ाना और अपने क्षेत्र में स्थिरता तथा संपन्नता को बढ़ावा देना। (4) रास्ते में ढेर सारी चुनौतियां तथा बाधाएं हैं किंतु शांति के बहुत लाभ हैं और हमारे बच्चों का भविष्य दांव पर है।
अतीत से तुलना करें तो संबंधों में कुछ रोचक विशेषताएं हैं जैसे दोनों प्रधानमंत्रियों को ऐसा नेता माना जाता है, जिनकी नीतियों को संसद में बहुमत का समर्थन प्राप्त है, दोनों द्विपक्षीय संबंधों में अंतर उत्पन्न करने के लिए उत्सुक दिखना चाहते हैं और दोनों को संबंधों में आर्थिक संभावनाएं नजर आती हैं।
संभवत: यही कारण है कि पठानकोट आतंकवादी हमले के पश्चात् आरंभ में अंतर देखा गया – सरकार ने ‘किसी देश से संबंध नहीं रखने वाले राजनीतिक कारकों’ पर आरोप लगाया किंतु पाकिस्तान पर प्रतयक्ष आरोप नहीं लगाया। पाकिस्तान ने भी प्रत्युत्तर में जांच का वायदा किया और बाद में यह स्वीकार करते हुए प्राथमिकी भी दर्ज की कि हमलावर वास्तव में पाकिस्तानी ही थे। किंतु उसके पश्चात् यही संकेत मिले हैं कि पाकिस्तान की घरेलू विवशताओं के कारण ही पठानकोट की जांच भी मुंबई के रास्ते पर जा रही है यानी कहीं नहीं जा रही है।
मोदी सरकार जब अपनी पाकिस्तान नीति की पड़ताल करती है तो उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती पाकिस्तान से पनपने वाले आतंकवाद पर रोक लगाना और यह सुनिश्चित करना है कि द्विपक्षीय एजेंडा में यह बात सबसे ऊपर रहे। यह बात स्वयं प्रधानमंत्री समझते हैं। यह मुश्किल काम है क्योंकि पाकिस्तान कई दशकों से आतंकवाद को अपनी नीति के रूप में बढ़ावा देता रहा है। यह अपेक्षा करना गलत होगा कि वह रातोरात आतंकवाद को समाप्त कर देगा, चाहे उसकी कितनी भी इच्छा हो और यह काम करने में वह कितना भी सक्षम हो। फिलहाल इस बात का कोई संकेत नहीं है कि वह ऐसा करने का इच्छुक है। वह ऐसा करने में अक्षम है, यह बात इससे भी झलकती है कि मुंबई और अब पठानकोट आतंकवादी हमलों की जांच करने में तथा मुकदमा चलाने में वह बिल्कुल भी गंभीरता नहीं दिखा रहा है।
पाकिस्तान अक्सर दावा करता है कि वह आतंकवाद का शिकार है, प्रायोजक नहीं। वह वास्तव में केवल इसीलिए इसका शिकार है क्योंकि उसने इसे जन्म दिया, पाला-पोसा और भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों को बढ़ने दिया। उदाहरण के लिए मुशर्रफ ने हाल ही में स्वीकार किया कि आईएसआई लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद को प्रशिक्षण दे रहा है। पाकिस्तान भारत विरोधी गतिविधियों के लिए इन संगठनों का जितना साथ देगा, उसके भीतर इन संगठनों का असर भी उतना ही अधिक होगा।
अब तो पाकिस्तानी मीडिया भी इस नीति पर सवाल खड़े करने लगा है। उदाहरण के लिए डेली टाइम्स ने कहा, ‘‘भारत और पाकिस्तान के बीच भरोसे की कमी है, जिसकी वजह अतीत में पाकिस्तान की दोगली नीतियां थीं, जो अब ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ आतंकियों और तालिबान के खिलाफ कार्रवाई के बावजूद शक पैदा करती है।’’ (पीस फॉर प्रॉस्पेरिटी : डेली टाइम्स में 7 अप्रैल, 2016 का संपादकीय) या जैसे डॉन ने लिखा, ‘‘पाकिस्तान की अधिकतर आतंकी समस्याओं की जड़ छद्म युद्ध लड़ने के लिए जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों को बढ़ावा देने की अतीत की नीति में ही छिपी है। अब इतिहास की उस भूल को सुधारने का समय आ गया है। उम्मीद है कि आखिरकार वह अहम मोड़ आ ही गया है।’’ (जाहिद हुसैन, द डीमन वी क्रिएटेड, 20 जनवरी, 2016)
विदेशी मामलों पर राष्ट्रीय संसद की स्थायी समिति ने भी फरवरी 2016 में अपने नीति पत्र में कहा था, ‘‘पाकिस्तान को कश्मीर में सशस्त्र, प्रतिबंधित, आतंकी समूहों के सक्रिय समर्थन की अपीलों को बढ़ावा नहीं देना चाहिए।’’
इस प्रकार भारत विरोधी आतंकवादियों को आश्रय देने के खिलाफ जनमत तैयार हो रहा है, लेकिन यह तो वक्त ही बताएगा कि पाकिस्तानी सेना ऐसे विचारों पर ध्यान देती है अथवा नहीं। अतीत में सेना के फैसलों में जनता के विचारों की अहमियत मुश्किल से ही रही है।
मोदी सरकार के लिए दूसरी चुनौती पाकिस्तान का इस बात पर अड़ना है कि किसी भी द्विपक्षीय वार्ता के केंद्र में कश्मीर समस्या का ‘समाधान’ ही होगा। भारत उचित मंच पर कश्मीर के विषय में चर्चा करने का अनिच्छुक नहीं रहा है। किंतु जिस मुद्दे ने सात दशकों से संबंधों को बिगाड़कर रखा है और समाधान स्पष्ट होने के बावजूद रातोरात जिसका समाधान आने की संभावना नहीं है, पाकिस्तान का ऐसे मुद्दे के कारण द्विपक्षीय बातचीत को अटकाना गतिरोध उत्पन्न करने जैसा ही है।
पाकिस्तान लंबे समय से यह कहानी गढ़ने का प्रयास करता रहा है कि कश्मीर के ‘आजादी के सिपाहियों’ को ‘आतंकवादियों’ के समान नहीं माना जा सकता, लेकिन इस दलील पर दुनिया में कम ही लोग भरोसा करते हैं। दुनिया में इस समय किसी भी प्रकार की हिंसा अथवा सशस्त्र विद्रोह को बिल्कुल भी सहन नहीं किया जाता है।
पनामा खुलासे से स्वयं नवाज शरीफ दबाव में हैं और सेना हालात पर लगातार नजर रख रही है। ऐसे में शरीफ के लिए अपनी भारत नीति में नई पहल करना मुश्किल हो सकता है।
पाकिस्तानी सेना भारत की ऐसी किसी भी पहल से चिंतित रहती है, जिसमें उसे शामिल नहीं किया जाता है। भारत के साथ संबंध सामान्य करने के ऐसे किसी भी प्रयास का वह भरसक विरोध करेगी, जिस प्रयास से पाकिस्तान में उसकी अहमियत कम हो सकती है। मीडिया पर अपनी पकड़ के कारण सेना ने देशभक्ति का ऐसा तमगा बना लिया है, जिस पर मोटे अक्षरों में ‘भारत विरोधी’ लिखा है। एक लोकप्रिय नारा गढ़ा गया है, ‘‘जो हिंदुस्तान का यार है, गद्दार है गद्दार है।’’ पिछले कुछ अरसे से सेना हरेक कोने में रॉ के जासूसों को तलाश रही है ताकि यह साबित किया जा सके कि आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान और भारत एक जैसे हैं और द्विपक्षीय बातचीत को भी उसी हिसाब से दिशा दी जा सके।
भारत संबंधी नीति सेना के इशारे पर ही चलती है, ऐसे में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) जंजुआ की नियुक्ति से भारत को सेना की मानसिकता और दृष्टिकोण समझने में मदद मिलेगी। किंतु यह बात पूरी तरह इस पर निर्भर करती है राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की बात सेना प्रमुख कितनी सुनते हैं और सेना प्रमुख को उन पर कितना भरोसा है। उसके बगैर लेफ्टिनेंट जनरल जंजुआ किसी आम नागरिक की तरह ही होंगे।
इसलिए भारत-पाक संबंधों का इतिहास देखते हुए मोदी सरकार की पाकिस्तान नीति को केवल दो वर्षों में मिले ‘परिणामों’ के आधार पर आंकना जल्दबाजी होगी। द्विपक्षीय समस्याएं जटिल एवं ऐतिहासिक हैं तथा कई दशकों की घृणा, संदेह तथा शत्रुता उनमें भरी पड़ी है। इसके लिए एक ओर तो यत्न भरी कूटनीति की जरूरत होगी और दूसरी ओर आगे बढ़ने के लिए धीमे, नपे-तुले कदम उठाने होंगे। इसके लिए पाकिस्तान को अपने अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों से निपटना होगा। जब पाकिस्तान की सत्ता यह समझ जाएगी कि भारत नहीं बल्कि स्वयं पाकिस्तान उस आतंकवाद से सबसे अधिक ग्रस्त है, जिसे उसने दशकों से प्रश्रय दिया है तो वही संबंधों को सामान्य करने की दिशा में पहला कदम होगा। सरकार के अनूठे और नए प्रयासों का फल भी तभी मिलेगा।
लेखक भारत सरकार के केंद्रीय सचिवालय से विशेष सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं।
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