जब 9/11 की तबाही हुई, उस दौरान मैं विश्व बैंक में बतौर कार्यकारी निदेशक वर्ल्ड वाशिंगटन डी सी में था। इस त्रासदी के परिणाम स्वरुप यह प्रत्येक बुद्धिजीवी का चलन हो गया कि वह इन दो प्रश्न पर बहस करे कि 'क्या गलत हुआ, और 'लोग हमसे नफरत क्यों करते हैं (अमेरिकियों से). मैं भी ऐसी एक बैठक में गया जो तबाही के मात्र दस दिनों के अंदर हुई थी। बैठक में बहुत प्रभावशाली समूह था और मुझे अध्यक्ष के तकरीबन ठीक सामने बिठाया गया।
आमंत्रित वक्ता ने आतंकवाद विरोधी देशों के बीच गठजोड़ किये जाने की आवश्यकता पर अपनी टिप्पणी रखे। वे इस्लाम के बढ़ते कट्टरपना और धार्मिक बहुलवाद के तत्व और सहनशीलता की आवश्यकता पर भी बोले। अध्यक्ष ने उस पर राय जानने के लिए मेरी तरफ देखा यह कहा की भारत की बहुलवाद परंपरा और मौलिक सोच को ध्यान में रखते हुए भारत के पास जवाब होगा, और मुझे मौक़ा दिया। मैं तैयार नहीं था मगर मुझे याद है कि मैंने ऐसा कहा 'भले ही भारत के पास जवाब हो मेरे पास नहीं है' और भारत के अपने आतंकवाद से जूझने के अनुभव बताने लगा।
तबसे ही मैं इस विषय पर सोचता रहा हूँ और भारतीय सभ्यता के दृष्टिकोण से एक स्थायी ढाँचे की खोज में हूँ जो एक वैश्विक जनता की नीति हो, एक नीति जिसमें विभिन्न लोगों और समाजों के बीच 9/11 की विभीषिका के बाद सामंजस्य स्थापित हो सकेI
मेरा ध्यान उस दृष्टिकोण ने खींचा जिसने भारतीय जीवन को समृद्ध करने में बहुत योगदान दिया हैI वह है; दूसरों के विचारों के प्रति सम्मान इस आशा और विश्वास से रखना की वह भी सही हो सकते हैंI वह ऋग्वेद की इस उक्ति में सबसे स्पष्ट ढंग से कही गयी है: एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति (ज्ञानी वह हैं, जो एक ही सत्य कई तरीकों से बोलते हैं)
शाब्दिक रूप से, ‘बहुधा’ बहु शब्द से बना है जिसमें ‘धा’ को जोड़ने से क्रिया-विशेषण बनता है। 'बहु' का अर्थ कई रास्ते या हिस्से या तरीके या दिशायें होता है। आमतौर पर यह कई गुना, बहुत ज्यादा, कई बार के लिए प्रयुक्त होता है। जब शब्द को मूल कृ से जोड़ दें उसका अर्थ कई गुना या बहुत ज्यादा के रूप में होता है। बहुधा का प्रयोग कई समयावधि में लगातार होने से भी लगाया जाता है। यह आवृति के लिए भी प्रयुक्त होता है। वर्तमान में यह सामंजस्यता और शांतिपुर्वक सहजीवन के लिए भी इसका प्रयोग हो रहा है।
अंग्रेजी भाषा में बहुलवाद को बहुधा का सबसे नजदीकी शब्द माना जा सकता है। लेकिन बहुधा कई अर्थ रखता है, जैसे धर्म से बहुत कुछ समझा जाता है रिलिजन के मुकाबले। बहुलवाद को इतिहास, समाज़शास्त्र और राजनीति में कई तरह से पारिभाषित किया गया है। बहुलवाद को राज्य-देश और जातीयता सहजीवन, समानता और पहचान से जोड़ा जाता है।
बहुधा दृष्टि बहु समाज और बहुलवाद का अंतर समझती है। लोकतान्त्रिक समाज में बहुलवाद एक मूल घटक है। बहु समाज में भाषा, धर्म और जातीयता बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस अर्थ में बहुलवाद, विकसित और विकासशील दोनों समाजों के लिए महत्वपूर्ण है।
बहुलवादी समाज निश्चित रूप से बहु-जातीय, बहु-धार्मिक और बहु-भाषी होते हैं। इन समाजों में बहुत सी दीवारें होती हैं: नस्लीय, भाषीय, धार्मिक और कभी कभी वैचारिक भी। बहुधा दृष्टिकोण इन मर्यादाओं के हरण, उल्लंघन या पहचानों के परिपाक और एक मत को बढ़ावा देने में विश्वास नहीं रखता। यह संवाद को बढ़ावा देता है और सबके हितों को समझता है। अपनी पहचान समझने से मर्यादा बनी रहती है और दूसरों की पहचान समझने से एक सामंजस्य बनता है जिससे एक वैश्विक नीति बनाने में सहायता मिल सकती है। बहुधा दृष्टिकोण इस बात से अवगत है कि समाज बिना सीमाओं के संभव ही नहीं हैं।
बहुधा संस्कृति की जड़े प्रारंभिक आयु से ही एक विशेष रवैये के पोषण में है। संवाद के लिए आवश्यक है की एक व्यक्ति जितनी मजबूती से अपनी राय रखे वैसे ही दूसरों की राय को भी सम्मान दे। यह एक मानसिक अनुशासन है जो व्यक्ति को दूसरों के मतों को विचारणीय समझने योग्य बनाता है।
संक्षेप में, बहुधा दृष्टिकोण दोनों है, विविधताओं का उत्सव भी और एक व्यवहारगत आचरण जो दूसरों के मतों का सम्मान करती है। लोकतंत्र और संवाद इस दृष्टिकोण के केंद्र में हैं।
मेरी राय में, समस्या की जड़ कई मान्यताओं और धार्मिक विश्वासों को मानने वालों के बीच इस बात पर जोर देना है कि बस 'एक ही सच है'। यह तब तक मान्य है जब तक की इसका आधार सत्य की खोज है। लेकिन इसके पालन में समस्या है। मुख्यतः सभी धर्मों में एक 'ईश्वर' और एक 'धार्मिक पुस्तक' है. उस धर्म को मानने वाले यह सोचने लगते हैं कि उनका ईश्वर सर्वश्रेष्ठ है और उनकी पुस्तक में सारे उत्तर हैं। कट्टर समूह जोर डालते हैं कि उन पुस्तकों की हर बात मानी जाए जबकि वास्तव में बहुत कुछ बदल चुका है और कई नए मत उभर आये हैं। एक धार्मिक पुस्तक व्यक्ति रचित है जो किसी संत द्वारा ज्ञानवस्था में बनायीं गयी थी। ऐसी कोई भीसी पुस्तक सभी समय और सभी व्यक्तियों पर लागू नहीं हो सकती। यह मनुष्यों की समस्याओं और एक दूसरे पर आधारित दुनिया के सवालों के जवाब नहीं भी दे सकती है।
बहुधा दृष्टिकोण निम्नवत ढंग से प्राप्त किया जा सकता है (i) धार्मिक सद्भाव; (ii) शैक्षिक कार्यक्रम; (iii) वैश्विक राजनितिक बनावट को सुदृढ़ करने से: यूनाइटेड नेशन और (iv) यूनाइटेड नेशन के चार्टर के हिसाब से सैन्य शक्ति का प्रयोग।
दुनिया के कई हिस्सों में बढ़ते हुए आतंकवादी गतिविधियों को देखते हुए आवश्यक है कि मित्र देश उसपर सैनिक कार्यवाही करें। इसका मतलब यह नहीं की सेना मनमाने ढंग से प्रयोग की जाए। सेना अंतर्राष्ट्रीय कानून और यूएन चार्टर के अंतर्गत ही प्रयोग की जानी चाहिए।
एक समृद्ध समाज के निर्माण में शिक्षा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह परिवार से ही शुरू होना चाहिए क्योंकि अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णुता की जड़े यहीं होती हैं। हम जानते हैं कि प्रेम और दया जितने ही घृणा और असिहष्णुता भी फैले हुए हैं। जैसे लोगों को घृणा करना सिखाया जा सकता है वैसे ही प्रेम करना, गरिमा और दूसरों को सम्मान देना भी सिखाया जा सकता है। शिक्षा के साथ एक सहकारी जीवन नीति सिखाये जाने की बहुत आवश्यकता है। शिक्षा व्यवस्था पर ध्यान देकर उन हिस्सों को हटाने की जरुरत है जो इतिहास को विकृत कर दिखाते हैं और घृणा फैलातें हैं। अच्छी शिक्षा व्यवस्था से रचनात्मक दिमाग और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा मिलेगा।
हालांकि समस्या का समाधान शिक्षा से परे भी है। इस दिशा में यसंयुक्त राष्ट्र को सुदृढ़ करने की जरुरत है ताकि यह एक समस्या समाधान का संस्थान बन सके। वैश्विक राजनीति का काम ऐसे हो जो सबके हित में हो, नीतिगत हो और सभी मान्य नियमों को माने।
संयुक्त राष्ट्र अपने से जुड़े हुए देशों की राजनीति और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में आम सहमति बनाने वाली संस्था है। इस संस्था में देशों के बीच संवाद शुरू किया जा सकता है और बढ़ाया जा सकता है। संवाद की इस प्रक्रिया से समूहों और देशों के बीच मतभेद सुलझाने में आसानी होगी।
भविष्य की ओर देखते हुए, ऐसा लगता है कि वर्तमान राज्य प्रणाली एक आरंभिक संस्था बनी रहेगी। एक अन्तर्राष्ट्रीय आदेश जो कानून सम्मत हो और सभी देशो की सहमति से बना हो, मतभेद सुलझाने में अकेले ही बहुत प्रभावी हो सकता है।
ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो बहुधा दृष्टिकोण की मतभेद सुलझाने की क्षमता को अनेक अवसर और एक सहकारी समृद्ध समाज के निर्माण और एक वैश्विक ढांचे की बनावट में जरुरी मानते हैं, बजाय कि सभ्यताओं के टकराव की प्रचलित सिद्धान्य के।
(बाल्मिकी प्रसाद सिंह, सिक्किम के पूर्व-राज्यपाल और गृह सचिव, भारत सरकार, ने बहुधा सिद्धान्त का को सैमुएल पी. हंटिंगटन द्वारा दिए गए सिद्धान्त :सभ्यताओं के टकराव' के विकल्प के रूप से आगे किया है।)
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