अलगाववादियों ओर आतंकवादियों के झांसे से बचना
Lt General S A Hasnain, PVSM, UYSM, AVSM, SM (Bar), VSM (Bar) (Retd.), Distinguished Fellow, VIF

छह महीने जम्मू में बिताने के बाद हर वर्ष मई के पहले हफ्ते में जम्मू-कश्मीर सरकार वापस श्रीनगर पहुंच जाती है। यही वह समय होता है, जब राजनीतिक एवं सैन्य नेतृत्व के दिमाग में सुरक्षा के मोर्चे पर कई बातें चल रही होती हैं। आतंकवादियों की ताकत का अंदाजा लगाना और कैलेंडर वर्ष के दौरान घुसपैठ के प्रयासों के उपलब्ध सूचकों पर नजर दौड़ाना भी उनमें शामिल हैं। अंदरूनी इलाकों में सरकार और सुरक्षा बलों को चारा डालकर फंसाने के विरोधी तत्वों के प्रयासों की पूरी जानकारी रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। लुभाने और फंसाने की यह प्रक्रिया पूरी सर्दियों में जारी रहती है, जिसे कश्मीर में अलगाववादी नेतृत्व, मुजफ्फराबाद में आतंकवादी नेतृत्व और इस्लामाबाद में प्रायोजक तत्वों का गठजोड़ अपने स्वार्थ और विचारों के कारण समर्थन देता है।

जम्मू-कश्मीर सरकार के पास उतना काम है, जितना दूसरे राज्यों की सरकारों के पास कभी नहीं रहा। ऊपरी इलाकों में बर्फ की हालत ठीक रही तो जून के अंतिम दिनों में श्री अमरनाथ यात्रा शुरू हो जाएगी। इसके लिए सुरक्षा की ही नहीं बल्कि ठहरने और यातायात के लिए भी विस्तृत योजना बनानी पड़ेगी, लेकिन समय हमेशा की तरह कम है। खतरा जलवायु की परिस्थितियों से भी है और आतंकवादियों से भी। याद रहे कि 1996 में बर्फीले तूफान में 250 मासूमों की जान चली गई थीं। 2000 में आतंकवदियों ने पहलगाम में यात्रियों तथा सीआरपीएफ के शिविरों पर हमला किया था, जिसमें जानमाल की क्षति हुई थी। आज राष्ट्र की जो मनोदशा है, उसमें बेहद संवेदनशील तथा महत्वपूर्ण वार्षिक आयोजन में इसकी पुनरावृत्ति मुश्किल से ही सहन की जाएगी। अलगाववादी तीर्थयात्रियों की संख्या तथा यात्रा की अवधि की सीमा तय करने की कमजोर सी मांग एक बार फिर उठाएंगे। इन मांगों को उसी तिरस्कार के साथ ठुकराया जा सकता है, जिसके वे लायक हैं। सड़कों पर अशांति भरे तीन वर्ष खत्म होने के फौरन बाद वर्ष 2011 में पवित्र गुफा में सबसे अधिक 640,000 तीर्थयात्री दर्शन के लिए पहुंचे थे।

इसके अलावा सर्दियों के बाद जोजिला दर्रे से बर्फ हटने के साथ ही लद्दाख क्षेत्र (सेना के लिए लीमा सेक्टर) खुल जाता है। सेना तथा जनता दोनों के लिए रसद जमा करना अपरिहार्य हो जाता है। जमा करने के लिए समय बहुत कम (चार से पांच महीने) है और सड़कों पर हिंसा के कारण सड़क नेटवर्क में आई बाधाएं सर्दियों में लद्दाख के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर सकती हैं। इस मामले में भी फंसाया और चारा डाला जा सकता है।

सरकार के श्रीनगर में आने के साथ ही पर्यटकों का सीजन भी शुरू हो जाता है। सबसे अधिक फायदे का वक्त मई के मध्य से जुलाई के आरंभ तक होता है, जब उत्तर भारत में स्कूल बंद रहते हैं। जम्मू कश्मीर में पर्यटकों की आमद राज्य की अर्थव्यवस्था में और जनता की खुशहाली के स्तर में प्रमुख योगदान करती है। सड़कों पर अशांति और एक या दो आतंकवादी घटनाएं पूरे सीजन के लिए पूरी अर्थव्यवस्था को झटका दे सकती हैं क्योंकि पर्यटक रातोरात गायब हो जाएंगे। आम धारणा है कि यह गठजोड़ पर्यटक सीजन को बिगाड़कर स्थानीय ‘अवाम’ की नजरों में खराब छवि बनाना नहीं चाहता। किंतु अलगाववादियों और उनके जैसों में इस तरह की कोई सहानुभूति नहीं है।

उसके बाद राजनीतिक गतिविधियां हैं, जो जमीनी स्तर पर होनी चाहिए क्योंकि सरकार की गैर मौजूदगी और कड़ाके की ठंड इन्हें बिल्कुल ठप कर देती हैं। छोटे कस्बों और कई गांवों में असंतोष पनपने का एक बड़ा कारण यह भी है क्योंकि किसी भी राजनेता या अधिकारी के पास सुदूर ग्रामीण इलाकों में आबादी तक पहुंचने का वक्त नहीं है।

इन चुनौतियों को देखते हुए उस वक्त संतोष होता है, जब हम देखते हैं कि श्रीनगर आते ही मुख्यमंत्री ने सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का जायजा लेने के लिए एकीकृत कमान की बैठक बुलाकर सटीक संदेश दिया है। वास्तव में एकीकृत कमान की बैठक विचार विमर्श का सबसे अच्छा संस्थान हो सकता है, जो सुरक्षा से इतर मुद्दों पर भी सलाह दे सकता है। पता चला है कि सत्ता संभालने के बाद मुख्यमंत्री की इस प्रकार की यह पहली बैठक थी। मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि उन्हें विरोध के नए तरीकों तथा मुठभेड़ों में जुटे सुरक्षा बलों पर पथराव के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई। उन्होंने सुरक्षा बलों को मुठभेड़ों के समय आम जनता से निपटते समय बेहद संयम बरतने का निर्देश दिया।

मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की प्रतिक्रिया और सलाह एकदम ठीक थी लेकिन उम्मीद की जाती है कि वर्तमान परिस्थितियों को वह अधिक गहराई से समझ रही थीं। परिस्थितियों में कुछ नया नहीं है। किसी न किसी तरह से यह अतीत का दोहराव ही है और इनके उत्तर जम्मू-कश्मीर में काम कर चुके विभिन्न अधिकारियों की यादों के अलावा कहीं ओर नहीं तलाशे जाने चाहिए।

‘सैनिक कॉलोनियों’ के बारे में खबरें, जो अफवाहें निकलीं, 2008 जैसा ही प्रयास है। उस समय इस बात की अफवाह फैली थीं कि तीर्थयात्रियों के लिए ‘स्थायी’ प्रतिष्ठानों के निर्माण के इरादे से जंगल की जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ‘स्थायी तौर पर’ सौंपी जा रही है। उस वर्ष यही सड़कों पर अशांति का कारण बन गया था। 2009 में शोपियां में कथित बलात्कार के बाद दो महिलाओं की दुर्भाग्यपूर्ण मौत की ऐसी अफवाह फैली कि सड़कों पर आंदोलन चलता रहा। 2010 में कारण अलग था। माचिल फर्जी मुठभेड़ ने चिंगारी भड़काई और युवा तुफैल मट्टू की दुखद मौत ने आग और भड़का दी। मुख्यमंत्री को बताया गया होगा कि ‘सैनिक कॉलोनियों’ का मसला हंदवाड़ा की घटना की तरह अंधेरे में तीर मारने जैसा है, जहां इसी तरह साजिश रची गई थी। जम्मू-कश्मीर सरकार ने अफवाहों से जुड़े सभी मसलों को झुठलाकर अच्छा किया है। किंतु उसे रक्षात्मक भी नहीं होना चाहिए। यदि पूर्व सैनिकों की कॉलोनी के लिए जमीन आवंटित करने, जो कि राज्य का विषय है, की कानूनी पहल वास्तव में है तो उस योजना का समर्थन करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए, जो राष्ट्रपति शासन के दौरान आरंभ की गई बताई जाती है। इसे घाटी की जनांकिकी बदलने का छिपा हुआ कदम बताने के प्रयास धारणा बनाने के बड़े और घिनौने प्रयास का हिस्सा है, जो यह गठजोड़ 2008 को दोहराने की झूठी उम्मीद में कर रहा है।

राज्य सरकार को इस बात से परिचित कराना होगा कि सुरक्षा बलों को फंसाकर उन स्थानों पर ले जाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जहां आतंकवादी छिपे बैठे हैं ओर मुठभेड़ होने वाली हैं या शुरू हो चुकी हैं। भीड़ को भड़काने वाले नेता उन्माद पैदा करते हैं और उन जगहों पर भारी भीड़ इकट्ठी कर लेते हैं। सेना, सीआरपीएफ और जम्मू-कश्मीर पुलिस के संयुक्त प्रयास अभी तक समझदारी भरे रहे हैं और वे भीड़ से बचने या कम से कम जवानों के साथ जल्दी से जल्दी मुठभेड़ खत्म करने में सफल रहे हैं। लेकिन यह कामकाज का तरीका नहीं हो सकता क्योंकि इसमें बहुत अधिक जोखिम है। देर-सबेर सही, दबाव में बड़ी गलतियां होंगी, जवान शहीद होंगे और आम प्रदर्शनकारी भी मारे जाएंगे, उनमें भी तमाशबीन ज्यादा होंगे। गठजोड़ को इन गर्मियों में उत्तेजना बरकरार रखने के लिए इसी की जरूरत है। अगर मुख्यमंत्री को ऊपर बताई गई तस्वीर से अवगत नहीं कराया गया है तो एकीकृत कमान मुद्दों को साफ-साफ सामने रखने में नाकाम रही होगी और स्थिति बिगड़ने पर हर बात के लिए सुरक्षा बलों पर ही दोष मढ़ा जाएगा। वास्तव में जम्मू-कश्मीर पुलिस का हरेक अधिकारी बता सकता है कि 11 अगस्त 2008 को शेख अब्दुल अजीज की मौत की साजिश कैसे रची गई थी। नियंत्रण रेखा (एलओसी) के आरपार व्यापारिक मार्ग खोलने की मांग के साथ उड़ी के निकट एलओसी तक सांकेतिक जुलूस निकालने के लिए जबरिया प्रदर्शन रोकने की मामूली सी चुनौती के साथ इसकी शुरुआत हुई। बड़ी सफाई से इसका फायदा उठाकर इसे बड़ा कार्यक्रम बना दिया गया और हुर्रियत नेता की मौत के साथ ही यह बहुत बड़ा मुद्दा बन गया। शेख अजीज की मौत कैसे हुई, इस पर आज भी अटकलें ही लगाई जाती हैं। उसी प्रकार आज हंदवाड़ा का आक्रोश, जो झांसा या चारा ही है, अभी तक ठंडा नहीं हुआ है और गठजोड़ की मंशा सैनिक कॉलोनियों जैसी अफवाहों के जरिये इसे उभारने की है।

राज्य सरकार को क्या करना चाहिए? एक तो उसे सुरक्षा बलों एवं खुफिया एजेंसियों के बेहद करीब रहकर काम करना चाहिए। मुख्यमंत्री दक्षिण कश्मीर को किसी भी अन्य व्यक्ति से बेहतर जानती हैं। अब उन्हें इस बात की मांग करनी चाहिए कि हरेक पार्टी नेता तहसील एवं ब्लॉक स्तर पर प्रशासन के साथ समस्याएं सुलझाता नजर आए। उन्हें सेना से भी कहना चाहिए कि हरेक मसले पर लगातार वह उन्हें अपना नजरिया बताती रहे। सेना को अनुरोध करना चाहिए कि राज्य सरकार और अन्य सभी एजेंसियां उसके साथ हाथ मिलाएं ताकि धारणा तय करने का कार्यक्रम बनाया जा सके। इससे अलगाववादियों को अलग-थलग करने के इरादे के साथ लोगों से संपर्क बनाया जा सकेगा। लोगों तक अपने नजरिये से वह उन्हें परिचित कराती रहे। यह क्रांतिकारी परिवर्तन सरीखा होगा क्योंकि अलगाववावदियों की मनोवैज्ञानिक पहुंच को पीछे छोड़ने की स्पष्ट सोच के साथ घाटी में अभी तक किसी प्रकार का रणनीतिक संचार आरंभ नहीं किया गया है। दिल और दिमाग तक पहुंचने की सेना की कवायद सद्भावना उपयोगी रणनीतिक उपाय है, जो रणनीतिक संचार का छोटा हिस्सा भर है। रणनीतिक संचार के लिए सभी एजेंसियों को राज्य सरकार तथा प्रमुख साझेदारों को साथ लेना होगा और केंद्र सरकार को उस पर निगाह रखनी होगी।

जम्मू-कश्मीर के मोर्चे पर सबसे सकारात्मक घटना प्रशासनिक सेवा के परिणाम रहे हैं, जिनमें अनंतनाग के 23 वर्षीय युवक ने पूरे भारत की सूची में दूसरा स्थान हासिल किया है। इसके साथ ही कश्मीर से पहली कमर्शियल महिला पायलट की खबर आती है। आखिर आखिर में सुपर 30 के परिणाम आ गए, जो प्रतिभाशाली युवाओं के लिए सद्भावना की मदद से चल रही योजना है। 26 अभ्यर्थियों में से 15 अखिल भारतीय संयुक्त इंजीनियरिंग परीक्षा में सफल रहे हैं। ये वे घटनाएं हैं, जो जुगनू की तरह चमककर रह गईं, जबकि उन्हें गौरवपूर्ण यादों की तरह बरकरार रहना चाहिए। धारणा या समझ को बनाने की क्रिया यहीं अपना काम करती है तथा गठजोड़ के बड़बोलेपन को मात देने में मदद कर सकती है। मुझे उम्मीद है कि कहीं न कहीं कोई न कोई सुन रहा है। लंबे समय से हम इस गठजोड़ की गढ़ी हुई घटनाओं पर प्रतिक्रिया ही देते रहे हैं और शिकार बनते रहे हैं, लेकिन एक बार तो हमें उन्हें भी प्रतिक्रिया देने पर मजबूर करना चाहिए।

(सेना की डैगर डिविजन बारामूला और युवा सुपर 30 योजना की सफलता का जश्न मनाते हुए)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 8th June 2016, Image Source: http://indianexpress.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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