रेशम सड़क आर्थिक पट्टी तथा 21वीं सदी की सामुद्रिक रेशम सड़क की दो परियोजनाओं को मिलाने के लिए सितंबर 2013 में जिस ‘वन बेल्ट, वन रोड’ कार्यक्रम का प्रस्ताव दिया गया था, उसके जरिये चीन पूरी दुनिया का घेरा बनाना चाहता है। विश्व के 55 प्रतिशत सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी), 70 प्रतिशत जनसंख्या तथा 75 प्रतिशत ज्ञात ऊर्जा भंडारों को समेटने की क्षमता वाली यह योजना वास्तव में चीन द्वारा भूमि एवं समुद्री परिवहन मार्ग बनाने के लिए है, जो चीन के उत्पादन केंद्रों को दुनिया भर के बाजारों एवं प्राकृतिक संसाधन केंद्रों से जोड़ेंगे। साथ ही साथ इससे चीन की अभी तक सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था, श्रमशक्ति एवं बुनियादी ढांचा-तकनीक भंडारों को भी प्रोत्साहन मिलेगा ताकि उसे आवश्यक प्रतिफल मिले। इसमें सीमाओं को नई दिशा देने तथा चीन के पड़ोस में यथास्थिति को परिवर्तित करने - जो इसने दक्षिण एशिया में करना पहले ही शुरू कर दिया है- की क्षमता है और भारत पर इसका सीधा तथा प्रतिकूल प्रभाव होगा। इस पहल में भूराजनीतिक एवं राजनयिक उद्देश्य तो हैं ही, बेहद शक्तिशाली घरेलू एजेंडा भी है।
प्रस्तावित “वन बेल्ट, वन रोड” (ओबीओआर) लगभग 1,400 अरब डॉलर की परियोजना है। चीन का दावा है कि आने वाले वर्षों में इस परियोजना के लिए वह बुनियादी ढांचे के वित्तपोषण के लिए 300 अरब डॉलर से अधिक निवेश के वायदे करना चाहता है, हालांकि कुछ बहुपक्षीय एवं द्विपक्षीय वायदों में घालमेल हो सकता है। चीन की प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए सरकारी अखबार चाइना डेली ने 28 मई, 2015 को बताया कि पेइचिंग की 900 अरब डॉलर निवेश की योजना है। ओबीओआर को 35 वर्ष में पूरा किए जाने की योजना है, जब 2019 में चीनी गणराज्य की 100वीं वर्षगांठ मनाई जाएगी!
बेल्ट के गलियारे यूरेशिया में प्रमुख पुलों, चीन-मंगोलिया-रूस, चीन-मध्य एवं पश्चिम एशिया, चीन-भारत-चीन प्रायद्वीप, चीन-पाकिस्तान, बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार से गुजरेंगे। सामुद्रिक रेशम मार्ग अथवा “रोड” बेल्ट के गलियारों का सामुद्रिक प्रतिरूप है और उसमें प्रस्तावित बंदरगाह तथा अन्य तटवर्ती बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का नेटवर्क है, जो दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया से पूर्वी अफ्रीका तथा उत्तरी भूमध्य सागर में बनाए जाएंगे।
ओबीओआर के बारे में हाल ही में सबसे चर्चित द्विपक्षीय प्रतिबद्धता चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के बारे में किया गया निवेश का वायदा है, जो शी चिनफिंग ने अप्रैल 2015 में पाकिस्तान की दो दिवसीय यात्रा के दौरान किया था। पाकिस्तानी विश्लेषक इसे 46 अरब डॉलर का निवेश मान रहे हैं। इसके बाद उसी वर्ष मई में बेलारूस में 15.7 अरब डॉलर का समझौता किया गया। हो सकते हैं कि उसी दौरे में शी चिनफिंग की कजाकस्तान एवं रूस यात्राओं के दौरान और भी समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हों। भूतल परिवहन, ऊर्जा एवं साइबर-कनेक्टिविटी पर रूस के साथ बातचीत चल रही है। किंतु ओबीओआर से संबंधित समझौतों पर ठोस जानकारी चीन के प्रकाशित स्रोतों में आसानी से उपलब्ध नहीं है।
एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी), ब्रिक्स के नव विकास बैंक, सिल्क रोड फंड, सीआईसी के समर्थन वाले कोष (ली केक्यांग की हाल की ब्राजील यात्रा के दौरान घोषित) और संभवतः एससीओ विकास बैंक समेत कई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान, जिनमें कुछ नए हैं, ओबीओआर से जुड़ रहे हैं। इससे क्षेत्र में निजी निवेशकों, नेताओं तथा देशों पर प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिए जापान ने एशिया के लिए 110 अरब डॉलर की राशि की घोषणा की तथा एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने ऋण देने की क्षमता बढ़ाने के लिए अपने वितरण के नियमों में संशोधन किया। एआईआईबी ओबीओआर की वित्तपोषण करने वाली इकाई के रूप में कार्य करेगा।
अपने कूटनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सीपीईसी की परियोजनाओं के लिए पाकिस्तान को वित्तीय सहायता प्रदान करने के इरादे से इन बैंकों, विशेषकर एआईआईबी का इस्तेमाल करने का प्रयास भारत के लिए चिंता की बात है। चीन के सरकारी अंग्रेजी दैनिक चाइना डेली ने 9 मई, 2016 को खबर दी कि एआईआईबी ने एशियाई विकास बैंक के साथ मिलकर पाकिस्तान में मोटरवे परियोजना को 30 करोड़ डॉलर की सहायता देने की घोषणा की है। “पाकिस्तान को चीन का मजबूत सहयोगी” बताते हुए इस खबर में संकेत दिया गया है कि ऐसी और भी परियोजनाएं होंगी। अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए चीन ने एडीबी में अपने दबदबे का इस्तेमाल किया था और भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में गरीबी उन्मूलन की परियेाजनाओं हेतु विकास सहयोग इस आधार पर रुकवा दिया था कि यह विवादित क्षेत्र है। ठीक उसी प्रकार सीपीईसी भारत के दावे वाले एवं विवादित क्षेत्र से गुजरता है।
चीनी अधिकारी एवं शिक्षाविद ओबीओआर के आर्थिक पक्षों एवं वाणिज्यिक लाभ पर जोर देते हैं, लेकिन वास्तव में यह भूराजनीतिक एवं कूटनीतिक आक्रमण है। एशिया वालों के बीच “कम्युनिटी ऑफ डेस्टिनी” का चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग का बयान प्रासंगिक है। चीन के वार्ताकार बेशक दावा करते रहें कि चीन मौजूदा अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को बदलने के बजाय उनकी “खामियां दुरुस्त करना” चाहता है, लेकिन प्रभावशाली चीनी रणनीतिकारों के ऐसे ढेरों बयान खासे कठोर हैं, जिनमें उनका कहना है कि चीन के लिए यथास्थिति में परिवर्तन लाने का यह सटीक समय है। ओबीओआर के क्रियान्वयन से प्रतिभागी देशों के बीच चीन का आर्थिक प्रभाव भी बढ़ेगा। ऋण एवं सहायता के रूप में इतनी बड़ी धनराशियां बांटने की रणनीति से चीन की वित्तीय ताकत बढ़ेगी, जिसका इस्तेमाल वह पहले ही अपने व्यापारिक संबंधों के जरिये करता है।
पीकिंग यूनिवर्सिटी के नेशनल स्कूल ऑफ डेवलपमेंट में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर ह्वांग यिपिंग ने फरवरी 2015 में कहा था कि ओबीओआर चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि में आमूल-चूल परिवर्तन का परिचायक है। उनके अनुसार ओबीओआर ने “अपनी क्षमताओं को छिपाने और सही समय की प्रतीक्षा करने” की देंग श्याओपिंग की सलाह पर आधारित मौन कूटनीति का दौर समाप्त कर दिया है और चीन को “नई महाशक्ति” में बदल दिया है, जो “अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की कमियों की भरपाई करने का प्रयास कर रहा है।” ह्वांग यिपिंग चीन की अधिक सक्रिय भूमिका को अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में विकासशील देशों को दी गई सीमित भूमिका को बदलने का प्रयास बताकर सही ठहराने की कोशिश करते हैं। वह इसे राष्ट्रपति बराक ओबामा की उस मांग को पूरा करने का प्रयास भी बताते हैं, जिसमें उन्होंने चीन से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जनता के उपयोग की वस्तुएं उपलब्ध कराने की अधिक जिम्मेदारी लेने को कहा था। रेनमिन यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट ने भी इसी प्रकार जोर देकर कहा कि “किसी का फायदा और किसी का नुकसान की धारणा” के कारण मौजूदा व्यवस्था को “चुनौती देने के बजाय उसकी खामियों को दूर करने” की जरूरत है, जिस धारणा के कारण ओबीओआर की परियोजनाओं को चीन के पड़ोसी देशों समेत पूरे क्षेत्र में शंका के साथ देखा गया। आगे की चुनौतियों की बात करते हुए ह्वांग यिपिंग ने स्वीकार किया किः “वन बेल्ट, वन रोड अच्छी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक रणनीति है किंतु फिलहाल यह आसान नहीं है।”
2014 में रेनमिन यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट, जिसे सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ ने परियोजनाओं पर पहली वैचारिक रिपोर्ट बताया था, ने परियोजना की महत्वाकांक्षाओं तथा मौजूदा योजना की सीमाओं का स्पष्ट खाका खींचा। इसमें पता चला कि चीन रणनीतिक योजना बनाना 2016 से आरंभ करेगा और इसमें पांच वर्ष लग जाएंगे। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि सिल्क रोड (ओबीओआर) परियोजनाएं करीब 35 वर्ष में यानी 2049 तक पूरी होंगी, जब चीन गणराज्य की स्थापना की 100वीं वर्षगांठ होगी! शिन्हुआ ने 6 दिसंबर, 2014 को चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के हवाले से बताया था कि पोलितब्यूरो के सत्र में उन्होंने ओबीओआर की व्याख्या करते हुए उसे “दुनिया भर के सामने स्वयं को खोलने या उससे संपर्क करने का नया दौर” कहा। वाणिज्य मंत्रालय के एक अधिकारी - जिन्होंने परोक्ष रूप से घरेलू राजनीतिक एजेंडा बता दिया- ने भी काइचिंग पत्रिका के सामने यही बात दोहराते हुए कहा कि “नए 30 वर्ष” आज के चीन को माओत्से तुंग और देन श्याओपिंग द्वारा शुरू किए गए युगों की तुलना में तीसरे युग की दहलीज पर ला खड़ा करेंगे!
यद्यपि भूराजनीति तथा बुनियादी ढांचा तैयार करने की चीन की अकूत क्षमताओं का निर्यात ही ओबीओआर का आधार लगते हैं किंतु आगे कुछ कठिनाइयां भी दिख रही हैं। चीन के बाहर भौगालिक तथा भूराजनीतिक स्थितियां बहुत अलग हैं तथा कई देशों में निवेश का माहौल अनिश्चितता से भरा है, जिन्हें कम रिटर्न या बेहद जोखिम भरे रिटर्न वाले देशों की श्रेणियों में डाला जा सकता है। इससे सरकारी शिक्षाविदों तथा रणनीतिकारों के बीच इस मुद्दे पर बहस छिड़ गई है कि ऐसे देशों में भारी निवेश करना कितना सही है। इसके अलावा सरकार से वित्तीय सहायता एवं सरकारी उद्यमों पर अति निर्भरता भी चिंता का कारण बन गई है। चीन के पड़ोसियों से होने वाली प्रतिक्रियाओं को लेकर भी चिंता है।
ओबीओआर की “अकूत संभावना” को स्वीकार करते हुए चीन में राजनीतिक सलाहकार समिति (चाइनीज पीपुल्स पॉलिटिकल कंसल्टेटिव कॉन्फ्रेंस) की स्थायी समिति के सदस्य एवं बीजिंग यूनिवर्सिटी में यूनिवर्सिटी ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस के डीन जिया किंग्वो ने सतर्कता बरतने की जरूरत बताई और कहा कि चीन को “खयाली पुलावों” में नहीं खोना चाहिए। परियोजना के लक्ष्य एवं दायरे के बारे में शिक्षाविदों एवं सरकारी अधिकारियों के बीच मतभेदों की पुष्टि करते हुए उन्होंन कहा कि ओबीओआर की सफलता के लिए स्पष्ट योजना की आवश्यकता होगी और दुर्गम क्षेत्रों, राजनीतिक अस्थिरता, भूराजनीतिक खतरों जैसी समस्याओं के समाधान तलाशने होंगे। रूस जैसी क्षेत्रीय ताकतों को चीन के उद्भव से चिंतित बताते हुए उन्होंने कहा कि चीन को ऐसी धारणा नहीं पनपने देनी चाहिए कि वह मध्य एशिया में रूस की स्थिति को चुनौती दे रहा है। दिलचस्प है कि रूस के साथ संपर्क का विचार बाद में आया और वह ओबीओआर की वास्तविक योजना का हिस्सा नहीं था। रूस को तभी शामिल किया गया, जब पुतिन ने 2015 के वसंत में शी चिनफिंग से बात की तथा मॉस्को ने एक दूत को पेइचिंग भेजा। किंतु रेल मार्ग तय करने के संदर्भ में समस्याएं मौजूद हैं। जिया किंग्वो ने बताया कि सामुद्रिक रेशम सड़क परियोजना के लिए कई लक्षित देशों के साथ अभी चीन का भूमि विवाद चल रहा है, जिसके कारण वे सहयोग करने की अनिच्छा भी जता सकते हैं। उनकी शंकाएं दूर करने के लिए चीन को अपनी बढ़ती ताकत का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि “उसके पड़ोसी विवादों को छोड़ दें तथा साझे विकास के लिए आगे बढ़ें।”
पेइचिंग में प्रतिष्ठित सिंगहुआ यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के असोसिएट प्रोफेसर चू यिन ने जनवरी 2015 में एक लेख में ऐसी ही भाषा बोलते हुए राजनीतिक जोखिमों की बात की और चीन को आगाह किया कि छोटे देशों की बेपरवाही नहीं की जाए। उन्होंने कहा, “हालांकि हम ईमानदार देश हैं, पाश्चात्य साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नस्लभेद से मुक्त हैं, लेकिन हम तथा ओबीओआर देश एक समान बिल्कुल नहीं हैं।” उन्होंने ध्यान दिलाया कि चीनी योजनाकार अक्सर स्थानीय एवं क्षेत्रीय राजनीति पर ध्यान देने में नाकाम रहे हैं, जिसके कारण परियोजनाओं पर स्थानीय विपक्षी दल तथा प्रतिस्पर्द्धी क्षेत्रीय ताकतों दोनों की ओर से राजनीतिक जोखिम मंडराया है। उन्होंने कहा कि थाईलैंड तथा म्यांमार में हाल ही में घटी घटनाएं दिखाती हैं कि राजनीतिक अस्थिरता कितना बड़ा जोखिम है। उन्होंने यह भी कहा कि श्रीलंका के चुनावों में पेइचिंग के प्रति मैत्री भाव रखने वाली सरकार की पराजय से वहां महत्वपूर्ण बंदरगाह के निर्माण में दिक्कत आ सकती है क्योंकि मार्शल प्लान के दौरान अमेरिका के पास उन देशों, जिनमें उसने निवेश किया था, पर सैन्य कब्जे का जो मौका अमेरिका के पास था, वह चीन के पास नहीं है। उन्होंने कहा कि क्षेत्रीय स्तर पर भारत, अमेरिका, रूस और जापान ओबीओआर देशों में महत्वपूर्ण हैं तथा चीन की योजनाओं को ठप करने के लिए वे अपनी ताकत का इस्तेमाल कर सकते हैं।
सुरक्षा बेशक प्रमुख चुनौती है। उदाहरण के लिए चीन 65 देशों से गुजरने वाली जिस 81,000 किलोमीटर (लगभग 50,000 मील) लंबी तेज रफ्तार वाली रेल लाइन के निर्माण का प्रस्ताव रख रहा है, उसकी सुरक्षा बहुत जोखिम भरी होगी। सीपीईसी में 51 प्रस्तावित परियोजनाओं के साथ भी ऐसा ही होगा क्योंकि वह गलियारा बलूचिस्तान से गुजरता है, जो दुनिया का सबसे संवेदनशील और घरेलू उग्रवाद से परेशान हिस्सा है।
जैसा कि वर्तमान सैन्य सुधारों से लगता है, चीन ने इनमें से कुछ विषयों पर काम शुरू कर दिया है। पेइचिंग में 24-25 अक्टूबर को संपन्न कॉन्फ्रेंस ऑफ पेरिफेरल डिप्लोमैसी ने ओबीओआर के लिए जमीन तैयार की। देशों को पहली बार “मित्र” और “शत्रु” की श्रेणियो में बांटकर इसने निर्णय कि मित्रों को “अनकहे लाभ” प्राप्त होंगे, जिनमें चीन के अंतरराष्ट्रीय कद तथा कूटनीतिक दबदबे के फायदे भी होंगे। इसमें वायदा किया गया कि चीन “सुरक्षा गठबंधन” भी मुहैया करा सकता है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) अच्छा उदाहरण है, जो ओबीओआर का हिस्सा है और जिसमें सड़क संपर्क, पाइपलाइन, ऊर्जा केंद्र तथा बंदरगाह शामिल हैं। यह वित्तीय सहायता के साथ सैन्य ताकत वाला कूटनीतिक सहयोग भी देता है।
सीपीईसी की घोषणा कर पेइचिंग ने कश्मीर के मसले पर चीन द्वारा अब तक बरती जा रही अस्पष्टता को खत्म कर दिया। यह पाकिस्तान के भीतर सीपीईसी को सुरक्षित रखने की तैयारी भी कर रहा है। सुरक्षित फाइबर-ऑप्टिक लिंक डाला गया है, जो कशगर को रावलपिंडी से जोड़ता है। इससे पता चलता है कि पाकिस्तान और चीन के बीच कितना घनिष्ठ सैन्य तालमेल है। इसी वर्ष के आरंभ में चीनी सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) के पश्चिमी क्षेत्र की स्थापना का उद्देश्य चीन के जमीनी मोर्चों को सुरक्षित रखने के साथ ही सीपीईसी में चीनी निवेश एवं परियोजनाओं की हिफाजत भी करना है। चीन ने उसके साथ ही इस्लामाबाद को यह भी बताया है कि सीपीईसी के दायरे में आने वाले क्षेत्रों में तैनाती के लिए वह सेना के डिविजन के बराबर संख्या वाली “निजी सेना” तैयार कर रहा है। पश्चिमी क्षेत्र के कामकाजी अधिकार क्षेत्र का अनुमान पहले से ही है और समय बीतने के साथ ही इसमें पूर्वी अफ्रीका को भी शामिल किया जाएगा, जहां चीन के काफी आर्थिक हित जुड़े हैं तथा जहां जिबूती में ठिकाना बनाने के लिए उसने हाल ही में समझौता भी किया है। चीन ने विदेश में चीनी निवेश तथा कामगारों की सुरक्षा के लिए चीनी सेना एवं सुरक्षाकर्मियों की तैनाती हेतु देसी कानूनी आधार पहले ही तैयार कर चुका है। चीनी सेना के पश्चिमी जोन को जो काम दिए गए हैं, उन्हें इसी दिशा में पहला कदम कहा जा सकता है।
भारत के लिए बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआईएम) गलियारा व्यावहारिक नहीं है, जो ओबीओआर का हिस्सा है और चीन जिस पर हस्ताक्षर करने के लिए भारत पर दबाव डाल रहा है। बीसीआईएम के लिए राजी होने का अर्थ यह है कि भारत के पूर्वोत्तर के इलाके चीनी सामान - न तो म्यांमार और न ही बांग्लादेश के उत्पादों की भारत में अच्छी मांग है - से पट जाएंगे, जहां अभी संपर्क सुविधा खराब होने के कारण भारतीय वस्तुओं तथा लोगों का पहुंचना कठिन होता है। लोगों की छितरी हुई बसावट वाले भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में हजारों चीनियों के अवैध रूप से बसने का खतरा भी है, जैसा उन्होंने अन्य देशों में किया है। पीएलए द्वारा चलाई जा रही एक वेबसाइट पर कुछ वर्ष पहले डाले गई विस्तृत पोस्ट में बताया भी गया था कि अरुणाचल प्रदेश को फिर हासिल करने के क्या फायदे हैं और चीन की बढ़ती हुई जनसंख्या को वहां बसाना भी उसमें शामिल था।
ओबीओआर के आर्थिक महत्व पर चीनी शिक्षाविदों एवं अधिकारियों द्वारा एकदम सही जोर दिया गया है। जिया किंग्वो ने कहा कि ओबीओआर अंतरराष्ट्रीय रणनीति है किंतु इसकी सफलता चीन के घरेलू पुनर्संतुलन पर इसके प्रभाव से मापी जाएगी। चीन अपनी पूंजी, प्रौद्योगिकी और प्रबंधन के अनुभव को बाहर भेजेगा तथा पड़ोसी देशों के विकास एवं संपन्नता को बढ़ावा देगा, लेकिन जिया का जोर इसी बात पर था कि ओबीओआर की सफलता को मापने का पैमाना यह होगा कि इससे चीन के अपने आर्थिक कायांतरण को प्रोत्साहन मिला अथवा नहीं और इसके कारण चीन क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था का केंद्र बना अथवा नहीं। उन्होंने कहा कि निवेश का प्रभावी आवंटन तथा देश की संपत्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए निजी पूंजी को आगे रखा जाना चाहिए। जिया किंग्वो ने कहा कि निजी उद्यमशीलता को परियोजना की रीढ़ बनाया जाना चाहिए ताकि उनकी ऊर्जा, लचीलेपन तथा निवेश की प्रभाविता के प्रति संवेदनशीलता का लाभ उठाया जा सके और सरकारी उद्यमों को जोखिमों से दूर रखा जाना चाहिए।
चीनी सलाहकार फर्म ओर पीआरसी स्टेट काउंसिल की विचार समूह एनबाउंड में मुख्य शोधकर्ता चेन गॉन्ग ने भी आगाह किया है। उन्होंने कहा कि ओबीओआर परियोजनाओं ने पिछले दस साल में चीन के असंतुलित विकास मॉडल की नकल भारी स्तर पर तैयार की हैं। चीन का मॉडल सार्वजनिक कारकों और बुनियादी ढांचा व्यय पर आधारित है और आपूर्ति पर बहुत अधिक निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि प्रोत्साहन आधारित वृद्धि कारकों को हटाने की सरकार की मंशा के यह विरुद्ध है, लेकिन उन्होंने यह माना कि चीन के बाहर इनका इस्तेमाल करना संभवतः अधिक स्वीकार्य और कम विवादास्पद होगा। चेन गॉन्ग सामुद्रिक रेशम मार्ग के फायदों पर खास तौर से सवाल उठाते हुए कहते हैं: “जो चीन बनाता है, वह आसियान देश भी बनाते हैं और चीन जो भी तैयार करना चाहता है, आसियान देश भी वही तैयार करना चाहते हैं।” इसीलिए दोनों क्षेत्रों का एक दूसरे से कड़ी प्रतिस्पर्द्धा करना तय है और चीन को केवल पश्चिमी मार्ग पर ध्यान केंद्रित करने पर जो कठिनाइयां मिलतीं, सामुद्रिक रेशम मार्ग पर उससे भी बहुत अधिक कठिनाइयां मिलेंगी।
किंतु ओबीओआर परियोजनाओं में मुख्य पक्ष चीन के सरकारी उद्यम ही होंगे। ग्वांगदा सिक्योरिटीज में मुख्य अर्थशास्त्री एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में पूर्व अर्थशास्त्री शू गाओ के अनुसार इससे यह पता चलता है कि चीन के लिए अवसर की लागत वास्तव में ऋणात्मक होगी। उनका आकलन है कि चूंकि चीन के आर्थिक ढांचे में सरकारी उद्यमों का प्रभुत्व है, इसीलिए आगे निवेश को वास्तव में सार्वजनिक क्षेत्र का कचरा कम करना चाहिए और रोजगार तथा अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाने में मदद करनी चाहिए। इससे अब तक कम रिटर्न देने वाले अमेरिकी बॉण्डों में लगाए गए चीन के भारी विदेशी मुद्रा भंडारों को निवेश के लिए नया मौका मिल जाएगा।
इसी बीच स्टेट काउंसिल के सरकारी स्वामित्व वाले संपत्ति निगरानी एवं प्रशासन आयोग (एसएएसएसी) द्वारा 2014 के अंत में जारी किए गए आंकड़े ‘ओबीओआर’ में हिस्सा लेने के लिए चीनी सरकारी उद्यमों की तैयारी का संकेत देते हैं। रिपोर्ट बताती है कि 110 में से 105 सरकारी उद्यमों ने 2014 के अंत तक विदेश में 8,515 शाखाएं खोल ली थीं और उनमें से 89 से अधिक चीनी सार्वजनिक उद्यमों ने “बेल्ट एवं रोड” के किनारे आने वाले देशों एवं क्षेत्रों में अपनी शाखाएं स्थापित कर ली थीं। आंकड़े बताते हैं कि 12वीं पंचवर्षीय योजना के क्रियान्वयन के बाद से चीनी सरकारी उद्यमों की कुल विदेशी संपत्तियां 2,700 अरब युआन से बढ़कर 4,600 अरब युआन हो गई थीं। चीनी सार्वजनिक उद्यमों ने चीन-रूस, चीन-कजाकस्तान और चीन-म्यांमार की कच्चे तेल की पाइपलाइन, की कच्चे तेल की पाइपलाइन, चीन-रूस, चीन-मध्य एशिया तथा चीन-म्यांमार के बीच प्राकृतिक गैस की पाइपलाइन तथा म्यांमार, थाईलैंड, लाओस आदि में रेल लाइन का निर्माण जैसी प्रमुख परियोजनाएं अपने हाथों में ली हैं। एसएएसएसी की रिपोर्ट ने यह भी बताया कि 40 से अधिक सार्वजनिक उद्यमों ने इंटरनेशनाल बिजनेस मैनेजमेंट विभाग बना लिए हैं और 30 से अधिक उद्यमों ने विदेश में कानूनी जोखिम से बचने की योजना बना ली है।
शिन्हुआ ने चीन सरकार के कराधान विभाग के 14 मार्च, 2016 के ऐलान के हवाले से बताया कि “बेल्ट एवं रोड” के किनारे बसे देशों के साथ कर संबंधी संधियां करने से चीन में वित्तीय संस्थान करों के रूप में 9.6 अरब युआन बचा लेंगे।
यद्यपि वर्तमान देश चीन की आर्थिक वृद्धि तथा विराट बुनियादी ढांचा बनाने में उसके रिकॉर्ड की अनदेखी नहीं कर सकते, लेकिन पेइचिंग के असली मकसद पर गंभीर चिंताएं बरकरार हैं। मार्च 2015 और 2016 में सीपीपीसीसी-एनपीसी के सत्रों के दौरान प्रेस के सामने चीनी विदेश मंत्री वांग यी के संबोधन से पता चलता है कि पेइचिंग को भी इन चिंताओं का पता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि ओबीओआर “भूराजनीति का माध्यम” नहीं है और इसे “पुरानी शीत युद्ध वाली मानसिकता” के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इस मार्च में वांग यी ने एक बार फिर जोर दिया कि चीन जिम्मेदार उभरता हुआ देश है और परस्पर समान लाभों के साथ परिधीय कूटनीति को बढ़ावा देता है। उन्होंने कहा कि “बेल्ट एवं रोड” पहल ने काफी प्रगति की है, जिसमें एशिया इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) की स्थापना तथा न्यू सिल्क रोड फंड का आंरभ तथा आर्थिक एवं व्यापार सहयोग, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक आदान-प्रदान में प्रतिभागी देशों के बीच बेहतर संपर्क शामिल हैं। चीन के उप विदेश मंत्री झांग येसूई ने मार्च 2015 में चाइना डेवलपमेंट फोरम में आश्वासन भरा यही संदेश दोहराया। उसी महीने उन्होंने चीन को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में पूरी तरह जुड़ा हुआ बताया और दोहराया कि ओबीओआर “किसी विशेष देश अथवा संगठन के विरुद्ध नहीं” है बल्कि इसका उद्देश्य वर्तमान अंतरराष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय संस्थाओं के “पूरक” के रूप में काम करना है।
इसके बावजूद ओबीओआर के सामने बड़ी समस्याएं हैं। सुस्त पड़ती देसी अर्थव्यवस्था उनमें से एक है। चीनी अर्थशास्त्रियों ने चीन सरकार को बहुत अधिक परियोजनाएं आरंभ करने के विरुद्ध यह कहते हुए चेतावनी दी है कि चीन के पश्चिम का विकास करने में जो गलतियां हुई थीं, इस बार वही गलतियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने का जोखिम है। 22 से अधिक प्रांतों में कई स्थानीय एवं प्रांतीय सरकारों द्वारा ओबीओआर में प्रतिभागिता करने की इच्छा जताए जाने से समस्या और भी बढ़ गई है। ‘ग्वोजी जिनरोंग बाओ’ में फरवरी 2015 में छपे एक लेख में आगाह किया कि इससे बरबादी होगी। उसमें कहा गया कि महंगे और अक्सर बहुत कम इस्तेमाल वाले मार्गों पर कई अंतरराष्ट्रीय रेल परियोजनाएं तैयार की जा रही हैं और कई प्रांतों ने ऐसी परियोजनाओं में सब्सिडी झोंक दी है, जो आर्थिक रूप से व्यावहारिक ही नहीं हैं। स्थानीय अधिकारियों द्वारा तैयार की गई वे योजनाएं भी आगे चलकर सामाजिक स्थिरता के लिए समस्या पैदा कर सकती हैं, जिनमें मध्य एशियाई देशों के साथ सहयोग किया जाना है और जिनमें संकीर्ण क्षेत्रीय हितों का ध्यान रखा गया है।
यद्यपि 20 यूरोपीय देश ओबीओआर पर चीन के साथ बात कर रहे हैं और आर्थिक सहयोग के चीन के प्रस्तावों के बावजूद यूरोपीय संघ ने मई 2016 में उन शर्तों के आधार पर बाजार अर्थव्यवस्था का दर्जा देने से इनकार कर दिया, जो शर्तें 2001 में चीन के विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में शामिल होने के समय तय की गई थीं। थाईलैंड ने मार्च 2016 में ब्याज दरें बहुत अधिक होने की शिकायत की थी और ब्याज दरों पर इसी मतभेद के कारण अब चीनी-थाई रेल परियोजना भी जोखिम में पड़ रही है।
ओबीओआर को जिन क्षेत्रों से गुजरना है, उन क्षेत्रों में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता के कारण दुर्गम क्षेत्र, राजनीति अस्थिरता एवं भूराजनीतिक खतरों की समस्याएं और भी बढ़ने की आशंका है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और संभवतः जल्द ही मध्य एशियाई गणराज्यों में भी इस्लामी आतंकवाद का बढ़ता ज्वार भी शिनजियांग उइगर स्वायत्तशासी क्षेत्र तथा चीन के अन्य मुस्लिम इलाकों में स्थिरता के लिए खतरा बन जाएगा। दुनिया के सबसे जोखिम भरे और घरेलू उग्रवाद से ग्रस्त क्षेत्र बलूचिस्तान में सीपीईसी की 51 परियोजनाओं की सुरक्षा करना भी मुश्किल होगा। ये सभी कारक एक साथ मिलकर ओबीओआर की व्यावहारिकता पर गंभीर प्रश्न खड़े कर रहे हैं।
(लेखक भारत सरकार के कैबिनेट सचिवालय में अतिरिक्त सचिव रह चुके हैं और अभी सेंटर फॉर चाइना एनालिसिस एंड स्ट्रैटेजी के अध्यक्ष हैं)
Post new comment