रणनीतिक धैर्य से सुलझ सकती है चीन समस्या
Sushant Sareen

चीन हमेशा से भारत के लिए समस्या रहा है। ऐसा इसीलिए भी है क्योंकि चीनी स्वयं तो अबूझ हैं और दिए जा रहे संदेश या संकेत को बूझने की कोशिश में उनके वार्ताकारों को अक्सर घंटों लग सकते हैं। लेकिन ऐसा इसलिए भी है क्योंकि एक दूसरे के साथ किसी भी तरह का बुनियादी या सभ्यतागत विवाद नहीं होने के बावजूद भारत और चीन कभी सामरिक मेल-मिलाप नहीं कर पाए हैं। 1962 के सीमा संघर्ष की कड़वाहट बेशक है। दोनों देशों के आकार और क्षमताओं को देखते हुए उनके बीच मुकाबले की भावना भी है। इसके अलावा क्षेत्रीय विवाद भी हैं, जो द्विपक्षीय संबंधों के व्यापक संदर्भों में देखने पर मामूली ही लगते हैं। इसीलिए दोनों देशों को टकराव भरे रिश्तों के बजाय एक दूसरे का सहयोग करने से काफी कुछ हासिल हो जाएगा। यही वजह है कि भारत को कमतर बताने और पछाड़ने के चीन के लगातार प्रयासों का कोई मतलब नहीं है। अपनी छवि के मुताबिक दीर्घकालिक, सोची समझी योजना पर काम करने के बजाय चीन ऐसी हरकतों से तुच्छ और अल्पकालिक रणनीतिक सोच का प्रदर्शन कर रहा है।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि एशिया में अमेरिका के बढ़ते कदमों से चीनी बहुत चिंतित हैं। चीन को लगता है कि एशिया में पुनर्संतुलन की अमेरिकी कवायद उसे रोकने और बांधे रखने की रणनीति है। भारत को पूरी तरह अमेरिकी खेमे में जाते देखकर चीन स्पष्ट रूप से नाखुश होगा। सरकार के नियंत्रण वाले चीनी मीडिया में हाल ही में आए लेखों में दंभ के साथ यह विश्वास जताया गया कि भारत अपनी सामरिक स्वायत्तता और आजादी बरकरार रखेगा और चीन के खिलाफ अमेरिकी हाथों का खिलौना नहीं बनेगा। कुछ लेखों में तो दया दिखाने वाले लहजे में भारत को चीन के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलने की सलाह दी गई क्योंकि उससे भारत बड़ा नहीं हो जाएगा। विडंबना है कि चीनी भारत को अमेरिका का मोहरा नहीं बनते देखना चाहते, लेकिन उनकी हरकतें भारत को बिल्कुल उसी दिशा में धकेल रही हैं, जहां चीन उसे नहीं देखना चाहता।

इनमें से कुछ हरकतें - नत्थी वीजा, वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन आदि - बिल्कुल बेमतलब हैं। रणनीतिक शब्दों में इनसे कुछ नहीं मिलता, केवल कड़वाहट आती है। कुछ दूसरी हरकतें - पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) बनाना या पाकिस्तानी जिहादियों को संयुक्त राष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों का दर्जा दिए जाने पर चीनियों की ओर से जताई गई तकनीकी आपत्ति - भारत को छोड़कर पाकिस्तान को समर्थन देने के लिए ही की गई हैं। जिस देश को भारत सभ्यतागत दुश्मन मानता है और जिसे भारत के अस्तित्व से ही परेशानी है, उसका समर्थन कर चीन भारत को यह भरोसा नहीं दिला रहा है कि भारत के खिलाफ उसमें कोई वैर भाव नहीं है। पाकिस्तान को चीन के समर्थन से भारत के लिए चक्की के दो पाट के बीच में पिसने जैसी हालत होती है, जिसके कारण वह चीन-पाक गठबंधन के प्रतिकूल नतीजों का जवाब देने के लिए अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और चीन के चारों ओर बसे उन छोटे देशों के साथ घनिष्ठता बढ़ाने पर मजबूर हो रहा है, जिन देशों को क्षेत्र में चीनी हरकतों पर बहुत चिंता है।

परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश का विरोध कर चीन ने भारत के प्रति अपनी नीति जाहिर कर दी है। चीनी धूर्तता के साथ दावा करते हैं कि एनएसजी में भारत की सदस्यता पर उनका रुख उन ‘सिद्धांतों’ पर आधारित है, जो प्रक्रियाओं का उल्लंघन नहीं करने की बात करते हैं। इसके अलावा वे एनएसजी में नए सदस्यों को शामिल करने के लिए मानदंड तैयार करने की बात कर रहे हैं, जिनसे पाकिस्तान के लिए भी इस समूह के दरवाजे खुल जाएंगे। एनएसजी में भारत के प्रवेश का रास्ता रोककर चीनी एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं: अपने पिछलग्गू देश पाकिस्तान से जीहुजूरी कराना और भारत को परमाणु सामग्री एवं प्रौद्योगिकी के व्यापार से ही नहीं बल्कि ऐसी कई प्रौद्योगिकियां प्राप्त करने से भी वंचित रखना है, जो प्रौद्योगिकियां अभी मुफ्त उपलब्ध नहीं हैं। एक तरह से चीन भारत के साथ वही करने की कोशिश कर रहा है, जो अमेरिका और उसके साथियों पर अपने साथ करने का आरोप वह लगाता रहता है यानी घेरा डालकर बांध लेना। लेकिन चीन शायद किसी भी अन्य देश के मुकाबले बेहतर तरीके से जानता है कि रोकना हमेशा चतुराई भरी नीति नहीं होती है और अक्सर इसके उलटे असर भी हो सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो जिस तरह चीन को रोका नहीं जा सकता, उसी तरह भारत को भी छोटे से दायरे में नहीं बांधा जा सकता।

चीन की भारत नीति बेहद पुरानी है, जो 21वीं सदी के बजाय 19वीं और 20वीं सदी के मुताबिक ही चल रही है। विश्व भू-अर्थशास्त्र की ओर बढ़ रहा है - जो चीन के शानदार विकास का कारण रहा है - लेकिन चीनी भू-राजनीति के जमाने में लौट रहे हैं। इसमें वे अमेरिका को जवाब देने और ‘दोबारा संतुलन बिठाने’ की कवायद में फंस रहे हैं और पाकिस्तान का समर्थन कर भारत का संतुलन बिगाड़ने की कोशिश भी कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि ‘शक्ति संतुलन’ कितना प्रभावी होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसे संतुलित करने के लिए किसका प्रयोग किया जा रहा है। भारत का संतुलन बिगाड़ने और अमेरिका-भारत की बढ़ती घनिष्ठता का जवाब देने के लिए पाकिस्तान को चुनने की चीन की रणनीति आत्मघाती है। अपनी अर्थव्यवस्था, ताकत, सेना, आकार, कूटनीतिक प्रभाव आदि के साथ भारत के पास जो कुछ है, उसकी तुलना पाकिस्तान (जिसकी बिगड़ैल छवि है) से करके ही चीनियों को पता चल जाना चाहिए कि वे कितनी बड़ी रणनीतिक बेवकूफी कर रहे हैं। भारत को अमेरिका की ओर धकेलकर और पाकिस्तान को अपना सहयोगी चुनकर चीनी स्पष्ट रूप से (अपने लिए) शक्ति का संतुलन बिगाड़ रहे हैं, उसे साध नहीं रहे हैं।

चीन के हित तब बेहद रूप से साधे जाते, जब पाकिस्तान का बाजी गंवाने वाला सहारा लेने के बजाय वे भारत को लुभाने के लिए जरूरी संकेत देते और उसे अमेरिकियों के बेहद करीब जाने से रोकते। अगर वास्तव में चीनी उतने ही चतुर और दूरदर्शी हैं, जैसा उन्हें माना जाता है तो यही चतुराई भरी नीति होती क्योंकि इससे भारत अमेरिका और चीन के साथ अपने रिश्तों में संतुलन रखने के लिए मजबूर होता। चीनियों ने एकदम विपरीत नीति अपनाई है, इसी से पता चलता है उनका नजरिया उनकी छवि के मुताबिक दूरअंदेशी भरा नहीं है बल्कि वे कुएं के मेढक की तरह नजरिये के शिकार हैं। यदि ऐसा है तो भारत को संभवतः चीन की कम चिंता होनी चाहिए। निश्चित रूप से अगर चीनी वास्तव में चतुर हैं तो देर-सवेर उन्हें पाकिस्तान के साथ आने की अपनी मूर्खता का भान हो ही जाएगा और वे रणनीति बदल लेंगे।

60 वर्ष से भी ज्यादा समय से चीन और पाकिस्तान को जोड़ने वाला एक ही तत्व है और वह है भारत के साथ शत्रुता भरे रिश्ते। लेकिन हाल के वर्षों में नई ताकतें उभरी हैं - मसलन भू-अर्थशास्त्र और इस्लामियत - जो इस जुड़ाव को कमजोर कर सकती हैं। पाकिस्तान में इस्लामियत का उभार और जिहादी आतंकवादी संगठनों का प्रसार अंत में चीन जैसे ‘काफिर’ या ‘ईश्वरहीन’ देश के साथ सभ्यतागत संघर्ष को ही जन्म देगा। अंतरराष्ट्रीय जेहादी संगठनों की कहानी पहले ही चीन को चिंतित कर रही है और पाकिस्तान के कुछ आतंकवादी गुट जैसे लश्कर-ए-तैयबा या जमातुद्दावा चीन पर जबानी वार कर चुके हैं। लश्कर के प्रमुख हाफिज सईद ने चीन को मुस्लिम विरोधी और इस्लाम विरोधी कदमों से दूर रहने की चेतावनी दी है।

देर-सवेर चीन को यह फैसला करना ही होगा कि पाकिस्तान का समर्थन करने से होने वाले फायदे पाकिस्तान की खराब छवि और प्रतिष्ठा को झेलने से होने वाले नुकसानों से अधिक हैं या नहीं। चीनियों के लिए खस्ताहाल पाकिस्तान की आत्मघाती नीतियों को प्रभावित किए बगैर उसे धन और हथियार देकर स्थिर बनाने की कोशिश बेवकूफाना होगी। अमेरिकियों ने ऐसी कोशिश की थी, लेकिन नाकाम रहे और अब शायद चीन की बारी है। पाकिस्तानी चीन के साथ अपने रिश्ते को भारत के साथ हिसाब बराबर करने जैसा मानता है। दोनों ‘मजबूत भाइयों’ की कथित ‘समुद्र से भी गहरी, हिमालय से भी ऊंची, इस्पात से भी मजबूत और शहद से भी मीठी’ दोस्ती का असली इम्तिहान तब होगा, जब भारत और चीन के बीच नरमी आएगी या दोस्ती होगी। जहां तक पाकिस्तानियों की बात है तो भारत के प्रति पाकिस्तान की घृणा इस्लाम के प्रति उसके प्यार पर भारी पड़ती है, इसलिए चीन जब तक भारत के प्रति वैर भाव दिखाएगा तब तक वह इस्लाम के खिलाफ कुछ भी कर सकता है। लेकिन यदि चीन भारत के साथ दोस्ताना रवैया दिखाता है तो पाकिस्तान के साथ उसकी दोस्ती खटाई में पड़ जाएगी।

भारत के प्रति चीन की संकीर्ण और अदूरदर्शी रणनीति की तुलना में चीन के प्रति भारत की रणनीति अधिक परिपक्व और दूरदर्शिता भरी रही है। चीन की भूलों के प्रति तिरस्कार भरा नजरिया अपनाना तो दूर रहा, भारत ने चीन के साथ रिश्ते बनाने के लिए अपने दीर्घकालिक नजरिये को भी नहीं छोड़ा है। एक तरह से भारत ने चीन से ही सीखकर रणनीतिक धैर्य दिखाया है, जो पहले कभी उसकी खासियत नहीं थी। भारत के नजरिये से देखें तो चीन के हमेशा ही शत्रु रहने की कोई वजह नहीं है। करीब चौथाई सदी पहले भारत में पुराने ढर्रे के सख्त मिजाज रणनीतिकारों और कूटनीतिज्ञों ने सोचा भी नहीं होगा कि अमेरिका अपने सबसे करीब साथी पाकिस्तान के खिलाफ जाकर भारत की ओर ढलकेगा। जैसे अमेरिका के मामले में तस्वीर बदली है वैसे ही चीन के साथ भी हो सकती है।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 22nd July 2016, Image Source: http://www.thehindubusinessline.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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